आचार्य श्री ज्ञानसागरजी कभी-कभी भावों की अभिव्यक्ति शब्दों के द्वारा अल्प समय में करना हो तो कठिनाई मालूम पड़ती है। मुनिपरिषन्। मध्ये संनिषण्ण मूर्तमिव मोक्षमार्ग-मवाग्विसर्ग वपुषा निरूपयन्तं निग्रन्थ आचार्य-वर्यम्- मुनियों की सभा में बैठे हुए, वचन बोले बिना ही मात्र अपने शरीर की आकृति से मानो मूर्तिमान मोक्षमार्ग का निरूपण कर रहे हों, ऐसे आचार्य महाराज को किसी भव्य ने प्राप्त किया और पूछा कि भगवन्! कनु खलु आत्मने हितं स्यादिति ? अर्थात् हे भगवन्! आत्मा का हित क्या है। तब आचार्य महाराज ने कहा कि आत्मा का हित मोक्ष है। तब पुन: शिष्य ने पूछ लिया कि मोक्ष का स्वरूप क्या है? उसकी प्राप्ति का उपाय क्या है ?
इस बात का जवाब देने के लिए आचार्य पूज्यपाद स्वामी कहते हैं कि तत्वार्थ सूत्र का प्रारंभ हो जाता है और क्रमश: दस अध्यायों में जवाब मिलता है। ऐसा ही ये ग्रन्थ हमारे जीवन से जुड़ा है, जो निग्रथता का मूल स्रोत है।
क्या कहें और किस प्रकार कहें गुरुओं के बारे में क्योंकि जो भी कहा जायेगा वह सब सूरज को दीपक दिखाने के समान होगा। वह समुद्र इतना विशाल है कि अपनी दोनों भुजाओं को फैलाकर बताने का प्रयास भावाभिव्यक्ति, उसका पार नहीं पा सकती।
एक कवि ने गुरु की महिमा कहने का प्रयास किया और कहा कि जितने भी विश्व में समुद्र हैं उनकी दवात बना लिया जाये, पूरा का पूरा पानी स्याही का रूप धारण कर ले और कल्पवृक्ष की लेखनी बनाकर सारी पृथ्वी को कागज बनाकर सरस्वती स्वयं लिखने बैठ जाये तो भी पृष्ठ कम पड़ जायेंगे, लेखनी और स्याही चुक जायेगी, पर गुरु की गुरुता-गरिमा का पार नहीं पाया जा सकता ।
‘गुरु कुम्हार, शिष्य कुंभ है गढ़-गढ़ काढ़त खोट। भीतर हाथ पसार के, ऊपर मारत चोट।” कुम्हार की भाँति मिट्टी को, जो दल दल बन सकती है, बिखर सकती है, तूफान में धूल बनकर उड़ सकती है, घड़े को सुन्दर आकार देने वाले गुरु होते हैं। जो अपने शिष्य को घड़े के समान भीतर तो करुणा भरा हाथ पसार कर संभाले रहते हैं और ऊपर से निर्मम होकर चोट भी करते हैं।
बाहर से देखने वालों को लगता है कि घडे के ऊपर प्रहार किया जा रहा है लेकिन भीतर झांक कर देखा जाये तो मालूम पड़ेगा कि कुछ और ही बात है। संभाला भी जा रहा है और चोट भी की जा रही है। दृष्टि में ऐसा विवेक, ऐसी जागरूकता और सावधानी है कि चोट, खोट के अलावा, अन्यत्र न पड़ जाये। भीतर हाथ वहीं है जहाँ खोट है और जहाँ चोट पड़ रही है। यह सब गुरु की महिमा है।
किसी कवि ने यह भी कहा है कि 'गुरु गोविन्द दोउ खड़े, काके लागू पांय। बलिहारी गुरु आपकी गोविन्द दियो बताय।' हमें तो लगता है बताना क्या यहाँ तो बनाना शब्द होना चाहिए। गोविन्द दियो बनाय। वैसे बताना भी एक तरह से बनाना ही है। जब गणित की प्रक्रिया सामने आ जाती है तो उत्तर बताना आवश्यक नहीं रह जाता उत्तर स्वयं बन जाता है।
हम उन दिनों न तो उत्तर जानते थे, न प्रक्रिया जानते थे, हम तो नादान थे और उन्होंने (आचार्य ज्ञानसागरजी) हमें क्या-क्या दिया, हम कह नहीं सकते। बस! इतना ही कहना काफी है कि हमारे हाथ उनके प्रति भक्तिभाव से हमेशा जुड़े रहते हैं।
