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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • प्रवचन प्रदीप 4 - व्यामोह की पराकाष्ठा

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    रात हो गयी। वर्षाकालीन मेघ-घटाएँ आसमान में हैं, बीच-बीच में बिजली भी चमक जाती है, मेघ गर्जना के साथ मूसलाधार वर्षा होने लगी, किसने अनुमान किया था, किसने जाना था कि यह आने वाला कल, इस प्रकार खतरनाक सिद्ध हो सकता है। दुर्भाग्य का उदय था, वर्षा की रफ्तार तेज होती जा रही थी, जो नदी बहाव बढ़ने से तटों का उल्लंघन कर गयी वह नदी कहाँ तक बढ़ेगी, पानी कहाँ तक फैलेगा, कहा नहीं जा सकता। चारों ओर सुरक्षा की वार्ता पहुँचा दी गयी, लोग अपनी-अपनी सुरक्षा में लग गये, किन्तु एक परिवार इस पानी की चपेट में आ गया। समाचार मिलने के उपरांत भी वह सचेत नहीं हुआ।


    जो बाँध बांधा था, वह नदी के प्रवाह में टूट गया, बाँध टूटते ही नदी का जल बेकाबू हो गया, बंधा हुआ जल फैलने लगा, मकान डूबने लगे। कुछ लोग जो सूचना मिलते ही घर छोड़कर चले गये थे, वे पार हो गये, जिसने समाचार सुनकर भी अनसुना कर दिया था वह चिंतित हो गया। वह पत्नी से कहता है कि अब हम इस स्थान को छोड़कर कहीं अन्यत्र चलें तो ठीक रहेगा क्योंकि पानी ज्यादा बढ़ रहा है। पत्नी कहती है कि ठीक है, मैं बच्चों को लेकर जाती हूँ, आप भी शीघ्रता करिये ।

    पत्नी बड़े साहस के साथ दोनों बच्चों को साथ लेकर पार हो जाती है और वह व्यक्ति सोचता है कि क्या करूं? क्या-क्या सामान बाँध लें। कहाँ-कहाँ क्या-क्या रखा है वह उसे खोजने में लग जाता है और पानी की मात्रा बढ़ती जाती है। वह सोचता है कि सब सामान छोड़कर भाग जाऊँ तो इसके बिना रहूँगा कैसे ? इसलिए इसे लेकर ही जाऊँगा। वह जान रहा है, देख रहा है कि पानी बढ़ रहा है, औधेरा बढ़ रहा है, वह जानता हुआ भी अंधा बना हुआ है।


    'जान बूझ कर अंध बने हैं आँखन बाँधी पाटी। जिया जग धोखे की है टाटी।' संसारी प्राणी की यही दशा है, काल के गाल में जाकर भी सुरक्षा का प्रबंध करना चाहता है। सच सामने खड़ा है और वह सोचता है कि सामान की सुरक्षा कर लं, धरती खिसक रही है और वह विषय सामग्री के संचय में लगा है, वह व्यक्ति धन सामग्री लेकर जैसे ही आगे बढ़ता है, नदी के प्रवाह में बहने लगता है, जो कुछ सामान साथ में लिये था वह भी बहने लगता था, देखते-देखते नदी के प्रवाह में उसका मरण हो जाता है, लेकिन मरणोपरांत भी उनके हाथ से पोटली नहीं छूटती जिसमें उसने सामान एकत्रित किया था, दूसरे दिन शव के साथ पोटली भी मिलती है, तो लोग दंग रह जाते हैं, यह तीव्र मोह का परिणाम है।


