नैनागिरि के चातुर्मास के बाद शिखर जी यात्रा का प्रसंग बना। कटनी वालों की भावना थी कि आचार्य श्री के साथ जो साधु हैं, ब्रह्मचारी हैं, ब्रह्मचारिणी बहिनें हैं उन सभी को शिखर जी की यात्रा करायेंगे। उनकी भावना से आचार्य श्री का मन बन गया, आचार्य श्री ने हम सभी बहिनों को बुलाया और कहा- जो शिखर जी जाना चाहती हैं उन सभी के नाम की एक सूची बना ली। सभी ने अपने-अपने नाम लिखवा दिये। आचार्य श्री ने बहिनों के नाम का पृष्ठ देखा तो कहने लगे- इसमें जो भी शिखर जी जायेगा वे पैदल ही चलेंगे। वाहन पर कोई नहीं बैठेगा। भले ही श्रावक लोग बीच-बीच में छोटी गाड़ियों की व्यवस्था करेंगे। बीच-बीच में बैठने का आग्रह भी करेंगे, मगर कोई उसमें बैठेगा नहीं। ऐसा मंजूर हो तो कहो। सभी ने कहा- आचार्य श्री हमारा वाहन का त्याग, सभी ने कायोत्सर्ग कर लिया। उसमें मैंने भी कायोत्सर्ग किया।
विहार प्रारम्भ हुआ शिखर जी की ओर। कुछ दिन पश्चात् अभानातक संघ पहुँचा कि मेरे एक पैर में बड़ा फफोला हो गया। वह एड़ी से लेकर पंजे तक था। दूसरा पैर भी फफोलों से भरा था। पर बीच-बीच में सड़क की रगड़ के कारण उसमें छिद्र हो गये थे। मैं चिन्ता में थी कि अब आज का विहार कैसे करूंगी ? धर्मशाला के पास ही अॉगन में बैठी थी। वहाँ से आचार्य श्री शौचक्रिया के लिये निकले। किसी बहिन ने कहाआचार्य श्री पुष्पा दीदी के पैर में बहुत बड़ा छाला हो गया है, चलते नहीं बन रहा। सुनते ही आचार्य श्री एक मिनट रुक गये। कहने लगे- सूई में धागा पिरोकर जरा सा छेद करके, उसमें छोटी सी गाँठ बाँध दी। जिससे उसमें से पानी निकल जायेगा। फिर उसमें पानी नहीं भरेगा। यह उन्होंने खड़े होकर मेरा उपचार करवा दिया और फिर यह कहते हुये शौचक्रिया को निकल गये कि 'असंयम की खाल है यानि असंयम अवस्था की चमड़ी है। पानी पूरा निकल गया फिर हल्दी का कड़का आदि से शिकार्ड की, पट्टी बाँध दी गई। पट्टी दोनों पैरों में थी। जब मैं ऐसा करते हुये चलने लगी तो आचार्य श्री ने मुझे देखा तो कहते हैं- 'इतना कभी चलना नहीं हुआ, अधिक विहार हो गया है।
मैंने कहा- आचार्य श्री अब मैं कैसे विहार करूंगी ? वाहन का त्याग है। आचार्य श्री ने कहा- त्याग तो वाहन का मैंने ही करवाया था, अब यथायोग्य देख लेना। मैंने गुरु की अनुभय-वचन भाषा को सुना तो भी मैंने कहा- आचार्यश्री धीरे-धीरे चल लूगी। आचार्य श्री कहते हैं- पीछे रह जायेंगी, कह दिया न, माना करो।
मैंने गुरु आदेश अनुभयभाषा में समझ लिया और दो तीन गाँव तक वाहन पर बैठकर फिर आचार्य श्री के साथ ही पैदल विहार करने लगी। आचार्य श्री विहार के समय हम सभी बहिनों व श्रावकों को कवितायें सुनाते थे। कभी शिक्षाप्रद बातें सुनाते थे। जब कभी कोई सड़क पर गलत चलने लगता था, तब कहते थे- देखो, अभी तुम लोगों को सड़क पर चलना नहीं आता। इतना भी ज्ञान नहीं है कि दाँये तरफ चलना चाहिये कि बाँये तरफ ? यहाँ के अनुशासन सीखो। कभी कहने लगते-देखो सभी साथ हैं कि नहीं, कोई पीछे तो नहीं रह गये। जब विहार करके एक जगह मन्दिर या धर्मशाला में आते थे, तब