एक बार ऐसा प्रसंग बना कि दशलक्षण पर्व में प्रवचन करने वाली बहिनें कोई नहीं थीं। सभी किसी न किसी जगह जाने के लिए चयनित हो चुकी थीं। इसी बीच पनागर वाले आ गये। आचार्य श्री हमें भी कुछ बहिनें दशलक्षण पर्व के लिये चाहिये। आचार्यश्री को बहुत वर्षों पूर्व का ख्याल आया कि एक बार पटेरा वाली बहिन प्रवचन करने का आशीर्वाद लेने आयी थी, मैंने उसे रोक दिया था। आचार्य श्री कहते हैंबुलाओ उस पटेरा वाली को। आचार्य श्री की यह एक विशेषता है कि वे कभी किसी बहिन के नाम से नहीं बुलवाते थे। गाँव के नाम से बुलवाते थे। जब कभी जरूरी आवश्यक कार्य हो तो भी।
मैंने सुना कि आचार्य श्री बुला रहे हैं। यह सच है, अगर कोई अचानक कह दे कि तुम्हारे लिये आचार्य श्री बुला रहे हैं तो घबराहट होने लग जाती है। वैसी ही सुनते ही मेरी भी बढ़ गयी। मैं जैसे तैसे आचार्य श्री के पास आयी, नमोऽस्तु किया। आचार्यश्री ने आशीर्वाद दिया। आचार्य श्री बोले- तुम्हें दशलक्षण पर्व में प्रवचन करने के लिये पनागर जाना है। सुनते ही और तेजी से धड़कन होने लगी। मैं घबराती हुई आचार्य श्री से कहने लगी- आचार्य श्री मुझे प्रवचन करना नहीं आता। पनागर जाकर क्या करूंगी ? बोले- पढ़ी-लिखी तो हो, बैठ जाना मंच पर। जो भी मन में आये, बोल देना। आचार्य श्री ने धैर्य बाँधा दिया, कहने लगे एक दो बहिनों को भी साथ ले जाना। बहिनें कहती हैं- आचार्य श्री हम
लोगों से तो और भी कुछ नहीं आता।
आचार्य श्री प्रोत्साहन देते हुये कहते हैं- भजन बगैरह तो आता होगा। तुम भजन बोल देना, यह प्रवचन कर लेगी। इस प्रकार हम तीन बहिनों को प्रोत्साहन दिया। आशीर्वाद देकर कहते हैं- मढ़िया जी से पनागर ज्यादा दूर नहीं है। पैदल ही विहार कर जाओ। सुबह हम सब 7 बजे विहार करते हुए साढ़े दस बजे गुरु के आशीर्वाद पूर्वक पनागर पहुँच गये। जब प्रवचन का नम्बर आया तब गुरु के मुख से निकलीं पंक्तियाँ याद आयीं। 'मंच पर बैठोगी सब बन जायेगा।" और यह सच भी है आदमी को तैरना न आये, लेकिन जब वह जल के बीच में गिर जाता है तो हाथ फडफड़ाना तो उसको आ ही जाता है। वैसे ही गुरु ने जब प्रवचन करने की पात्रता चुनी होगी, तभी तो कहा होगा। ऐसा सोचकर थोड़ी सी प्रवचन की शैली के रूप में कुछ लिख लेती और कुछ गुरुकृपा से बोलती रहती। इस तरह समय पूर्ण कर लेती थी। लेकिन फिर गुरुकृपा ऐसी हुई कि मुझे स्वयं पता नहीं होता था कि में प्रवचन सभा में क्या बोलूगी। बोलकर आती तब मैं सोचती मैंने क्या-क्या बोला था ? एकाग्रता से सोचती तब याद आता मैंने यह बोला। गुरु ने सच कहा था- पहले आचार्य प्रणीत ग्रन्थ पढ़ो, पढ़ने के बाद यह स्थिति बनती है कि स्वत: ग्रन्थों में कथित आचार्यों के कहे वाक्य याद में आते रहते हैं। आचार्य पुराण कथित शब्द मुख से निकलते रहते हैं। जो पूर्व में पढ़ रखा। जब स्वयं के पास आचार्य प्रणीत ग्रन्थों का भरपूर ज्ञान होता है तभी बोलने में तथा प्रश्नों के जबाव देने में कभी कमी नहीं महसूस नहीं होती।
यह आचार्यों का अनुभव जो शिष्यों को अपनी अनुभूति देकर अपने जैसा बना लेते हैं। आचार्य श्री से मुझे इस प्रकार की समझाइस मिली, इसलिये आज तक आचार्य प्रणीत ग्रन्थों की पढ़ने की आदत बनी हुई है। यह आचार्यश्रीका मेरे ऊपर महान उपकार हुआ है।