    मोह को जीतना मानवता का एक दिव्य-अनुष्ठान है, इसके सामने महान् योद्धा भी अपना सिर टेक देते हैं। विश्व का कोई भी ऐसा प्राणी नहीं है जो मोह की चपेट में न आया हो, लेकिन इसके रहस्य को जानकर इस मोह की शक्ति को पहचानकर, इस मोह की माया को जानकर, जो व्यक्ति इसके ऊपर प्रहार करता है वही इस संसार रूपी बाढ़ से पार हो जाता है। यह सन् १९५७ की घटना थी, महाराष्ट्र में पूना के पास एक बाँध था, वह ध्वस्त हो गया था, यह आश्चर्यजनक घटना उस समय अखबारों में पढ़ने में आयी थी, पत्नी और बच्चे सुरक्षित निर्दिष्ट स्थान पर पहुँच गये लेकिन मोह के कारण वह व्यक्ति बह गया, मोह का प्रभाव जड़ के ऊपर नहीं, चेतन के ऊपर पड़ता है, जीवन के केन्द्र पर चोट करता है मोह। आदमी मोह की चपेट में आकर छोटी-छोटी बातों से प्रभावित हो जाता है और अपने आपको भूल जाता है।


    प्रत्येक प्राणी जानता है कि मोह हमारा बहुत बड़ा शत्रु है लेकिन मोह से प्रभावित हुए बिना नहीं रह पाता। वह दूसरे को उपदेश दे देता है लेकिन खुद सचेत नहीं होता, यही तो खूबी है मोह की। उस घटना को पढ़कर लगा कि बढ़िया तो वही है कि बाढ़ आने से पूर्व ही वहाँ से दूर चले जायें, क्योंकि जब बाढ़ आयेगी तो प्रवाह इतना तीव्र रहेगा कि इसमें हम बच नहीं सकेंगे। जानते हुए भी वहीं रहे आना, इसे आप क्या कहेंगे? यह मोह से प्रभावित होना है, यह स्वयं की असावधानी भी है, 'जानबूझ कर अंध बने हैं', वाली बात है।

    जो व्यक्ति मोह के बारे में जानते हुए भी, उससे बचने का प्रयास नहीं करता वह संसार सागर में डूबता है। वह व्यक्ति पार हो जाता है जो पार होने का संकल्प और विश्वास अपने अंदर रखता है और निरंतर मोह से बचने के लिए प्रयास करता है। वास्तव में, जिसने जो जोड़ा है उसे वह छोड़ना बहुत कठिन होता है, 'पर' पदार्थों की ओर से आँख मींच लेना आसान नहीं है, जबर्दस्ती कोई आँख मींच लें, ये अलग बात है, आप खेल-खेल में भी आँख मींच सकते हैं, यह भी आसान है लेकिन तब भी काम नहीं बनेगा। पदार्थों से दृष्टि हटाकर आत्मा की ओर ले जाना ही सच्चा पुरुषार्थ है।


    मोह के ऊपर प्रहार करना, उसे जीतना, इसी का नाम है धर्म कहीं भी किसी भी जगह आप चले जायें, धर्म एक है और एक ही रहेगा। जो तैरना जानता है उसे तैरना आवश्यक होता है, जो तैरना नहीं जानता उसे सीखना आवश्यक होता है, तैरना जानते हुए भी, पार करना जानते हुए भी वह व्यक्ति पार नहीं हो पाया। एक पत्नी थी, दो बच्चे थे, मकान था और वह संग्रहित द्रव्य था, यही उसका जीवन था, संसार था, उसने पत्नी को छोड़ दिया, बच्चों को भी छोड़ दिया, पर धन को नहीं छोड़ सका। अकेला होता तो धन की भी कोई जरूरत नहीं थी किन्तु मन में तो परिवार का ख्याल था, इसलिए धन की आवश्यकता हो गई और मोह का जाल बिछता गया, वह स्वयं ही बिछाता गया और ऐसा बिछाता गया कि पैर रखते ही उसमें फंसता चला गया। यह है व्यामोह की पराकाष्ठा, जहाँ अपने जीवन से भी हाथ धोना पड़ा।

     

    इससे बचने के लिए जाग्रति परम आवश्यक है। जाग्रति के अभाव में मोह की चपेट में आ जाने से हमारा आचार-विचार, हमारा दैनिक कार्यक्रम सारा का सारा पराधीन हो जाता है। स्वतंत्रता का एक अंश भी हमारे जीवन में नहीं आ पाता। जैसे मरण से पहले जाग्रति के साथ यदि मरण को पहचानने की कोशिश की जाए तो जन्म मरण से मुक्त हुआ जा सकता है, ऐसे ही मोह को समझने, मोह के परिणामों को पहचानने का प्रयास यदि कोई जागृत होकर करता है तो मोह से बच सकता है।


