एक बार आचार्य श्री बोले- देखो, हाथ में परिमार्जन करने के लिए एक रूमाल रखा करो। मैं परिमार्जन का अर्थ ही नहीं समझती थी। पर हाथ में सफेद रूमाल रखती थी। इसे हाथ में क्यों रखा है, यह नहीं जानती थी ? क्षुल्लक श्री योगसागर जी के पास ऐसे ही बैठ गई। वह कहते हैं- ब्रह्मचारिणी जी परिमार्जन करके बैठो। मैंने कहा- कैसा करना पड़ता परिमार्जन ? उन्होंने कहा- रूमाल का एक छोर पकड़ो और इस प्रकार जमीन पर लगाओ। मैंने यह क्रिया क्षुल्लक योगसागर जी से सीख ली। लेकिन जब मैं मन्दिर में या अन्य जगह इस प्रकार परिमार्जन करके बैठती तो जो न समझ थे वे कहने लगते- इनको अपनी साड़ी की बड़ी चिन्ता है, कि गन्दी न हो जाये। धूल झाड़कर बैठती हैं। मुझे सुनकर यह अच्छा नहीं लगता था। इसलिए मैंनासमझ, अज्ञानी लोगों के सामने ऐसे ही बैठ जाती थी अर्थात् बिना परिमार्जन किये ही बैठ जाती थी। लेकिन जब कोई नहीं रहता, उस वक्त मैं बहुत ही सुन्दर तरीके से परिमार्जन करती थी। अगर कोई सामने दिख जाता तो नहीं करती थी। एक दिन मैंने आचार्य श्री से कहा- आचार्यश्री मैं रूमाल से परिमार्जन करती हूँ तो कुछ महिलायें व्यंग्य करती हुई कहती हैं- साड़ी गन्दी हो जायेगी, इसलिए करती हैं। आचार्य श्री बोले- ऐसा नहीं है, जीवों की सुरक्षा के लिए करना होता है। चाहे चीटियाँ आदि जीव हों या न हों व्रती बिना परिमार्जन के बैठता नहीं है। उसका यह आवश्यक कर्तव्य है। जैसे हम लोग पिच्छिका से करते हैं, वैसे व्रती को अपने कोमल वस्त्र से परिमार्जन करके बैठना चाहिए। गुरु से जैन धर्म की सूक्ष्मता समझकर नि:संकोच हो गई और फिर परिमार्जन करने लगी।
आचार्यश्री ने समय-समय पर बहुत शिक्षाप्रद सूत्र दिये, जो कि माला जैसे हम फेरते रहते थे। एक दिन मैंने आचार्यश्री को अकेले स्वाध्याय करते हुए देखा, मैं उनके पास गई और नमोऽस्तु किया निवेदन किया- आचार्यश्री मुझे बड़े बाबा ने जो स्वप्न दिया था उस को देख लीजिये। मैंने कापी में लिख रखा बा। आचार्यश्री बोले- अभी नहीं, बाद में देख लूगा। फिर बाद कभी नहीं आया। मैं गुरु के पास स्वप्न दिखाने कभी नहीं गई।
जब कभी रविवारीय प्रवचन कुण्डलपुर में होता, सभी हुलक एक मंच पर पंक्तिबलुबैठ जाते थे। इसके बाद आचार्य श्री इशारा कर देते कि उसको कह दो, यहाँ बैठ जाये। मैं मंच की ही लाइन के नीचे बैठ जाती। मुझे संघस्थ सदस्या मानकर चलते थे। गुरु का असीम वात्सल्य मुझे मिलता था। मैं सब कुछ माँ की ममता गुरु में देखती थी। एक बेटे को माँ कैसे पाल-पोषकर बड़ा करती है। चिडिया अपने बच्चों को सेती है, मछली जल के अन्दर रहकर, अपनी अाँखों से ऊर्जा देकर सेती है। उसी प्रकार मुझ अबोध बालिका को गुरु ने आज्ञा, आदेश, निर्देश के माध्यम से मोक्षमार्ग पर बढ़ाया। यह मैं ही जानती हूँ कोई अन्य नही ।
जैन सिद्धान्त के अध्ययन के लिए मेरे लिये चिन्ता की। जब तक कुण्डलपुर में रही, रत्तीबाई सतना वाली, कमलाबाई बामौरा वाली मुझे जैनसिद्धान्त प्रवेशिका, तत्वार्थसूत्र आदि पढ़ाने लगीं। आचार्यश्री कभी-कभी पूछ लेते थे- क्यों बाईजी पढ़ा रही हैं, अच्छा लग रहा है ?