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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • प्रवचन पंचामृत 3 - ज्ञान: आत्मोपलब्धि का सोपान

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    आज मुनिराज वृषभनाथ भगवान् बनने का पुरुषार्थ कर रहे हैं। एक भक्त की तरह भगवान् की भक्ति में लीन होकर आत्मा का अनुभव कर रहे हैं। संसार क्या है ? इसके चिंतन की अब उन्हें आवश्यकता नहीं है किन्तु एक मात्र स्व-समय की प्राप्ति की लगन लगी हुई है। 'समय' का अर्थ यहाँ आत्मा से है। इस आत्मा की प्राप्ति के लिये ही साधना चल रही है।


    'समय' की व्याख्या आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने की है जो हमें उपलब्ध है लेकिन सभी को उसका बोध नहीं हो पा रहा है। इसलिए 'समय' की व्याख्या संक्षेप में यहाँ आज करूंगा। समीचीन रूप से जो अपनी निधि को प्राप्त कर रहा है, जो अपने आपको संभालने में लगा हुआ है तथा बहिर्मुखी दृष्टि को जिसने त्याग दिया है, ऐसी समय की व्याख्या प्रत्येक द्रव्य पर घटित हो जाती है किन्तु यहाँ पर विशेष रूप से मोक्षमार्ग में उपादेयभूत जो समय है वह स्व-समय है। जो अपने गुण, अपनी पर्याय और अपनी सत्ता के साथ एकता धारण करते हुए बहिर्मुखी दृष्टि को हटाकर उत्पाद, व्यय और धौव्य रूप अपनी आत्मा में लीन है उसका नाम 'स्व-समय' है। अपने को सहीसही जानना, अपने में रहना और अपनी सुरक्षा करते रहना यही स्व-समय है। यहाँ पंडाल में कभी-कभी देखता हूँकि स्वयंसेवकों की संख्या जनता से भी अधिक हो जाती है और स्वयंसेवकों से ही अव्यवस्था फैल जाती है। स्वयंसेवक का अर्थ अगर आप गहराई से समझें तो स्वयंसेवक कहो या कि स्व-समय कहो-एक ही बात है। अपने आपकी जो सेवा करता है वही वास्तविक स्वयंसेवक है।


    आचार्य पूज्यपाद स्वामी ने सर्वार्थसिद्धि ग्रन्थ का प्रारम्भ करते हुए भव्य जीव के लिए एक विशेषण दिया है- स्व-हितं उपलिप्सु:- जो अपने हित को चाहता है। अपना हित किसमें है- यह भलीभांति जानता है- वही भव्य है। स्व-पर कल्याण करने की दृष्टि तो अच्छी है परन्तु पर के कल्याण में ही लग जाना और स्व को भूल जाना- वह उचित नहीं है। स्व-हित की इच्छा होना ही वास्तविक धर्मानुराग है, वास्तविक अनुकम्पा है, दया है और वास्तविक जैनत्व भी वही है। अपने ऊपर कषाय रूपी वैभाविक भावों की जो सत्ता चल रही है, जो विकारी भावों का प्रभाव पड़ रहा है उसको मिटाने की जिज्ञासा जिसे हो, वह भव्य है। इसके अलावा जो भी है उन्हें सज्जन भले ही कह दें, परन्तु निकट भव्य नहीं कह सकते।


    भव्य का अर्थ होता है होनहार! 'भवितं योग्य: भव्य:' - जो होने योग्य हो। होनहार के लक्षण अलग ही होते हैं जिन्हें देखकर ही होनहार कहा जाता है। आप लोगों के घर में जब कोई बच्चा पैदा होता है तो आप उसके कुछ विशेष लक्षणों को देखकर उसे होनहार कहते हैं। मान लीजिये दो बच्चे हैं, एक शैतानी करता है तो उसे शैतान कहते हैं और यदि शीत रहता है तो होनहार निकलेगा- ऐसा कहते हैं। जो होने की योग्यता रखता है सैद्धान्तिक भाषा में उसे ही भव्य कहते हैं। होने की योग्यता का अर्थ यही नहीं है कि वह बड़ा होगा। बड़े तो सभी होते हैं। वय के अनुसार बढ़ने का अर्थ होनहार नहीं है। होनहार तो आप उसे मानते हैं जिसमें आपकी इज्जत और घर की संस्कृति, परम्परा की सुरक्षा के लक्षण दिखाई देते हैं। हांलाकि आप पालन-पोषण दोनों बच्चों का समान रूप से करेंगे/करते हैं- यह बात अलग है लेकिन भीतर ही भीतर उस होनहार बालक के प्रति आपके मन में प्रेम अधिक रहता है। गुरु का शिष्य के प्रति प्रेम भी इसी प्रकार हुआ करता है। एक कक्षा में बहुत से विद्यार्थी होते हैं, गुरु सभी को एक सी शिक्षा देते हैं लेकिन जो गुणवान हैं, होनहार हैं उनके प्रति गुरुओं के मन में सहज ही प्रमोद भाव आता है।


