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  • प्रवचन पंचामृत 4 - ज्ञान कल्याणक (आत्म-दर्शन का सोपान)

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    तज्जयति परं ज्योतिः समं समस्तैरनन्तपर्यायैः ।

    दर्पणातला इव सकलाप्रतिफलति पदार्थमालिका यत्र॥१॥

    कल वृषभनाथ मुनिराज ने जो छोड़ने योग्य पदार्थ थे उन्हें छोड़ दिया और जो साधना के माध्यम से छूटने वाले हैं उनको हटाने के लिए साधना में रत हुए हैं। जो ग्रंथियाँ शेष रह गयी हैं, जो अंदर की निधि को बाहर प्रकट नहीं होने दे रही हैं, उन ग्रन्थियों को तप के द्वारा हटाने में लगे हैं। आप लोग अपनी महत्वपूर्ण मणियों को तिजोरी में बन्द करके रखते हैं जिस कारण बाहर से देखने पर ज्ञान नहीं हो पाता कि इसमें बहुमूल्य रत्न रखे हैं। ऐसे ही आत्मा के ऊपर आवरण पड़ा हुआ है जिससे वह अपने वास्तविक स्वरूप में प्रकट नहीं हो पाती। इतना ही नहीं, आपकी उस मणि को तिजोरी में रखने के कई स्थान होते हैं। दरवाजा यदि खुल भी जाये तो भी मणियां चोर के हाथ में न आ पायें इसलिए उसे एक छोटी-सी डिबिया में बंद करके मखमल लगाकर कागज में लपेटकर रखा जाता है। तिजोरी में भी एक के बाद एक कई खंड होते हैं। छोटी-छोटी अलमारियाँ होती हैं जिनके अलग दरवाजे खुलते हैं। जब तक तिजोरी के दरवाजे, अलमारी, डिबिया और कागज की पुड़िया नहीं खुलेगी तब तक मणियों को हाथ में लेकर उसकी प्रतीति नहीं हो सकती अर्थात् आवरण कोई भी हो, जब तक आवरण रहेगा तब तक वस्तु का ठीक-ठीक अनुभवन नहीं कर सकते हैं। वृषभनाथ मुनिराज ने जो बाह्य ग्रन्थियाँ थी वे तो खोल दी हैं परन्तु इसके उपरांत भी ऐसी अांतरिक ग्रन्थियाँ शेष हैं जिनको हटाने के लिये साधना की जरूरत है। आज वे उसी साधना में लीन हुए हैं।


    आप लोग थोड़े समय स्वाध्याय करके ही अपने आपको आत्मानुभवी मानने लगते हैं, पर सोचो अस्सी वर्ष की आयु में आप क्या ऐसा और इतना अनुभव कर सके होंगे जो तपस्या में लीन मुनिराज वृषभनाथ प्रतिक्षण कर रहे हैं। उनका यह तप हजार वर्ष तक चलेगा और हजार वर्ष वे यों ही व्यर्थ में व्यतीत नहीं करते बल्कि बारह प्रकार के तपों को अंगीकार करके महाव्रतों के साथ व्यतीत करते हैं। गहरे आत्मज्ञान में डूबकर वे धीरे-धीरे ज्ञान-ज्योति के ऊपर से आवरण हटाने में लगे हुए हैं। यह कार्य इतना आसान नहीं है जितना आप लोग समझ रहे हैं। जब कुल्हाड़े से पेड़ की डाल पर प्रहार किया जाता है तो पहली बार में तो मात्र छिलका ही हटता है। उसके मध्य में रहने वाले घनीभूत पदार्थ पर बार-बार और तेजी से प्रहार करने पर ही पेड़ से लकड़ी टूट पाती है। प्रहार करने वाले के हाथ झनझना जाते हैं। बड़ी मेहनत पड़ती है। इसी प्रकार आत्मा के भीतर जो अनादिकालीन कषाय। घनीभूत होकर बैठ गयी है उसे निकालने के लिये वीतरागता रूपी पैनी छेनी चाहिए। सूक्ष्म ग्रन्थियाँ खोलना उतना ही कठिन कार्य है जितना कि बाल/केश में पड़ी गांठ को खोलना। रस्सी के अंदर यदि गांठ पड़ जाये तो आप जल्दी खोल सकते हैं, धागे में पड़ी गांठ खोलना उससे भी कठिन है लेकिन बाल में पड़ी गांठ को खोलना तो और भी कठिन है। ऐसी ही सूक्ष्म ग्रन्थियों को खोलने में इन्हें हजार वर्ष लग गये किन्तु वे ग्रन्थियाँ अभी पूरी नहीं खुलीं। यह भी ध्यान रहे कि इनकी ग्रन्थियाँ खुलने पर पुन: वापिस पड़ती नहीं हैं क्योंकि बाल की ग्रन्थि सुलझाना जितना कठिन है वैसे ही बालों में ग्रंथि पड़ना भी।


