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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • ज्ञानी

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    ज्ञानी विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी  के विचार

     

    1. संसार में सुख जब चाहें जैसा चाहे, जितना चाहे नहीं मिल सकता, इस सत्य को जानकर ज्ञानी पुरुष इसकी ओर पीठ दिखाकर चले गये।
    2. ज्ञानी के लिए मृत्यु को आँखों से देखने का सौभाग्य सल्लेखना के समय प्राप्त होता है।
    3. जिससे हमारे दोष धुलें, कटें वे शत्रु कैसे ? ऐसा ज्ञानी सोचता है। वह कहता है तुमसे मेरे कर्म कटे तुमको मुझसे क्या मिला ?
    4. ज्ञानी जीव इस शरीर से आकर्षित नहीं होता वह इस बात को जानता है कि शरीर हमारे सारे सत्कर्म (पुण्य) को जला देता है।
    5. वस्तु स्वरूप ज्ञात होते ही ज्ञानी जीव प्रत्येक क्षण का उपयोग आत्महित में ही करता है।
    6. ज्ञानी की दृष्टि में संसार की धन सम्पदा का कोई मूल्य नहीं रह जाता, क्योंकि उसे आत्म वैभव का परिचय हो जाता है।
    7. यौवन अवस्था में संयम को धारण करने वाले प्रशंसनीय हैं और वही इस लोक में ज्ञानी है।
    8. बैंक का मैनेजर अरबों की सम्पति के बीच में रहता है, लेकिन उसे अपनी सम्पति नहीं मानता। ठीक वैसे ही संसार विषयों के बीच में रहकर भी ज्ञानी उनसे प्रभावित नहीं होता, पर पदार्थ को अपना नहीं मानता।
    9. ज्ञानी लोग मोह रूपी मगरमच्छ के जबाड़ (मुख)में जाना नहीं चाहते, यह उनकी प्रौढ़ साधना मानी जाती है।
    10. ज्ञानी व्यक्ति तत्वचिंतन के माध्यम से संसार के दु:ख को दुःख न समझकर सुख से जीवनयापन करता है।
    11. जब ज्ञानी कर्मों के उदय में तत्वचिंतन करने लगता है, उस समय कर्मोदय गौण हो जाता है, उसके संवेदन से बचा रहता है और नूतन कर्म बंध भी नहीं होता।
    12. ज्ञानी सोचता है एक न एक दिन वृद्धावस्था तो आनी ही है इसलिए ज्ञान और तत्व के साथ वृद्ध होना अच्छा है।
    13. ज्ञानी हंस के समान है, जो विषय रूपी कमल पत्र पर आसक्त नहीं होते। जबकि अज्ञानी भौंरे के समान उसमें आसक्त होकर जीवन खो देते हैं।
    14. चार संज्ञाओं के वशीभूत नहीं होना, तीन अशुभ लेश्याओं में नहीं जाना, इन्द्रियों के विषयों से एवं आर्त, रौद्र ध्यान से बचना तथा ज्ञान का दुरुपयोग नहीं करना सम्यग्ज्ञानी का लक्षण है।
    15. गाड़ी चलाते समय ड्रायवर किसी से बात नहीं करता क्योंकि उसे दुर्घटना से बचना होता है। इसी प्रकार ज्ञानी जीव हमेशा सावधान रहता है, आस्रव रूपी दुर्घटना (द्वार) से बचता है।
    16. आग के सम्पर्क में आते हुये भी हम आग को नहीं खाते, वैसे ही ज्ञानी जीव मोही के सम्पर्क में रहकर भी उनसे प्रभावित नहीं होते।
    17. कर्मों के अनुरूप ही नौ कर्मों का समागम होता है। इसलिए ज्ञानी धैर्यशाली कर्म की ओर दृष्टि रखता है, अच्छे-अच्छे कर्मों में मन लगाता है, फिर उसे उसके अनुरूप अच्छी-अच्छी वस्तुएँ प्राप्त होती जाती हैं।