    एक और विशेषण आता है कि वह ‘प्रज्ञावान' भी हो। सो ठीक ही है। बुद्धिमान भी होना चाहिए। लेकिन ऐसी बुद्धिमानी किस काम की कि अपना हित भी न कर सके। इसीलिए बुद्धिमान होना कोई बड़ी बात नहीं है। वह तो ज्ञान की परिणति है। कम या ज्यादा सभी के पास होती है लेकिन स्व-कल्याण की मुख्यता होनी चाहिए। भक्तामर स्तोत्र की- 'आलंबनं भवजले पततां जनानाम्-' ये पंक्ति प्रत्येक व्यक्तिके मुख से सुनने को मिल जाती है। इसका अर्थ यही है कि जिन्होंने अपना कल्याण कर लिया उनके नाम का स्मरण/आलम्बन लेने वालों की संख्या बहुत है। जो अपना कल्याण कर लेता है वही पर का कल्याण कर सकता है। मैं पर-कल्याण का निषेध नही कर रहा, लेकिन कहना इतना ही है कि भाई! पर-कल्याण में लग जाना ठीक नहीं है। जब मैं विद्यार्थी था तो परीक्षा भवन में सभी विद्यार्थियों के साथ परीक्षा पेपर हल कर रहा था और समीप बैठा हुआ एक साथी बार-बार कुछ प्रश्नों के उत्तर मुझ से पूछ रहा था। अब परीक्षा भवन में तो ऐसा है कि जो सही उत्तर लिखेगा उसे ही नम्बर मिलेंगे। जो अपने उत्तर न लिखकर मात्र औरों को उत्तर लिखाने में लगा रहेगा वह परीक्षा में पास नहीं हो सकेगा। इसलिए परहित कितना, कब और कैसा होना चाहिए यह भी समझना हमें जरूरी है। मेरे मन में उसे उत्तर लिखकर देने का भाव तो आया लेकिन घड़ी की तरफ देखा तो सिर्फ पन्द्रह मिनट शेष थे, एक प्रश्न का उत्तर लिखना अभी मेरे लिये शेष था, ऐसी स्थिति में अगर ‘पर' की ओर देखता तो 'स्व' के उत्तर भी नहीं लिख पाता। आचार्यों ने कहा है कि स्वहित करो, साथ ही परहित भी करो लेकिन स्वहित पहले अच्छी तरह करो। इसलिए भाव होते हुए भी पहले अपने हित की चिंता मैंने की। यह बात आपको कठोर जान पड़ेगी लेकिन गहराई से विचार करेंगे तो कठोर नहीं लगेगी।


    जैसे माता-पिता कई बार अपने बच्चों के प्रति कठोर हो जाते हैं। जब वह शैतानी करता है, पैसे चुराकर घर से भागकर घूमता रहता है, कुसंगति में पड़कर पैसा बरबाद करता है तो उसे वे डांटते, मारते-पीटते भी हैं और घर से बाहर निकालने की धमकी भी देते हैं, पर उनका मन भीतर से कठोर नहीं होता। यदि बेटा घर छोड़कर जाने की बात करता है तो वही माता-पिता रोने लग जाते हैं, उसे मनाते भी हैं। यही बात हमारे पूर्वाचार्यों ने मोक्षमार्ग में भी ध्यान में रखी है। हित की दृष्टि से कहीं-कहीं कड़ी बात भी की है। मृदुता और कठोरता दोनों एक ही वस्तु के दो पहलू हैं। आप नवनीत की मृदुता से परिचित हैं और जानते हैं कि मृदु से मृदु पदार्थ यदि कोई है तो वह नवनीत है। वह कठोर से कठोर भी है क्योंकि यदि नवनीत को तलवार चाकू से काटो तो भी नहीं काट सकते। जो नहीं कटे वही तो व्यवहार में कठोर माना जाता है। दूसरी बात यह भी है कि यदि नवनीत को जरा सा अग्नि का संयोग मिले तो वह पिघल जाता है। इसी प्रकार आचार्यों की वाणी भी नवनीत के समान है जिसमें कभी कठोरता भले ही आ जाती हो लेकिन हृदय में तो उनके मृदुता ही रहती है।