    बहती रहती कषाय नाली शांति सुधा भी झरती है,

    भव की पीड़ा वहीं प्यार कर मुक्ति रमा मन हरती है।

    सकल लोक भी आलोकित है शुचिमय चिन्मय लीला है,

    अद्भुत से अद्भुततम महिमा आतम की जयशीला है।॥१॥

    आत्मा की यह लीला, आत्मा का स्वभाव अद्भुत से अद्भुत है। वह लीला, वह स्वभाव आत्मा के अंदर ही घट रहा है। उसी में कषाय की नाली भी बह रही है और वहीं शांति-सुधा का झरना भी झर रहा है। भव-भव की पीड़ा भी वहीं पर है तो मुक्ति रूपी रमणी का सुख भी वहीं है। संसार भी वहीं है तो मोक्ष भी वहीं है। सारा लोक उसी में आलोकित हो रहा है। इसके उपरांत भी यदि हम कहें कि हमें कुछ नहीं पता, कि यह किसका परिणाम है तो यह हमारी अज्ञानता ही होगी। और इसका कारण भी यह है कि हम अन्दर न झांककर बाहर ही बाहर देखते हैं। हम उनकी शरण में भी आज तक नहीं गये जो अपनी आत्मा की खोज में लगे हैं। इसी का परिणाम है कि अन्दर क्या-क्या सुख है, हमें ज्ञात ही नहीं है। अब वृषभनाथ मुनिराज अपने ही भीतर झांक कर हजार वर्ष तक साधना करेंगे। हेय को निकालकर उपादेय को उपलब्ध करेंगे। वे वर्धमान-चारित्र वाले हैं। क्षायिक-सम्यक् दर्शन और मन:पर्यय ज्ञान के साथ जीवन व्यतीत कर रहे हैं। पर ध्यान रहे कि कोई तीर्थकर भले ही हो पर जब तक छद्मस्थ रहेगा, तब तक उसे भी अप्रमत्त से प्रमत्त दशा में आना ही पड़ेगा। आधा मिनट के लिए यदि आत्मा के अन्दर टिकेंगे तो कम से कम एक मिनट के लिए बाहर आना ही पड़ेगा अर्थात् अप्रमत्त दशा का अनुभव यदि एक समय के लिए होता है तो प्रमत्त दशा का उससे दुगुने समय तक होगा। हजार वर्ष तक यही चलेगा। यह तो एक तरह से झूलाझूलना है। झूला ऊपर जाता है तो नीचे भी आता है। ऐसा नहीं है कि ऊपर गया तो ऊपर ही रहे, नीचे न आये। बल्कि होता यह है कि ऊपर तो रहता है कम और नीचे की ओर ज्यादा। इसे ऐसा समझे कि लक्ष्य को छूना कुछ समय के लिए ही हो पाता है फिर, पुनः छूने के लिए शक्ति को बटोरना पड़ता है। संसार का त्याग करने के उपरांत कोई कितना भी चाहे, भले ही अन्तर्मुहूर्त में केवलज्ञान प्राप्त कर ले परन्तु इसी प्रकार हजारों बार उसे ऊपर-नीचे आना होगा। प्रमत-अप्रमत्त दशा में रहना होगा।

