भारत पर्वो, उत्सवों, त्यौहारों का देश है। यों तो जीवन का प्रत्येक दिवस एक पुनीत पर्व की तरह है तथापि किसी घटना विशेष के कारण कुछ दिवस पर्व के रूप में भी मनाए जाते हैं। दशलक्षण पर्व और अष्टाहिक पर्व के समान ही रक्षा-बंधन पर्व का भी महत्व है। रक्षाबंधन अद्भुत पर्व है। बंधन का दिन होने पर भी आज का दिन पर्व माना जा रहा है। सहज ही मन में जिज्ञासा होती है कि पर्व या उत्सव में जो मुक्ति होती है, स्वतन्त्रता होती है, आज का दिन बंधन का दिन होकर भी क्यों इतना पवित्र माना गया है।
बात यह है कि आज का दिन सामान्य बंधन का दिन नहीं है, प्रेम के बंधन का दिन है। यह बंधन वात्सल्य का प्रतीक है। रक्षा-बंधन अर्थात् रक्षा के लिए बंधन, जो आजीवन चलता है बड़े उत्साह के साथ यह बंधन होकर भी मुक्ति में सहायक है क्योंकि यह प्राणी मात्र की रक्षा के लिए संकल्पित करने वाला बंधन है।
सभी जीवों पर संकट आते हैं और सभी अपनी शक्ति अनुसार उनका निवारण करते हैं, पर फिर भी मनुष्य एक ऐसा विवेकशील प्राणी है जो अपने और दूसरों के संकटों को आसानी से दूर करने में समर्थ है। मनुष्य चाहे तो अपनी बुद्धि और शारीरिक सामथ्र्य से अपनी और दूसरों की रक्षा कर सकता है जीव रक्षा उसका कर्तव्य है, उसका धर्म भी है।
आज के दिन की महत्ता इसीलिए भी है कि एक महान् आत्मा ने रक्षा का महान् कार्य सम्पन्न करके संसार के सामने रक्षा का वास्तविक स्वरूप रखा कि जीवों की रक्षा, अहिंसा की रक्षा और धर्म की रक्षा ही श्रेष्ठ है। किन्तु आज वह रक्षा उपेक्षित है। हम चाहते हैं सुरक्षा मात्र अपनी और अपनी भौतिक सम्पदा की। आज यह स्वार्थ-पूर्ण संकीर्णता ही सब अनर्थों की जड़ बन गई है। मैं दूसरों के लिए क्यों चिंता करूं ? मुझे बस मेरे जीवन की चिंता है। ‘मैं और मेरा', आज का सारा व्यवहार यहीं तक सीमित हो गया है।
रक्षकपना लुप्त हो गया है और भक्षकपना बढ़ रहा है। रक्षाबंधन आदि पर्वो के वास्तविक रहस्य को बिना समझे-बूझे प्रतिवर्ष औपचारिकता के लिए इन्हें मनाकर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेते हैं। यह ठीक नहीं है। स्वयं की परवाह न करते हुए अन्य की रक्षा करना, यह है इस पर्व का वास्तविक रहस्य। विष्णुकुमार मुनिराज ने क्या किया ? बंधन को अपनाया, अपने पद को छोड़कर मुनियों की रक्षार्थ गये। क्यों ? वात्सल्य के वशीभूत होकर, धर्म की प्रभावना हेतु, यह है सच्चा रक्षा-बंधन। रक्षा हेतु जहाँ बंधन को अपना लिया गया। लेकिन आज हमारा लक्ष्य ऐसा नहीं रह गया है।
बाहर से मधुर और भीतर से कटु, ऐसा रक्षा-बंधन नहीं होना चाहिए। हमारे द्वारा संपादित कार्य बाहर और भीतर से एक समान होने चाहिए। रक्षा-बंधन को सच्चे अर्थों में मनाना है तो अपने भीतर करुणा को जाग्रत करें। अनुकम्पा, दया और वात्सल्य का अवलम्बन लेकर अषाढ़ और सावन के जल भरे बादलों की तरह करुणा भी जीवनदायिनी होती है। जो बादल मात्र गरजते हैं और बरसते नहीं हैं उनका कोई आदर नहीं करता। हमें भी जल भरे बादल बनना है, रीते बादल नहीं। आज इस पर्व के दिन हम में जो करुणा भाव है वह तन-मन-धन सभी प्रकार से अभिव्यक्त हो। इतना ही नहीं सदैव वह हमारा स्वभाव बन जाए, ऐसा प्रयास करना चाहिए।
‘मैत्री भाव जगत् में मेरा सब जीवों से नित्य रहे'- प्रतिदिन यह पाठ उच्चारित करते हैं पर इस मेरी भावना को व्यवहार में नहीं लाते। व्यवहार में लाने वाले महान् बन जाते हैं। गाँधीजी की महानता का यही कारण रहा कि वे करुणावान थे। एक बार की घटना है-गाँधी जी सर्दी में अपने कमरे में रजाई ओढे अंगीठी ताप रहे थे। थोड़ी रात होने पर उन्हें कहीं से बच्चों के रोने की आवाज सुनाई पड़ी। बाहर आने पर उन्होंने कुत्तों के बच्चों को सर्दी के मारे रोते देखा। तब उनका हृदय भी रो पड़ा। वे उन बच्चों को उठाकर अपने कमरे में ले आये और उन्हें रजाई ओढ़ा दी। यह थी गाँधीजी की करुणा।
सभी के प्रति मैत्री भाव हो इसका नाम है रक्षा-बंधन। रक्षा-बंधन पर्व सिर्फ एक दिन के लिए ही नहीं है, हमारे वात्सल्य, करुणा और रक्षा के भाव जीवन भर बने रहें, इन शुभ संकल्पों को दोहराने का यह स्मृति दिवस है, अत: इस पुनीत पर्व पर हमारा कर्तव्य है कि हम आत्मस्वरूप का विचार करते हुए जीव मात्र के प्रति करुणा और मैत्री भाव धारण करें, तभी यह पर्व मनाना सार्थक होगा।