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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. जैसे-जैसे काल परिवर्तन हो रहा है वैसे ही वैसे संसार दशा और दिशा में भी परिवर्तन दिखाई दे रहा है। ज्ञान-विज्ञान के आश्चर्य जनक रूप से बढ़ते चरण और सद्ज्ञान- सदाचरण में होता ह्रास स्पष्ट दिखाई दे रहा है। इस स्थिति में भी सद्ज्ञानी- साधक अपनी सम्यक्चर्या- पथ अपनाये रहते हैं। इस का संकेत देता प्रसंग : बात प्रारंभ हुई कि महाराज आज के विज्ञान ने इतनी प्रगति कर ली है कि हम इंटरनेट के माध्यम से विश्व में कहाँ, क्या और क्यों हो रहा है, यहाँ पर बैठे-बैठे देख-समझ सुन सकते हैं। आचार्यश्री जी थोड़ी देर मौन रहे और मंद-मंद हँसते रहे फिर बोले- 'भरत और ऐरावत क्षेत्र में जो वृद्धि और ह्रास का कथन जैनागम में आया है। उसी के अनुसार आज अच्छी वस्तु का तो ह्रास हो रहा है और विषय कषायों की सामग्री का दिनोंदिन विकास हो रहा है। आज श्रुत ज्ञान का विकास तो हो रहा है, जिसे हम विज्ञान कहते हैं वही इन इंटरनेट आदि के रूप में दिखाई दे रहा है लेकिन सम्यक् श्रुत ज्ञान का विकास नहीं हो रहा है। उसमें तो ह्रास ही दिखता है।
  2. मैं कौन हूँ? इसको जानना है; पर मेरा क्या है? इसको बस समझना है। गुरु चरणों में बस एक बार शिष्य इसी भाव से अपना अपर्ण कर दे इसलिये वह जान जायेगा। स्वयं को पहचान जायेगा। जहाँ समर्पण होता है, वह प्रश्न चिह्न और विकल्पों का विराम होता है। कैसे हो समर्पण शिष्य का इसको समझाया आचार्याश्री ने। पढ़े यह प्रसंग :- 5 जून 1998 रविवार- भाग्योदय तीर्थ सागर में शाम को प्रतिदिन की तरह हम लोग आचार्यश्री जी की वैय्यावृत्ति कर रहे थे। तभी कलकत्ता निवासी श्री संपतलालजी छाबड़ा जो चातुर्मास में प्राय: 1-2 माह रहते हैं, वे शाम के समय आ गए। आचार्यश्री जी से संपतलालजी छाबड़ा बोले- 'महाराज जी हम लोगों के साथ अन्याय हो रहा है।' आचार्यश्री जी बोले- 'भाई कैसा अन्याय हो रहा है?" छाबड़ाजी ने कहा 'आचार्यश्री जी! आप अपने शिष्यों को दो-दो क्लासें लगाकर स्वाध्याय कराते हैं, और हम जैसे शिष्यों के लिए कोई क्लास में न बैठाते हैं, न अलग से क्लास लगाते हैं।' आचार्यश्री जी ने कहा- 'आप लोगों ने अभी सही शिष्यत्व स्वीकार नहीं किया है। क्योंकि आप लोगों जैसे शिष्यों को 20 वर्ष से देख रहे हैं। ज्यों के त्यों हैं। आप कहते हैं- कलकत्ता छोड़ना तो अब हम कैसे सोचें? छाबड़ा जी बोले- 'क्या हम लोग आपके शिष्य नहीं बन सकते? क्या हमारे पास उस एकलव्य की तरह गुरु भक्ति नहीं है? आप हमें भी एकलव्य बना दो?" आचार्यश्री जी बोले- 'छाबड़ाजी- एकलव्य बनाया नहीं जाता है, बनना पड़ता है?' संपतजी बोले- 'कैसे बनना पड़ता है?" आचार्यश्री जी- 'समर्पण से।' संपतजी- 'कैसा समर्पण होना चाहिए?’ आचार्यश्री- 'आचार्यों ने लिखा है- शिष्य गुरु के चरणों में ऐसा समर्पित हो कि उसके पास कुछ भी शेष ना रहे। पूरी तरह खाली होकर गुरु चरणों में समर्पित हो जाता है, वही समर्पण कहलाता है। ऐसा समर्पण एकलव्य ने किया था। एक उदाहरण देते हुए कहा जैसे पानी की वह बिंदु जब सिंधु के लिए अपना समर्पण करती है, तो वह अपना अस्तित्व समाप्त करके सिंधु में मिल जाती है। उसका अब अलग कोई अस्तित्व नहीं होता है। उसी प्रकार शिष्य के लिए होना चाहिए, उसका अपना अब कोई शेष न रहे, अपना सब कुछ गुरु चरणों में समर्पित कर देना ही सही गुरु भक्ति है। संपतजी बोले- इतनी कमी तो है, हम लोगों में।
  3. कभी-कभी संत भी मार्ग की भूल-भुलैयों में भटक जाते हैं। जंगल के रास्तों में अटक जाते हैं, ऐसे समय कोई ग्रामीण जन आकर रास्ता बताते हैं। जब संत पुरुषों के साथ वे ग्रामीणजन कुछ समय साथ रहते हैं तो उनके जीवन में संत भी अपना प्रभाव छोड़ जाते हैं। कैसे छोड़ते हैं? तो आचार्यश्री ने अपना एक प्रसंग सुनाया। बात सन 1977 के करीब की है। हटा से कटनी तरफ जाना था। एक रजपुरा से बाजना गाँव का जो रास्ता था, उसमें बहुत घना जंगल था। करीब 20-25 किमी. का रास्ता था। उस समय तो इतना रास्ता एक दिन में एक बार में तय कर लेते थे। विहार किया बाजना की ओर। साथ में कोई रास्ता दिखाने वाला नहीं था, एक दो व्यक्ति तो थे मगर सही रास्ता उन्हें भी पता नहीं था, जंगल था। चलते जा रहे थे तभी एक व्यक्ति आगे दिखा। देखकर संतोष हुआ चलो उससे रास्ता पूछ लेंगे। उसके पास जाकर पूछा क्यों बाबाजी बाजना का रास्ता कहाँ से है? पहले तो उसने चरण स्पर्श किया। इसके बाद उसने कहा- चलो बाबाजी हम बाजना का रास्ता दिखाते हैं। करीब एक-दो कि.मी. साथ आया वह आदिवासी जैसा लगता था। करीब 50-55 वर्ष की उम्र का होगा। रास्ते में चलते समय आचार्य श्रीजी ने उससे पूछा- क्या करते हो बाबाजी? अपने परिवार का पालन-पोषण करता हूँ।' आचार्यश्री ने उससे पूछा- माँस खाते हो? और शराब पीते हो? बोला- 'हम आदिवासी लोग हैं, जंगल में शिकार करते हैं, तो माँस खाते हैं और शराब आदि भी पी लेते हैं। आचार्यश्री ने सीधी सरल भाषा में उसके लिए समझाया। देखो बाबाजी हम मनुष्य हैं, माँस आदि खाने की हमें आवश्यकता नहीं है। हम मूलतः शाकाहारी हैं। हमें अन्न हैं, सब्जी हैं, फल हैं, इनसे अपना पेट भरना चाहिए। हम दूसरे जीवों को मारकर अपना पेट भरते हैं, तो पाप का बंध होता है। तुमने पहले पाप किया था, तो आज ऐसे गरीबी के साथ जन्म हुआ, अब पाप करोगे, दूसरे जीवों को मारोगे, तो नरक तिर्यच गतियों में भटकोगे। वह सब ध्यान से सुनता रहा। अंत में उसने माँस, मदिरा आदि का त्याग कर दिया। थोड़ी देर बाद 2-3 रास्तों वाला स्थान आया। बोला महाराज! इस रास्ते से सीधे चले जाओ। 2-3 मील है। बाजना यहाँ से करीब 1 घंटा लगेगा। आचार्यश्री ने कहा- जो नियम लिया है, उसका ध्यान रखना है। उसने कहा- 'हओ महाराज! ध्यान रखेंगे।' वह लौट गया। आचार्यश्री फिर बोले- उस दिन हमने सोचा, अच्छा हो गया। हमें रास्ता भी मिल गया और एक जीव का कल्याण भी हो गया, मांस का त्याग कराने से छोटे-मोटे बहुत से जीवों की भी रक्षा हो गई।
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