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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. एक बार पपौरा क्षेत्र के ग्रीष्मकाल में आर्यिका दीक्षा सम्बन्धी चर्चा चली। एक मन्दिर में आचार्य श्री बैठे थे। उनके ही समक्ष ब्राह्मी आश्रम में रहने वाली बहिनें बैठी हुई थीं। उसमें मैं नहीं थी। किसी एक मन्दिर में बैठकर संस्कृत सम्बन्धी कुछ पढ़ रही थी। इसी बीच एक बहिन आई, बोली- आचार्य श्री ने कहा- उसको भी बुला लो। मैंने सुना, मैं । आचार्य श्री के पास आयी। नमोऽस्तुकिया। आचार्यश्री बोले- यहाँ आर्यिका दीक्षा की चर्चा चल रही है। तुम्हें लेना है? मैंने कहा- बनना है, लेकिन अभी नहीं। आचार्य श्री बोले- तो क्या आश्रम में मठ बनाकर रहना है ? मैंने कहा- मट बनाकर तो नहीं रहना। दीक्षा लेना है, किन्तु आपसे दूर रहकर नहीं रह पाऊँगी। गुरु से मुझे अधिक अनुराग है। आप दीक्षा देकर तो साथ में रखेंगे नहीं। इसलिये अभी इसी वेश में अच्छा है। आप की आशीषच्छाया में अध्ययन होता रहता है। गुरु से अभी अलग नहीं होना चाहती हूँ। आचार्य श्री बोले- अलग तो कोई नहीं होना चाहता, लेकिन कभी तो होना पड़ेगा। मैंने कहा- अभी 90 प्रतिशत अनुराग गुरु से होने के कारण 10 प्रतिशत दीक्षा का भाव बनता है। इतना सुनकर आचार्य श्री हँसने लगे। कुछ समय बाद नैनागिर में सन् 1987 में मैंने दीक्षा सम्बन्धी भाव बनाये। कुछ बहिनों ने श्रीफल चढ़ाया दीक्षा लेने सम्बन्धी। मैंने भी श्रीफल चढ़ाया। लेकिन कुछ बड़े बाबा के भक्त देवों का रोकने में हाथ हो या मेरे कमीँदय का खेल हो, पता नहीं मेरे गले से आवाज निकलना बन्द हो गयी। दीक्षा के सिर्फ चार दिन ही शेष थे। 10 फरवरी को दीक्षा देने का मुहूर्त था। मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि गले सम्बन्धी यहबात सभी को जाहिर हो चुकी थी। आचार्यश्री के पास यहबात पहुँची कि पुष्पा दीदी के गले से आवाज निकलना बन्द हो गई। आचार्य श्री के पास जब मैं गई, नमोऽस्तु किया। आचार्यश्री बोलेडाक्टरों को दिखवालो गले में क्या है? आचार्य श्री की आज्ञा से डाक्टरों को दिखवाया। एक डाक्टर ने कहागले में थायराइड ग्रन्थि है, इसलिए आवाज बन्द हो गयी है। आचार्यश्री ने सुना तो कहते हैं- एक-दो डाक्टरों को और दिखाओ। उनको क्या समझ में आ रहा है ? आचार्य श्री की आज्ञा थी, एक दो को और दिखाओ। लेकिन एक-दो की अपेक्षा मुझे जितने जहाँ डाक्टर मिलते या जिनका परिचय होता, सभी से परामर्श लिया। सभी ने एकमत से थायराइड ग्रन्थिसम्बन्धी ही बताया। मुनिश्री क्षमासागर जी भी इस विषय के जानकार थे। उन्होंने एक बहिन से कागज की चिड़ियाँ बनवाकर मेरे दोनों हाथों को उल्टा करवाकर ऊपर चिड़ियाँ रखवायी। बोले- अगर यह हाथों में रखीं और अपने आप हिलने लगे तो समझना थायराइड ग्रन्थि सम्बन्धी रोग है। वे दो कागज की चिड़ियाँ हिलने लगी, अब निश्चित हो गया कि गले में ग्रन्थि सम्बन्धी ही रोग है। इससे दीक्षा लेना असंभव हो गया। सागर के एक डाक्टर आचार्य श्री के पास बैठे थे। आचार्य श्री कहते हैं- ये मेरी प्रथम बालिका है, अब दीक्षा नहीं ले पा रही है। और मुझे देखकर बड़े प्रेम-वात्सल्य से भरकर कहते हैं- क्यों तूगला लेकर बैठगई ? मैने गुरु की वात्सल्य भरी आवाज सुनी तो नीचा सिर करके रोने लग गई। साहस संचय करके दबी हुई आवाज में धीरे-धीरे ही कहा- आचार्य श्री दीक्षा लेने पर कर्म का संक्रमण भी हो सकता है। पुण्य का उदय आये और मेरा गला ठीक भी हो सकता है। आचार्यश्री बोले- अगर ऐसा नहीं हुआ तो लोग कहेंगे कि जब ऐसी स्थिति थी तो आपरेशन न कराके दीक्षा क्यों दी ? लोकव्यवहार भी देखना पड़ता है। फिर कहते हैं- तुम अभी अब दीक्षा का विकल्प रहने दो, बाद में ले लेना। अभी जो डाक्टर लोग कहें, उनके अनुसार काम कर लो। एक डाक्टर मेरे पास आये थे, वह कह रहे थे कि थायराइड बिना आपरेशन के नहीं निकलेगा। आपरेशन जरूरी है इसलिये करवा लो। आपरेशन का नाम सुनकर मैं रोने लगी। मैंने कहा- अभी तक अपनी जिंदगी में कभी इंजेक्शन नहीं लगवाया। अब आपरेशन करवाने अस्पताल जाऊँगी, मैं वहाँ का दृश्य देखकर ही घबराने लगूंगी। मैं नहीं करवाऊँगी। भगवान की भक्ति करके ठीक हो जाऊँगी। इतना कहकर आचार्यश्री के सामने ही तेजी से फूट-फूटकर रोने लगी। आचार्य श्री ने देखा, शायद मेरी परीक्षा लेने की दृष्टि से कहादीक्षा रोक ट्रॅक्या? बोले? मैंने कहा- नहीं आचार्य श्री, दीक्षा होने दें। तब बड़े प्रेम-वात्सल्य के साथ कहते हैं- तो, फिर क्यों रो रही है। सभी बहिनों को देखकर कहते हैं, दुःख तो होता ही है। फिर मुझे देखकर कहते हैं- दीक्षा होगी तो तुम भीब मैंने कहा- सभी देखेंगे, वैसे ही दर्शक बनकर मैं देखेंगी। आचार्य श्री कहते हैं- देखो, दीक्षा देख लेना इसके बाद बाम्बे जाकर आपरेशन करवा लेना। फिर एक सूत्र बोलते हैं- देखो, सर्वमिदं पौद्गलिक सारा जगत् पुदगलमय है, इसका विचार करना। क्या कर सकते हैं, कर्म का उदय है ? तेइस दीक्षाएँ नैनागिर में हुई। चार दिन पूरे नहीं हुये कि परिचित एक महिला ने मुझे दु:खी अवस्था में देखकर बोली- दीदी आपने बहुत सारे डाक्टरों को दिखाया, मेरा मन कहता है कि जबलपुर में परसुराम वैद्य बहुत अनुभवी हैं,उनको और दिखा लो, वह जो कहेउसके बाद आपरेशन करवाने का निर्णय लेना। मैंने उसका कहना मान लिया। वह उस वैद्य के पास मुझे ले गई। जैसे ही वैद्य ने मुझे देखा वह कहता है- इनको क्या है? कुछ नहीं है? सर्दी गले में जम गई है। महिला बोली- डाक्टरों ने तो थायराइट ग्रन्थि की बात कही है। वैद्य जी बोले- डाक्टरों ने गुमराह कर दिया। अरे मेरा कहना मानो- हिंगडा की डली दूध में डालकर अँगारे पर रखकर खीर जैसी बना लेना फिर उसे गले में लगा लेना, रातभर में आराम मिल जायेगा। वैद्य की बात मान ली। हुआ यही रात में लगाकर सो गई। चार बजे मैंने पुकाराबाई जी, पास में सो रही रत्तीबाई जी ने आवाज सुनी। मेरे पास आयी, मैं बहुत कुछ बोलती रही, मेरी आवाज आ गई, गला सही हो गया। आपरेशन सम्बन्धी विचार समाप्त हो गया। यही शायद किस्मत में होगा, दीक्षा नहीं लेने का। आचार्य श्री को पता चला तो आचार्य श्री बोले- देखो, तुम्हारी दीक्षा नहीं हुई। अब ऐसा करो, तुम आर्यिकासंघ में रह जाओ। मैंने कहाआर्यिकासंघ में रहकर क्या करूंगी दस प्रतिमा के साथ ? आचार्यश्री बोले- उनके साथ रहना, अपनी साधना करना। अगर जरूरत कभी पड़े तो आहार शोधन करके देना, यह तुम्हारा काम है। रात में श्रावकों को पढ़ाने का कार्य कर देना। बस इतना करना, आर्यिकाओं के बीच रहकर। गुरु आदेश पाकर मैं पूज्या आर्यिका गुरुमति माताजी के संघ में रहने लगी। फिर कुछ दिनों बाद आश्रम में आ गई।
  2. मुक्तागिरि चातुर्मास की बात है। एक स्वाध्यायशील महिला आचार्य श्री के पास आकर पूछती है- आचार्य श्री जी, क्रमबद्धपर्याय क्या है ? हम सभी बहिनें भी इस विषय को समझना चाहते थे। इसलिये सभी वहाँ जिज्ञासा के साथ बैठ गये। आचार्य श्री प्रश्न सुनते ही नासाग्र दृष्टि कर मौन बैठगये। उस महिलाने पुन : कहा- आचार्य श्री, इसे समझाइये ? आचार्य श्री नासाग्र दृष्टि किए हुए ही मुस्कुराने लगे। सभी प्रतीक्षा में थे कि विषय का समाधान मिलेगा। अन्त में आचार्य श्री जी बोले- देखो, मैं मौन था, तब बोलना नहीं हो पा रहा था। जब बोलना हुआ तो मौन नहीं रहा। एक साथ दो पर्याय नहीं होती हैं। एक ही द्रव्य में जो क्रमभावी परिणाम हैं उसका नाम पर्याय है। लेकिन आत्मा वही रहेगा। क्रमबद्ध पर्याय आगम का शब्द नहीं है। क्रमभुवा, क्रमभावी और क्रमवर्ती है। ऐसा सुनकर वह बहुत खुश हुई और कहने लगी, इसलिए आचार्य श्री आप मौन होकर समझा रहे थे। लेकिन हमें समझ में नहीं आ रहा था। मैं विकल्पों में उलझ गई थी। आखिरकार आचार्य श्री जबाव क्यों नहीं दे रहे। अब जब प्रश्न का जबाव मैंने सुना तो बड़ा अच्छा लगा। आज भी वह विषय मेरी स्मृतिपटल पर अंकित है। कि समाधान कितना सटीक व सुन्दरमौन होकर दिया था,गुरु महाराजने।
  3. एक बार की बात है, मणीबाई जी कुछ बहिनों को सागवाड़ा आश्रम ले गई। वहाँ से वे पारसोला में, जहाँ पंचकल्याणक हो रहा था और परम पूज्य आचार्य श्रीधर्मसागर जी महाराज का संघ तथा अन्य साधुओं का संघ विराजमान था, ले गई। उस समय करीब पचहत्तर साधु थे। सभी के दर्शन किये। मणिबाई जी के साथ जैसे ही आचार्य धर्मसागर जी महाराज के दर्शन किये, वह बोले- मणिबाई जी तुम्हारे गुरु मिथ्यात्व को अकिचित्कर क्यों बताते हैं ? ऐसा कहकर वे अनर्थ कर रहे हैं। बताओ तो, वे किस अपेक्षा से बोलते रहते हैं ? बाई जी उस समय थोड़ा मौन सी रहीं। आचार्य श्री धर्मसागर जी ने मेरी तरफ देखा, फिर बोलेब्रह्मचारिणी तुम इसका जबाव दे सकती हो ? कर्मकाण्ड बगैरह पढ़ा है। आचार्य श्री मैंने कर्मकाण्ड का अभी स्वाध्याय किया। अच्छा बताओप्रथमगुणस्थान में कितनी प्रकृतियों का बन्ध होता है? मैंने कहा- सोलह प्रकृतियों का। बोले- कौन-कौन हैं ? मुझे खड़ा करके सोलहप्रकृतियाँ कहने को कहा। मैंने सोलह प्रकृतियों की गाथा मिच्छतहुण्डसडा. वाली गाथा पूर्ण कहकर गिना भी दीं। बोले- देखो। प्रथमगुणस्थान में मिथ्यात्व का बन्ध हो रहा कि नहीं ? फिर बहुत लम्बी चर्चा की। चर्चा से कुछ सार समझ में नहीं आ रहा था। अन्त में बाई जी बोलीं- महाराज यह आचार्यों का विषय है। मुझे इसके बारे में अधिक समझाते-सुनाते नहीं बन रहा है। ऐसा कहकर वहाँ से नमोऽस्तुकरके आ गई। जब हमारे गुरुदेव आचार्य श्री पपौराक्षेत्र में ग्रीष्मकालीन वाचना कर रहे थे, तब उनके पास पहुँचे। मैंने नमोऽस्तु किया। बाई जी भी साथ थी। सभी ने वहाँ की चर्चा सुनाई। मैंने कहा- आचार्य श्री, आचार्य श्री धर्मसागर जी महाराज ने मिथ्यात्व अकिचित्कर के बारे में पूछा था, हम लोगों को इसका सटीक जबाव देना नहीं आया। अब आचार्य श्री आप बताईये। कोई पूछे तो इसका जबाव किस तरीके से देना चाहिये। आचार्य श्री बोले- इसका जबाव संक्षिप्त में ही देना। सामने वाला जल्दी से समझ जायेगा। द्रव्यसंग्रह की गाथा 33 में कहा है पयडिट्टिदिअणुभागप्पदेसभेदा दुचदुविधो बंधो । जोगा पयडिपदेसा,ठिदिअणुभागा कसायदो होंति ॥ देखो, चार प्रकार के बन्ध हैं- प्रकृति, प्रदेश, स्थिति और अनुभाग। जिसमें प्रकृति और प्रदेशबन्ध योग से होते हैं। स्थिति और अनुभागबन्ध कषाय से होते हैं। इसमें मिथ्यात्व कहा है? मेरा सागर में प्रवचन हुआ था। प्रवचन में मैंने इतना ही कहा था, विस्तार से तो कहा नहीं था। अगर कोई पूछे तो इतना कह देना, हो गया समाधान। मुझे उस दिन गुरुमुख से जैसा सुना, हृदय पुलकित हुआ। इस विषय को कहने का आधार मिल गया। मैंने आचार्य श्री से कहा- बस आपने इतना कहा, इस पर इतना विवाद हो गया, चर्चा का विषय बन गया ? आचार्य श्री ने कहा- ऐसा ही है, सामने आकर कोई बात नहीं करता। ऐसा ही चलता रहता है। मैंने उस वक्त यह लाइन सुनाई थी- 'राम और रावण दो जन्ना, उनने उनकी नार हरी, उनने उनको मारना। इतनी सी को बातन्ना, तुलसी लिख गये पोथना।' सुनते ही आचार्य श्री बहुत हँसते रहे। कहते हैं- यही बात है। इस प्रकार हम शिष्यों को संक्षिप्त सटीक जबाव देने की विधि में कुशल बनाया। धन्य है, हमारे गुरु महाराज ! एक बार इसी विषय को लेकर कुण्डलपुर में पुस्तक मिली। मिथ्यात्व अकिचित्कर नहीं है। मैंने उसको पढ़ा। उसमें सम्यक्तत्व की परिभाषा लिखी थी, लेकिन उसमें लिखा था जो इस बात को लिख रहा है वह सम्यग्दृष्टि है। इन शब्दों को पढ़कर मुझे क्रोध सा आ गया कि यह बात मेरे गुरु को लिखी है, क्योंकि वही कहते हैं- मिथ्यात्व अकिचित्कर। उनके लिये ही यह कहा जा रहा है। मेरे मन से उस पुस्तक को पढने की डच्छा ही समाप्त हो गयी। कुण्डलपुर के आदिनाथ जिनालय में आचार्य श्री के सामने तत्वचर्चा चल रही थी। बहुत सुन्दर तरीके से समझा रहे थे। मैंने कहाआचार्य श्री मुझे अकिचित्कर एक जो पुस्तक आर्थिक विशुमती जी ने निकाली है, उस पुस्तक में सम्यक्तत्व की परिभाषा पढ़ी तथा उसमें ऐसा लिखा था कि सम्यक्तत्व की परिभाषा लिखने वाला सम्यग्दृष्टि है, मुझे पढ़कर क्रोध आ गया था। आचार्य श्री बोले- अच्छा, तुम्हें पढ़ने मात्र से इतनी उत्तेजना आ गई। उसकी सोची, जिसने लिखने में इतना समय लगाया, दिमाग लगाया। इतनी मेहनत की और तुमने सिर्फ पढ़ा है। ऐसा नहीं होना चाहिये। ऐसा कहकर मुस्कुराने लगे। मैंने सुना तो ऐसा लगा- गुरु के अन्दर इतनी विशालता है। वह अपने बारे में भी सुनकर समता धारण किये हुए हैं। और हम जैसे पढ़कर कुपित हो रहे हैं। यह है गुरु से उचित शिक्षा, जो हमेशा मुझे याद रहती है। कभी इस प्रकार के प्रसंग बनते हैं तो गुरु शिक्षा याद आ जाती है।
  4. नैनागिरि के चातुर्मास के बाद शिखर जी यात्रा का प्रसंग बना। कटनी वालों की भावना थी कि आचार्य श्री के साथ जो साधु हैं, ब्रह्मचारी हैं, ब्रह्मचारिणी बहिनें हैं उन सभी को शिखर जी की यात्रा करायेंगे। उनकी भावना से आचार्य श्री का मन बन गया, आचार्य श्री ने हम सभी बहिनों को बुलाया और कहा- जो शिखर जी जाना चाहती हैं उन सभी के नाम की एक सूची बना ली। सभी ने अपने-अपने नाम लिखवा दिये। आचार्य श्री ने बहिनों के नाम का पृष्ठ देखा तो कहने लगे- इसमें जो भी शिखर जी जायेगा वे पैदल ही चलेंगे। वाहन पर कोई नहीं बैठेगा। भले ही श्रावक लोग बीच-बीच में छोटी गाड़ियों की व्यवस्था करेंगे। बीच-बीच में बैठने का आग्रह भी करेंगे, मगर कोई उसमें बैठेगा नहीं। ऐसा मंजूर हो तो कहो। सभी ने कहा- आचार्य श्री हमारा वाहन का त्याग, सभी ने कायोत्सर्ग कर लिया। उसमें मैंने भी कायोत्सर्ग किया। विहार प्रारम्भ हुआ शिखर जी की ओर। कुछ दिन पश्चात् अभानातक संघ पहुँचा कि मेरे एक पैर में बड़ा फफोला हो गया। वह एड़ी से लेकर पंजे तक था। दूसरा पैर भी फफोलों से भरा था। पर बीच-बीच में सड़क की रगड़ के कारण उसमें छिद्र हो गये थे। मैं चिन्ता में थी कि अब आज का विहार कैसे करूंगी ? धर्मशाला के पास ही अॉगन में बैठी थी। वहाँ से आचार्य श्री शौचक्रिया के लिये निकले। किसी बहिन ने कहाआचार्य श्री पुष्पा दीदी के पैर में बहुत बड़ा छाला हो गया है, चलते नहीं बन रहा। सुनते ही आचार्य श्री एक मिनट रुक गये। कहने लगे- सूई में धागा पिरोकर जरा सा छेद करके, उसमें छोटी सी गाँठ बाँध दी। जिससे उसमें से पानी निकल जायेगा। फिर उसमें पानी नहीं भरेगा। यह उन्होंने खड़े होकर मेरा उपचार करवा दिया और फिर यह कहते हुये शौचक्रिया को निकल गये कि 'असंयम की खाल है यानि असंयम अवस्था की चमड़ी है। पानी पूरा निकल गया फिर हल्दी का कड़का आदि से शिकार्ड की, पट्टी बाँध दी गई। पट्टी दोनों पैरों में थी। जब मैं ऐसा करते हुये चलने लगी तो आचार्य श्री ने मुझे देखा तो कहते हैं- 'इतना कभी चलना नहीं हुआ, अधिक विहार हो गया है। मैंने कहा- आचार्य श्री अब मैं कैसे विहार करूंगी ? वाहन का त्याग है। आचार्य श्री ने कहा- त्याग तो वाहन का मैंने ही करवाया था, अब यथायोग्य देख लेना। मैंने गुरु की अनुभय-वचन भाषा को सुना तो भी मैंने कहा- आचार्यश्री धीरे-धीरे चल लूगी। आचार्य श्री कहते हैं- पीछे रह जायेंगी, कह दिया न, माना करो। मैंने गुरु आदेश अनुभयभाषा में समझ लिया और दो तीन गाँव तक वाहन पर बैठकर फिर आचार्य श्री के साथ ही पैदल विहार करने लगी। आचार्य श्री विहार के समय हम सभी बहिनों व श्रावकों को कवितायें सुनाते थे। कभी शिक्षाप्रद बातें सुनाते थे। जब कभी कोई सड़क पर गलत चलने लगता था, तब कहते थे- देखो, अभी तुम लोगों को सड़क पर चलना नहीं आता। इतना भी ज्ञान नहीं है कि दाँये तरफ चलना चाहिये कि बाँये तरफ ? यहाँ के अनुशासन सीखो। कभी कहने लगते-देखो सभी साथ हैं कि नहीं, कोई पीछे तो नहीं रह गये। जब विहार करके एक जगह मन्दिर या धर्मशाला में आते थे, तब पूछते थे सभी लोग आ गये। तब कोई कहता कि वह बहिन अभी नहीं आ पायी, तब पीछे वाली बहिन आ जाती और नमोऽस्तु करती थीं। तब आचार्य श्री बड़े स्नेह के साथ कहते थे- क्यों तुम पीछे रह गई थीं। धीरे-धीरे चलती हो ? कल से ऐसा करना पहले से आगे-आगे चलना, जिससे साथ हो जाओगी। कभी कहते थे- देखो, तुम सभी एक-एक ग्रास साधुओं को आहार देना, फिर भोजन करने लग जाना। आचार्य श्री को यह पता था कि कटनी वाले, कोतमा वाले जो साथ चौका लेकर चल रहे हैं, उन्होंने ब्रह्मचारी भाई-बहिनों की व्यवस्था अलग कर रखी है, इसलिये वह संकेत का देते थे। कभी विहार के समय कहते थे- देखो, बिहार में सब विहार कर रहे हैं। यानि बिहार प्रान्त में हैं। ऐसा मनोरंजन करते रहते थे। कभी कहते थे कि देखो, सभी जल्दी-जल्दी सामायिक को बैठना, आज लम्बा विहार है, जो धीमे-धीमे चल पाते हैं वे इतने आगे रहेंगे, जिससे हमें सफेद झण्ड़ी दिखाई देती रहे। कभी जो बहिन पीछे रह जाती वह दौड़-दौड़ कर आती थी तो कोई सज्जन बीच में आचार्य श्री से शिकायत के रूप में कहते-देखो ब्रह्मचारिणी बहिनें दौड़ रही हैं। आचार्य श्री पीछे मुड़कर देखते। उनके देखने पर धीमे-धीमे चलने लगते। फिर दौडने लगते। फिर आचार्य श्री के पास आकर कहती- आचार्य श्री हम लोग दौड़कर-दौड़कर आये। आचार्य श्री हँसने लगते। फिर कोई कहता- आचार्य श्री वह बहिन दौड़-दौड़कर आ रही, आप आगे-आगे चल रहे हैं, वह भी साथ चलना चाहती है। लेकिन चल नहीं पा रही है। तब आचार्य श्री बोलते- हाँ, आ जायेगी और स्वयं अपनी चाल धीमी बना लेते थे। जब साथ आ जाती तो कहते थे- क्यों दौड़-दौड़ कर आ गई ? क्या करें? हँसकर कहते ऐसा करना पड़ेगा। तभी तो साथ कर पायेंगी। विहार नैनागिर पाश्र्वनाथ मन्दिर से शुरु हुआ शिखर जी पहुँचे उस समय हम सभी बीस ब्रह्मचारिणी बहिनें एवं ब्रह्मचारी भाई थे। श्रावकों-श्राविकाओं का समूह लगभग दो-तीन सौ का था। बीच-बीच में टेंट लगाकर श्रावक चौका तैयार करते थे। जब कभी श्रावकों व हम बहिन-भाईयों को रास्ते में मन्दिर नहीं मिलता था, तो आचार्य श्री से कहते थे- आचार्य श्री मन्दिर नहीं है, बिना मन्दिर के आज हम लोगों को भोजन करना है। आज किसी रस का त्याग करती हूँ। आचार्य श्री सहसा कह देते-लो, मैं बैठ गया, तुम सब पूजन कर लो। हो गया मन्दिर। पूजन के समय आचार्य श्री को बड़ा पाटा रख दिया जाता था उस पर आचार्य श्री बैठ जाते थे। सभी पूजन करते हुए आनन्द का अनुभव करते थे। पूजन के बाद कुछ प्रवचन जैसा संक्षिप्त में बोलकर हम लोगों को खुश कर देते थे। ऐसा दो सौ किलोमीटर तक चला। जहाँ मन्दिर आदि कुछ नहीं मिलता था। बस, हम सबके नाथ गुरुदेव का प्रेम-वात्सल्य था। कहाँ किसको क्या हो रहा, सभी देखभाल आचार्य श्री स्वयं करते थे। सबके पैरों का हाल पूछते- कैसे हैं छाले ? अगर न पूँछ पायें तो हम सभी बहिनें मिलकर आचार्य श्री को एक दूसरे के बारे में कहते थे। आचार्य श्री के साथ शिखर जी की यात्रा का आनन्द अनूठा ही था। एक साथ आगे-पीछे यात्रा करते थे। टोंक पर आचार्य श्री के साथ दर्शन करते थे। एक साथ जय बोलते, बड़ा आनन्द आता था। शिखरजी में कभी शाम के समय नीचे आ पाते थे, तब आचार्य श्री के आहार होते थे, हम सब देखकर आहार करते थे। लम्बे समय तक शिखर जी में आचार्य श्री के साथ रहे। किसी ने सात वन्दना की तो किसी ने इक्कीस। जिनकी जितनी श्रद्धा-शक्ति रही, करतीं रहीं। आचार्य श्री ने भी कीं। शिखर जी में पूज्य आर्यिका 105 सुपाश्र्वमति माता जी का सानिध्य भी हम लोगों को मिला। आचार्य श्री के पास आकर वे तत्वचचा करती थीं। आचार्य श्री उनकी शकाओं का समाधान करते थे। एक बार चर्चा हुई कि प्रायश्चित ग्रन्थ पढ़ने का अधिकार आर्यिकाओं को नहीं है। आचार्यों को ही प्रायश्चित ग्रन्थ पढ़ने का अधिकार है। चर्चायें घण्टों तक होती रहती थीं। उनका लाभ हम सब बहिनों को मिलता था। अन्य विषय पर भी होती, आचार्य श्री सभी का समाधान देते थे। वहाँ जब आचार्य श्री को घेर कर सभी बहिनें एवं श्रावकजन बैठते थे तब वह दृश्य सुहावना बन जाता था। इसके पूर्व ही ईसरी में आचार्य श्री ने हम बहिनों को नौंवी प्रतिमाधारी बना दिया था। एक बार मैंने आचार्य श्री के समक्ष एक वर्ष तक नमक न खाने का त्याग किया था। छह माह तक उसका निरतिचार पालन किया भी लेकिन इसके बाद कुछ शारीरिक शिथिलता आने लगी, उठने-बैठने में घुटनों में परेशानी जैसी होने लगी तो मेरे साथ रहने वाली अंगूरी बहिन ने आचार्य श्री के पास जाकर कहा-आचार्य श्री,पुष्पा दीदी को नमक बिना आहार बिल्कुल नहीं भाऊत है। आचार्यश्री बोले- भाऊत क्या होता है? हम दोनों हँसने लगे कि भाऊत का अर्थ आचार्यश्री को क्या बतायें ? कुछ समझ में नहीं आ रहा था क्या कहें? आचार्य श्री ही बोलेबताओ क्या है ये भाऊत ? मैंने कहा- अच्छा नहीं लगना, भोजन रुचता नहीं है। आचार्यश्री कहते हैं- बुन्देलखण्डी लोग बिना नमक के अधिक समय रहनहीं सकते। उनको नमक खाना जरूरी होता है। दक्षिण के साधु बिना नमक के रह जाते हैं। यही विशेषता है। अच्छा, त्याग किया था एक वर्ष का। नहीं चल पा रहा है, कोई बात नहीं, इसके बदले में कुछ और अनुष्ठान कर लो। क्या कर सकते हैं ? जब इसके बिना चल ही नहीं रहा, इसलिये तो सोच समझकर अपनी शक्ति के अनुसार त्याग करना चाहिए। इस प्रकार आचार्यश्री की समझायस को सुना, समझ में आया- अपनी क्षमता के अनुसार त्याग करना चाहिये। इसके बाद आचार्य श्री ने हम सभी बहिनों को जो अष्टम प्रतिमाधारी थी, नौंवी प्रतिमाधारी बना दिया। किसी ने अपनी योग्यता के अनुसार प्रतिमा ली, किसी ने कुछ त्याग किया। शिखरजी का इतिहास आज भी स्मृतिपटल पर है। हम सभी के लिए आचार्य श्री के साथ वे आनन्द के क्षण थे। आचार्य श्री का वात्सल्य अपनी शिष्यमण्डली पर सिमटा हुआ लगता था। प्रत्येक बात जैसे अपनी माँ को नि:संकोच होकर सुनाते रहते हैं बच्चे। वैसे ही आचार्य श्री से मन में उठे प्रश्नों को समाधान नि:संकोच होकर पाते रहते थे। कभी भी प्रश्न पूछा तो उसके साथ स्वयं अपनी तरफ से और अनुभव बताते थे। इस प्रकार हम शिष्यों पर गुरु ने अधिक प्रेम-वात्सल्य का झरना बहाया था। सो धर्ममय शिखर जी की यात्रा वात्सल्यमयी भी हो उठी।