    एक बार एक सेठ बीमार पड़ा, बीमार पड़ते ही फोन करके डॉक्टर को बुलाया गया। उसने आकर सेठ को देखा और मन में विचार आया कि बड़े सेठ हैं, सम्पत्ति की कोई कमी नहीं, जो पैसा मुझे अन्य लोगों से मिलना है उससे अधिक यहाँ मिल सकता है। विचार आते ही डॉक्टर साहब बोले कि ‘सेठ जी जो रोग आपको हुआ है वह असाध्य रोग है और इलाज भी क्या करें, मेरी समझ में नहीं आता, रोग पर काबू पाना असंभव सा लगता है।” सुन रहे हैं आप, वह डॉक्टर सब कुछ जानता है कि कौन सा रोग है और कितनी मात्रा में बढ़ा है लेकिन भीतर बैठा हुआ मोह यह सब कहलवा रहा है।

    डॉक्टर की बात सुनकर सेठजी के लड़के ने कहा कि डॉक्टर साहब, आप निश्चित रहिए और जो इलाज सम्भव हो वह करिए, आप जितना चाहेंगे आपको मिलेगा। और रुपये का बंडल डॉक्टर को दिखा दिया, पर डॉक्टर का मोह और बढ़ गया, उसने कहा कि भारत में इस प्रकार की दवाई मिलना संभव नहीं है, विदेश से मंगानी पडेगी, उसके लिए अधिक खर्च होगा। सेठ के लड़के ने अबकी बार सौ-सौ का एक बंडल और दिखा दिया। यह सब देखकर डॉक्टर सोचने लगा कि देखें कहाँ तक रुपया बढ़ाता है, संभव है। थोड़ा और कहे तो पचास साठ हजार तक बात पहुँच जाए और डॉक्टर ने ऑपरेशन की सलाह दे दी।


    ऑपरेशन की बात से सभी चिंतित हो गये, सेठ के लड़के ने फौरन एक लाख रुपया डॉक्टर के सामने रख दिया और कहा कि आप ऑपरेशन करिये, पिताजी को किसी तरह बचा लीजिए। अब देखिए, यहाँ क्या होता है, एक लाख का नाम सुनते ही उस डॉक्टर को हार्ट अटैक हो गया। अब सोचिये यह कैसा ज्ञान है जो जीवन के लिए घातक सिद्ध हो गया, जड़ पदार्थ के द्वारा चेतन का विनाश हो गया, यह सब मोह का प्रभाव है- 'मोह महामद पियो अनादि, भूल आपको भरमत वादी' मोहरूपी मदिरा का नशा संसार के प्रत्येक प्राणी को चढ़ा है फिर चाहे वह इंजीनियर हो, चाहे डॉक्टर हो, चाहे और कोई हो।


    जिसने इस मोह के रहस्य को पहचाना है उसने अपने जीवन को उज्वल बनाया है, उससे बढ़ कर महान् व्यक्ति इस संसार में दूसरा नहीं है। दुखों की जड़ है मोह-मैं और मेरेपन का भाव। देखना और जानना आत्मा का स्वभाव है किन्तु मोह के वशीभूत होकर संसारी प्राणी शरीर और पर पदार्थों को भी अपना ही समझता है, आप कुछ भी करते हैं, तो क्या कहते हैं, यही कि, मैं बोल रहा हूँ, मैं बैठ रहा हूँ, मैं सो रहा हूँ। बताइये कौन-सी क्रिया के साथ-साथ अपने आपको पृथक् जानते हुए क्रिया करते हैं। सारी क्रियाएँ मैं ही कर रहा हूँ, सभी को यही अनुभव में आता है। कोई ऐसा व्यक्ति है जो यह कहे कि मैं खिला रहा हूँ, मैं सुला रहा हूँ विरले ही लोग हैं जो शरीर से स्वयं को पृथक् अनुभव करते हैं। जितना-जितना शरीर से पृथक् आत्मा के अस्तित्व का अनुभव बढ़ता जाएगा, उतना-उतना मोह के ऊपर प्रहार होता चला जायेगा। मोह को यदि क्षीण करना चाहते हो तो आत्म-तत्त्व को पृथक् जान लो।