    कई लोग कह देते हैं कि भरतजी को कपड़े उतारते-उतारते ही केवलज्ञान हो गया, परन्तु ऐसी बातें कहना सिद्धांत का ज्ञान नहीं होने का प्रतीक है। भरतजी की प्रशंसा मैं भी करता हूँ लेकिन प्रशंसा ऐसी होनी चाहिए जिसमें सिद्धांत से विरोध आये। करणानुयोग के अनुसार तो कोई कितना ही प्रयत्नशील क्यों न हो, उसे दिगम्बरत्व धारण करने के उपरांत केवलज्ञान प्राप्त करने में कम से कम अंतर्मुहूर्त का काल अपेक्षित है और उस अन्तर्मुहूर्त में भी उसे हजारों बार प्रमत-अप्रमत्त दशा में झूलना पड़ेगा। कषायों को निकालने के लिये इतना परिश्रम तो करना ही पड़ेगा।


    आज वृषभनाथ मुनिराज को केवलज्ञान की प्राप्ति हुई है। केवलज्ञान का अर्थ मुक्ति नहीं है। अभी मोक्ष-कल्याणक तो कल होगा। अभी तो Previous हुआ है, Final शेष है। इस केवलज्ञान की प्राप्ति के लिये उन्हें किस प्रकार की प्रक्रिया करनी पड़ी यह भी जान लेना चाहिए। संसार-वर्धक भावों को दूर हटाने की विधि आचार्यों ने बताई है ताकि कोई भी संसारी प्राणी सुगमता से, सरलता से अपने लक्ष्य तक पहुँच सके। दो बातें पहले समझ लें। एक तो योग और दूसरा मोह। योग अर्थात् आत्मा के प्रदेशों का परिस्पंदन और मोह अर्थात् विकृत उपयोग। ज्ञेयभूत पदार्थों से जब उपयोग प्रभावित होता है और ज्ञेयभूत पदार्थ उपयोग पर प्रभाव डालते हैं तब उपयोग में विकृति आती है जिसमें पाप का आस्रव, अशुभ का आस्रव होता है। इसलिए सर्वप्रथम उपयोग को एकाग्र करना परमावश्यक है। वह उपयोग ज्ञेय पदार्थों से प्रभावित न हो ऐसी व्यवस्था करने की आवश्यकता पड़ती है। उपाय करना होता है। उपाय अलग है और उपादेय अलग। उपाय वह है जो उपादेय को प्राप्त करा सके। मुक्ति उपादेय है जो अनंत-काल तक रहने वाली है और विभावपरिणति दुख देने वाली और संसार की कारण होने से हेय है। हेय का अभाव करने के लिये और उपादेय को प्राप्त करने के लिये उपाय की बड़ी आवश्यकता होती है। उपाय यही है कि उपयोग को एकाग्र किया जाये और उपयोग को एकाग्र करने के लिए संयम की आवश्यकता है। बारह प्रकार के तपों की आवश्यकता है। जब संयम और तप के माध्यम से उपयोग एकाग्र हो जाता है, ज्ञेयपदार्थों से प्रभावित नहीं होता तब पाप-प्रकृतियाँ पूर्ण रूप से निकल पाती हैं।


    एक बात ध्यान रखना कि पहले पाप को ही निकालना होगा। पुण्य को शुभ-भाव को आप पहले नहीं निकाल पायेंगे। क्योंकि शुभ-भाव योग को कहा है, वह योग बाद में जायेगा। सर्वप्रथम मोह जो उपयोग को आघात पहुँचा रहा है उसे निकालना होगा। तभी उस मोह के माध्यम से आई हुई पाप-प्रकृतियों का आस्रव रुक सकेगा। उदाहरण के लिये ऐसा समझे कि एक व्यक्ति गंदे वस्त्र को साफ करना चाहता है और वह वस्त्र इतना गंदा हो गया है कि उसकी सफेदी देखने में नहीं आ रही है। उस समय मैल को हटाने के लिए उसे सोड़ा/साबुन जो भी हो उससे साफ करना होगा। अब मैं पूछना चाहता हूँ कि वस्त्र के साफ हो जाने के बाद भी साबुन का अंश उस कपड़े में आ गया, रह गया तो उसे भी निकालना होगा या नहीं? निकालना तो होगा लेकिन पहले साबुन का अंश निकले फिर मैल निकालें- ऐसा हो नहीं सकता। पहले तो साबुन के माध्यम से कपड़े का मैल निकलेगा, जिसे पाप कहें, उसके उपरांत साबुन का अंश निकलेगा। अंत में सफेदी लाने के लिये आप लोग कपडों को टिनोपाल में भी डालते हैं।


