एक बार आचार्य श्री ने यूबौन जी के चातुर्मास के समय कहा था कि देखो, तुम लोग रात्रि में एक चिटाई या पाटा पर एक साड़ी में आर्यिका की साधना सम्बन्धी अभ्यास किया करो। हम कुछ बहिने आचार्य श्री ने जो साधना का क्रम बताया था वैसा करने लगे। मगर रंगीन साड़ी पहिनने वाली एक बहिन हम लोगों की नकल करने लगी। जरा सा माइंड उसका डिस्टर्ब हुआ। अब वह एक ही साड़ी में इधर-उधर दिन में भी घूमने लगी। जब ऐसा आचार्य श्री देखा तो बोले- तुम लोग रात्रि में साधना करती थीं, वह भी करने लगी। इसलिए ऐसा देखा आचार्य श्री ने रोक लगा दी। कहने लगे बस इसका अभ्यास जब आर्यिका बनोगी तभी हो जायेगा, रहने दो।
इन सब बातों का कहने का यह अर्थ है कि हमारे आचार्य श्री ने हमें ब्रह्मचारिणी के वेश में रहते हुए ही सभी प्रकार का अनुभव दिया। अभ्यास कराया। तभी हम सब वरिष्ठ बहिनों को योग्य बना पाये। इस प्रकार करते हुये हमें वर्षों लगे, तब कही आर्यिकापद की पात्रता के योग्य उन्होंने पाया।
एक बार आचार्य श्री कुण्डलपुर क्षेत्र के छैघरिया आदिनाथ मन्दिर की परिक्रमा पथ पर बैठकर स्वाध्याय कर रहे थे। मैंने आचार्य श्री को नमोऽस्तु किया। मुझे आशीर्वाद देकर कुछ रुके, फिर बोले- तुम अभी बीच में फलाहार लेती थी, अब तुम्हारी साधना हो चुकी होगी। बीच में अब कुछ नहीं लें तो चल जायेगा ना ? अन्तराय का पालन भी अब पूरा करना है। मैंने सुना तो सहर्ष स्वीकार किया। बिना कुछ बोले मुझे गुरुप्रसाद मिला। आचार्यश्री का क्रम से साधना की ओर ले जाने का लक्ष्य कि मेरे शरीर की क्षमता के अनुरूप त्याग कराया था पूर्व में। अब मेरी क्षमता बढ़ जाने पर साधना सिर्फ दो बार भोजन की बना दी।
कुछ समय व्यतीत हुआ। अपने आप मुझसे कहते हैं- एकाशन की साधना करना, सायंकाल के समय सिर्फ जल बगैरह लेना। यह सब अनकहे ही गुरु से साधना का क्रम मिलता रहा। यह सत्य है कि गुरु यह या बनाना है। यही है मोक्षमार्ग पर चलाने का क्रम। मुझे उस दिन स्नेह-वात्सल्य का झरना मिला था। मैंने सभी बहिनों को सुनाया- आज आचार्यश्री ने मुझे एक बार आहार करने की प्रतिज्ञा दिला दी। शाम के समय सिर्फ जल ही ल्यूँगी। बाद में वह भी छोड़ दूंगीं।
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