  5. कुछ वर्ष तक मैं तीसरी प्रतिमा की साधना करती रही। नैनागिर का चातुर्मास चल रहा था। आचार्य श्री ने कहा- सप्तम प्रतिमा ले लो। साधना तो करती हो, सामायिक बगैरह की। शाम के समय जो जल बगैरह लेती थी, वह अब नहीं लेना है। अच्छा रहेगा। रत्तीबाई जी पास में बैठी थीं, वह मुझे प्रोत्साहन देती हुई कहती हैं- ले लो, पुष्पा, मेरी भी सप्तम प्रतिमा हैं। कर लो कायोत्सर्ग। मैंने गुरु के मुख से सुनकर मन तो बना ही लिया था, लेकिन आश्रम की संचालिका बाई जी का प्रोत्साहन भी मिल गया, सो मैंने सप्तम प्रतिमा के व्रत भी ले लिये। कुछ समय बाद आचार्य श्री के मन में विचार उठे कि सप्तम प्रतिमाधारी तक मैंने देखे। अष्टम, नवम व दशम प्रतिमा तो लोग कभी लेते ही नहीं हैं। उनके मन में जैसे ही विचार उठे, उन्होंने कुछ बहिनों को अष्टम प्रतिमाधारी बनाना चाहा। कुछ चर्चा चल रही थी कि अष्टम प्रतिमाधारी जो बनेगा वह रात्रि में मैौन रखेगा, लाईट में नहीं पढ़ेगा। एक गाँव से दूसरे गाँव में प्रभावना करने के लिए विहार करके जायेंगे। वहाँ जो श्रावक तुम्हें निमन्त्रण देकर ले जायेगा, तुम्हें उसी के घर में आहार को जाना होगा। निमन्त्रण पहले से नहीं होगा। जब तुम मन्दिर में बैठी हो, उस समय कोई कहेगा चलिये आहार के लिए, तभी जाना होगा। साधुओं को आहार नहीं देना। अगर वहाँ तुम्हें आहार करना है तो उसमें अपना आहार कम करके देना। अपने हाथों से कुछ तैयार नहीं करना होगा। आर्यिकावत् रात्रि में चर्या करनी होगी। एक जगह बैठना। रात्रि में चलना-फिरना नहीं। कुछ शारीरिक बाधा हो तो उसकी छूट रहेगी। मैंने आचार्य श्री के मुख से अष्टम प्रतिमा के विधि विधान सुनें। लेकिन आचार्य श्री ने मुझे पहले याद किया, वह भी, यह कहकर कि उसके पास योग्यता है। उसको मैं अष्टम प्रतिमा दूँगा। कुछ अन्य बहिनें भी अष्टम प्रतिमा लेने की इच्छुक हुई। आचार्य श्री बोले- उसको भी आने दो, बुलाओ कहा है? एक बहिन ने कह दिया- अभी-अभी यहाँ महाराज को भेजकर चौके में आहार करने चली गई। कमलाबाई जी बामौरा वाली आचार्य श्री के निकट बैठी थीं। आचार्य श्री ने उनसे कहा- जाओ, पटेरा वाली को मेरे पास भेज दो। कमलाबाई जी ने आचार्य श्री के विचार मुझसे कहे, कि आचार्य श्री अष्टम प्रतिमा देने की भावना कर रहे हैं। और तुम्हें बुलाया है। कह रहे हैं कि जल्दी भेजना। पौने बारह बज गये हैं, सामायिक का समय होने वाला है। मैंने जैसे ही सुना, पता नहीं कर्म का वेग ऐसा आया, मैंने आचार्य श्री के पास अष्टम प्रतिमाधारी नहीं बनने की असमर्थता एक पत्र के माध्यम से लिखकर भेज दी। आचार्य श्री मुझमें इतनी पात्रता नहीं है। मैं विहार भी नहीं कर सकती और धर्मप्रभावना करने की पात्रता भी नहीं। मैं अभी आशा मलैया से न्यायग्रन्थ, प्रमेयरत्नमाला आदि बड़े ग्रन्थ पढ़ रही हूँ। अभी मुझे अध्ययन करने की भावना भी है। इसमें अपनी बुरिका प्रयोग था। गुरु की भावना का ख्याल मैंने शायद उस समय नहीं किया। आचार्य श्री के पास वह पत्र कमलाबाई जी ले गई। आचार्य श्री ने पूछा- वह नहीं आई। कमलाबाई जी ने कहा- आहार करने लगी सो, पत्र लिखकर दिया है। आचार्य श्री ने पत्र पढ़ा, जिसमें अष्टम प्रतिमा लेने सम्बन्धी स्वीकृति नहीं थी। जो भी आचार्य श्री के विचार बने हों, मुझे पता नहीं, लेकिन दोपहर की क्लास के बाद अलग से मैं रत्तीबाई के साथ नमोऽस्तु करने गई। नमोऽस्तुकरते ही मैंने कहा- आचार्य श्री सप्तम प्रतिमाही ठीक है। अष्टम प्रतिमा की मेरे पास योग्यता नहीं है। प्रथम बार मैंने गुरु को देखा था, जो कह रहे थे- क्या योग्यता नहीं है? मुझे सब पता है। ऐसा जब कह रहे थे तब स्नेह-वात्सल्य दिखाई नहीं दे रहा था। मन यही कहने लगा कि जिन रत्तीबाई ने मुझे दूसरी प्रतिमाधारी के रूप में देखा है, उनके पास रही। उन्होंने मुझे संबल दिया, संरक्षिका के रूप में। जब कभी आरा आश्रम के अनुभव सुनाती रहती थीं। उन्होंने मुझे प्रथम भाग से आरम्भ करके अध्ययन कराया था। उनके निकट या कहें एक साथ कमरे में रहने का साथ मिला। मुझसे अपनी प्रत्येक बात वह कहतीं थीं। मैंने उन्हें माँ का दर्जा दिया। उसी तरह कचनबाई जी, जिन्होंने मुझे आचार्य ज्ञानसागर जी मेरे गुरु के गुरु के संस्मरण सुनाये और अनुभव तथा विवेक की शिक्षा भी देती रहीं। कहा- कैसा बैठना, सोना, कैसा बोलना, आदि-आदि। जिन्होंने मुझे सुना-समझाकर योग्य बनाया उनसे अपना दर्जा ऊँचा कैसे करूं ? दोनों विकल्प थे यहाँ। पर गुरु की भावना प्रथम, फिर मुझे अपनी विहार करने आदि की योग्यता स्वयं में दिखाई नहीं दे रही थी और जिनके साथ रहना, उनसे स्वभाव में मेल नहीं बन रहा था। आश्रम वालों से फिर सम्पर्क अधिक नहीं करना होगा। आर्यिकावत् चर्या करना है। इन सब विकल्पों ने मुझे गुरु की भावना पूर्ण नहीं करने दी। आखिर मैंने यही निर्णय लिया कि अभी मैं सप्तम प्रतिमाधारी रहकर, अध्ययन करूंगी। रत्तीबाई और कचनबाई के यथायोग्य संरक्षण में रहकर उनका अनुभव लेती रहूँगी। स्वयं के तर्क का निर्णय मोक्षमार्ग में खतरनाक होता है। यहाँ तक की जरूरत नहीं होती, यहाँ हृदय और समर्पण की जरूरत होती है। अपने गुरु ही सर्वमान्य होता है। गुरु कभी मधुर भी बोलता है, कभी तीखा भी बोल सकता है। दोनों में शिष्य का भला होता है। ईख का टुकड़ा टेड़ा भी हो तब भी मीठा ही रहता है। जलेबी टेड़ी-मेड़ी होती है लेकिन रस से भरी होती है। खींचने पर धनुष की डोरी टेड़ी होती है, मगर तीर तो सीधा ही जाता है। ऐसा ही मेरे आचार्य श्री का उस समय ऊपर से कठोर स्वभाव दिख रहा था। लेकिन अन्दर से मधुर ही बने थे। लेकिन मैंने उस समय इस प्रकार का कुछ सोच पैदा ही नहीं किया। गुरु ने मुझ पर कितनी बड़ी कृपा की थी, मेरा क्रम-क्रम से विकास करने में हमेशा मुझे समझाया। उनका इतना भारी उपकार होने पर भी मैं यह सब भूल गई। जिन्होंने मुझे गुरु की अपेक्षा जरा सा संबल दिया। मैं उसमें भूल गई। वर्तमान में ख्याल आता है कि बात ऐसी हो गई- लाख रूपये देने वाला का एहसान नहीं, हजार रूपये देने वाला का एहसान मानने लगी। कर्मोदय से मैं हमेशा रत्तीबाई जी संचालिका से कहती थी कि आपसे मैं पद में बड़ी नहीं बनूँगी। कुछ समयोपरान्त एहसास हुआ, जब अन्य बहिनों (सुमन बण्डा, विमलेश, सविता आदि) को अष्टम प्रतिमाधारी बना दिया। मैं प्रतिमा लेने में पीछे रह गई। गुरु उन्हें बड़ा वात्सल्य देने लगे। जब कभी शंका का समाधान देते, अलग से कुछ आगम की बात बताते और मैं इन बहिनों से बात करती तो इनका रुख-स्वभाव अष्टम प्रतिमाधारी के पद का कुछ अहं दिखाई देता। मुझे जो पहले सम्मान की दृष्टि से देखती थीं, जिनको मैं शुरूआत से अध्ययन कराती थीं, वे भी कुछ विपरीत बन गई। तब उस समय यह युक्ति समझ में आई कि बाप से बढ़कर बेटा सवाई बन गया। यानी गुरु से अधिक विपरीतता होने का मुझे अब अहसास होने लगा था। गुरु ने मेरा विकास चाहा था, लेकिन मैं यह नहीं समझ पायी। हिंडोला की पालकी कभी ऊपर जाती है, तब क्या होता है ? कुछ समय गुजरा। आचार्य श्री का कोनी जी क्षेत्र में विराजमान होना हुआ। हम सभी शीतकालीन वाचना में वहाँ गये। लेकिन आचार्यश्री से मैं छिप-छिप कर रहती थी, भय के कारण। जो गुरु आज्ञा का उल्लंघन करता है, गुरु आज्ञा नहीं मानता, उसकी स्थिति ऐसी ही बनती है। यह मेरा अनुभव है। एक दिन मैंने संरक्षिका कचनबाई अजमेर वाली से कहा- माँजी मुझे आचार्य श्री से आठवीं प्रतिमा दिलवा दी। चलो आप मेरे साथ। उन्होंने कहा- चलो। वह मेरे साथ आचार्य श्री के पास पहुँचीं। आचार्य श्री बड़े हाल में बैठे थे। वह आँगन के पास ही था। उसमें मुनि क्षमासागर जी भी बैठे हुए थे। स्वाध्याय कर रहे थे। कचनबार्ड जी आचार्य श्री के पास पहुँचकर नमोऽस्तु करती हैं। मैं साथ में गई थी। लेकिन भय के कारण साथ में होते हुये भी दरवाजे की ओट में खड़ी रही। कचनबार्ड जी ने कहा गुरुदेव ब्रह्मचारिणी पुष्पा छोरी आपसे आठवीं प्रतिमा लेना चाह रही है। आचार्य श्री बड़ी सहज सरल भाषा में बोले- कहाँ है वो ? कचनबार्ड जी बोलीं- यह खड़ी है। आपसे डर रही है। सामने नहीं आ पा रही, इसलिये मुझे साथ में लायी है। आचार्य श्री कहते हैं- कहो उससे, मेरे सामने आये। मैंने सुना। मैंने शर्म से शिर नीचा किये हुए ही नमोऽस्तु आचार्य श्री कहा। उन्होंने बड़े स्नेह के साथ हाथ उठा कर आशीर्वाद दिया। कहने लगे तुम्हें आठवीं प्रतिमा चाहिए। मैंने कहा-जी आचार्य श्री। आचार्य श्री कहते हैं- पहले तुम अगुआ हुई थीं अब पीछे कैसे रह गई ? यह वाक्य सुनते ही अाँखों में आँसू भर आये। मेरे आँसू देखते ही कहते हैं- अब तुममें योग्यता आ गई। बोलो ? मैं मौन थी कुछ बोल नहीं पा रही थी। सिर नीचे किये थी। आचार्य श्री आगे बोले- अच्छा बताओ, तुम कितना पैदल चल सकती हो ? मैंने जबाव दिया था- करीब 10 किलोमीटर। मेरी भयभीत व घबरायी रोनी सूरत को देखकर स्नेहभरी दृष्टि से फिर कहते हैं- अच्छा कायोत्सर्ग कर लो। और जो अष्टम प्रतिमाधारी बहिनें हैं उनका ब्राही संघ है। उसमें शामिल हो जाओ। यह है गुरु की शिष्यों पर करुणा। यह है।गन्ने जैसी मिठास। ऊपर से कुछ भी तेजी, अन्दर विकास कराने की प्रवृत्ति। मैंने प्रतिमा ले लीं। फिर अपनी अतीत की प्रवृत्ति को सोच-सोच दु:खी होती रही कि मैंने गुरु के सोचे गये अरमान की कीमत नहीं की। वह आज भी मुझे ख्याल में है। वह तो अब कभी मिट नहीं सकेगा। भले आचार्य श्री ने इस इतिहास को भुला दिया हो, लेकिन मैं इस इतिहास को कभी भूल नहीं पायी। प्रसंगानुसार याद करती हूँकि गुरु-आदेश नहीं मानने पर सिर्फ पश्चाताप ही हाथ लगता है।