    कोई व्यक्ति सोचे कि टिनोपाल में डालने से ही वस्त्र चमकदार हो जाते हैं इसलिए साबुन की जरूरत ही नहीं है तो उसका ऐसा सोचना व्यर्थ ही है। गंदे कपड़े टिनोपाल में कितना भी क्यों न डाले जायें, भले ही पूरी डिबिया समाप्त कर दें पर गंदापन नहीं जायेगा। गंदापन निकालने के लिये पहले साबुन का उपयोग करना होगा। साबुन का भी गंदापन है और कीचड़ का भी गंदापन है पर दोनों में बहुत अंतर है। कीचड़ का गंदापन पाप के समान है जो पहले हटेगा। और जैसे-जैसे पाप को हटायेंगे वैसे-वैसे पुण्य की वृद्धि नियम से होती जायेगी। जैसे-जैसे साबुन मलते जायेंगे वैसे-वैसे मैल का अंश निकलता जायेगा और साबुन का अंश बढ़ता जायेगा। जब तक मैल का अंश नहीं हट जाता तब तक साबुन आप रगड़ते ही जायेंगे, तभी काम बनेगा। जहाँ मात्र योग रहता है वहाँ मात्र पुण्य का आस्रव होता है इसलिए योग का अर्थ है मात्र पुण्य का आस्रव होना, परन्तु मोह के साथ पाप का भी आस्रव होगा। मोह को मैल की तरह पहले निकालना होगा। परन्तु अकेला योग साबुन के अंश की तरह आखिरी समय तक रहेगा और बढ़ता ही जायेगा।


    सोचो जब आप स्नान करते हैं तो पहले साबुन लगाकर मैल हटाते हैं फिर पानी से धोते हैं तब कहीं जाकर तौलिये के माध्यम से उस पानी के अंश को भी सुखा देते हैं। तौलिया मैल निकालने के लिये नहीं है वह तो मैल निकालने के बाद पानी को हटाने के लिये है। मोह अर्थात् कीचड़ या मैल है जिसे निकालने के लिये योग अर्थात् पानी का योग जरूरी है। योग अपना काम करता जाता है, पुण्य आता जाता है और मोह के माध्यम से आने वाला कीचड/पाप समाप्त होता जाता है। जब अकेला योग रह जायेगा अर्थात् जब बदन पर मात्र पानी की बूंदें रह जायेंगी तब आप योग-निग्रह कर लेते हैं अर्थात् तौलिये के माध्यम से शरीर को सुखा लेते हैं। तो वही प्रक्रिया है कि पहले पाप का अभाव होता है और बाद में पुण्य का भी अभाव हो जाता है। जो लोग पहले पुण्य को छोड़ने के लिये कहते हैं उनसे मैं पूछना चाहूँगा कि भाईयों! जब आपके पास पुण्य है ही नहीं तो छोडेंगे क्या? पास में जो पाप है उसे ही पहले छोड़ने की बात आचार्यों ने कही है।


    पापों का त्याग करके संयम के माध्यम से पुण्य का अर्जन होता चला जाता है और जितनाजितना संयम बढ़ता है उतना-उतना पुण्य भी बढ़ता जाता है। जितना आप लोग जीवन में दान, पूजादि करके पुण्यार्जन करते हैं उतना और उससे भी ज्यादा पुण्य का अर्जन एक मुनिराज आहार लेते हुए भी कर लेते हैं क्योंकि उनके द्वारा कर्मों की निर्जरा के हेतु अपनाया गया संयम असंख्यात गुणी निर्जरा में सहायक होता है। वे न चाहते हुए भी अधिक पुण्य का अर्जन कर लेते हैं और श्रावक चाहते हुए भी उतने पुण्य का अर्जन नहीं कर पाता। सबसे ज्यादा पुण्य का अर्जन करने वाला यदि कोई व्यक्ति है तो वह है संयमी। संयमी में भी यों कहिये यथाख्यात चारित्र को अपनाने वाला और उसमें भी केवली भगवान् के तो अकेला पुण्य का, साता का अर्जन होता है, जो पुण्य को नहीं चाहते हुए भी विशिष्ट पुण्य का अर्जन करते हैं। परंतु विशेषता संयमी की यही है कि उसने पुण्य के फल को ठुकराया है। ध्यान रखना, पुण्य के बंध को कोई ठुकरा नहीं सकता। पुण्य के फल को अवश्य ठुकराया जा सकता है। आप लोग पुण्य के फल को तो अपने पास रखना चाहते हैं, रख लेते हैं लेकिन पुण्य को हेय कहकर उसे छोड़ने की बात करते रहते हैं।


