आचार्यश्री के दर्शन करने में रोज ही जाया करती थी। आचार्य श्री आशीर्वाद देते और मैं आशीर्वाद पाकर आ जाती। न मैं कुछ बोलती, न आचार्य श्री बोलते। यों कुछ कहना चाहते थे लेकिन कह नहीं पाते थे। श्री कजौड़ीमल आचार्य ज्ञानसागर जी के भक्त जी आचार्य श्री के पास हमेशा रहते थे। एक दिन कजौड़ीमल जी से आचार्य श्री ने कहाउससे कह देना कि वह सिर भी ढंके। कजौड़ीमल जी बोले- आचार्यश्री आपके दर्शन करने वह ब्रह्मचारिणी आती है, आप ही उससे कहो कि सिर ढंका करो।
आचार्य श्री ने कहा- अगर मैं कहूँगा तो वह शरमा जायेगी। तुम्हीं कह देना। आचार्य का आदेश पाकर कजौड़ीमल जी ने गुरु के द्वारा कही गयी बात मुझे सुनायी। कहने लगे- कल बेटी तू गुरु के दर्शन करने जाओगी तो सिर ढँक कर जाना। मैंने कहा- सिर ढँकने में मुझे शर्म आती है। क्यों तू गुरु का कहना नहीं मानेगी ? क्या ऐसा गुरु जी ने कहा है कि सिर ढँकना है। हाँ, मैं चुप हो गई। मैंने कहा- कब-कब ढाँकना, पूरे दिन, कि सिर्फ आचार्य श्री के सामने। कजौड़ीमल कहते हैं- अभी तो आचार्य श्री के सामने ढाँकना, चल इतना तो कर सही। मैंने स्वीकार लिया। दूसरे दिन जब सिर ढँक कर आचार्यश्री के दर्शनार्थ गई, तो मुझे देखकर आचार्य श्री ने मन्द-मन्द मुस्कुराते हुए, आशीर्वाद दिया। बाद में, कजौड़ीमल जी से कहा- आज वह सिर ढँककर तो आयी थी, लेकिन बाल नहीं दिखना चाहिये, इस प्रकार ढंकना चाहिए।
कजौड़ीमल जी ने मुझसे कहा- गुरुदेव ऐसा कह रहे थे। कल से बाल न दिखें ऐसा टैंकना है। मैं उसी प्रकार से सिर ढाँकने लगी। फिर कहते हैं- आचार्य श्री के पास ही नहीं, बल्कि कहीं भी सिर कभी खुला नहीं रखना है। इस प्रकार से मुझे सिर ढँकने की विधि गुरु ने बतायी थी।