    मरण के उपरान्त सब कुछ यहीं पर रखा रह जायेगा, मात्र आत्मा ही साथ जायेगा। ध्यानपूर्वक इस बात को देखो तो सही कि ऐसा कौन सा गठबंधन है जिससे दो पदार्थों में, शरीर और आत्मा में एकता का अनुभव होता है। शरीर को पड़ोसी समझना बड़ा कठिन काम है। जो सजग होकर वर्तमान का अनुभव करने का प्रयास करते हैं, वे शीघ्र ही समझ जाते हैं कि यह जो कुछ भी जुड़ाव है वह मोह का परिणाम है। शरीर को पृथक् जानकर उसके प्रति मोह ममता घटनी चाहिए और चेतन के प्रति मोह-ममता निरन्तर बढ़ती जानी चाहिए। यही वास्तविक ज्ञान है, वीतराग-विज्ञान है।

     

    आज के भौतिकविज्ञान की किसी भी पोथी में यह नहीं लिखा कि देह का अस्तित्व पृथक् है और आत्मा का अस्तित्व पृथक् है। इस प्रकार का भेद-विज्ञान धर्म ग्रन्थों की देन है, जो बताता है कि किस प्रकार शरीर से पृथक् आत्म-तत्व की अनुभूति करना संभव है, लेकिन आज तो जितना-जितना भौतिकता का ज्ञान बढ़ता जा रहा है, उतना-उतना शरीर के साथ सम्बन्ध और जुड़ता जा रहा है। पहले के लोग मोह को उत्पन्न करने वाले पदार्थों के साथ सम्बन्ध कम रखते थे, लेकिन आज का युग विकास के नाम पर मोह का विकास कर रहा है और आत्म-ज्ञान से वंचित होता जा रहा है।


    दो दोस्त बहुत दिनों के बाद कहीं से आकर मिलते हैं तो चर्चा वार्ता होती है। परस्पर कह देते हैं कि अच्छा-अच्छा मैंने आपको पहचान लिया लेकिन यथार्थ में दोनों ने अपने आपको नहीं पहचाना, मात्र ‘पर' का परिचय बढ़ रहा है। लेन-देन की बातें, आवागमन की बातें और अर्थ के विकास की बातें ये सब मोह की पुष्टि के लिए हैं। अर्थ का विकास मोह का विकास ही है, आज मोह को क्षीण करने के लिए कोई रसायन तैयार नहीं किया जा रहा है, ऐसी स्थिति में शान्ति प्राप्त करना कैसे संभव है? जिस त्याग-तपस्या के रसायन से शरीर और आत्मा को पृथक् किया जाता है उससे यदि आप दूर रहोगे तो शांति नहीं मिलेगी।


    एक व्यक्ति यात्रा के लिए निकला, उसे पहाड़ के ऊपर चढ़ना था, उसने अपने पैरों में अच्छे जूते पहनकर चलना प्रारम्भ कर दिया, एकाध मील चला होगा कि उसे एक थैला पड़ा मिल गया, थोड़ा भारी था पर देखने में अच्छा था, उसने उठा लिया और इस तरह कंधे पर रख लिया कि जैसे थैले में स्वर्ण आदि श्रेष्ठ वस्तुएँ रखी हों, जैसे-जैसे चढ़ता गया, वैसे-वैसे उसे दिक्कत होने लगी, बोझ अधिक है ऐसा सोचकर उसने अपनी जो दूसरी थैली थी उसे रास्ते में ही छोड़ दिया, थोड़ी देर में जूते भी उतार कर अलग कर लिये और आगे बढ़ते-बढ़ते जब बहुत थक गया तो सोचा, थोड़ा विश्राम कर लू और देखें तो थैले में क्या है? ज्यों ही उसने उस थैले को खोला तो उसमें और कुछ नहीं था एक मात्र पाषाण का टुकड़ा था, चटनी वगैरह पीसने का पत्थर था।