    18. जो पराई वस्तु को अपनी नहीं मानता वह ज्ञानी माना जाता है।
    19. ज्ञानी वही है, जो मोह के क्षय का प्रयास करता है।
    20. मजबूत श्रद्धान वाला मोह की पर्त को जल्दी हटा देता है, जो हमेशा दोषों के उन्मूलन में लगा हो, वही सच्चा ज्ञानी है।
    21. बुद्धिमान वही है, जो सद्गति के कारणों में लगा रहता है। वे विरले ही होते हैं, जो अपने जन्म को सफल बना लेते हैं।
    22. संसार का मार्ग चौरासी लाख स्टेशनों वाला है, इसमे जीव आते जाते है, इसमे ज्ञानी विस्मय नहीं करता। वह तो आत्महित की ओर बढ़ता चला जाता है, ये सब पूर्व कर्मों का फल है, ऐसा श्रद्धान बनाते हुए इस चक्कर से छूटने का प्रयास करता रहता है।
    23. तत्व ज्ञानी का मन समस्त परिस्थितियों में स्थिर ही बना रहता है।
    24. वस्तु का परिणमन उसके स्वरूप के अनुसार होता है, अपने मन के अनुरूप नहीं। ऐसा विचार कर ज्ञानी जीव कर्ता बुद्धि को छोड़कर ज्ञाता-द्रष्टा स्वभाव की ओर चला जाता है।
    25. ज्ञानी सोचता है वस्तु के परिणमन के बारे में, यह चर्म चक्षुएँ काम नहीं कर सकतीं यह मात्र श्रद्धान का विषय है। क्योंकि वस्तु के सूक्ष्म परिणमन को केवलज्ञानी ही देख एवं जान सकते हैं।
    26. ज्ञानी की दृष्टि में जीवन-मरण, आकांक्षा-भय ये सब समाप्त हो जाते हैं, उनकी दृष्टि तो ध्रुव की ओर ही होती है।
    27. जैसे पुराने वस्त्र छोड़ते समय दु:ख नहीं होता, वैसे ही ज्ञानी को सल्लेखना के समय शरीर छूटने का दु:ख नहीं होता, इसलिए सल्लेखना के बाद मृत्यु महोत्सव मनाया जाता है।
    28. ज्ञानी हमेशा जन्म-मरण में, सुख-दु:ख में साम्यभाव रखते हैं।
    29. औदारिक शरीर से ज्ञानी, आत्मा की साधना करता रहता है, जीने मरने की इच्छा नहीं रखता।
    30. जिसने कषायों का शमन और इन्द्रियों का दमन कर दिया, वह सबसे बड़ा ज्ञाता है, ज्ञानी है।
    31. जिसने पाप को शत्रु समझकर छोड़ दिया और कषायों के शमन में लग गया, वही ज्ञानी माना जाता है।
    32. पर के मंथन से श्रुत नहीं मिलता जैसे नीर के मंथन से नवनीत नहीं मिलता ज्ञानी ऐसा श्रद्धान रखता है।
    33. ज्ञानी के कर्म के संवर को कोई नहीं रोक सकता और अज्ञानी के कर्म आस्रव को भी कोई नहीं रोक सकता क्योंकि ये सब अपने-अपने भावों पर आधारित है।
    34. मेरा मुझसे मेरे द्वारा ही होता रहता है, ज्ञानी ऐसा श्रद्धान रखता है।
    35. ज्ञानी विवेकी वही है, जो कषाय का हमेशा शमन करता रहता है।
    36. श्वान पत्थर पर टूटता है, मारने वाले पर नहीं। यह अज्ञानी की वृत्ति है। जबकि सिंह पत्थर पर नहीं, पत्थर मारने वाले पर टूटता है यह ज्ञानी की वृत्ति है, यह कार्य-कारण का सही ज्ञान है।
    37. जब तक सल्लेखना न हो जाये तब तक अतिविश्वास में नहीं आना चाहिए, हमेशा सावधानी रखना चाहिए। भले ही कोई ज्ञानी क्यों न हो, लेकिन वह आशा रूपी देवी को अपने पास रखता है तो उसे जीवन में कभी भी शांति का अनुभव नहीं हो सकता।

    Edited by संयम स्वर्ण महोत्सव


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