    जो डॉक्टर शल्य-चिकित्सा करते हैं और जो लोग शल्य-चिकित्सा करवाते हैं, वे जानते हैं कि पहले घाव को साफ करना होता है फिर आवश्यक होने पर काटा भी जाता है तभी मरहमपट्टी होती है। घाव पर सीधे दवाई नहीं लगाते, उसे साफ-सुथरा करते हैं जिसमें पीड़ा भी होती है लेकिन भाव तो घाव ठीक करने का होता है। अर्थात् सभी जगह निग्रह और अनुग्रह दोनों ही हैं। अपराध करने पर अपराधी को दंड भी दिया जाता है लेकिन वह दंड उसे अपराध-भावना से मुक्त करने के लिए है, शुद्धि के लिये है।


    खेल खेलता कौतुक से भी रुचि ले अपने चिंतन में,

    मर जा पर कर निजानुभव कर घड़ी-घड़ी मत रच तन में।

    फलत: पल में परमपूत को द्युतिमय निज को पायेगा,

    देह-नेह तज, सजा निज को, निज के निज घर जायेगा। १॥

    जिस प्रकार आर्थिक लाभ के लिये आप लोग जैसे-तैसे भी मेहनत-मजदूरी करके लेकिन न्याय-नीति पूर्वक धन का अर्जन करते हैं उसी प्रकार आचार्य कहते हैं कि मनुष्य जीवन पाकर आत्मा के बारे में थोड़ा चिंतन तो जरूर करें। भले मेहनत क्यों न करनी पड़े, कष्ट भी क्यों न सहने पड़े, पर आत्मा की प्राप्ति के लिए कदम तो अवश्य बढ़ाओ। कई लोग कह देते हैं महाराज! सामायिक के लिये आसन लगाकर जब बैठते हैं तो घुटनों में दर्द होने लगता है, अब सामायिक कैसे करें ? तो हम यही कहते हैं कि भइया! सांसारिक कार्य करने के लिए दर्द होने पर भी कितना परिश्रम करते हो, उतना/वैसा ही मोक्ष-मार्ग में भी करो। कम से कम अड़तालीस मिनट सामायिक करने के लिए एक आसन पर तो बैठो। जिस प्रकार हलुआ बनाने में भले ही दो-चार घंटे लग जाते हैं, मेहनत भी होती है लेकिन खाने में तो थोड़ा सा समय लगता है और तृप्ति भी मिलती है, इसी प्रकार एक अंतर्मुहूर्त तक एकाग्र चित्त होकर ध्यान करने से अनादिकाल से अप्राप्त आत्मानुभूति सम्भव है। भूमिका होनी चाहिए। और दूसरी बात, उस ध्यान के काल में यदि मरण भी हो जाता है तो डरने की बात नहीं है, मरण तो शरीर का होता है, आत्मा नहीं मरती। आत्मा तो ध्यान करने से तरती है।


    आचार्यों ने कहा कि अपने कल्याण के लिए आत्मानुभूति होना आवश्यक है। शुद्धोपयोग होना आवश्यक है। इतना जरूर है कि जब शुद्धोपयोग से च्युत होकर शुभोपयोग की दशा में आ गये हो तो पर-कल्याण हो सकता है लेकिन साथ ही साथ कर्मबंध भी होगा। भैया! ऐसी कौन सी दुकान है, ऐसा कौन सा व्यापार है जिसमें कोई व्यक्ति स्वयं तो घाटे में रहे और दूसरों को मुनाफा देता रहे। ऐसा कोई भी नहीं करता। सभी अपने हित की चिंता करते हैं। और जिसने अपना हित किया है वही दूसरे का भी हित कर सकता है। जिसने आज तक अपने हित की बात ही नहीं सोची वह दूसरे के कल्याण की कल्पना भी नहीं कर सकता। भिखारी दूसरे को भीख नहीं दे सकता। इसलिए अच्छा तो यही है कि पहले स्वयं का हित करो और दूसरे का अहित मत सोची। सच्चे देव-गुरु-शास्त्र की शरण में जाकर आत्मतत्व को पाने के लिए अपनी ओर कदम बढ़ाओ।