  6. थुबौन जी का प्रसंग है। पूज्य आचार्य श्री आदिनाथ मन्दिर में बैठे हुये थे। मैंने उनको नमोऽस्तु किया। वे बोले- आज मैंने सोचा है तुम तीसरी प्रतिमा ले ली। आज सर्वार्थसिद्धियोग है। मैं पहले सोच में पड़ गयी कि आचार्य श्री तीसरी प्रतिमा लेने की कह रहे हैं। फिर आत्मा में आनन्द हो आया। आचार्य श्री कहते हैं- कर ली, कायोत्सर्ग। मैंने कायोत्सर्ग कर लिया। फिर आचार्य श्री जी से पूछा- तीसरी प्रतिमा में क्या करना होगा ? तीन बार सामायिक। सामायिक की विधि रत्नकरण्डक श्रावकाचार में लिखी है। उस विधि को देखकर दण्डक सहित पढ़कर करना, और जो दूसरी प्रतिमा में करती थी वह भी करना। इसमें सामायिक समय से की जाती है। अभी अभ्यास रूप में तीनों टाइम करती होंगी। लेकिन अब यह तो सामायिक प्रतिमा ही कहलाती है। इस प्रकार मुझे बड़े स्नेह से सुन्दर तरीके से समझाया। मैंने लौटते ही तीसरी प्रतिमा का स्वरूप समझने के लिए रत्नकरण्डक श्रावकाचार उठाया और उसी विधि के अनुसार दण्डक-कायोत्सर्ग थोस्सामि पढ़कर सामायिक का प्रारम्भ और समापन करना सीखा। एक बार मेरे मन में प्रश्न उठा कि प्रारम्भ और अन्त में इस प्रकार की विधि करने से पन्द्रह मिनिट तो लग ही जाते हैं। तो क्या यह समय 48 मिनिट की सामायिक या एक घण्टे की सामायिक में सामिल होगा। आचार्य श्री से यह प्रश्न किया तो सुनकर मुस्कुराने लगे। बोले- हाँ, उसी में सामिल होगा। फिर कहने लगे सवा दो घण्टे यानि बड़ी सामायिक करने का नियम ले लो। अच्छा रहेगा। बड़ी सामायिक का अभ्यास करना अच्छा माना जाता है। धीरे-धीरे मुझे बड़ी सामायिक करने का नियम दे दिया। यह सत्य है कि जितनी जिदगी बनाने की चिन्ता शिष्य को नहीं होती, उतनी गुरु को होती है। शिष्य तो गुरु की प्राप्ति के बाद अपनी जिंदगी को सुलझी महसूस करने लगता है। उसको शायद इतना ही पता होता है कि जिंदगी का सिर्फ इतना ही विकास है। आगे उसे पता नहीं होता कि और भी जिंदगी में कुछ करना होता है। यह तो गुरु जानते हैं कि शिष्य समर्पित होता है, उसके विकास का क्रम क्या है ? उस शिष्य को किस प्रकार से आगे आत्मा के उत्थान योग्य बनाना है। यह है मेरे उत्थान की चिन्ता। जो अनकहे ही आचार्य श्री मुझे आगे-आगे मार्ग दिखाते रहे। चिन्ता वे करते रहे, मैंने भविष्य की चिन्ता ही नहीं की।
  7. एक बार आचार्य श्री ने यूबौन जी के चातुर्मास के समय कहा था कि देखो, तुम लोग रात्रि में एक चिटाई या पाटा पर एक साड़ी में आर्यिका की साधना सम्बन्धी अभ्यास किया करो। हम कुछ बहिने आचार्य श्री ने जो साधना का क्रम बताया था वैसा करने लगे। मगर रंगीन साड़ी पहिनने वाली एक बहिन हम लोगों की नकल करने लगी। जरा सा माइंड उसका डिस्टर्ब हुआ। अब वह एक ही साड़ी में इधर-उधर दिन में भी घूमने लगी। जब ऐसा आचार्य श्री देखा तो बोले- तुम लोग रात्रि में साधना करती थीं, वह भी करने लगी। इसलिए ऐसा देखा आचार्य श्री ने रोक लगा दी। कहने लगे बस इसका अभ्यास जब आर्यिका बनोगी तभी हो जायेगा, रहने दो। इन सब बातों का कहने का यह अर्थ है कि हमारे आचार्य श्री ने हमें ब्रह्मचारिणी के वेश में रहते हुए ही सभी प्रकार का अनुभव दिया। अभ्यास कराया। तभी हम सब वरिष्ठ बहिनों को योग्य बना पाये। इस प्रकार करते हुये हमें वर्षों लगे, तब कही आर्यिकापद की पात्रता के योग्य उन्होंने पाया। एक बार आचार्य श्री कुण्डलपुर क्षेत्र के छैघरिया आदिनाथ मन्दिर की परिक्रमा पथ पर बैठकर स्वाध्याय कर रहे थे। मैंने आचार्य श्री को नमोऽस्तु किया। मुझे आशीर्वाद देकर कुछ रुके, फिर बोले- तुम अभी बीच में फलाहार लेती थी, अब तुम्हारी साधना हो चुकी होगी। बीच में अब कुछ नहीं लें तो चल जायेगा ना ? अन्तराय का पालन भी अब पूरा करना है। मैंने सुना तो सहर्ष स्वीकार किया। बिना कुछ बोले मुझे गुरुप्रसाद मिला। आचार्यश्री का क्रम से साधना की ओर ले जाने का लक्ष्य कि मेरे शरीर की क्षमता के अनुरूप त्याग कराया था पूर्व में। अब मेरी क्षमता बढ़ जाने पर साधना सिर्फ दो बार भोजन की बना दी। कुछ समय व्यतीत हुआ। अपने आप मुझसे कहते हैं- एकाशन की साधना करना, सायंकाल के समय सिर्फ जल बगैरह लेना। यह सब अनकहे ही गुरु से साधना का क्रम मिलता रहा। यह सत्य है कि गुरु यह या बनाना है। यही है मोक्षमार्ग पर चलाने का क्रम। मुझे उस दिन स्नेह-वात्सल्य का झरना मिला था। मैंने सभी बहिनों को सुनाया- आज आचार्यश्री ने मुझे एक बार आहार करने की प्रतिज्ञा दिला दी। शाम के समय सिर्फ जल ही ल्यूँगी। बाद में वह भी छोड़ दूंगीं।
  8. एक बार ऐसा प्रसंग बना कि दशलक्षण पर्व में प्रवचन करने वाली बहिनें कोई नहीं थीं। सभी किसी न किसी जगह जाने के लिए चयनित हो चुकी थीं। इसी बीच पनागर वाले आ गये। आचार्य श्री हमें भी कुछ बहिनें दशलक्षण पर्व के लिये चाहिये। आचार्यश्री को बहुत वर्षों पूर्व का ख्याल आया कि एक बार पटेरा वाली बहिन प्रवचन करने का आशीर्वाद लेने आयी थी, मैंने उसे रोक दिया था। आचार्य श्री कहते हैंबुलाओ उस पटेरा वाली को। आचार्य श्री की यह एक विशेषता है कि वे कभी किसी बहिन के नाम से नहीं बुलवाते थे। गाँव के नाम से बुलवाते थे। जब कभी जरूरी आवश्यक कार्य हो तो भी। मैंने सुना कि आचार्य श्री बुला रहे हैं। यह सच है, अगर कोई अचानक कह दे कि तुम्हारे लिये आचार्य श्री बुला रहे हैं तो घबराहट होने लग जाती है। वैसी ही सुनते ही मेरी भी बढ़ गयी। मैं जैसे तैसे आचार्य श्री के पास आयी, नमोऽस्तु किया। आचार्यश्री ने आशीर्वाद दिया। आचार्य श्री बोले- तुम्हें दशलक्षण पर्व में प्रवचन करने के लिये पनागर जाना है। सुनते ही और तेजी से धड़कन होने लगी। मैं घबराती हुई आचार्य श्री से कहने लगी- आचार्य श्री मुझे प्रवचन करना नहीं आता। पनागर जाकर क्या करूंगी ? बोले- पढ़ी-लिखी तो हो, बैठ जाना मंच पर। जो भी मन में आये, बोल देना। आचार्य श्री ने धैर्य बाँधा दिया, कहने लगे एक दो बहिनों को भी साथ ले जाना। बहिनें कहती हैं- आचार्य श्री हम लोगों से तो और भी कुछ नहीं आता। आचार्य श्री प्रोत्साहन देते हुये कहते हैं- भजन बगैरह तो आता होगा। तुम भजन बोल देना, यह प्रवचन कर लेगी। इस प्रकार हम तीन बहिनों को प्रोत्साहन दिया। आशीर्वाद देकर कहते हैं- मढ़िया जी से पनागर ज्यादा दूर नहीं है। पैदल ही विहार कर जाओ। सुबह हम सब 7 बजे विहार करते हुए साढ़े दस बजे गुरु के आशीर्वाद पूर्वक पनागर पहुँच गये। जब प्रवचन का नम्बर आया तब गुरु के मुख से निकलीं पंक्तियाँ याद आयीं। 'मंच पर बैठोगी सब बन जायेगा।" और यह सच भी है आदमी को तैरना न आये, लेकिन जब वह जल के बीच में गिर जाता है तो हाथ फडफड़ाना तो उसको आ ही जाता है। वैसे ही गुरु ने जब प्रवचन करने की पात्रता चुनी होगी, तभी तो कहा होगा। ऐसा सोचकर थोड़ी सी प्रवचन की शैली के रूप में कुछ लिख लेती और कुछ गुरुकृपा से बोलती रहती। इस तरह समय पूर्ण कर लेती थी। लेकिन फिर गुरुकृपा ऐसी हुई कि मुझे स्वयं पता नहीं होता था कि में प्रवचन सभा में क्या बोलूगी। बोलकर आती तब मैं सोचती मैंने क्या-क्या बोला था ? एकाग्रता से सोचती तब याद आता मैंने यह बोला। गुरु ने सच कहा था- पहले आचार्य प्रणीत ग्रन्थ पढ़ो, पढ़ने के बाद यह स्थिति बनती है कि स्वत: ग्रन्थों में कथित आचार्यों के कहे वाक्य याद में आते रहते हैं। आचार्य पुराण कथित शब्द मुख से निकलते रहते हैं। जो पूर्व में पढ़ रखा। जब स्वयं के पास आचार्य प्रणीत ग्रन्थों का भरपूर ज्ञान होता है तभी बोलने में तथा प्रश्नों के जबाव देने में कभी कमी नहीं महसूस नहीं होती। यह आचार्यों का अनुभव जो शिष्यों को अपनी अनुभूति देकर अपने जैसा बना लेते हैं। आचार्य श्री से मुझे इस प्रकार की समझाइस मिली, इसलिये आज तक आचार्य प्रणीत ग्रन्थों की पढ़ने की आदत बनी हुई है। यह आचार्यश्रीका मेरे ऊपर महान उपकार हुआ है।
  9. एक बार दशलक्षण पर्व के दिनों में कुछ बहिनें प्रवचन करने जा रही थीं। आचार्य श्री ने सबके लिए आशीर्वाद दे दिया। मैं भी साथ में गई थी। सभी बहिनें आशीर्वाद लेकर उठकर चली गई। जब मेरा नम्बर आया, तो आचार्य श्री बोले- अभी से सभी प्रवचनकत्री बन जाओगी तो यह आचार्यप्रणीत ग्रन्थ कौन पढ़ेगा ? फिर ग्रन्थों के पढ़ने में मन नहीं लगता। प्रवचन की तैयारी में इधर-उधर की पत्रिकायें पढ़ने में आती हैं, फिर सारी जिंदगी प्रवचन ही तो करना है। मैंने विचार किया जो आचार्यश्री कह रहें है बिलकुल ठीक कह रहे हैं। अभी से प्रवचन करने में लग जायेंगे तो फिर छोटी-बड़ी पत्रिकायें को देखने का मन करता ही है। मैनें फिर आचार्य श्री की आज्ञा को शिरोधार्य किया, प्रवचन करने का विकल्प छोड़ दिया। आज आर्यिका पद में वही बात याद आती है कि इसके बाद तो प्रवचन ही प्रवचन करना पड़ेंगे। विहार करके आये कि माइक मंच तैयार मिलता है। वर्ष भर प्रवचन। अध्ययन कराने में बोलना ही बोलना रह गया। आचार्य प्रणीत ग्रन्थ उस समय न पढ़ती तो यहाँ उतना समय नहीं दे पाती। गृहस्थों के अनुरूप ही अध्ययन कराना पड़ता है, प्रवचन करना | पता है वास्तव में वे ही शिक्षा दे पाते हैं जो अनुभव से गुजरते हैं। सच है कि आचार्य महाराज अनुभव से परिपक्व होते ही हैं।