    दौलतरामजी छहढाला में कहते हैं कि पुण्य पाप फल माही हरख बिलखो मत भाई! वे पुण्य-पाप के बंध की बात नहीं कहते बल्कि पुण्य और पाप के फल की बात कर रहे हैं कि पुण्य और पाप के शुभ-अशुभ फल में हर्ष-विषाद मत करो। पुण्य के फल को भोगने में ही संसारी प्राणी स्वाद का अनुभव करता है और लुब्ध हो जाता है। पुण्य का अर्जन करने वाला संयमी व्यक्ति अपनी आत्मा को नहीं भूलता जबकि पुण्य के फल को भोगने वाला असंयमी व्यक्ति स्वयं को भूल जाता है और पुण्य के फल में रच-पच जाता है। पुण्य का बंध करने वाला जीव आत्मा को भूल जाता है, यदि कोई ऐसा कहता है तो यह उसकी नासमझी ही होगी क्योंकि अरहंत/सर्वज्ञ भगवान् को सबसे अधिक पुण्य का आस्रव होता है लेकिन वे आत्मस्थ रहते हैं। पंचेन्द्रिय विषय रूप पुण्य के फल को भगवान् ने स्वयं ठुकराया और पाप के फल में उन्होंने विषाद नहीं किया। पुण्य के बंध को रोकने में वे भी अभी असमर्थ हैं। आज तक जो भी पाप आ रहा था उसे निकालने के लिए बारह तपों को वृषभनाथ ने अपनाया। पुण्य को हटाने के लिये कल प्रयास होगा तभी मोक्ष की प्राप्ति होगी। इसलिए बंधुओ! सर्वप्रथम पापरूप क्रिया को रोका जाता है और जैसे-जैसे उपयोग अशुभ से हटकर आत्मा में एकाग्र होने लगता है वैसे-वैसे पाप आना बंद हो जाता है, पाप की सत्ता भी नष्ट होती जाती है और अन्तर्मुहूर्त में कैवल्य की उपलब्धि हो जाती है। कैवल्य की उपलब्धि सहज नहीं है, वह ज्ञान की उपयोग की समीचीनता प्राप्त होने पर ही सम्भव है। विचार करो, ज्ञान आपके पास है तो ज्ञान भगवान् के पास भी है। परन्तु जहाँ आपका ज्ञान पूजनीय नहीं है, वहीं भगवान् का ज्ञान पूजनीय क्यों है? अथवा दोनों के ही ज्ञानों में पूज्यता क्यों नहीं है? इस पर विचार करने से ज्ञात होता है कि प्रभु का ज्ञान ही पूज्य है। हमारा ज्ञान कषाय से अनुरंजित है और वे कषाय से रहित हैं। वैसे आत्मा में अनन्त गुण विद्यमान हैं किन्तु उन गुणों में से एक गुण ही ऐसा है जिसके कारण उसे परेशानी हो रही है। वह गुण ज्ञानगुण है। इस चेतन गुण में ही ऐसी शक्ति है जो स्व और पर को जान लेता है, वस्तु को देखकर राग-द्वेष-कषाय से प्रभावित हो जाता है। हमारा-छद्मस्थों का ज्ञान अपूर्ण है, वहीं सर्वज्ञ भगवान् का ज्ञान पूर्ण है, वे कषाय तथा राग-द्वेष से भी रहित हैं। यही हमारे एवं उनके ज्ञान की अपूज्यता-पूज्यता के लिये कारणभूत है।