    एक समय की बात है, जंगल में एक व्यक्ति भटक गया। घना जंगल था, जहाँ पर सूर्य की किरणें भी प्रवेश नहीं कर पाती थीं। दिन में और रात में भी अंधकार रहता था। एक-दो दिन यूँ ही बीत गये पर कोई दूसरा व्यक्ति रास्ता बताने वाला नहीं मिला। तीसरे दिन अचानक एक व्यक्ति दूर से आता हुआ दिखाई दिया। भटका हुआ व्यक्ति विचार करने लगा कि चलो अच्छा हुआ, तीसरे दिन कोई तो मिला। भागता हुआ वह दूसरे व्यक्ति के चरणों में आकर गिर गया और कहने लगा कि बहुत अच्छा हुआ जो आप मिल गये। यहाँ से निकलने का कोई रास्ता हो तो मुझे बताओ। मैं तीन दिन से भटक रहा हूँ। दूसरा व्यक्ति कहने लगा -भाई! क्षमा करो, मैं क्या बताऊँ। मुझे भी भटकते हुए पाँच दिन हो गये हैं। मैं भी इसी खोज में था कि कोई साथी मिले तो निर्वाह हो जाये। बस! ऐसी ही स्थिति सभी संसारी प्राणियों की हो रही है। सब भटके हुए लोग एक दूसरे की शरण खोज रहे हैं। भगवान् की शरण में कोई नहीं जा रहा। वे दोनों भटके हुए व्यक्ति एक दूसरे के साथ मजे से रहने लगते हैं। घूमने-फिरने लगते हैं। धीरे-धीरे उनकी संख्या बढ़ने लगती है। शहर बन जाता है। अब उन्हें कोई भटका हुआ नहीं मानता। वे भटक गये थे- यह बात उन्हें स्वयं भी स्मृति में नहीं रहती। जैसे दो पागल मिल जाते हैं तो अपने आप को होशियार मानने लगते हैं और शेष सभी उनकी दृष्टि में पागल नजर आते हैं। चार पागल लोग मिलकर, जो ठीक है उसे भी पागल बना देते हैं। वे उसे समझाते हैं कि व्यर्थ भटकते क्यों हो। हमारे साथ आ जाओ, तुम अकेले हो, क्या तुम्हारा रास्ता ठीक हो सकता है ? हम चार हैं, हम ही ठीक हैं। इस तरह भटकने वालों की संख्या बढ़ती ही जाती है। लेकिन जो समझदार हैं जिन्हें स्व-कल्याण की इच्छा है वे ऐसी किसी शरण में नहीं जाते। वे तो सच्चे देव-गुरु-शास्त्र की शरण को नहीं छोड़ते क्योंकि इन्हीं के माध्यम से हमारी अनादिकालीन भटकन समाप्त हो सकती है।


    बहुमत कहाँ नहीं होता ? नरक में नारकियों का बहुमत है और स्वर्ग में देवों का बहुमत है, पागलों का भी बहुमत होता है। पागलखाने में पागलों की आपस में तुलना की जाती है। कोई कम पागल है और कोई ज्यादा पागल, लेकिन पागल तो सभी हैं। ऐसे बहुमत की सत्य के लिये कोई आवश्यकता नहीं है। सच्चे पथ के लिए दूसरे से तुलना करने की भी कोई आवश्यकता नहीं है। सत्य एक ही बहुत होता है। एक मात्र सच्चे देव-गुरु-शास्त्र की शरण ही पर्याप्त है भले ही बहुमत हो, या न हो। जो स्वहित चाहते हैं वे ऐसे बहुमत/जमघट से प्रभावित नहीं होते। अपने कल्याण में लगे रहते हैं। संसार, शरीर और भोगों से विरक्त होकर जीवन जीते हैं।


