मेरा व्रत लेने का दूसरा दिन था। जबलपुर वाली कुसुम बाई का चौका लगा था। एक माह से आहार नहीं हो रहा था। उसने मुझसे बड़े प्यार से कहा- आचार्य विद्यासागर जी की चन्दनवाला, आज मेरे यहाँ पड़गाहन करने तुम खड़ी होना। मैंने हाँ कह दिया। जैसे ही आचार्य श्री का पड़गाहन सभी के साथ किया। मन्द-मन्द मुस्कुराते हुये मेरे समीप खड़े हो गये। परिक्रमा दी। पूजन हुई। मुझसे चौका वालों ने कहा- लो गिलकी की सब्जी। वह बिना हल्दी की थी तथा उसमें एक बाल भी था। सफेद सब्जी में मुझे बाल नहीं दिखा। बड़े हर्ष के साथ मैंने सब्जी दी। अंजुली में गई ही थी कि अन्तराय हो गया। मैं रोने लगी। आचार्यश्री ने हाथ से इशारा किया- रोओ नहीं। कुल्ला करके आचार्य श्री मन्दिर चल दिए। मैं भी साथ-साथ गई। लेकिन एक दीवार से मुँह छिपाये रोती रही। आचार्य श्री ने देखा कि यह बालिका रो रही है। चौके वाले सदस्यों से कहा- उसको यहाँ बुलाओ। लोगों ने मुझसे कहा- महाराज तुम्हें बुला रहे हैं। मैंने आदेश सुना तो आचार्य श्री के सामने रोनीदर्यसूरत में बैठ गई। आचार्य श्री बोले क्यों तुमने कल व्रत लिया था ? अभी कषाय का त्याग नहीं किया ? देखो रोना भी कषाय है। कषाय ज्यादा करना अच्छा नहीं होता।
मैंने गुरुमुख से पहली बार सुना था कि रोना भी कषाय है। मैं सोचती रोना कैसे कषाय है ? अब नीची दृष्टि किये ही रोना कम तो किया, लेकिन वहीं बैठी रही। आचार्यश्री बोले- जाओ, अच्छे से भोजन करना। एक महिला बीच में बोली-एक बार खा लेना बेटा, रोओ नहीं। आचार्यश्री बोले- एक बार नहीं, दो बार भोजन करना। मेरा कहना मानना। कुछ नहीं, जाओ कह दिया ना। मैं आ गई। मैं सोचती रही,कितना वात्सल्य है गुरु में।