गुरु की महिमा आज तक कोई कह ही नहीं सका। कबीर का दोहा सुना था- ‘यह तन विष की बेलड़ी, गुरु अमृत की खान। शीश दिये यदि गुरु मिलें, तो भी सस्ता जान॥' कैसा अद्भुत भाव भर दिया। कितनी कीमत-आंकी है गुरु की। हम इतनी कीमत चुका पाये तो भी कम है। देने के लिये हमारे पास क्या है? यह तन तो विष की बेल है जिसके बदले अमृत की खान, आत्मा मिल जाती है। यदि यह जीवन गुरु की अमृत-खान में समर्पित हो जाए तो निश्चित है कि जीवन अमृतमय हो जाएगा।
सोचो, समझो, विचार करो, इधर-उधर की बातें छोड़ो, शीश भी यदि चला जाए तो भी समझना कि सस्ता सौदा है। शीश देने से तात्पर्य गुरु के चरणों में अपने शीश को हमेशा के लिए रख देना, शीश झुका देना, समर्पित हो जाना। गुरु का शिष्य के ऊपर उपकार होता है और शिष्य का भी गुरु के ऊपर उपकार होता है, ऐसे परस्पर उपकार की बात आचार्यों ने लिखी है। सो ठीक ही है। गुरु शिष्य से और कुछ नहीं चाहता, इतनी अपेक्षा अवश्य रहती है कि जो दिशाबोध दिया है उस दिशाबोध के अनुसार शिष्य भी भगवान् बन जाए। यही उपकार है शिष्य के द्वारा गुरु के ऊपर। कितनी करुणा है। कितना पवित्र भाव है।
‘मैं’ अर्थात् अहंकार को मिटाने का यदि कोई सीधा उपाय है तो गुरु के चरण-शरण। उनकी विशालता, मधुरता, गहराई और अमूल्य छवि का हम वर्णन भी नहीं कर सकते। गुरु ने हमें ऐसा मंत्र दिया कि यदि नीचे की गहराई और ऊपर की ऊँचाई नापना चाहो तो कभी ऊपर-नीचे मत देखना बल्कि अपने की देखना। तीन लोक की विशालता स्वयं प्रतिबिंबित हो जायेगी।
जो एग्गं जाणदि सो सव्वं जाणदिय अर्थात् जो एक को यानि आत्मा को जान लेता है वह सबको, सारे जगत् को जान लेता है। धन्य हैं ऐसे गुरु, जिन्होंने हम जैसे रागी-द्वेषी, मोही, अज्ञानी और नादान के लिए भगवान बनने का रास्ता प्रशस्त किया। आज कोई भी पिता अपने लड़के के लिए कुछ दे देता है तो बदले में कुछ चाहता भी है लेकिन गुरु की गरिमा देखो कि तीन लोक की निधि दे दी और बदले में किसी चीज की आकांक्षा नहीं है।
जैसे माँ सुबह से लेकर दोपहर तक चूल्हे के सामने बैठी धुआँ सहती रसोई बनाती है और परिवार के सारे लोगों को अच्छे ढंग से खिला देती है और स्वयं के खाने की परवाह नहीं करती। आप जब भी माँ की ओर देखेंगे तब वह कार्य में व्यस्त ही दिखेगी और देखती रहेगी कि कहाँ क्या कमी है? क्या-क्या आवश्यक है? क्या कैसा परोसना है ? जिससे संतुष्टि मिल सके। पर गुरुदेव तो उससे भी चार कदम आगे होते हैं। हमारे भीतर कैसे भाव उठ रहे हैं? कौन-सी अवस्था में, समय में, कौन से देश या क्षेत्र में आपके पैर लड़खड़ा सकते हैं यह पूरी की पूरी जानकारी गुरुदेव को रहती है। और उस सबसे बचाकर वे अपने शिष्य को मोक्षमार्ग पर आगे ले जाते हैं। युगों-युगों से पतित प्राणी के लिए यदि दिशाबोध और सहारा मिलता है तो वह गुरु के माध्यम से ही मिलता है। गुरु का हाथ और साथ जब तक नहीं मिलता तब तक कोई ऊपर नहीं उठ सकता।
जैसे वर्षा होने से कठोर भूमि भी द्रवीभूत हो जाती है उसी प्रकार गुरु की कृपा होते ही भीतरी सारी की सारी कठोरता समाप्त हो जाती है और नम्रता आ जाती है। इतना ही नहीं बल्कि अपने शिष्य के भीतर जो भी कमियाँ हैं उनको भी निकालने में तत्पर रहने वाले गुरुदेव ही हैं। जैसे कांटा निकालते समय दर्द होता है लेकिन कांटा निकल जाने पर दर्द गायब हो जाता है। उसी प्रकार कमियाँ निकालते समय शिष्य को दर्द होता है लेकिन कमियाँ निकल जाने पर शांति मिल जाती है। विषाक्तता बढ़ नहीं पाती। गुरुदेव की कृपा से अनंतकालीन विषाक्तता निकलती चली जाती है। हम स्वस्थ हो जाते हैं। आत्मस्थ हो जाते हैं, यही गुरु की महिमा है।