    देह का नेह अर्थात् शरीर के प्रति मोह ही सबसे खतरनाक है। हमें इस शरीर का ज्ञान पहले होता है फिर शरीर के माध्यम से ही अन्य पर-पदार्थों का ज्ञान होता है। शरीर के पोषण के लिये ही संसार में सारे आविष्कार हुए हैं। इसलिए आचार्यों ने कहा है कि एक बार जीवन में शरीर पड़ोसी बन जाये, शरीर के प्रति मोह की दीवार टूट जाये तो एक अन्तर्मुहूर्त में आत्मानुभूति संभव है। हमारे लिए इस भौतिक जगत् से हटाकर आत्मानुभूति का उपाय बतलाने वाले आविष्कारक कुन्दकुन्द ही तो हैं। मोह रूपी मदिरा पीकर ही व्यक्ति अनादिकाल से अपने स्वरूप को जान नहीं पा रहा है। इन्द्रिय-ज्ञान के माध्यम से इसे जाना भी नहीं जा सकता।


    इन्द्रियों का ज्ञान नियत और सीमित है, काल भी सीमित है। घड़ी को देखकर आपको घड़ी का व्यवहार ज्ञान हुआ, यदि यह घड़ी दूर रखी हो तो आप देख नहीं सकते। ऐसे ही यदि उस घड़ी को आँखों से चिपका लेंगे तो भी दिखाई नहीं देगा। इससे सिद्ध होता है कि इन्द्रिय-ज्ञान सीमित है। इस इन्द्रिय-ज्ञान पर अभिमान नहीं करना चाहिए। ज्ञेय पदार्थों को जानने की क्षमता इन्द्रिय-ज्ञान के पास सीमित है, मर्यादित है। ये चर्म-चक्षु ऐसे हैं कि अपने आपको ही नहीं देख सकते। आपकी आँख में कुछ चीज गिर जाये तो किसी दूसरे से निकलवाना पड़ता है। अपनी ही एक आँख के माध्यम से दूसरी आँख में गिरी हुई मिट्टी आदि नहीं दिखती। आप दुनियाँ को तो इन आँखों से देख सकते हैं लेकिन स्वयं को नहीं देख पाते। स्वयं को देखने के लिये दो आँखें बेकार हैं। ठीक भी है, जो आँखें स्वयं को नहीं देख पाती, वे किस काम की। इसलिए आचार्यों ने कहा है कि दया में निष्ठा लाओ, अहिंसा का पालन करो और इन्द्रियों का दमन करो। इन्द्रिय-ज्ञान को समाप्त कर दो अर्थात् बहिर्दूष्टि को समाप्त करके अंदर की ओर देखो।


    दया–दम-त्यागसमाधिनिष्ठ, नय–प्रमाणप्रकृताञ्जसार्थम्।

    अघृष्यमन्यैरखिलैः प्रवादैः, जिन त्वदीयं मतमद्वितीयम् ॥१॥

    इसी बात को समझाते हुए संवर के प्रकरण में आचार्य उमास्वामी भी कहते हैं- 'स गुप्तिसमिति-धर्मानुप्रेक्षा-परीषहजयचारित्रै:।' संवर को प्राप्त करने के लिये सर्वप्रथम महाव्रतों को अंगीकार करना चाहिए। चारित्र धारण करना चाहिए। चरित्र धारण करने के उपरांत परीषहजय को नहीं भूलना चाहिए। परीषह-जय बारह भावनाओं के चिंतन/मनन द्वारा कर लिया जायेगा। बारह भावना किसलिए हैं, तो कहा कि दशलक्षण-धर्म प्राप्त करने के लिये। दशलक्षण-धर्म किसलिए हैं, हमारी समीचीन प्रवृत्ति हो इसलिए अर्थात् समिति के लिए और समीचीन प्रवृत्ति गुप्ति की ओर ले जाने के लिए है और गुप्ति साक्षात् संवर, निर्जरा और मोक्ष के लिए साधन है। सब एक दूसरे के लिए पूरक बनते चले जाते हैं। इसी प्रकार समाधि के लिये दया और दया के लिये इन्द्रिय-दमन और इन्द्रिय-दमन के लिये त्याग जरूरी है।