  10. एक बार हम सभी बहिनों को आश्रम की संचालिका बाई जी तीर्थयात्रा पर ले गई। बीच में सोनगढ़ पड़ा। हम सभी बहिनों की भावना हुई कि सोनगढ़ के मन्दिरों के दर्शन भी करें। फिर पालीताना आदि के लिये जायेंगे। वहाँ दर्शन की भावना के साथ चम्पावेन के पास भी जाने की भावना बनीं, क्योंकि वे अष्टमी-चतुर्दशी के दिन अपने कमरे से निकल कर दर्शन के लिये जाती थीं। बाकी के समय भगवान के दर्शन दूरबीन से करती थीं। उस दिन अष्टमी का दिन था। सी-डेढ़ सौ वाहन आँगन में खड़े थे, दर्शनार्थियों के। उसमें एक वाहन जिस पर बैठकर हम लोग तीर्थयात्रा को जा रहे थे, वह भी खड़ा था। गेट खुलने का समय डेढ़ बजे का था। गेट जैसे ही खुला कि पहले उस कक्ष में कचनबाई जी को लेकर हम बहिनें वहाँ पहुँच गये। जाकर नीचे जमीन पर बैठ गये। वे अपने पलग पर लेटीं-लेटीं किसी आदमी से तत्वचर्चा करती रहीं। हम लोगों की तरफ देखकर कुछ क्रिया नहीं की। "कहाँ से आयी हो' आदि जो लौकिक व्यवहार किया जाता है वह कुछ भी नहीं किया। कुछ देर इंत-ए-जार किया। जब कुछ भी चेष्टायें उनकी तरफ से नहीं हुई तो कचनबाई जी कहती हैं- उठो छोरियो, चलो, गाड़ी का समय हो गया। हम सभी माँजी की आवाज सुनते ही उठ गये। वाहन में आकर बैठे और चल दिये। सभी को भय लग रहा था कि आचार्यश्री अगर सुनेंगे तो क्या कहेंगे ? "यहाँ की घटित घटना आचार्य श्री को नहीं सुनायेंगे' सभी ने संकल्प किया। लेकिन आचार्य श्री के पास यह सारी चर्चा पहले से पहुँच गयी थी। जब यात्रा करके आये और गुरु के दर्शन के लिये गये तो आचार्य श्री बोले- क्यों तुम सभी सोनगढ़ गई थीं ? हम लोगों ने मिलकर कहा- जी आचार्य श्री गये थे। उसके पास भी गयी थीं ? सुनकर आश्चर्य हुआ कि आचार्यश्री को किसने बता दिया- सभी चुप हो गये थे। आचार्य श्री बोले- क्यों ? तुम लोग बोल क्यों नहीं रहीं हों ? समस्या यह थी कि अब इस विषय को कौन आचार्य श्री को बतायेगा ? जो भी बतायेगा, उसके निमित्त से आचार्य श्री की डाट पड़े बिना रहेगी नहीं। लेकिन आचार्य श्री से छिपाना भी अब संभव नहीं। किसी ने आचार्य श्री से कुछ भी नहीं कहा, क्योंकि आचार्य श्री के चेहरे पर मुस्कुराहट नहीं थी। जैसे कभी आदमी मीठा खाते-खाते नमकीन खाने लगता है, पिताजी बेटे से मधुर-मीठा कब तक बोलता है जब बेटा अच्छा कार्य करता है। गलत कार्य करने पर तीखा भी बोलता है। सही रास्ते पर लाने के लिये। वैसे ही यहाँ की स्थिति बन रही थी। आखिर कचनबाईजी बोली-गुरु महाराज, क्या करें, ये छोरियाँ मानी नहीं, कहती थीं कि अब यहाँ तक आये हैं, तो उनको देख लें। इन सबकी भावना बन गयी तो मैं इन सबको उनके पास ले गई। आचार्य श्री ने क्रोध भरी निगाह हम सबके ऊपर डाली, यह जीवन का प्रथम क्षण था कि आचार्य श्री हम लोगों के निमित्त कुपित हुये थे। आचार्य श्री बोले- उसके पास गई थी, वह तुम लोगों से क्या बोल्नी थी ? हम लोगों ने कहा कुछ नहीं बोली थी। इसके बाद सारी घटना बता दी। आचार्य श्री बोले- तुम सबकी कितनी-कितनी प्रतिमायें हैं ? एक अव्रती के पास जाकर नीचे बैठ गयीं, अपने व्रतों का गौरव नहीं ? किसकी शिष्या हो ? इतना भी ख्याल नहीं ? भविष्य में ऐसा न करने सम्बन्धी और गलती को सुधारने वाला यह आचार्य श्री संक्षिप्त प्रवचन जैसा ही हो गया। अन्त में कहने लगे- सब तो दर्शन करने जाते ही हैं। उसमें तुम लोग भी शामिल हो गई। ऐसा सुनकर हम सभी बहिनों को गलती का अहसास हुआ। फिरसभी की आँखों में ऑसू की धारा बहने लगी। सभी ने साहस बटोर कर कहा- आचार्यश्री इसका कुछ प्रायश्चित दे दीजिये। आचार्य श्री बोले- क्या प्रायश्चित ? तेजी के साथ। फिर संवेदना से भरकर हम लोगों को रोता देख कहते हैं- चार उपवास कर लेना। दो आहार के बाद एक उपवास। सुन लियान ? उठो, चलो यहाँ से। यहाँ आचार्य श्री को ऊपर से क्रोधित मुद्रा बनाकर डाटना जरूरी भी था। नीति भी है- जवानी के पौधे पर अनुभव के फूल जल्दी नहीं आते और जब आते हैं तब तक नुकसान हो चुका होता है। वैसी ही स्थिति हम बहिनों की हुई थी। आचार्य श्री के सम्बोधन से सबक मिला कि प्रतिमाधारी होकर अव्रती के पास जाकर व्रतों की कीमत कम करना जैसा ही होता है। फिर तो वहाँ सोच-समझ कर ही गये थे।
  11. यह कोनी जी क्षेत्र की घटना है। रात के दो बजे थे। जहाँ सभी बहिनें एक कमरे में गहरी निद्रा में सो रही थीं। उस समय एक बिच्छू मेरे सिरहाने आया। मैंने जरा सा करवट बदलने का प्रयास किया कि उसने मेरे हाथ में ढंक मार दिया। मैंने बहिनों को आवाज दी- यहाँ पर बिच्छू है। बिच्छू का नाम सुनते ही सभी बहिनें एक साथ उठ गई। मैंने कहा- मुझे बिच्छू ने काट दिया। सभी ने बिच्छु खोजा पर मिला नहीं। बिच्छु के विष को उतारने का उतनी रात्रि में उपाय नहीं मिला। जैसे-तैसे रात्रि निकाली। (वह आचार्य भक्ति में हम सभी बहिनें पहुँचे। एक बहिन कहती है आचार्य श्री पुष्पा दीदी को आज दो बजे रात्रि में बिच्छू ने काट दिया। वह तो "अहमिक्को खलु सुद्धो' वाली समयसार की गाथा पढ़ती हुई हाथ को । यूँ हिलाती रही। जैसे भजिया बना रही हो। आचार्य श्री बोले- उसको रात भर वेदना हुई, तुम हँस रही हो ? मुझे देखकर कहते हैं- चौबीस घण्टे अन्दर बिच्छू का जहर उतर जाता है। अभी चार-पाँच घण्टे और रहेगा। जिस समय कह रहे थे उस समय उनके अन्दर संवेदना का सागर लहरा रहा था। बड़ी करुणा से भरकर आशीर्वाद दिया, कहा- ठीक हो जायेगा।
  12. एक बार मैंने आचार्य श्री से कहा- जब सामायिक करती हूँ तो मुझे नींद आने लगती है। सामायिक निरतिचार नहीं हो पाती। क्या करूं ? आचार्य श्री बोले- ऐसा करना जब सामायिक में नींद का झोका आये, तब उसको खण्डित अर्थात् अतिचार सहित मानकर पुन: शुरू करना। जब तुम्हारी एक घण्टे की सामायिक बिना नींद वाली हो, तभी अपनी निरतिचार वाली सामायिक मानकर उस जगह से उठना। मैंने आचार्य श्री के द्वारा बतलाया गया नियम का पालन करने का संकल्प लिया। मैं जब भी सामायिक को बैठती, नींद का एक झोंका आ जाता, तो मैं दुबारा सामायिक करती। इस प्रकार मैंने नियम ही बना लिया। एक बार ऐसा करते-करते तीन-चार बज गये, मैं कोशिश करती रही। जरा सा झोंका आता मैं इसे अतिचार सहित मानकर चलने लगी। आचार्य श्री ने उस दिन रत्नकरण्डक श्रावकाचार का एक श्लोक पढ़कर बताया था - सामायिक प्रतिदिवसं यथावदप्यनलसेन चेतव्यम्। व्रतपंचक- परिपूरण-कारण-मवधान- युक्तन || सामायिक निरतिचार करने से सभी व्रतों की पूर्ति होती है। एक दिन ऐसा शुभ कर्मोदय आया कि बिना झोंका वाली सामायिक होने लगी। जब भी सामायिक करती कुछ चिन्तन सम्बन्धी विषय लेकर वैठती। भोजन भी सात्विक करने लगी। प्रमाद बढ़ाने वाली वस्तुओं का त्याग कर दिया। फिर बार-बार आचार्य श्री के मुख से सुनाया गया wलोक अतिचार नींद का झोंका लगने पर। या तो सवा दो घण्टे की सामायिक का प्रायश्चित ख्याल में रहने लगा। आचार्य श्री की कृपा ऐसी हुई कि चिन्तन मनन के साथ आनन्द की अनुभूति कराने वाली सामायिक वनने लगी। मैंने इस बात का अनुभव किया कि जो काम सुन्दर तरीके से करना चाहते हैं, कर्मोदय से उसमें सफलता नहीं मिलती। किन्तु उसे ही एले हृदय से अपनी व्यथा गुरु से सुना दी जाती है तो उनका प्रेम-वात्सल्य से भरकर जो आशीर्वाद मिलता है, वह कामयाबी तक पहुँचा देता है। नका ऐसा आशीर्वाद मेरे जीवन में अनेक बार फलीभूत हुआ।
  13. एक बार मढ़िया क्षेत्र की बात है। जब इन्दिरा गाँधी जी का निधन हुआ था। अँगूरी बहिन और मैं दोनों मढ़िया क्षेत्र जी में बड़ी-बड़ी चट्टानों पर चढ़कर शौच क्रिया को जा रहे थे। चट्टान पर चढ़ते हुए हमारा बेलेन्स बिगड़ गया। इससे जल से भरा केन और मैं, दोनों ही फिसलकर गिरे। फिसलन इतनी अधिक थी कि हम नीचे कचरे के ढेर तक पहुँच गये। गिरते हुए भी सोच रही थी कि यदि मुझे अधिक चोट आ गयी तो ऐसा न हो कि मैं दीक्षा लेने से वंचित हो जाऊँ। अगर चोटें नहीं आयीं तो में यहाँ से उठकर आचार्यश्री के पास जाकर दस उपवासों का प्रायश्चित लेंगी। इन विचारों के साथ मैं कई चट्टानों का घर्षण भी महसूस कर रही थी। साथ में जो बहिन थी वह देख रही थी। वह जल्दी से आयी, देखा मुझे कचरे के ढेर पर तो बड़ी ही आत्मीयता से उठाया। फिर वह पास में विराजमान आचार्य श्री के पास ले गई। घटना को आचार्य श्री को बताया। मैंने अपने विचार बताये। आचार्य श्री से कहा- वहाँ दस उपवास करने का भाव बनाया था। मुझे दस उपवास दे दीजिये। आचार्य श्री बोले- अच्छा गिरते समय यह सब विचार कर रहीं वों। कि दस उपवास करूंगी। इन शब्दों को बोलते जा रहे थे और मुस्कुराते जा रहे थे। फिर करुणा से भरकर बोले- ऐसा कर लो, इसके उपलक्ष्य में दस उपवास तत्वार्थसूत्र के कर लो या सहस्रनाम के। फिर आशीर्वाद देते हुए कहते हैं- गिरते समय कहीं अधिक चोट तो नहीं लगी ? इसका उपचार कर लेना। मुदी चोट लग जाती है। अभी दर्द नहीं करेगी। जब बादल-बदलियाँ होती हैं, मौसम गड़बड़ होता है, उस समय इन चोटों का असर आता है। हम सभी बहिनों को मुदी चोट का आगे क्या प्रभाव पड़ता है, उसकी शिक्षा मिली तथा सहानुभूति के शब्द सुनने मिले। गुरु की मुस्कुराहट देखकर तात्कालिक लगी चोट भी भूल गयी। दु:ख शोक का माहौल हँसी में बदल गया। यह है गुरु की शिष्यों के कष्ट-दु:ख भुलाने की कला। एक बार मैं एक महाराज के पास गई तो उनके मन्त्रों से प्रभावित होकर माया बहिन बण्डा, जो अन्न नहीं खा पाती थी, को उनके पास रहकर अन्न खाने के लायक बनवा दिया। उनके निकट में करीब तेरह दिन तक रही। हमारे आचार्य श्री ने यह सब सुना तो, कहते हैं- मैंने तुम्हें बारह वर्ष तक पढ़ाया है। देव-शास्त्र-गुरु कौन होते हैं? इनकी परिभाषा भूल गर्ड हो ? बताओ इनकी परिभाषा क्या होती है ? ऐसे शब्दों को सुनकर मैं | मौन हो गई, एक शब्द नहीं बोल पायी। पुन: आचार्य श्री बोले- बोलो इनकी परिभाषा। मैंने कहा आचार्य श्री विवेक खो गया था। मेरे इन वाक्यों को सुनकर बड़ी तेजी से हँसते हुए कहते हैं- अच्छा अब विवेक आ गया। एक ही क्षण में आचार्य श्री का आक्रोश मुस्कुराहट में परिवर्तित हो गया। मेरी घबराहट आँखों में अाँसू बन कर संचित हो गयी। गलती महसूस हो गयी थी, इसलिए मैं वहीं बैठी-बैठी तेजी से रोने लगी। तब कहते हैं- अब रोओ नहीं, जाओ, अच्छे से सामायिक करो।
