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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. बात 1976 की है, कौन जानता था कि मेरी जन्मभूमि पटेरा नगर में जो छोटे-छोटे क्षुल्लकों के साथ आये हुये हैं, वे विश्व विख्यात दिगम्बराचार्य के रूप में उभरेंगे। तथा मेरे जीवन के निर्माता, मोक्षमार्ग को दिखाने वाले होंगे, लेकिन वह सब भविष्य की गोद में था। पटेरा नगर में ग्रीष्मकालीन वाचना का उन्होंने संकेत किया। छोटे-छोटे क्षुल्लक श्री नियमसागरजी, श्री योगसागर जी, श्री समयसागर जी, को (मेरे भविष्य के गुरु) अध्ययन कराते थे, तब उस वक्त मोक्षमार्ग समझ में आ गया था कि छोटी उम्र में ही यह वेश धारण किया जा सकता है। वर्षों की धारणा थी कि वृद्धावस्था में यह वेश धारण किया जाता है। देखते ही मन में पैदा हुई उलझने सुलझ गई। उसी वर्ष का प्रसंग है। रविवारीय प्रवचन हो रहा था। सभा में मैं बैठी प्रवचन सुन रही थी। प्रवचन आधा घण्टे तक सुना, कुछ भी समझ में नहीं आया। तभी एक आख्यान गुरुदेव के प्रवचन में आया- कप में पड़ी हुई मक्खी कप से बाहर निकलना चाहती है, लेकिन वह उसी में फडफड़ाती है, अन्त में उसी में मर जाती है। वैसे एक गृहस्थ जब गृहस्थी के जाल में फस जाता है, तो वह निकलना चाहता है, लेकिन निकल नहीं पाता। उसकी दशा उस मक्खी की तरह हो जाती है। ऐसा कोई व्यक्ति इस सभा में बैठा है, जो इस बात को स्वीकारता हो ? बस क्या था, भविष्य में बनने वाले गुरु की आवाज कानों में समा गई। मैं सभा को लाँघती हुई आचार्य श्री के निकट चली गई। मुझे देखते हुये उन्होंने प्रवचन को विराम दे दिया। मुझसे बोले- क्यों ? यहाँ कुछ कहने आई हो ? मैंने साहसपूर्वक कहा- मुझे बाल ब्रह्मचर्यव्रत चाहिये। बोले- व्रत लेकर क्या करोगी ? मैंने कहा- जैनधर्म का अध्ययन करके आर्यिका बनूँगी। अच्छा आर्यिका बनोगी। प्रवचनसभा के लोग वार्ता को सुन रहे थे। अन्त में गुरुदेव कहते हैं- मैं अपना प्रवचन पूरा कर लूँ। वे फिर प्रवचन करने लगे। मैं विशेष सहज-सरल प्रवृत्ति में उनको देख, समझ कर मोक्षमार्ग की सुखानुभूति करने लगी। प्रवचन पूर्ण हुआ। आचार्य श्री के पास पहुँच कर मैंने नमोऽस्तु किया। बोले- क्या पढ़ रही हो ? मैंने कहा- मेट्रिक की परीक्षा देनी है। किसकी बच्ची हो ? बड़कुल उदयचन्द्र जी की। माँ मामा जी के यहाँ गई हैं। इतनी बात करके मैं आ गई। घर में चौके की तैयारी थी। दूसरे दिन मैं पडगाहन करने खड़ी हुई। आचार्यश्री का मुझे पडगाहन करने का सौभाग्य मिल गया। मैं चौके में काँपती हुई, पीछे खड़ी हो गई। आचार्य श्री ने हल्का सा इशारा किया तो मैं आगे आ गई। द्रव्य की थाली की ओर इशारा किया, मैं समझ गई कि पूजन करने के लिए कहा जा रहा है। मैंने पूजन में कभी जल के स्थान पर चन्दन चढ़ाया तो कहीं अक्षत के स्थान पर पुष्प चढ़ाया। पर मन लगाकर पूजन करती रही। आचार्य श्री जी मन्द-मन्द मुस्कुराते रहे, कुछ कहा नहीं। आहार पूर्ण हुआ। मैंने कुर्सी रख दी। कहा- महाराज, बैठ जाइये। मुस्कुराने लगे। मेरे गृहस्थ जीवन के भतीजे से बोले- क्यों ? तुझे क्षुल्लक बनना है? तीन वर्ष में क्षुल्लक बना दूँगा। मैंने कहा- महाराज श्री जिसको न व्रत लेना, न क्षुल्लक बनना, उनको आप कह रहे हैं, और मेरी बात पर तो ध्यान ही नहीं दे रहे। सभी को इशारा करते हुये बोले- देखो यह क्या कह रही है। इतना कहकर मन्दिर की ओर चल पड़े। हम सभी उनके साथ चलने लगे। दो दिन बाद मैं पिताजी को आचार्य श्री के पास दर्शन कराने के लिए ले गयी। आचार्यश्री पटेरा मन्दिर के गर्भालय में विराजमान थे। मैंने नमोऽस्तु किया। फिर बतलाया- महाराज श्री, ये हैं हमारे पिताजी। यह अभी भी बैंगन खाते हैं। आचार्यश्री मेरी बात को सुनकर बोलते हैं- ये तुम्हारे पिताजी हैं, मुँह पर हाथ की आँगुली रखकर कहते हैं, ऐसा नहीं बोलना पड़ता है। और फिर मुस्कुराते हुए बोले- देखो बड़ों की शिकायत नहीं की जाती। यह प्रथम सबक मुझे उस समय मिला था। दूसरे दिन मैंने पुन: व्रत लेने सम्बन्धी बात की। आचार्य श्री कहते हैं- दृढ़ता रखो। अभी तुम छोटी हो। कुछ समयोपरान्त विहार हो गया।