    यही दशा प्रत्येक संसारी प्राणी की है, जो वास्तव में अपना है, आत्म-तत्व है उसे छोड़कर बाह्य 'पर" पदार्थों को आप उठाकर आगे बढ़ रहे हैं और व्यर्थ बोझ सह रहे हैं। हम दुनियाँदारी की वस्तुओं को अपने ऊपर लादते चले जायें और चाहें कि मोक्ष मिल जाए, मोक्ष का पथ मिल जाय तो संभव नहीं है। ऐसा कोई पथ नहीं है और कोई उपदेश नहीं है जो आपका भार उतार दे। आप संसार का संग्रह करते जायें और मोक्षमार्ग मिल जाये यह कैसे संभव होगा? मोह को समाप्त करना ही मोक्षमार्ग है।


    मोक्षमार्ग पर चलने के लिए हल्का होना अनिवार्य है, आप यदि तुंबी पर मिट्टी का लेप कर दें तो वह तैरना भूल जायेगी और पानी के अंदर तल में चली जायेगी लेकिन ज्यों ही मिट्टी का लेप हट जाएगा त्यों ही वह पानी के ऊपरी भाग पर आकर तैरने लगेगी। यही स्थिति आत्मा की है। आत्मा संसार के महासमुद्र में डूब रही है और इसका एकमात्र कारण है मोह का बोझ, यदि वह छूट जाये तो हम नियम से ऊपर आ जायेंगे, हमारी यात्रा निबध होगी, यदि आप ऊपर उठना चाहते हो, पीड़ा से छुटकारा पाना चाहते हो तो अपने आप पर स्वयं दया करके मोह को छोड़ने का प्रयास करो।


    जहर दो तरह का होता है- एक मीठा जहर और एक कड़वा जहर। कड़वा जहर हो तो कोई भी पीते ही थूक देगा लेकिन मीठा जहर ऐसा है कि पीते ही चले जाना आनंददायक लगता है। जब जीवन समाप्त होने लगता है तब मालूम पड़ता है कि यह तो जहर था। मोह ऐसा ही मीठा जहर है, जिसे संसारी प्राणी थूकना नहीं चाहता, इसकी मिठास इतनी है कि मृत्यु होने तक यह नहीं छूटता और दूसरे जीवन में भी प्रारम्भ हो जाता है, भव-भव में रुलाने वाले इस मोह के प्रति सचेत हो जाना चाहिए, तभी मुक्ति की ओर जाने का रास्ता प्रारम्भ होगा, तभी अपने आत्मतत्व की प्राप्ति होगी, अपने-पराये को जानकर पराये के प्रति मोह छोड़ना ही हितकर है।


    शरीर अपना नहीं है, अपना तो आत्मतत्व है, यदि यह ज्ञान हो जाये तो भी कार्य आसान हो जायेगा। 'स्व” को जानने की कला के माध्यम से 'पर' के प्रति उदासीनता आना संभव है। एक महिला थी और उसके छह बच्चे थे, उनका आग्रह था कि माँ, हमें मेला दिखाओ, उस महिला ने सोचा कि चलो बच्चों का आग्रह है तो दिखा लाते हैं किन्तु अभी बहुत छोटे हैं इसलिए उन्हें प्रशिक्षण देना आवश्यक है और वह उन्हें प्रशिक्षित कर देती है कि देखो, एक दूसरे का हाथ पकड़े रहना, मेले में भीड़ रहती है कहीं गुम न हो जाना अन्यथा हम नहीं ले जायेंगे।