पूछते थे सभी लोग आ गये। तब कोई कहता कि वह बहिन अभी नहीं आ पायी, तब पीछे वाली बहिन आ जाती और नमोऽस्तु करती थीं। तब आचार्य श्री बड़े स्नेह के साथ कहते थे- क्यों तुम पीछे रह गई थीं। धीरे-धीरे चलती हो ? कल से ऐसा करना पहले से आगे-आगे चलना, जिससे साथ हो जाओगी। कभी कहते थे- देखो, तुम सभी एक-एक ग्रास साधुओं को आहार देना, फिर भोजन करने लग जाना। आचार्य श्री को यह पता था कि कटनी वाले, कोतमा वाले जो साथ चौका लेकर चल रहे हैं, उन्होंने ब्रह्मचारी भाई-बहिनों की व्यवस्था अलग कर रखी है, इसलिये वह संकेत का देते थे। कभी विहार के समय कहते थे- देखो, बिहार में सब विहार कर रहे हैं। यानि बिहार प्रान्त में हैं। ऐसा मनोरंजन करते रहते थे।
कभी कहते थे कि देखो, सभी जल्दी-जल्दी सामायिक को बैठना, आज लम्बा विहार है, जो धीमे-धीमे चल पाते हैं वे इतने आगे रहेंगे, जिससे हमें सफेद झण्ड़ी दिखाई देती रहे। कभी जो बहिन पीछे रह जाती वह दौड़-दौड़ कर आती थी तो कोई सज्जन बीच में आचार्य श्री से शिकायत के रूप में कहते-देखो ब्रह्मचारिणी बहिनें दौड़ रही हैं। आचार्य श्री पीछे मुड़कर देखते। उनके देखने पर धीमे-धीमे चलने लगते। फिर दौडने लगते। फिर आचार्य श्री के पास आकर कहती- आचार्य श्री हम लोग दौड़कर-दौड़कर आये। आचार्य श्री हँसने लगते। फिर कोई कहता- आचार्य श्री वह बहिन दौड़-दौड़कर आ रही, आप आगे-आगे चल रहे हैं, वह भी साथ चलना चाहती है। लेकिन चल नहीं पा रही है। तब आचार्य श्री बोलते- हाँ, आ जायेगी और स्वयं अपनी चाल धीमी बना लेते थे। जब साथ आ जाती तो कहते थे- क्यों दौड़-दौड़ कर आ गई ? क्या करें? हँसकर कहते ऐसा करना पड़ेगा। तभी तो साथ कर पायेंगी। विहार नैनागिर पाश्र्वनाथ मन्दिर से शुरु हुआ शिखर जी पहुँचे उस समय हम सभी बीस ब्रह्मचारिणी बहिनें एवं ब्रह्मचारी भाई थे। श्रावकों-श्राविकाओं का समूह लगभग दो-तीन सौ का था। बीच-बीच में टेंट लगाकर श्रावक चौका तैयार करते थे। जब कभी श्रावकों व हम बहिन-भाईयों को रास्ते में मन्दिर नहीं मिलता था, तो आचार्य श्री से कहते थे- आचार्य श्री मन्दिर नहीं है, बिना मन्दिर के आज हम लोगों को भोजन करना है। आज किसी रस का त्याग करती हूँ। आचार्य श्री सहसा कह देते-लो, मैं बैठ गया, तुम सब पूजन कर लो। हो गया मन्दिर। पूजन के समय आचार्य श्री को बड़ा पाटा रख दिया जाता था उस पर आचार्य श्री बैठ जाते थे। सभी पूजन करते हुए आनन्द का अनुभव करते थे।
पूजन के बाद कुछ प्रवचन जैसा संक्षिप्त में बोलकर हम लोगों को खुश कर देते थे। ऐसा दो सौ किलोमीटर तक चला। जहाँ मन्दिर आदि कुछ नहीं मिलता था। बस, हम सबके नाथ गुरुदेव का प्रेम-वात्सल्य था। कहाँ किसको क्या हो रहा, सभी देखभाल आचार्य श्री स्वयं करते थे। सबके पैरों का हाल पूछते- कैसे हैं छाले ? अगर न पूँछ पायें तो हम सभी बहिनें मिलकर आचार्य श्री को एक दूसरे के बारे में कहते थे। आचार्य श्री के साथ शिखर जी की यात्रा का आनन्द अनूठा ही था। एक साथ आगे-पीछे यात्रा करते थे। टोंक पर आचार्य श्री के साथ दर्शन करते थे। एक साथ जय बोलते, बड़ा आनन्द आता था।