    जो व्यक्ति इंद्रियों का दास हो जायेगा, वह हेय-उपादेय को नहीं जान पायेगा। ऐसी स्थिति में बिना हेय-उपादेय के ज्ञान के वह हेय को, दोष को कैसे छोड़ पायेगा ? इसलिए शरीर को पड़ोसी बनाओ, यह कहा गया। शरीर में स्थित इन्द्रियों के माध्यम से ही विषयों का संग्रह होता है और विषयों का संग्रह जहाँ होता है वहीं मूच्छी आती है और कर्म बंध जाते हैं। कर्मबंध होने से ही गति-आगति होती है। संसार में भटकना होता है। पुन: शरीर और इन्द्रियाँ मिलती है। इन इन्द्रिय रूपी खिड़कियों के माध्यम से विषयरूपी हवा आने लगती है। इन्द्रियविषयों के ग्रहण होते रहने से कषाय जागृत हो जाती है। कषायों के माध्यम से पुन: बन्ध हो जाता है और संसारी जीव इस तरह जंजाल में फंसता ही जाता है। बिना इन्द्रिय-दमन के मात्र चर्चा कर लेने से समाधि का द्वार खुल नहीं सकता। एक मक्खी आकर शरीर पर बैठ जाती है तो आप उसे उड़ाने/हटाने की चेष्टा करते हैं या फिर मच्छरदानी का इन्तजाम करते हैं। ऐसे वातानुकूल भवन में बैठकर समाधि की चर्चा भले ही हो जाये लेकिन समाधि नहीं हो सकती।


    समाधि प्राप्त करने के लिए तो वृषभनाथ भगवान् के द्वारा बताये गये मार्ग का अनुसरण करना होगा। समाधि के लिए दया, दम और त्याग को अपनाना होगा। इसके बिना कोई सीधा और छोटा रास्ता नहीं है। यदि इसके बिना समाधि प्राप्त करने के लिए कोई शार्टकट ढूँढ़ने जाओगे तो समाधि के बदले आधि-व्याधियों में ही उलझ जाओगे। समाधि कोई हाथ में लाकर रख देने की चीज नहीं है। वह तो साधना के द्वारा ही मिल सकती है। जितना दया का पालन करेंगे, जितना इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करेंगे, कषायों का त्याग करेंगे उतना ही समाधि के निकट पहुँचते जायेंगे। समाधि के द्वार पर लगे तालों को खोलने के लिये इन्हीं चाबियों की जरूरत है। बंधुओ! पुरुषार्थ करो। आचार्य कुन्दकुन्द देव ने कहा है कि यदि दुख से मुक्ति चाहते हो तो श्रमणता अंगीकार करो। श्रमण हुए बिना आत्मानुभूति नहीं हो सकेगी। प्रवचनसार की चूलिका में आचार्य स्वयं कहते हैं कि आत्मानुभूति के लिये पंचाचारों का होना अनिवार्य है और पंचाचार का सीधा सा अर्थ है कि पाँच पापों को मन, वचन, काय से छोड़ना होगा। महाव्रती ही पंचाचार का पालन करता है। आचार्य पंचाचारों को सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि ‘हे दर्शनाचार, हे ज्ञानाचार, हे चारित्राचार, हे तपाचार और हे वीर्याचार-तुम्हारे बिना स्वात्मानुभूति संभव नहीं है और स्वात्मानुभूति के बिना केवलज्ञान नहीं हो सकता, इसलिए मैं तुम्हें तब तक अपनाता हूँ जब तक मुझे केवलज्ञान नहीं हो जाता, मुक्ति नहीं मिल जाती।” ऐसी स्थिति में पंचाचार को अपनाना अनिवार्य ही है क्योंकि कारण के बिना कार्य को साधा नहीं जा सकता। ये पंचाचार की शरण तभी तक है जब तक कि शुद्धात्मा की प्राप्ति नहीं हो जाती है। उद्देश्य शुद्धात्मा की प्राप्ति का होना चाहिए। जो कोई अभव्य मिथ्यादृष्टि इन्हें धारण करता भी है तो मात्र बाह्य में धारण करता है, इसलिए उसे शुद्धात्मा की प्राप्ति नहीं हो पाती। लेकिन जो सम्यग्दृष्टि होता है वह इन पंचाचारों को बाह्य और अन्तरंग दोनों तरह से धारण करके शुद्धात्मा को प्राप्त कर लेता है। इसी बात को समझाते हुए उपसंहार के रूप में रत्नकरण्डक श्रावकाचार की एक कारिका कहता हूँ