    सभी ने कह दिया कि आप जैसा कहोगी हम वैसा ही करेंगे, पर हमें मेला दिखा दी, वह महिला सब बच्चों के साथ मेला में जा पहुँची, सबको झूला झुलवाया, खिलौने खरीदे, मिठाई खरीदी, सारा मेला घुमा दिया, बच्चों को बहुत आनंद आया, शाम हो गई तो उसने सोचा अब घर लौटना चाहिए, उसने बच्चों को देखा कि कहीं कोई गुम तो नहीं गया, गिनकर देखा तो छह के स्थान पर पाँच ही थे, दुबारा गिना तो भी पाँच थे। अब वह महिला घबरा गयी। इतना बड़ा मेला और हमारा छोटा सा लड़का, कहाँ खोजें, समझ में नहीं आता, वह रोने लगी, तभी एक सहेली मिल गयी और उसने पूछा कि क्यों बहिन क्या हो गया? तब वह महिला कहती है कि क्या बताऊँ, छह बच्चे लायी थी, पाँच ही बचे है, एक बच्चा भीड़ में खो गया, तब वह सहेली गिनकर देखती है तो सारी बात समझ जाती है और पाँच बच्चों को गिनने के बाद, उस महिला की गोद में सोये हुए बच्चे को थपथपाकर कहती है कि यह रहा छठवाँ लड़का।


    यही स्थिति सभी की है, जो अत्यन्त निकट है, अपना आत्म-तत्व, उसे ही सब भूले हुए हैं। बाह्य भोग सामग्री की ओर दृष्टिपात कर रहे हैं, उसे ही गिन रहे हैं कि हमारे पास इतनी कारें हैं, इतनी सम्पदा है। सुबह से शाम तक जो भी क्रियाएँ हो रही है, यदि हम जान लें कि सारी की सारी शरीर के द्वारा हो रही हैं और मैं केवल करने का भाव कर रहा हूँ, मैं पृथक् हूँ तो पर के प्रति उदासीनता आने में देर नहीं लगेगी। कठपुतली के खेल के समान सारा खेल समझ में आ जायेगा। शरीर के साथ जब तक आत्मा की डोर बँधी है तब तक संसार का खेल चलता रहेगा और जैसे ही यह डोर टूट गयी तो कठपुतली के समान नाचने वाला शरीर एक दिन भी नहीं टिकेगा।


    जो ज्ञानी हैं, मुमुक्षु हैं, आत्मार्थी हैं, वे इस रहस्य को जान लेते हैं। जो आस्तिक्य गुण से सम्पन्न हैं वे इस रहस्य को जान सकते हैं। आत्मा के अस्तित्व पर विश्वास करके ही उस आत्मतत्व को पाया जा सकता है। शरीर को 'पर' मानना, इतना ही पर्याप्त नहीं है, उसके साथसाथ शरीर से मोह भाव को कम करना भी अनिवार्य है, 'पर' वस्तु के प्रति मोह भाव होने के कारण ही हम उसे अपना लेते हैं लेकिन जिस दिन मालूम पड़ जाता है कि यह तो ‘पर' है, तब हँसी आती है कि आज तक हम किसके पीछे पड़े थे।


    बंधुओ! शरीर की गिनती तो कई बार हो चुकी, जो पर पदार्थ हैं उनकी गिनती भी कई बार हो चुकी लेकिन अपनी गिनती अभी करना बाकी है, मैं कौन हूँ? आज के वैज्ञानिक युग में इसकी खोज भी आवश्यक है, सांसारिक क्षेत्र में पदार्थों को जानने के लिए ज्ञान ही मुख्य माना जाता है लेकिन आध्यात्मिक क्षेत्र में साधना और अनुभूति ही मुख्य है, जिसने अपने आप का अनुभव कर लिया वह 'पर' के प्रति निर्मोही बनता चला जाएगा और एक दिन भगवान् राम के समान, भगवान् महावीर के समान मुक्ति को प्राप्त कर लेगा, संपूर्ण मोह के अभाव का नाम है मोक्ष और मोह के अभाव के लिए क्रम-क्रम से उसे कम करते हुए आगे बढ़ने का नाम है मोक्षमार्ग।


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