  14. कुण्डलपुर क्षेत्र में एक बार मैंने आचार्य श्री की श्रावकों के द्वारा आहार देते हुये देखा था। वे श्रावकगण दाल-भात को एक प्लेट में सब्जी आदि डालकर हाथों से सान-सान कर अपने हाथों से दे रहे थे। दलिया या खिचड़ी, चम्मच से नहीं देते थे। मैंने देखा कि साधु को इस तरह से आहार दिये जाते हैं। और वह बिना कुछ कहे लेते जाते हैं। मैं सोच में पड़ गई। मैं भी जब आर्यिका बनूँगी, तो मुझे भी ऐसा ही लेना होगा क्या ? मैं तो इस प्रकार से नहीं ले पाऊँगी। क्योंकि मुझे इस प्रकार मेरे सामने करके देगा तो मुझे उल्टी आ जायेगी। मैं जब तब इस बात पर सोचती रहती थी। यह नहीं जानती थी कि यह तो श्रावकों का अविवेक है। विवेक तो चम्मच से देने का है। साधु आहारचर्या में पराधीन होते हैं। इस प्रकार की धारणा बन गई थी। मैंने विचार किया- अष्टमी, चतुर्दशी अंजुली बनाकर आहार ग्रहण करूंगी। सभी कुछ अंजुली में मिलाकर खाने का अभ्यास करूंगी। आश्रम में रहकर अंजुली से आहार करने लगी। आश्रम में रसोई बनाने वाली भागवतीबाई मुझे आहार देती। जब कभी पटेरा जाती, अष्टमी-चतुर्दशी हुई तो छोटे-छोटे बच्चों से आहार लेती। ताकि बच्चों के द्वारा हाथ से लिये रोटी के ग्रास की ग्लानि समाप्त हो जाये। ऐसा करते-करते बहुत समय निकल गया। एक दिन आचार्य श्री के समक्ष चर्चा चली। किसी ने प्रश्न किया कि आर्यिका बनने के पहले हाथों की अंजुली बनाकर आहार कर सकते हैं क्या ? अभ्यास के रूप में ही सही। आचार्य श्री कहते हैं- आहार के अभ्यास की क्या जरूरत ? वह तो जब बनते हैं तभी हो जाता है। यह जिनमुद्रा की अवहेलना है। अभी से ऐसा करने से दोष लगता है। ऐसा नहीं करना चाहिये। मैंने कहा- सभी जन अपने-अपने हाथों से सामग्री देते हैं, मुझे ग्लानि आती है। इसको तो जीतना है, कैसे जीतूंगी ? आचार्य श्री बोले- जब आर्यिका बनोगी, उस समय सब हो जायेगा। हाथ से नहीं। चम्मच से ले लेना। ऐसा देने वालों को सिखा देना। लेकिन अभी से ऐसा (अंजुली में) आहार नहीं लेना। दीक्षा के एक दिन पूर्व तो अभ्यास के रूप में चल जायेगा। अभी नहीं। मैंने गुरुमुख से जब सुना कि आर्यिका वेश की चर्या ब्रह्मचारिणी अवस्था में नहीं की जाती, इसका ज्ञान हुआ। समझ में आया और हेय-उपादेय का विवेक सिखाने वाले आचार्य ही, शिष्यों के इष्ट हुआ करते हैं। फिर मैंने ऐसी प्रवृत्ति करने में ब्रेक लगा दिया। एक बार मैंने जीवकाण्ड में हल्दी के बारे में पढ़ा। वहाँ हल्दी को जमीकन्द कहा है। इसलिए उसे नहीं खाना चाहिये। ऐसा विचार मैंने बना लिया। बिना हल्दी का खाने का मन ही मन संकल्प भी कर लिया। आश्रम में मुझे बिना हल्दी की सामग्री अलग से निकाल कर रसोई बनाने वाली बाई रख लेती थी। और शेष में हल्दी डाल देती थी। ऐसा बहुत समय तक चलता रहा। एक बहिन को इस प्रकार से मेरा नियम देखा नहीं गया, उसने उस दिन सभी दाल आदि में हल्दी डाल दी। मैं जब भोजन करने बैठी तो कुछ नहीं था मेरे खाने लायक। मैंने उस दिन दूध रोटी के साथ भोजन किया। किसी से कुछ नहीं कहा। आचार्य श्री सागर में थे। प्रवचनसार ग्रन्थ की ग्रीष्मकालीन वाचना में सभी को स्वाध्याय करा रहे थे। आचार्य श्री के पास सभी बहिनें का सागर जाना हुआ। वहाँ उन्होंने हल्दी की चर्चा छेड़ दी। आचार्य श्री से बोलीं- यह हल्दी नहीं खाती। आचार्य श्री ने मेरी तरफ देखकर कहा- हल्दी क्यों नहीं खाती ? इसमें क्या है? मैंने कहा- हल्दी के बारे में जीवकाण्ड में पढ़ा था। आचार्य श्री शायद मेरी उस समय परीक्षा ले रहे थे, बोले जीवकाण्ड हिन्दी में पढ़ा होगा ? मैंने कहा- नहीं संस्कृत टीका में पढ़ा था। बोले- बताओ, हल्दी को संस्कृत में क्या लिखा था ? मैंने कहा- हालिद्र। सुनकर हँसने लगे, अच्छा, यह बताओ यह किससे पूछकर पढ़ा ? मैंने कहा- रखा था, अलमारी में। मैंने उठाकर इसका स्वाध्याय शुरु कर दिया। पूछा किसी से नहीं था। आचार्य श्री बोले- अभी बड़े-बड़े ग्रन्थ नहीं पढ़ना चाहिये। अभी तुम्हारी भूमिका है जैन सिद्धान्त प्रवेशिका, चौबीसठाणा, तत्वार्थसूत्र आदि पढ़ने की। जिसकी भूमिका जिस प्रकार की हो वैसा अध्ययन करना चाहिए। इसलिये बिना समझ के पढ़ने से अनर्थ होता है। देखो, सुनो, कच्ची हल्दी नहीं खाना चाहिए। सूखी हल्दी खाने में दोष नहीं है। हल्दी से रक्त की शुद्धि होती है। सबके साथ रहकर एक सा भोजन करो। जब आर्यिका बनो, उस समय की स्थिति–परिस्थिति देखकर त्याग कर लेना। इस प्रकार मुझे सुन्दर तरीके से समझा कर यथायोग्य राह पर चलने का निर्देशन दिया। उस समय यह मुझे अच्छे तरीके से समझ में आया कि अपनी सोचने-समझने की क्षमता कुछ अलग होती है। गुरु की अलग। अनेकान्त शैली के साथ यथायोग्य अर्थात् शक्य-अशक्य अनुष्ठान होता है। यह बताकर हम सभी को खुश कर दिया। आश्रम के चौके में हल्दी की सामग्री देखते ही वही बात ख्याल में आती कि आर्यिका के रूप में स्थिति-परिस्थिति देखकर त्याग कर लेना। वह संस्कार अभी कायम हैं, पर्वो में इसका विशेष रूप से अनुष्ठान त्याग का होता रहता है। आचार्य श्री ने जब यह शिक्षा दी कि कोई भी ग्रन्थ पढ़ो, पूछकर पढ़ना। तो ब्रह्मचारिणी अवस्था में सभी बहिनें जब भी स्वाध्याय करती थीं आचार्य श्री से कहती थीं, आचार्य श्री जी इस ग्रन्थ का स्वाध्याय करूंगी। तब तक के लिए अमुक वस्तु का त्याग। गुरुशिक्षा महान है जिंदगी के लिए, विकास करने का काम शिष्यों का है। आचार्य श्री हमेशा सात्विक भोजन करने की शिक्षा देते रहते थे। कभी कहते थे कि, जो शुरुआत में चीजें आती हैं वे महँगी होती हैं। बाद में सस्ती होती हैं। जब शुरुआत में मटर, जामफल आदि आते हैं तो महँगे होते हैं। तब नहीं खाना चाहिए। हमेशा अपना ऐसा भोजन बनाना चाहिए जो प्रत्येक गृहस्थ के घर उपलब्ध हो। कभी वे हम शिष्यों से हँसकर कहते-ये तो बताओ, घर में क्या खाते थे ? क्या रोज रोज जूस पीते थे ? राजसिक भोजन करने से साधना ठीक नहीं होती है। जो उपवास आदि करते हैं उसको अपने शरीर का संतुलन बनाने के लिए कभी-कभार जरूरी हो जाता हो तो अलग बात है। इस प्रकार सहज रूप में कहकर साधना को दृढ़ बनाने के बारे में सूत्र कहते थे। जो समझ जाये, वह अपना वैसा जीवन बना लेता था। ऐसा कोई भी साधना सम्बन्धी विषय नहीं रहा जो हमारे आचार्य श्री ने अपने अनुभव की चासनी में पागकर हम बहिनों को तथा संघस्थ साधु-सन्तों को न बताया हो। सभी कुछ बताकर निर्जरा का साधन बनवाया।
  15. गुरु जे दी कशालुचन की प्रेरणा : मृदुल भाव से नैनागिर क्षेत्र पर चातुर्मास चल रहा था। उस समय वहाँ क्षुल्लक सन्मतिसागर महाराज जी भी थे। उन्होंने मुझसे कहा- दीक्षा ले लो। क्योंकि आचार्य श्री तो साथ में रखेंगे नहीं, विहार करा देंगे। मैंने कहा अभी दीक्षा नहीं लेना, मुझे अध्ययन का विकल्प है। पढ़ी-लिखी आर्यिका बनूँगी। वे बोले- समाज में रहकर समाज के लोग व्यवस्था कर देते हैं। जैसे हम पढ़ रहे हैं, वैसे ही पढ़ लेना। आचार्य श्री जी बैठे-बैठे सुन रहे थे। अन्त में निर्णय हुआ कि दीक्षा का मन नहीं, पढने का विकल्प है। कुछ समयोपरान्त ही तीन-चार बहिनों ने व्रत ले लिया। धीरे-धीरे कुल आठबहिनें हो गयीं। प्रोफेसर आशा मलैया, सागर आदि से विचार विमर्श हुआ। अन्त में निर्णय हुआ कि कुण्डलपुर में अगर आश्रम खोला जाये तो मैं प्रत्येक रविवार देखरेख करने आया करूंगी। पं. श्री जगन्मोहनलाल जी, कटनी वाले वहाँ अध्ययन करायेंगे। अन्य व्यवस्था सम्बन्धी बातें भी हुई। कुण्डलपुर क्षेत्र में 16 नवम्बर सन् 1978 में आश्रम खोलने का विचार हुआ। बड़कुल डालचन्द्र जी ने दीपप्रज्वलन किया। आचार्य श्री का सम्बोधन हुआ। 8 बहिनों से आश्रम शुरु हो गया। एक बार की बात है, हम सभी बहिनें बड़े बाबा के दर्शनार्थ गये। वहाँ से लौटकर सीढ़ियों से धड़ाधड़ शीघ्रता से उतर रहे थे। ऐसा उतरते हुए श्री लाहरी बाबा जी, जो कुण्डलपुर के आश्रम में रहते थे, ने देखा तो उनको हम लोगों की यह प्रवृत्ति ठीक नहीं लगी। वे आचार्य श्री से शिकायत के रूप में बोले- आज ब्रह्मचारिणियाँ सीढ़ियों से जल्दी-जल्दी उतर रही थीं। उनके अन्दर अभी गम्भीरता नहीं आयी। आचार्यश्री इन सभी का अगर सिर मुड़वा दिया जाय तो इनके अन्दर गम्भीरता आ जायेगी। फिर वे इस प्रकार से बचपना नहीं कर पायेंगी। एक दिन हम सभी बहिनें आचार्य श्री को नमोऽस्तुकरने के लिए हाथी वाले मन्दिर गये। आचार्य श्री बोले- तुम सभी केशलुचन कर लो। मैंने कहा- आचार्य श्री अभी नहीं, जब दीक्षा लंगी तब मंच पर करूंगी। क्योंकि मैंने आर्यिकाओं को ऐसा ही देखा था। आचार्य श्री बोले- दीक्षा के समय जब होंगे तब होंगे, अभी तो केशलुचन कर लो। मैंने कहा- केशलुचन करना नहीं आता। आचार्य श्री सुनकर मुस्कुराने लगे। हम सभी आश्रम आ गये। माया बहिन, बण्डा ने गुरु आज्ञा पाकर पूर्ण केशलुचन स्वयं अपने हाथों से कर लिये। केशलुचन करके जब दूसरे दिन आचार्य श्री के घास जाकर नमोऽस्तु किया तो, आचार्य श्री बोले- अच्छा केशलुचन कर लिया। माया बहिन बोली- जी आचार्यश्री। सुनकर आचार्य श्री बहुत खुश हुये। जब पडगाहन को खड़ी हुई तो आचार्य श्री आ गये। आहार दिये। बाद में माया की सभी ने प्रशंसा की। सभी उसको ही देखते रहे। आचार्य श्री मेरी तरफ इशारा करते हुए बोले- तुम भी कर लो। एक दिन में नहीं, थोड़े-थोड़े करके, भले आठ दिन में कर लेना। मैंने कहा- अच्छा आचार्यश्री कर लंगी। लेकिन बाल उखाड़ती हूँ तो खून निकलने लगता है। ऐसा सुनते ही आचार्य श्री ने सुकुमाल स्वामी की कहानी सुनायी। वह मैंने गुरुमुख से पहली बार सुनी थी। सुनकर बड़ा वैराग्य आया। फलत : मन बन गया। मैंने नियम ले लिया केशलुचन करने का। जैसे ही कायोत्सर्ग किया कि आचार्यश्री बोले- कल क्षुल्लक समयसागर जी का केशलुचन होगा। उनको देखना वे कैसे करते हैं? गुरु आज्ञा पाकर मैं समय पर पहुँच गई। क्षुल्लक समयसागर जी महाराज केशलुंचन कर रहे थे। मैंने कहा- आचार्यश्री ने भेजा है। उन्होंने कहाकेशलुंचन देखना है। हम सभी बहिनें वहाँ बैठकर केशलुचन देखते रहे। बीच-बीच में उनसे पूछ भी रहे थे। वे इशारे से राख लगाकर बताते और अपने बाल पकड़कर खींचते थे। ऐसा देखकर समझ में आ गया कि ऐसा करके केशलुचन करना चाहिये। मैंने क्षुल्लक समयसागर जी महाराज के द्वारा बताये गये विधिविधान से अपने जरा से केशलुचन कर लिये। गुरु आदेश मिला था कि आठ दिन में थोड़ा-थोड़ा करके कर लेना। क्योंकि बाल बहुत घने और लम्बे थे | मैंने थोड़े केशलुचन किये, फिर गुरु दर्शनार्थ हम सभी बहिनें पहुँचे। आचार्यश्री बोले- क्यों कितने केशलुंचन हो गये ? जहाँ के केशलुचन हो गये थे, वहाँ सिर पर हाथ रखकर कहा- इतने हो गये। दो-तीन दिन लगातार आचार्य श्री पूछते रहे। मैं बताती रही, इतने हो गये। एक दिन आचार्यभक्ति में हम सभी और क्षुल्लक जी बैठे हुये थे। पूज्य क्षुल्लक समयसागर जी आचार्य श्री से कहते हैं- इन लोगों को अच्छा है, थोड़ा-थोड़ा कर लेती हैं और सिर ढँक लेती हैं तो पता नहीं लगता कि केशलुचन हुआ कि नहीं। अगर हम लोग ऐसा करेंगे तो कैसा लगेगा ? क्षुल्लक समयसागर जी महाराज की बात सुनकर आचार्य श्री कहते हैंक्या तुम्हें भी इन जैसे आठ दिन में करना है ? क्षुल्लक समयसागर जी कहते हैं- करना तो नहीं है, मैंने तो ऐसे ही कहा है। आचार्य श्री तीव्र मुस्कुराहट के साथ बोले- देखो ये ब्रह्मचारिणी हैं, अभी इनका अभ्यास चल रहा है। महाराज, तुम तो क्षुल्लक जी हो। ऐसा सुनकर सभी हँसते रहे। यह थी हम सभी की आचार्य श्री के समक्ष बाल नादानी। मोक्षमार्ग पर चलने की शुरूआत और अनुभवहीनता आचार्य श्री सुनकर सहज बने रहते थे। ऐसे सहज वार्तालाप में मोक्षमार्ग का सम्यक उपदेश हम लोग पाते थे। कुछ दिन में, जब पूर्ण केशलुचन हो गया, तब आचार्य श्री कहते हैं- क्यों कैसा लगा ? मैंने कहा- जहाँ-जहाँ के केशलुचन हो जाते थे और जहाँ के छूट जाते थे उस स्थान पर सूजन आ जाती थी। आचार्य श्री बोले- रुक-रुक कर, धीरे-धीरे कियेन, इसलिए ऐसा हुआ। एक साथ करने में ऐसा नहीं होता। अभी शुरुआत है, अब जब भी करोगी तब एक साथ पूरे करना, तब ऐसा नहीं होगा। मैंने कहा-जी आचार्यश्री। ये सोचने समझने की बातें हैं कि कमजोर शिष्यों को सुविधा देकर मोक्षमार्ग पर लगाने की कला ऐसे महान आचार्य के पास पाकर मैं धन्य हो गई। उन्हें नमन।