'मरुभूमि को हरा-भरा बनाने के समान जीवन को भी हरा-भरा बनाने का श्रेय गुरुदेव को है। आज आप लोगों के द्वारा गुरु की महिमा सुनते-सुनते मन भर आया है। कैसे कहूँ ? अथाह सागर की थाह कौन कर सकता है। उनके ऋण को चुकाया नहीं जा सकता। इतना ही है कि हम उनके कदमों पर चलते जाए,उनके सच्चे प्रतिनिधि बनें और उनकी निधि को देख-देख कर उनकी सन्निधि का अहसास करते रहें। यह अपूर्ण जीवन उनकी स्मृति से पूर्ण हो जाये।
धन्य हैं गुरु आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज, धन्य हैं आचार्य शांतिसागरजी महाराज और धन्य हैं पूर्वाचार्य कुन्दकुन्द स्वामी आदि महान् आत्माएँ जिन्होंने स्वयं दिगम्बरत्व को अंगीकार करके अपने जीवन को धन्य बनाया और साथ ही करुणा-पूर्वक धर्मतीर्थ का प्रवर्तन किया। जीवों को जीवन निर्माण में सहारा दिया।
गुरुदेव ने अपनी काया की जर्जर अवस्था में भी हम जैसे नादान को, ना-समझ को, हम ज्यादा पढ़े-लिखे तो थे नहीं, फिर भी मार्ग प्रशस्त किया। गुरु उसी को बोलते हैं जो कठोर को भी नम्र बना दे। लोहा काला होता है लेकिन पारसमणि के संयोग से स्वर्ण बनकर उज्ज्वल हो जाता है। गुरुदेव हमारे हृदय में रहकर हमें हमेशा उज्वल बनाते जायेंगे, यही उनका आशीर्वाद हमारे साथ है।
हम यही प्रार्थना भगवान् से करते हैं, भावना भाते हैं कि- हे भगवान्! उस पवित्र पारसमणि के समान गुरुदेव का सान्निध्य हमारे जीवन को उज्वल बनाये। कल्याणमय बनाये, उसमें निखार लाये। अभी हम मझधार में हैं, हमें पार लगाये। अपने सुख को गौण करके अपने दुख की परवाह न करते हुए दूसरों के दुख को दूर करने में, दूसरों में सुख-शान्ति की प्रस्थापना करने में जिन्होंने अपने जीवन को समर्पित कर दिया ऐसे महान् कर्तव्यनिष्ठ और ज्ञान-निष्ठ व्यक्तित्व के धारी गुरुदेव का योग हमें हमेशा मिलता रहे। हम मन, वचन, तन से उनके चरणों में हमेशा नमन करते रहें। वे परोक्ष भले ही हैं लेकिन जो कुछ भी है यह सब उनका ही आशीर्वाद है।
गुरुदेव! अभी हमारी यात्रा पूरी नहीं हुई। आप स्वयं समय-समय पर आकर हमारा यात्रापथ प्रशस्त करते रहें, अभी स्वयं मोक्ष जाने के लिए जल्दी न करें, हमें भी साथ लेकर जायें- ऐसे भाव मन में आते हैं। विश्वास है कि गुरुदेव हमेशा हमारा मार्गदर्शन करते रहेंगे। उनका जो भाव रहा वह पूरा अपने जीवन में उतारने और उनकी भावना के अनुरूप आगे बढ़ने का प्रयास हम निरन्तर करते रहेंगे।
स्वयं मुक्ति के मार्ग पर चलकर हमें भी मुक्तिमार्गी बनाने वाले महान् गुरुदेव के चरणों में बार-बार नमस्कार करते हैं। इस जीवन में और आगे भी जीवन में उन्हीं जैसी शांत-समाधि, उन्हीं जैसी विशालता, उन्हीं जैसी कृतज्ञता, उन्हीं जैसी सहकारिता हमारे भीतर आये और हम उनके बताये मार्ग का अनुसरण करते हुए धन्यता का अनुभव करते रहें। इसी भावना के साथ
अज्ञानतिमिराधानां, ज्ञानांजनशलाकया।
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः॥