एक बार मढ़िया क्षेत्र की बात है। जब इन्दिरा गाँधी जी का निधन हुआ था। अँगूरी बहिन और मैं दोनों मढ़िया क्षेत्र जी में बड़ी-बड़ी चट्टानों पर चढ़कर शौच क्रिया को जा रहे थे। चट्टान पर चढ़ते हुए हमारा बेलेन्स बिगड़ गया। इससे जल से भरा केन और मैं, दोनों ही फिसलकर गिरे। फिसलन इतनी अधिक थी कि हम नीचे कचरे के ढेर तक पहुँच गये। गिरते हुए भी सोच रही थी कि यदि मुझे अधिक चोट आ गयी तो ऐसा न हो कि मैं दीक्षा लेने से वंचित हो जाऊँ। अगर चोटें नहीं आयीं तो में यहाँ से उठकर आचार्यश्री के पास जाकर दस उपवासों का प्रायश्चित लेंगी।
इन विचारों के साथ मैं कई चट्टानों का घर्षण भी महसूस कर रही थी। साथ में जो बहिन थी वह देख रही थी। वह जल्दी से आयी, देखा मुझे कचरे के ढेर पर तो बड़ी ही आत्मीयता से उठाया। फिर वह पास में विराजमान आचार्य श्री के पास ले गई। घटना को आचार्य श्री को बताया। मैंने अपने विचार बताये। आचार्य श्री से कहा- वहाँ दस उपवास करने का भाव बनाया था। मुझे दस उपवास दे दीजिये।
आचार्य श्री बोले- अच्छा गिरते समय यह सब विचार कर रहीं वों। कि दस उपवास करूंगी। इन शब्दों को बोलते जा रहे थे और मुस्कुराते जा रहे थे। फिर करुणा से भरकर बोले- ऐसा कर लो, इसके उपलक्ष्य में दस उपवास तत्वार्थसूत्र के कर लो या सहस्रनाम के। फिर आशीर्वाद देते हुए कहते हैं- गिरते समय कहीं अधिक चोट तो नहीं लगी ? इसका उपचार कर लेना। मुदी चोट लग जाती है। अभी दर्द नहीं करेगी। जब बादल-बदलियाँ होती हैं, मौसम गड़बड़ होता है, उस समय इन चोटों का असर आता है।
हम सभी बहिनों को मुदी चोट का आगे क्या प्रभाव पड़ता है, उसकी शिक्षा मिली तथा सहानुभूति के शब्द सुनने मिले। गुरु की मुस्कुराहट देखकर तात्कालिक लगी चोट भी भूल गयी। दु:ख शोक का माहौल हँसी में बदल गया। यह है गुरु की शिष्यों के कष्ट-दु:ख भुलाने की कला।
एक बार मैं एक महाराज के पास गई तो उनके मन्त्रों से प्रभावित होकर माया बहिन बण्डा, जो अन्न नहीं खा पाती थी, को उनके पास रहकर अन्न खाने के लायक बनवा दिया। उनके निकट में करीब तेरह दिन तक रही। हमारे आचार्य श्री ने यह सब सुना तो, कहते हैं- मैंने तुम्हें बारह वर्ष तक पढ़ाया है। देव-शास्त्र-गुरु कौन होते हैं? इनकी परिभाषा भूल गर्ड हो ? बताओ इनकी परिभाषा क्या होती है ? ऐसे शब्दों को सुनकर मैं | मौन हो गई, एक शब्द नहीं बोल पायी। पुन: आचार्य श्री बोले- बोलो इनकी परिभाषा। मैंने कहा
आचार्य श्री विवेक खो गया था। मेरे इन वाक्यों को सुनकर बड़ी तेजी से हँसते हुए कहते हैं- अच्छा अब विवेक आ गया। एक ही क्षण में आचार्य श्री का आक्रोश मुस्कुराहट में परिवर्तित हो गया। मेरी घबराहट आँखों में अाँसू बन कर संचित हो गयी। गलती महसूस हो गयी थी, इसलिए मैं वहीं बैठी-बैठी तेजी से रोने लगी। तब कहते हैं- अब रोओ नहीं, जाओ, अच्छे से सामायिक करो।