  16. एक बार आचार्य श्री कहने लगे- अच्छा जोड़ा बना हीरा, रत्ती, मणि, कचन ये पृथ्वी के बाईयों के नाम हैं। यहाँ पुष्पा, सुमन, कुसुम फ्लों के नाम हैं। इस प्रकार कहकर हम लोगों को बहुत तेजी से हँसने का अवसर दिया। एक बार कुण्डलपुर जी में आचार्य श्री मूलाचार का स्वाध्याय करा रहे थे। क्लास करीब आधा घण्टे की हो चुकी थी। हम दोनों कपड़े धोने में लगे हुये थे। आचार्य श्री ने देखा कि ये लोग अभी तक नहीं आयीं। बाद में उन्होंने हम दोनों को आते हुये देख लिया तो कहते हैं- भविष्य में बनने वाली आर्यिकाओं इतनी देर कैसे हो गयी ? हम दोनों ने जैसे सुना चुप हो गये। मुंह छिपाने लगे। आचार्य श्री को भी न देख सके। आचार्य श्री बोले- देखो, इसमें पाठनिकल चुका है। जैसे पका हुआ भात आसानी से खाया जा सकता है। वैसे ही एकान्त में पायी जाने वाली स्त्री आसानी से भोगी जा सकती है। इसको अपनी कापी में नोट करके रख लेना। और जितना मूलाचार में विषय निकल गया उसको बाद में पढ़ लेना। देखो, इन वाक्यों में आचार्य श्री की हम दोनों के प्रति आत्मीयता। जैसे पिताजी को बेटी की सुरक्षा सम्बन्धी चिन्ता हमेशा लगी रहती है। वैसे ही गुरु जब शिष्य-शिष्याओं को व्रत देते हैं, तो उनकी सुरक्षा करने का हमेशा ख्याल बना रहता है। सदमार्ग दिखाने का ध्यान बना रहता है। तथा स्वयं अपना सम्यक आचरण बनाकर कुछ विरासत में, शिष्य गुरु से ले लिया करता है। गुरु का आचरण अगर शुसंस्कारमय होता है तो अपनी उपादान की योग्यता के अनुसार शिष्य ग्रहण करता रहता है। क्योंकि इस समय वह मोक्षमार्ग में कोरी स्लेट जैसा रहता है। मेरा हाल-मेरा मन-मस्तिष्क ऐसा ही था। गुरु ने जैसा समझाया, वैसा ही आज स्मृति पटल पर अंकित है। जिसको कभी भुलाया नहीं जा सकता। धन्य हो गुरुराज सम्यक् मार्ग जो आपने मुझे दिखाया।
  17. जब चातुर्मास पूर्ण हुआ, आचार्य श्री का आदेश मिला- सागर में डॉ. पन्नालाल पण्डित जी से इन दोनों को अध्ययन कराओ। कचनबाई हम दोनों सुमन और मैं की संरक्षिका के रूप में सागर पहुँची। मोराजी के एक कमरे में हम तीनों रहते थे। पण्डित जी से अध्ययन करने चौधरनबाई जी के मन्दिर पाश्र्वनाथ मन्दिर आते थे। पण्डित जी कौमुदी व्याकरण, छहढाला, कभी सहस्रनाम के उच्चारण, तो कभी भक्तियों के उच्चारण कराते थे। तो कभी तत्वार्थसूत्र। कम समय में अध्ययन अधिक करवाया। पाणिनीव्याकरण कौमुदी के सूत्र याद कराये, परीक्षायें भी लीं। जिससे जागृतिपूर्वक अध्ययन हो सके। सांझ, दोपहर में महिलाओं की कक्षा लेते थे। उन क्लासों में हम दोनों को बैठाते थे। कहते थे- बिटियाँ, तुम्हें अभी समझ में भले नहीं आयेगा, लेकिन बाद में आयेगा। विद्या कालेन पच्यते विद्या काल से ही पकती है। उनका लक्ष्य था कि आचार्यश्री जी की ब्रह्मचारिणी हैं। इनको पढ़ा-लिखाकर विदुषी बनायेंगे। व्याकरण पढ़ाते समय हर समय यही कहते थे- जैसे सुमित्राबाई सतना वाली (आर्यिका विशुद्धमती जी)विदुषी आर्यिका बनीं। वैसे ही तुमको बनना है। संस्कृत में टीका भी करना। इस प्रकार पण्डित जी का बहुत स्नेह रहा हम दोनों पर। दो वर्ष तक बहुत अच्छा अध्ययन कराया। अनुभव भी बहुत सुनाये। कुछ समय बाद कुसुम रहली (मृदुमती जी) वाली भी आ गई व्रत लेकर। चातुर्मास में हम लोग गुरु के पास जाते थे या कभी ग्रीष्मकालीन वाचना में, तब आचार्य श्री अध्ययन के बारे में पूछते थे। एक बार की बात है- आचार्यश्री हटा में क्षुल्लकों को कातन्त्ररूपमाला के अस्मद आदि रूपों की सिद्धि करना बता रहे थे। हम दोनों बैठे हुए थे। आचार्यश्री का व्याकरण पढ़ाने का तरीका देख रहे थे। उनकी सरल भाषा, कौमुदी व्याकरण या कातन्त्ररूपमाला व्याकरण सूत्रों की अपेक्षा सरल थी। आचार्य श्री हम दोनों से पूछने लगे-समझ में आ रहा है, कौमुदी व्याकरण पढने वालों को ? मैंने कहा- आचार्यश्री कौमुदी व्याकरण की अपेक्षा यह तो बहुत सरल है। मुझे तो आपका पूरा पढ़ाया याद हो गया। आचार्यश्री बोले- कौमुदी व्याकरण माहेश्वराणी सूत्रों से चलती है, यह नहीं। वह कठिन पड़ती है। यह आचार्य की लिखी है- ब्राह्मी, सुन्दरी को । आदिनाथ ने पढ़ाई थी। बीच में कुछ चर्चा और हुई। फिर उन्होंने कहा- । तुम लोगों का कौमुदी का विषय रहेगा, मेरा कातन्त्ररूपमाला पढ़ाने का विषय रहेगा, तुम लोगों को मैं नहीं पढ़ा पाऊँगा। अगर व्याकरण का विषय बदल दोगी तो मैं तुम लोगों को पढ़ा सकता हूँ। हम दोनों ने कहाआचार्य श्री बदल देंगे। हम लोगों को आप से ही पढना है। इसके सूत्र याद करने में सरल भी हैं। हम लोगों ने संकल्प लिया और कौमुदी का विषय बदल दिया। कुछ समय सागर रहकर आये। फिर सागर नहीं गये पण्डित जी से पढने के लिए।
  18. एक बार एक परिचित विद्वान (पं. नीरज जैन, सतना) ने मुझसे पूछा- क्यों पुष्पा दीदी जी तुमने दो प्रतिमा ले ली हैं, बारह व्रतों के नाम आते हैं। मैंने कहा- हाँ, आते हैं। उन्होंने कहा- सुनाओ। मैंने तुरन्त ही पाँच अणुव्रतों को क्रम से गिना दिया। आगे जब शिक्षाव्रतों को कहने लगी तो गुणव्रतों को गिना दिया। ऐसा उन्होंने मुझसे सुन तो लिया, वहाँ तो मुझसे कुछ नहीं कहा, लेकिन जब वे आचार्यश्री के पास पहुँचे, तो कहने लगेमैंने पुष्पा जी से बारह व्रतों के नाम पूछे, उसको तो बारह व्रतों के नाम भी नहीं आते। शिक्षाव्रतों को गुणव्रतों में गिना रही थी। और आपने तो उसे दो प्रतिमा दे दी। आचार्य श्री बोले- भाई तुम तो सभी की परीक्षा लेते रहते हो। अगर व्रतों के नाम नहीं आए तो क्या उन व्रतों का पालन करना नहीं आयेगा। देखो- यह धर्म तो अनपढ़ों का भी है। अनपढ़ लोग भी व्रतों का पालन सही तरीके से कर लेते हैं। जरूरी नहीं है कि बारह व्रत याद ही हों। ऐसा सुनकर वे चुप हो गये। एक बार की बात है। हम सभी स्वाध्याय कर रहे थे, उसमें एक अव्रती बहिन बैठी थी। नीरज जी ने पूछा- क्यों तुम्हारें गुरु कौन से परमेष्ठी में आते हैं? वह बीच में बोल पड़ी- सिद्ध परमेष्ठी में। जब वे आचार्य श्री के साथ शौच क्रिया के समय जा रहे थे तो उन्होंने कहा- आज स्वाध्याय के समय मैंने बहिनों से पूछा कि आपके गुरु कौन से परमेष्ठी में आते हैं? तो एक बहिन कह रही थी कि सिद्ध परमेष्ठी में आते हैं। आचार्य श्री ने सुना तो हँसते हुये कहा- ठीक तो कहा था, भावी नैगमनय की अपेक्षा से सिद्ध परमेष्ठी हैं। आचार्य श्री का उत्तर सुनकर पंडित जी चुप हो गये। फिर आगे कुछ नहीं बोल सके। जब हम लोग आचार्य श्री को नमोऽस्तु करने पहुँचे तो कहते हैं- ठीक से अध्ययन करना। इस प्रकार जैसे ही गुरुमुख से सुना तब लगा- आचार्यश्री को हम अबोध शिष्याओं के प्रति बहुत करुणा है। जैन सिद्धान्त में प्रवेश करना नयी चीज है। भूल होती है, लेकिन दूसरों के सामने हँसी के पात्र बनाने में ब्रेक लगा दिया।
  19. एक बार आचार्य श्री बोले- देखो, हाथ में परिमार्जन करने के लिए एक रूमाल रखा करो। मैं परिमार्जन का अर्थ ही नहीं समझती थी। पर हाथ में सफेद रूमाल रखती थी। इसे हाथ में क्यों रखा है, यह नहीं जानती थी ? क्षुल्लक श्री योगसागर जी के पास ऐसे ही बैठ गई। वह कहते हैं- ब्रह्मचारिणी जी परिमार्जन करके बैठो। मैंने कहा- कैसा करना पड़ता परिमार्जन ? उन्होंने कहा- रूमाल का एक छोर पकड़ो और इस प्रकार जमीन पर लगाओ। मैंने यह क्रिया क्षुल्लक योगसागर जी से सीख ली। लेकिन जब मैं मन्दिर में या अन्य जगह इस प्रकार परिमार्जन करके बैठती तो जो न समझ थे वे कहने लगते- इनको अपनी साड़ी की बड़ी चिन्ता है, कि गन्दी न हो जाये। धूल झाड़कर बैठती हैं। मुझे सुनकर यह अच्छा नहीं लगता था। इसलिए मैंनासमझ, अज्ञानी लोगों के सामने ऐसे ही बैठ जाती थी अर्थात् बिना परिमार्जन किये ही बैठ जाती थी। लेकिन जब कोई नहीं रहता, उस वक्त मैं बहुत ही सुन्दर तरीके से परिमार्जन करती थी। अगर कोई सामने दिख जाता तो नहीं करती थी। एक दिन मैंने आचार्य श्री से कहा- आचार्यश्री मैं रूमाल से परिमार्जन करती हूँ तो कुछ महिलायें व्यंग्य करती हुई कहती हैं- साड़ी गन्दी हो जायेगी, इसलिए करती हैं। आचार्य श्री बोले- ऐसा नहीं है, जीवों की सुरक्षा के लिए करना होता है। चाहे चीटियाँ आदि जीव हों या न हों व्रती बिना परिमार्जन के बैठता नहीं है। उसका यह आवश्यक कर्तव्य है। जैसे हम लोग पिच्छिका से करते हैं, वैसे व्रती को अपने कोमल वस्त्र से परिमार्जन करके बैठना चाहिए। गुरु से जैन धर्म की सूक्ष्मता समझकर नि:संकोच हो गई और फिर परिमार्जन करने लगी। आचार्यश्री ने समय-समय पर बहुत शिक्षाप्रद सूत्र दिये, जो कि माला जैसे हम फेरते रहते थे। एक दिन मैंने आचार्यश्री को अकेले स्वाध्याय करते हुए देखा, मैं उनके पास गई और नमोऽस्तु किया निवेदन किया- आचार्यश्री मुझे बड़े बाबा ने जो स्वप्न दिया था उस को देख लीजिये। मैंने कापी में लिख रखा बा। आचार्यश्री बोले- अभी नहीं, बाद में देख लूगा। फिर बाद कभी नहीं आया। मैं गुरु के पास स्वप्न दिखाने कभी नहीं गई। जब कभी रविवारीय प्रवचन कुण्डलपुर में होता, सभी हुलक एक मंच पर पंक्तिबलुबैठ जाते थे। इसके बाद आचार्य श्री इशारा कर देते कि उसको कह दो, यहाँ बैठ जाये। मैं मंच की ही लाइन के नीचे बैठ जाती। मुझे संघस्थ सदस्या मानकर चलते थे। गुरु का असीम वात्सल्य मुझे मिलता था। मैं सब कुछ माँ की ममता गुरु में देखती थी। एक बेटे को माँ कैसे पाल-पोषकर बड़ा करती है। चिडिया अपने बच्चों को सेती है, मछली जल के अन्दर रहकर, अपनी अाँखों से ऊर्जा देकर सेती है। उसी प्रकार मुझ अबोध बालिका को गुरु ने आज्ञा, आदेश, निर्देश के माध्यम से मोक्षमार्ग पर बढ़ाया। यह मैं ही जानती हूँ कोई अन्य नही । जैन सिद्धान्त के अध्ययन के लिए मेरे लिये चिन्ता की। जब तक कुण्डलपुर में रही, रत्तीबाई सतना वाली, कमलाबाई बामौरा वाली मुझे जैनसिद्धान्त प्रवेशिका, तत्वार्थसूत्र आदि पढ़ाने लगीं। आचार्यश्री कभी-कभी पूछ लेते थे- क्यों बाईजी पढ़ा रही हैं, अच्छा लग रहा है ?