    कई सज्जन कहते हैं कि पाप के समान पुण्य भी हेय है। मैं उनसे पूछना चाहता हूँकि पुण्य का अभाव कहाँ पर होता है? पाप कहाँ पर बाधक है? पुण्य का बंध मोक्षमार्ग में बाधक नहीं बनता किन्तु मोक्ष में बाधक है। पुण्य का बंध होता रहता है और मोक्षमार्ग अबाध रूप से चलता रहता है। मोक्षमार्ग तो चौदहवें गुणस्थान तक चलता है और तेरहवें गुणस्थान तक पुण्य का बंध होता रहता है, वह बाधक नहीं बनता। अगर पुण्य बाधक होता तो वहाँ पर पहुँचता ही कैसे? इसलिए अभी पुण्य बंध अपने लिए छोड़ने योग्य नहीं है लेकिन पुण्य का फल अवश्य छोड़ने योग्य है। मैंने अभी शुभ और अशुभ भावों की बात कही थी कि अशुभ-भाव से पाप का बंध होता है और शुभ भाव से पुण्य का बंध होता है। केवलज्ञान होने के उपरांत भी साता वेदनीय रूप गुण का आस्रव होता रहता है, उससे केवलज्ञान में कोई बाधा नहीं आती। इसे 'सर्वार्थसिद्धि' में ‘पूज्यपाद स्वामी' ने स्पष्ट करते हुए लिखा है कि पुनाति आत्मानं पवित्री करोति इति पुण्यं- जो आत्मा को पावन बनाये वह पुण्य है। केवलज्ञान की प्राप्ति के लिए 'केवल-पुण्य' की ही आवश्यकता है, पाप मिश्रित पुण्य की नहीं। जिसमें पाप का एक अंश भी नहीं है ऐसे केवल-पुण्य के द्वारा कैवल्य की प्राप्ति होती है और ऐसे पुण्य का आस्रव मात्र योग के माध्यम से होता है। योग भी भाव है और यह भाव किसी कर्म-कृत नहीं है किन्तु आत्मा का परिणामिक भाव है। इस बात का उल्लेख वीरसेन स्वामी ने धवला-ग्रन्थ में स्पष्ट रूप से किया है।


    योग आत्मा की क्रियावती शक्ति है जिसके माध्यम से आत्मा में परिस्पंदन होता है जिसके फलस्वरूप कर्मवर्गणायें आती हैं और चली जाती हैं। यदि वहीं पर मोह हो तो वे चिपक जाती है लेकिन मोह के अभाव में मात्र योग होने से वे टकराकर वापिस चली जाती हैं। योग जब तक हैं तब तक कर्मों का आना रुकता नहीं है। इसलिए सर्वप्रथम पाप रूपी रेणु न आये इसका प्रयास किया जाना चाहिए। यदि अपनी आत्मा को शुद्ध बनाना चाहते हो तो यही क्रम अपनाना होगा। आत्म लक्ष्य हो जाने पर हेय क्या है? उपादेय क्या है? यह सहज ही समझ में आ जायेगा। अन्तर्दूष्टि हो जाने पर हेय का विमोचन होता जायेगा तथा उपादेय ग्रहण/उपलब्ध होता जायेगा।


    क्या हो गया, समझ मैं मुझको न आता।

    क्यों बार-बार मन बाहर दौड़ जाता॥

    स्वाध्याय, ध्यान करके मन रोध पाता।

    हैशवान सामनसदा मला शोध लाता॥१॥

    मन की चाल श्वान जैसी है, वह अन्दर अच्छी जगह टिकना नहीं चाहता। जैसे पालतू कुत्ता आपके घर में रहता है, जब तक आप उसे रस्सी से बाँधकर रखते हैं तब तक यह घर में रहता है। थोड़ा रस्सी छोड़ दो तो बाहर निकल जाता है और बाहर उसकी दृष्टि पहले मल की ओर ही जाती है। इसी प्रकार मन बाहर चला जाता है तो वह कषायों को, पाप को ही साथ लेकर आता है। इसलिए यदि पाप से बचना चाहते हो, उसे दूर हटाना चाहते हो तो मन को बाहर ही मत भेजो। मन को अपने भीतर ही एकाग्र करने की कोशिश करो। यह कार्य कठिन है लेकिन जैसे गर्म खीर को खाने के लिये पहले किनारे से फ्रैंक-फूंककर खाना शुरू कर देते हैं, बीच में हाथ नहीं डालते इसी प्रकार मन को एकाग्र करने के लिये अपना प्रत्येक समय सावधानीपूर्वक धीरे-धीरे अपनी आत्मा को ही देखने में लगाना चाहिए।


