एक बार आचार्य श्री कहने लगे- अच्छा जोड़ा बना हीरा, रत्ती, मणि, कचन ये पृथ्वी के बाईयों के नाम हैं। यहाँ पुष्पा, सुमन, कुसुम फ्लों के नाम हैं। इस प्रकार कहकर हम लोगों को बहुत तेजी से हँसने का अवसर दिया।
एक बार कुण्डलपुर जी में आचार्य श्री मूलाचार का स्वाध्याय करा रहे थे। क्लास करीब आधा घण्टे की हो चुकी थी। हम दोनों कपड़े धोने में लगे हुये थे। आचार्य श्री ने देखा कि ये लोग अभी तक नहीं आयीं। बाद में उन्होंने हम दोनों को आते हुये देख लिया तो कहते हैं- भविष्य में बनने वाली आर्यिकाओं इतनी देर कैसे हो गयी ? हम दोनों ने जैसे सुना चुप हो गये। मुंह छिपाने लगे। आचार्य श्री को भी न देख सके। आचार्य श्री बोले- देखो, इसमें पाठनिकल चुका है। जैसे पका हुआ भात आसानी से खाया जा सकता है। वैसे ही एकान्त में पायी जाने वाली स्त्री आसानी से भोगी जा सकती है। इसको अपनी कापी में नोट करके रख लेना। और जितना मूलाचार में विषय निकल गया उसको बाद में पढ़ लेना। देखो, इन वाक्यों में आचार्य श्री की हम दोनों के प्रति आत्मीयता। जैसे पिताजी को बेटी की सुरक्षा सम्बन्धी चिन्ता हमेशा लगी रहती है। वैसे ही गुरु जब शिष्य-शिष्याओं को व्रत देते हैं, तो उनकी सुरक्षा करने का हमेशा ख्याल बना रहता है। सदमार्ग दिखाने का ध्यान बना रहता है। तथा स्वयं अपना सम्यक आचरण बनाकर कुछ विरासत में, शिष्य गुरु से ले लिया करता है। गुरु का आचरण अगर शुसंस्कारमय होता है तो अपनी उपादान की योग्यता के अनुसार शिष्य ग्रहण करता रहता है। क्योंकि इस समय वह मोक्षमार्ग में कोरी स्लेट जैसा रहता है। मेरा हाल-मेरा मन-मस्तिष्क ऐसा ही था। गुरु ने जैसा समझाया, वैसा ही आज स्मृति पटल पर अंकित है। जिसको कभी भुलाया नहीं जा सकता। धन्य हो गुरुराज सम्यक् मार्ग जो आपने मुझे दिखाया।