शिखरजी में कभी शाम के समय नीचे आ पाते थे, तब आचार्य श्री के आहार होते थे, हम सब देखकर आहार करते थे। लम्बे समय तक शिखर जी में आचार्य श्री के साथ रहे। किसी ने सात वन्दना की तो किसी ने इक्कीस। जिनकी जितनी श्रद्धा-शक्ति रही, करतीं रहीं। आचार्य श्री ने भी कीं। शिखर जी में पूज्य आर्यिका 105 सुपाश्र्वमति माता जी का सानिध्य भी हम लोगों को मिला। आचार्य श्री के पास आकर वे तत्वचचा करती थीं। आचार्य श्री उनकी शकाओं का समाधान करते थे। एक बार चर्चा हुई कि प्रायश्चित ग्रन्थ पढ़ने का अधिकार आर्यिकाओं को नहीं है। आचार्यों को ही प्रायश्चित ग्रन्थ पढ़ने का अधिकार है। चर्चायें घण्टों तक होती रहती थीं। उनका लाभ हम सब बहिनों को मिलता था। अन्य विषय पर भी होती, आचार्य श्री सभी का समाधान देते थे। वहाँ जब आचार्य श्री को घेर कर सभी बहिनें एवं श्रावकजन बैठते थे तब वह दृश्य सुहावना बन जाता था।
इसके पूर्व ही ईसरी में आचार्य श्री ने हम बहिनों को नौंवी प्रतिमाधारी बना दिया था। एक बार मैंने आचार्य श्री के समक्ष एक वर्ष तक नमक न खाने का त्याग किया था। छह माह तक उसका निरतिचार पालन किया भी लेकिन इसके बाद कुछ शारीरिक शिथिलता आने लगी, उठने-बैठने में घुटनों में परेशानी जैसी होने लगी तो मेरे साथ रहने वाली अंगूरी बहिन ने आचार्य श्री के पास जाकर कहा-आचार्य श्री,पुष्पा दीदी को नमक बिना आहार बिल्कुल नहीं भाऊत है। आचार्यश्री बोले- भाऊत क्या होता है?
हम दोनों हँसने लगे कि भाऊत का अर्थ आचार्यश्री को क्या बतायें ? कुछ समझ में नहीं आ रहा था क्या कहें? आचार्य श्री ही बोलेबताओ क्या है ये भाऊत ?
मैंने कहा- अच्छा नहीं लगना, भोजन रुचता नहीं है। आचार्यश्री कहते हैं- बुन्देलखण्डी लोग बिना नमक के अधिक समय रहनहीं सकते। उनको नमक खाना जरूरी होता है। दक्षिण के साधु बिना नमक के रह जाते हैं। यही विशेषता है। अच्छा, त्याग किया था एक वर्ष का। नहीं चल पा रहा है, कोई बात नहीं, इसके बदले में कुछ और अनुष्ठान कर लो। क्या कर सकते हैं ? जब इसके बिना चल ही नहीं रहा, इसलिये तो सोच समझकर अपनी शक्ति के अनुसार त्याग करना चाहिए। इस प्रकार आचार्यश्री की समझायस को सुना, समझ में आया- अपनी क्षमता के अनुसार त्याग करना चाहिये।
इसके बाद आचार्य श्री ने हम सभी बहिनों को जो अष्टम प्रतिमाधारी थी, नौंवी प्रतिमाधारी बना दिया। किसी ने अपनी योग्यता के अनुसार प्रतिमा ली, किसी ने कुछ त्याग किया। शिखरजी का इतिहास आज भी स्मृतिपटल पर है। हम सभी के लिए आचार्य श्री के साथ वे आनन्द के क्षण थे।
आचार्य श्री का वात्सल्य अपनी शिष्यमण्डली पर सिमटा हुआ लगता था। प्रत्येक बात जैसे अपनी माँ को नि:संकोच होकर सुनाते रहते हैं बच्चे। वैसे ही आचार्य श्री से मन में उठे प्रश्नों को समाधान नि:संकोच होकर पाते रहते थे। कभी भी प्रश्न पूछा तो उसके साथ स्वयं अपनी तरफ से और अनुभव बताते थे। इस प्रकार हम शिष्यों पर गुरु ने अधिक प्रेम-वात्सल्य का झरना बहाया था। सो धर्ममय शिखर जी की यात्रा वात्सल्यमयी भी हो उठी।