    एक बात और सुनने में आती है कि संसारी जीव के केवलज्ञान आत्मा में विद्यमान है और पूर्ण रूप से तो नहीं-मात्र किरण के रूप में सामने आता है अर्थात् हमारा जो ज्ञान है वह भी केवलज्ञान का ही अंश है। लेकिन ऐसा नहीं है क्योंकि ध्यान रखना, केवलज्ञान तो क्षायिक ज्ञान है और उस केवलज्ञान का अंश भी क्षायिक ही होगा, वह क्षायोपशमिक हो नहीं सकता जबकि हमारा ज्ञान अभी क्षायोपशमिक है। साथ ही केवलज्ञानावरण ये कर्म प्रकृति सर्वघाती प्रकृति है। सर्वघाती उसे कहते हैं जो आत्मा के विवक्षित गुण का एक अंश भी प्रकट नहीं होने देती। केवलज्ञान जब भी होगा वह पूर्ण ही होगा। एक समय के उपरांत होने वाला केवलज्ञान एक समय पूर्व भी नहीं हो सकता, एक अंश में भी उदय में नहीं आ सकता। क्योंकि केवलज्ञान की पूर्ण शक्ति को मिटाने वाला केवलज्ञानावरण कर्म विद्यमान है। कार्तिकेय स्वामी ने कार्तिकेयानुप्रेक्षा में कहा है


    का वि अपुव्वा दीसदि, पुग्गलदव्वस्स एरिसी सती।

    केवलणाणसहाओो, विणासिदो जाइ जीवस्स॥ २११॥

    पुद्गल की कोई अमूर्तिक शक्ति ऐसी अवश्य है जिसने केवलज्ञान रूप आत्मा के गुण को समाप्त कर रखा है, जरा भी प्रकट नहीं होने दिया है। इसलिए हमारा जो वर्तमान ज्ञान है वह क्षायोपशमिक ज्ञान है, वह सामान्य कोटि का है। केवलज्ञान की कोटि का नहीं है। बंधुओ! केवलज्ञान तो असाधारण ज्ञान है जिस ज्ञान की महिमा अपरंपार है, वह ज्ञान पूज्य है। ऐसे केवलज्ञान की तुलना अपने क्षयोपशम ज्ञान के साथ करना उचित नहीं है। साथ ही यह करणानुयोग को नहीं समझना ही है। पुरुषार्थसिद्धियुपाय में अमृतचन्द्रसूरी ने लिखा है कि-
     

    तज्जयति परं ज्योति: समं समस्तैरनंत-पर्याये: ।

    दर्पण तल इव सकला प्रतिफलति पदार्थ मालिका यत्र॥

    केवलज्ञान में दुनिया के सारे पदार्थ झलक रहे हैं, सभी पर्यायें झलक रही है। प्रतिबिंबित हो रही है। केवलज्ञान का प्रकाश दर्पण के समान स्वच्छ निर्मल और आदर्श है। इसलिए पूजनीय है। हमारा ज्ञान पूज्य नहीं है क्योंकि वह कषाय से अनुरंजित है।


    बंधुओ! दिव्य आत्मा बनने की शक्ति हमारे पास ही है। हम उसे दिव्य/आदर्श बना सकते हैं। अभी वह मोह के माध्यम से कलुषित हो रही है। इसी मोह को हटाने का पुरुषार्थ करना चाहिए। आदिनाथ स्वामी ने जिस प्रकार क्रमश: संयम और तप के माध्यम से शुद्धात्मानुभूति को प्राप्त किया है उसी प्रकार हमें भी प्रयास करना चाहिए। वे धन्य हैं जिन्होंने केवलज्ञान को प्राप्त कर लिया है, वे भी धन्य हैं जो केवलज्ञान को प्राप्त करने में रत हैं और वे भी धन्य हैं जो केवलज्ञान प्राप्त करने के लिए साधना को अपनाने की रुचि रखते हैं।
     


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