एक बार मैंने आचार्य श्री से कहा- जब सामायिक करती हूँ तो मुझे नींद आने लगती है। सामायिक निरतिचार नहीं हो पाती। क्या करूं ? आचार्य श्री बोले- ऐसा करना जब सामायिक में नींद का झोका आये, तब उसको खण्डित अर्थात् अतिचार सहित मानकर पुन: शुरू करना। जब तुम्हारी एक घण्टे की सामायिक बिना नींद वाली हो, तभी अपनी निरतिचार वाली सामायिक मानकर उस जगह से उठना।
मैंने आचार्य श्री के द्वारा बतलाया गया नियम का पालन करने का संकल्प लिया। मैं जब भी सामायिक को बैठती, नींद का एक झोंका आ जाता, तो मैं दुबारा सामायिक करती। इस प्रकार मैंने नियम ही बना लिया। एक बार ऐसा करते-करते तीन-चार बज गये, मैं कोशिश करती रही। जरा सा झोंका आता मैं इसे अतिचार सहित मानकर चलने लगी। आचार्य श्री ने उस दिन रत्नकरण्डक श्रावकाचार का एक श्लोक पढ़कर बताया था -
सामायिक प्रतिदिवसं यथावदप्यनलसेन चेतव्यम्।
व्रतपंचक- परिपूरण-कारण-मवधान- युक्तन ||
सामायिक निरतिचार करने से सभी व्रतों की पूर्ति होती है। एक दिन ऐसा शुभ कर्मोदय आया कि बिना झोंका वाली सामायिक होने लगी। जब भी सामायिक करती कुछ चिन्तन सम्बन्धी विषय लेकर वैठती। भोजन भी सात्विक करने लगी। प्रमाद बढ़ाने वाली वस्तुओं का त्याग कर दिया। फिर बार-बार आचार्य श्री के मुख से सुनाया गया wलोक अतिचार नींद का झोंका लगने पर। या तो सवा दो घण्टे की सामायिक का प्रायश्चित ख्याल में रहने लगा। आचार्य श्री की कृपा ऐसी हुई कि चिन्तन मनन के साथ आनन्द की अनुभूति कराने वाली सामायिक वनने लगी। मैंने इस बात का अनुभव किया कि जो काम सुन्दर तरीके से करना चाहते हैं, कर्मोदय से उसमें सफलता नहीं मिलती। किन्तु उसे ही एले हृदय से अपनी व्यथा गुरु से सुना दी जाती है तो उनका प्रेम-वात्सल्य से भरकर जो आशीर्वाद मिलता है, वह कामयाबी तक पहुँचा देता है। नका ऐसा आशीर्वाद मेरे जीवन में अनेक बार फलीभूत हुआ।