सुख विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार
- जब तपस्वी स्वाधीन हो जाते हैं, तब वे सुखी हो जाते हैं।
- सुख-दु:ख दोनों अनुकूल नहीं हैं, जैसे शोर-सूतक दोनों धर्म में बाधक हैं, अनुकूल नहीं हैं।
- जो सुख चाहता है वह धर्म का आचरण करता है।
- डॉक्टर घृणास्पद शरीर में पैठा है, पूरा ऑपरेशन करके देख लेता है, फिर भी उसे वैराग्य नहीं होता, क्योंकि उन्हें पैसा ही दिखता है।
- आर्त-रौद्र ध्यान का कारणभूत जो शरीर है, उससे ममत्व हटाने से कष्ट, कष्ट-सा नहीं लगता।
- सभी पदार्थ सत् होते हैं, जीव सत् के साथ चित् रूप होता है, लेकिन सभी जीव आनंद रूप नहीं होते हैं। सिद्ध भगवान् ही सत्चिदानंद रूप होते हैं, अभी हम मात्र सत्चित् रूप है।
- स्वभाव वाले सभी जीव हैं पर आनंद स्वरूप मात्र सिद्ध जीव हैं।
- सत्चित् वैभाविक है और सत्चिदानन्द स्वाभाविक है।