  20. आचार्यश्री के दर्शन करने में रोज ही जाया करती थी। आचार्य श्री आशीर्वाद देते और मैं आशीर्वाद पाकर आ जाती। न मैं कुछ बोलती, न आचार्य श्री बोलते। यों कुछ कहना चाहते थे लेकिन कह नहीं पाते थे। श्री कजौड़ीमल आचार्य ज्ञानसागर जी के भक्त जी आचार्य श्री के पास हमेशा रहते थे। एक दिन कजौड़ीमल जी से आचार्य श्री ने कहाउससे कह देना कि वह सिर भी ढंके। कजौड़ीमल जी बोले- आचार्यश्री आपके दर्शन करने वह ब्रह्मचारिणी आती है, आप ही उससे कहो कि सिर ढंका करो। आचार्य श्री ने कहा- अगर मैं कहूँगा तो वह शरमा जायेगी। तुम्हीं कह देना। आचार्य का आदेश पाकर कजौड़ीमल जी ने गुरु के द्वारा कही गयी बात मुझे सुनायी। कहने लगे- कल बेटी तू गुरु के दर्शन करने जाओगी तो सिर ढँक कर जाना। मैंने कहा- सिर ढँकने में मुझे शर्म आती है। क्यों तू गुरु का कहना नहीं मानेगी ? क्या ऐसा गुरु जी ने कहा है कि सिर ढँकना है। हाँ, मैं चुप हो गई। मैंने कहा- कब-कब ढाँकना, पूरे दिन, कि सिर्फ आचार्य श्री के सामने। कजौड़ीमल कहते हैं- अभी तो आचार्य श्री के सामने ढाँकना, चल इतना तो कर सही। मैंने स्वीकार लिया। दूसरे दिन जब सिर ढँक कर आचार्यश्री के दर्शनार्थ गई, तो मुझे देखकर आचार्य श्री ने मन्द-मन्द मुस्कुराते हुए, आशीर्वाद दिया। बाद में, कजौड़ीमल जी से कहा- आज वह सिर ढँककर तो आयी थी, लेकिन बाल नहीं दिखना चाहिये, इस प्रकार ढंकना चाहिए। कजौड़ीमल जी ने मुझसे कहा- गुरुदेव ऐसा कह रहे थे। कल से बाल न दिखें ऐसा टैंकना है। मैं उसी प्रकार से सिर ढाँकने लगी। फिर कहते हैं- आचार्य श्री के पास ही नहीं, बल्कि कहीं भी सिर कभी खुला नहीं रखना है। इस प्रकार से मुझे सिर ढँकने की विधि गुरु ने बतायी थी।
  21. एक बार आचार्यश्री की कक्षा पूर्ण हुई। मैंने एक भजन बोला नर कर उस दिन की याद कि जिस दिन चल चल होगी, सब धरे रहेंगे भण्डार नार तेरी संगी न होगी। आचार्य श्री ने दृष्टि घुमाइ, बोले- आज सब पकी पकी खिचड़ी खिलाने लगे हैं। जब मैं अलग से नमोऽस्तु करने गई तो कहते हैं- तुमने ब्रह्मचर्य व्रत ले लिया, अब ज्यादा भजन बोलना अच्छा नहीं माना जाता। पहले बोलती थी, अब सभी के सामने नहीं बोलना चाहिए।
  22. एक दिन कुण्डलपुर के हाथी वाले मन्दिर में हम सब क्षुल्लक जी के पास प्रतिक्रमण करने बैठे थे। छोटे-छोटे दो बच्चे आये। एक पत्थर पर दूसरा पत्थर पटक कर पुकार रहे थे- मम्मी पापा, मम्मी पापा। ऐसा सुनकर हम सबको हँसी आ गई। सब हँस ही रहे थे कि उसी समय आचार्यभक्ति का समय हो गया था। सभी आचार्यश्री के पास पहुँचे। हँसी तो रुक नहीं रही थी। जैसे-तैसे रोकी। सिद्धभक्ति का कायोत्सर्ग किया ही था कि हँसी फिर शुरु। पूरी भक्ति में एक-दूसरे को हँसता देखकर हम सभी हँसते रहे। भक्ति पूर्ण हुई। आचार्यश्री बोले- तुम लोग क्यों हँस रहे हो ? क्या बात हो गयी ? कहते-कहते वे भी मन्द-मन्द हँसने लगे। अन्त में कहते हैं- गम्भीरता रखा करो। हँसना अच्छा नहीं। बताओ क्यों हँस रहे हो ? सभी की तरफ आचार्य श्री ने देखा। सभी चुप। आचार्यश्री कहते हैंकलचौके में कोई भी दूध नहीं लेगा। यह इस हँसी का प्रायश्चित था।
  23. एक दो दिन के बाद मुझसे कहते– अजमेर वाली है, उसके कमरे में रहना, वे आचार्य ज्ञानसागर जी की शिष्या हैं। साझ के समय अजमेर वाली (कचनबाई) माँ से बोले- इसको अपने साथ रखना, इसका संरक्षण तुम्हें करना है। रत्तीबाई सतना वाली और कमलाबार्ड बामौरा वाली, जिनको आचार्यश्री ने सातवीं प्रतिमाधारी बनाया था। चौका लगाती थीं,उनसे कहा-उस बालिका को तुम दोनों को पढ़ाना है। अच्छे संस्कार डालना। कुछ दिनों बाद बड़कुल गुलाबचन्द्र जी से बोले- क्यों ? तुम कह रहे थे कि मेरी बच्ची और ये दोनों साथ पढ़ती थीं, घनिष्ठ दोस्ती रही है, मेरे पास लाना। मैं उससे कहूँगा कि लौकिक क्षेत्र में तुम दोनों साथ रहीं, पारमार्थिक क्षेत्र में भी अब उसका साथ निभाओ। बड़कुल गुलाबचन्द्र जी बोले- ठीक है महाराज। आखिर योग नहीं बना, बहुत समझाया। इस मार्ग पर चलने का उसने निषेध कर दिया। यह वाक्य रत्तीबाई सतना वाली ने सुना कि आचार्य श्री की भावना है कि इसके साथ कोई दूसरी बालिका हो। उन्होंने मंजु सतना वाली (वर्तमान में अनन्तमती जी) को समझाया। व्रत के बारे में उससे कहा, मैंने भी समझाया। समझकर वह आचार्यश्री के पास जाकर दो वर्ष का व्रत ले आई। यह कहकर कि मैं घर में रहूँगी। इससे आचार्यश्री की चिन्ता कम नहीं हुई। बार-बार कहतेदूसरा कोई साथी हो जाता तो अच्छा रहता। फिर कमलाबाई बामौरा वाली ने (मेरी पूर्व की भतीजी) सुमन को समझाया, व्रत लेने के बारे में कहा। उसका मन बन गया। आचार्यश्री से जीवन पर्यन्त का व्रत ले लिया। पिच्छिका परिवर्तन के समय पीछी भी ली। हम दो हो गये। आचार्यश्री एक दिन कहते हैं- इन दोनों को मैं तो साथ में नहीं रखेंगा। बीच में बड़कुल डालचन्द्र जी बोले- आचार्यश्री इन दोनों को डॉ. पन्नालाल साहित्याचार्य (सागर वाले पण्डितजी) के पास भेज देता हूँ। सागर में रहकर अध्ययन करेगी। आचार्य श्री ने कहा- ठीक है। अभी कुछ दिन मैं क्लास लूगा, इसलिए यहीं अध्ययन करेगीं। आचार्य श्री ने चौबीसठाणा, सर्वार्थसिद्धि आदि पढ़ाते थे। चौबीसठाणा पढ़ाने के बाद कहते थे कि जाओ, सभी क्षुल्लक और तुम लोग मिलकर चौबीसठाणा लगाना। लेकिन ध्यान रखना, इधर-उधर की बातें मत करना। गुरु आदेश से चौबीसठाणा व श्रेपन भाव आदि एक दूसरे से पूछते थे। अध्ययन करते थे और सामूहिक प्रतिक्रमण करते थे।
  24. मेरा व्रत लेने का दूसरा दिन था। जबलपुर वाली कुसुम बाई का चौका लगा था। एक माह से आहार नहीं हो रहा था। उसने मुझसे बड़े प्यार से कहा- आचार्य विद्यासागर जी की चन्दनवाला, आज मेरे यहाँ पड़गाहन करने तुम खड़ी होना। मैंने हाँ कह दिया। जैसे ही आचार्य श्री का पड़गाहन सभी के साथ किया। मन्द-मन्द मुस्कुराते हुये मेरे समीप खड़े हो गये। परिक्रमा दी। पूजन हुई। मुझसे चौका वालों ने कहा- लो गिलकी की सब्जी। वह बिना हल्दी की थी तथा उसमें एक बाल भी था। सफेद सब्जी में मुझे बाल नहीं दिखा। बड़े हर्ष के साथ मैंने सब्जी दी। अंजुली में गई ही थी कि अन्तराय हो गया। मैं रोने लगी। आचार्यश्री ने हाथ से इशारा किया- रोओ नहीं। कुल्ला करके आचार्य श्री मन्दिर चल दिए। मैं भी साथ-साथ गई। लेकिन एक दीवार से मुँह छिपाये रोती रही। आचार्य श्री ने देखा कि यह बालिका रो रही है। चौके वाले सदस्यों से कहा- उसको यहाँ बुलाओ। लोगों ने मुझसे कहा- महाराज तुम्हें बुला रहे हैं। मैंने आदेश सुना तो आचार्य श्री के सामने रोनीदर्यसूरत में बैठ गई। आचार्य श्री बोले क्यों तुमने कल व्रत लिया था ? अभी कषाय का त्याग नहीं किया ? देखो रोना भी कषाय है। कषाय ज्यादा करना अच्छा नहीं होता। मैंने गुरुमुख से पहली बार सुना था कि रोना भी कषाय है। मैं सोचती रोना कैसे कषाय है ? अब नीची दृष्टि किये ही रोना कम तो किया, लेकिन वहीं बैठी रही। आचार्यश्री बोले- जाओ, अच्छे से भोजन करना। एक महिला बीच में बोली-एक बार खा लेना बेटा, रोओ नहीं। आचार्यश्री बोले- एक बार नहीं, दो बार भोजन करना। मेरा कहना मानना। कुछ नहीं, जाओ कह दिया ना। मैं आ गई। मैं सोचती रही,कितना वात्सल्य है गुरु में।
  25. सन् 1977 में आचार्यश्री पुन: कुण्डलपुर पधारे। आचार्यश्री ने कुण्डलपुर में चातुर्मास करने की स्वीकृति दी। उस समय दोपहर में प्रवचनसार ग्रन्थ की वाचना चल रही थी। जब उनका स्वाध्याय पूर्ण हुआ तो मैंने एक भजन सुनाया। फिर साहस बटोर कर आचार्यश्री के पीछे-पीछे चलने लगी, वसतिका की ओर। मुझे देखकर सारे लोग आचार्य श्री के पास जा पहुँचे। आचार्यश्री बोले- यह इतनी सारी भीड़ यहाँ क्यों आ गई ? मैंने कहा- मुझे आज आपसे ब्रह्मचर्यव्रत लेना है। इन सबको पता लग गया है, इसलिए ये सब हमारे कुटुम्ब परिवार के तथा पटेरा वाले लोग हैं। अच्छा- आचार्य श्री ने कहा। फिर पूछने लगे- अच्छा, कौन सा व्रत लेना है। मैंने कहा बालब्रह्मचर्यव्रत, जीवनपर्यन्त और दूसरी प्रतिमा भी लेना है। सुनते ही आचार्य श्री मुझको बड़ी स्नेहभरी दृष्टि से देखने लगे। देखते ही तेजी से मुस्कुराते रहे। मैंने फिर बात दोहरायी और श्रीफल चढ़ा दिया। फिर आचार्यश्री बोले- अभी तुम छोटी हो। मैंने कहा- शरीर छोटा है, ऐसा सुना और पढ़ा है। मगर आत्मा सबकी बराबर एक-सी होती है। सुनकर आचार्य श्री बहुत तेजी से हँसने लगे। कहते हैं- अच्छा। मैंने पुन: कहा- आपसे ही व्रत लेकर आपको गुरु बनाना है। आज 9 अगस्त है, मुझे बड़े बाबा ने स्वप्न दिया था कि यह तुम्हारे गुरु हैं, इनसे व्रत लो। मुझे ऐसा स्वप्न आया है। अगर आप नहीं देंगे तो मैं बड़े बाबा से ले लेंगी। लेकिन शायद वह प्रमाणित नहीं होगा। आप चेतन गुरु हैं। बातें सुनकर नीची दृष्टि किये हुए मुस्कुराते रहे। फिर वे बोले- लगता है यह वही बालिका है जो पिछले वर्ष मुझसे व्रत माँग रही थी। मैंने कहा आचार्यश्री आपने उस समय नहीं दिया था, मगर मुझे आपसे ही व्रत लेना है। आचार्यश्री बोले- अभी पाँच साल का ले लो। मैंने कहा- आचार्यश्री, पाँच साल का नहीं, जीवन पर्यन्त का चाहिये और दो प्रतिमा भी चाहिये। मेरे जीवन पर मेरा अधिकार है, मुझे अपना जीवन सार्थक बनाना है। आचार्यश्री बोले- कह दिया न, पाँच साल का ले लो। मेरी तरफ स्नेहभरी दृष्टि से देखा, फिर सभी दर्शकों की तरफ देखकर कहते हैं कि- मेरे गुरु आचार्य ज्ञानसागर जी ने कहा था- मैं अपने जीवन में गुरुकुल नहीं खोल पाया तुम गुरुकुल खोलना। लगता है यह वही बच्ची तो नहीं है गुरुकुल का उदघाटन करने वाली। मैंने ये वाक्य गुरुमुख से सुने। मैंने कहा- जी, मैं ही हूँ। आप मुझे जीवनपर्यन्त का व्रत दीजिये, फिर बहुत सोच विचार करते हुये सभी कुटुम्बी जनों से मेरे बारे में पूछने लगे। सभी ने कहा बच्ची तो धर्मात्मा है। रात को पानी भी नहीं पीती। ऐसी कई बातें उन्होंने बताई। आचार्यश्री बोले- बच्ची पढ़ी लिखी है, बी.ए. प्रथम वर्ष। मैं तो नौवी कक्षा तक ही पढ़ा हूँ। यह मुझसे ज्यादा पढ़ी है। ऐसा बोले और कहते हैं- जीवन पर्यन्त व्रत देने का अभी मुझे साहस नहीं हो रहा है, लेकिन यह तो जिद कर रही है। सभी से कहते हुए बोले- बोलो, क्या करें ? माँ से पूछा तो माँ कहने लगी महाराज श्री पाँच साल का ही ठीक है। अधिक का नहीं देना। बोले- यह तो मान नहीं रही। फिर मैंने आचार्यश्री से कहा- कोई भी माँ-बाप व्रत दिलवाने में राजी कभी नहीं होते। आचार्यश्री ने तेजी से हँसते हुए मेरी तरफ देखा। मैंने कहा आचार्य श्री मुझे जीवनपर्यन्त का ही चाहिये। आचार्य श्री बोले- अच्छा ले लो, अपना श्रीफल चढ़ा दो। मैंने श्रीफल चढ़ा दिया। जीवन पर्यन्त के लिए मुझे व्रत दे दिया। फिर मैंने कहा- दूसरी प्रतिमा के भी व्रत चाहिये। मैंने बारह व्रतों के बारे में समझकर, नोट बनाकर, कापी में लिख लिये। आचार्य श्री बोले- अच्छा, व्रत भी कापी में लिख लिये हैं। जी महाराज। इसलिये प्रतिमा भी चाहिए। आचार्य श्री ने कहा- इसमें तो मात्र दो बार भोजन करना पड़ेगा ! मैंने कहा- इसकी साधना कर ली, तीन बार अन्न खाने का नियम था। अब दो बार खा लूगी। ऐसा फिर सुनते ही आचार्यश्री बोले- देखो सभी लोग सुनो। बच्ची ने ब्रह्मचर्य व्रत और दो प्रतिमा के व्रत अपनी जिद से ग्रहण कर लिये। कोई अब इसको, कभी किसी भी प्रकार से ताडना मत देना। मेरी तरफ देखकर कहते हैं- तुमने व्रत ले लिया है। घर में रहोगी तो कभी किसी चीज को माँगकर पूर्ति नहीं करना। फिर सभी को कहा उठो सभी लोग। मुझसे कहा- तुम और तुम्हारी माँ यही बैठी रही। मैं और मेरी माँ आचार्यश्री के पास बैठी रहीं। आचार्य श्री ने ब्रह्मचर्यव्रत के बारे में तथा वेशभूषा कैसी रखना, किस तरह से व्रतों का पालन करना, किस प्रकार का आहार लेना, किस प्रकार मर्यादा से खाना, उठना, बैठना आदि का तरीका समझाया। जब मैं नमोऽस्तु करके जाने लगी तो कहते हैं- दो बार अन्न खाना। लेकिन तीसरी बार फलाहार करना, क्योंकि अभी तुम्हें अध्ययन करना है। अन्तराय भी अभी ऐसे पालन करना, जिस सामग्री में कुछ आ जाये उसको अलग करना ध्यान रखना। धीरे-धीरे ही साधना करना। बाद में मैं सब बताता जाऊँगा। लौकिक पढ़ाई का विकल्प नहीं करना। बस जाओ, मैं अब प्रतिक्रमण करूँगा। मैं नमोऽस्तु करके आ गई। मन को लगा जैसे वर्षों की समस्या सुलझ गई हो।
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