    पापमरातिर्धमो बंधुर्जीवस्य चेति निश्चिन्वन्।

    समयं यदि जानीते श्रेयो ज्ञाता ध्रुवं भवति॥२४॥

    इस जीव का वैरी पाप है और धर्म, बंधु है। ऐसा दृढ़ निश्चय करता हुआ जो अपने आपको आत्मा की जानता है वही अपने कल्याण की जानने वाला है। वही ज्ञानी है। ग्रन्थ तो रत्नकरण्डकश्रावकाचार है लेकिन बात ज्ञानी की है। ध्यान रहे बंधुओ! लक्ष्य तो सभी का आत्मानुभूति ही है। परन्तु पात्रों को ध्यान में रखकर भिन्न-भिन्न शैली में भिन्न-भिन्न अनुयोगों के माध्यम से आचार्यों ने बात कही है ताकि सभी धीरे-धीरे सही रास्ते पर चलकर अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लें।


    संसार शत्रु नहीं है, पाप ही शत्रु है। और पाप जिस आत्मा में उत्पन्न होता है वही आत्मा चाहे तो उस पाप को निकाल भी सकती है। जो पाप का तो आलिंगन करें और धर्म को हेय समझे उसकी प्रज्ञा की कोई कीमत नहीं है। स्वहित करने वालों के लिये पाप से ही लड़ना होगा और धर्म को, रत्नत्रय को, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र को अपनाना होगा। जिसने इस बात को जान लिया, मान लिया और इसके अनुरूप आचरण को अपना लिया, वही ज्ञाता है।


    आज हमारा सौभाग्य है कि समयसार की गूढ़ बातों को समझने के लिये जयसेन स्वामी की तात्पर्यवृत्ति टीका उपलब्ध है। मुझे तो संस्कृत एवं प्राकृत भाषा भी नहीं आती थी लेकिन आचार्य महाराज गुरुवर श्री ज्ञानसागरजी ने मुझे सभी बातों का धीरे-धीरे ज्ञान कराया। वैसे आप लोग तो उनसे बहुत पहले से परिचित रहे। इस अपेक्षा आप हमसे भी सीनियर हैं। हो सकता है आप मेरे से भी ज्यादा ज्ञान रखते हो परन्तु मुझे तो आचार्य महाराज का आशीर्वाद प्राप्त हुआ, उनकी साक्षात् प्रेरणा मिली। शिक्षा, दीक्षा सभी उन्हीं के माध्यम से हुई। इतनी सरल भाषा में अध्यात्म की व्याख्या मैंने कहीं नहीं सुनी, हिंदी में जो आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज ने समयसार की व्याख्या की है, उनका उपकार मेरे ऊपर आचार्य कुन्दकुन्द के ही समान है। आचार्य महाराज के आशीर्वाद से, उन्हीं की साक्षात् प्रेरणा से, आज मैं कुन्दकुन्दाचार्य देव से साक्षात् बात कर पा रहा हूँ। अमृतचन्द्रसूरी की आत्मख्याति जैसे जटिलतम साहित्य को देखने-समझने की क्षमता पा सका हूँ तो जयसेन आचार्य के छिले हुए केले के समान सरलतम व्याख्यान के माध्यम से अध्यात्मरूपी भूख मिटा रहा हूँ और आत्मानुभूति को प्राप्त करने के लिए प्रयासरत रहता हूँ किन्तु बड़े दुख की बात है कि आप लोग अभी तक उसे नहीं चख पाये, भूखे ही बैठे हुए हैं। आत्मानुभूति शब्दों में कहने की वस्तु नहीं है। वह तो मात्र संवेदनीय है। वे मुमुक्षु थे और हमारे लिये मोक्षमार्ग के प्रदर्शन हेतु नेता थे। आज से करीब छह वर्ष पहले उन्होंने समाधि/सल्लेखना पूर्वक अपने पार्थिव शरीर को छोड़ा था। आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी को, अमृतचन्द्राचार्य को और जयसेनाचार्य को स्मृति में लाते हुए आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज को इस काव्य के माध्यम से श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ


    तरणि ज्ञानसागर गुरो, तारो मुझे ऋषीश।

    करुणा-कर करुणा करो, कर से दो आशीष।


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    संसार शत्रु नहीं है, पाप ही शत्रु है। और पाप जिस आत्मा में उत्पन्न होता है वही आत्मा चाहे तो उस पाप को निकाल भी सकती है। जो पाप का तो आलिंगन करें और धर्म को हेय समझे उसकी प्रज्ञा की कोई कीमत नहीं है। स्वहित करने वालों के लिये पाप से ही लड़ना होगा और धर्म को, रत्नत्रय को, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र को अपनाना होगा। जिसने इस बात को जान लिया, मान लिया और इसके अनुरूप आचरण को अपना लिया, वही ज्ञाता है।

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