  2. अपने मूल शरीर को न छोड़कर, तैजस और कार्मण शरीर के प्रदेशों सहित, आत्मा के प्रदेशों का शरीर के बाहर निकलना समुद्धात कहलाता है। समुद्वात सात प्रकार के होते हैं - १. वेदना समुद्वात, २. कषाय समुद्वात, ३. विक्रिया समुद्वात, ४. मारणान्तिक समुद्धात, ५. तैजस समुद्धात, ६. आहारक समुद्धात, ७. केवली समुद्धात । वात, पितादि विकार जनित रोग या विषपान आदि की तीव्रवेदना से मूल शरीर को छोड़े बिना आत्म प्रदेशों का बाहर निकलना वेदना समुद्धात है। कषाय की तीव्रता से आत्म प्रदेशों का अपने शरीर से तिगुने प्रमाण फैलने को कषाय समुद्धात कहते हैं। जैसे-संग्राम में योद्धा लोग क्रोध में आकर लाल-लाल आँखें करके अपने शत्रुओं को देखते हैं, यह प्रत्यक्ष देखा जाता है। यही समुद्धात का रूप है। शरीर या शरीर के अङ्ग बढ़ाने के लिए अथवा अन्य शरीर बनाने के लिए आत्मप्रदेशों का मूल शरीर को न छोड़कर बाहर निकल जाना विक्रिया समुद्वात है। विक्रिया समुद्वात देव व नारकियों के तो होता ही है, किन्तु विक्रियाऋद्धिधारी मुनीश्वरों के तथा भोगभूमियाँ जीव अथवा चक्रवर्ती आदि के भी विक्रिया समुद्धांत होता है। तिर्यच्चों में भी विक्रिया समुद्धात होता है। अग्निकायिक, वायुकायिक जीवों में भी विक्रिया समुद्धात होता है। मरण के अन्तर्मुहूर्त पहले, मूल शरीर को न छोड़कर, जहाँ उत्पन्न होना है, उस क्षेत्र का स्पर्श करने के लिए आत्म प्रदेशों का शरीर से बाहर निकलना मारणान्तिक समुद्धात है। जैसे- सर्विस करने वालों का ट्रांसफर हो गया है तो जहाँ जाना है वहाँ पहले जाकर मकान, आफिस आदि देखकर वापस आ जाते हैं, फिर परिवार सहित सामान लेकर चले जाते हैं। संयमी महामुनि के विशिष्ट दया उत्पन्न होने पर अथवा तीव्र क्रोध उत्पन्न होने पर उनके दाएँ अथवा बाएँ कंधे से तैजस शरीर का एक पुतला निकलता है, उसके साथ आत्मप्रदेशों का बाहर निकलना तैजस समुद्धात कहलाता है। तैजस समुद्धात दो प्रकार का होता है - शुभ तैजस समुद्धात एवं अशुभ तैजस समुद्धांत। जगत् को रोग दुर्भिक्ष आदि से दु:खित देखकर जिनको दया उत्पन्न हुई है, ऐसे महामुनि के मूल शरीर को न छोड़कर दाहिने कंधे से सौम्य आकार वाला सफेद रंग का एक पुतला निकलता है, जो १२ योजन में फैले हुए दुर्भिक्ष, रोग आदि को दूर करके वापस आ जाता है। तपोनिधान महामुनि के क्रोध उत्पन्न होने पर मन में विचार की हुई विरुद्ध वस्तु को भस्म करके और फिर उस ही संयमी मुनि को भस्म करके नष्ट हो जाता है। यह मुनि के बाएँ कंधे से सिंदूर की तरह लाल रंग का बिलाव के आकार का, बारह योजन लंबा, सूच्यंगुल के संख्यात भाग प्रमाण मूल विस्तार और नौ योजन चौड़ा रहता है। आहारक ऋद्धि वाले मुनि को जब तत्व सम्बन्धी तीव्र जिज्ञासा होती है, तब उस जिज्ञासा के समाधान के लिए उनके मस्तक से एक हाथ ऊँचा सफेद रंग का पुतला निकलता है, जो केवली, श्रुतकेवली के पादमूल में जाकर, विनय से पूछकर अपनी जिज्ञासा शांतकर मूल शरीर में प्रविष्ट हो जाता है। यह तीर्थवंदना आदि के लिए भी जाता है। जब केवली भगवान् की आयु अन्तर्मुहूर्त शेष रहती है एवं शेष ३ अघातिया कर्मों की स्थिति अधिक हो तो आयुकर्म के बराबर स्थिति करने के लिए आत्मप्रदेशों का दण्ड, कपाट, प्रतर और लोकपूरण के माध्यम से बाहर निकलना होता है, उसे केवली समुद्धात कहते हैं। जैसे-गीली धोती (पंचा)फैला देने से जल्दी सूख जाती है एवं बिना फैलाए जल्दी नहीं सूखती है। वैसे ही आत्मप्रदेश फैलाने से कर्म कम स्थिति वाला हो जाता है, बिना फैलाए उनकी स्थिति घटती नहीं है। केवली समुद्धात चार प्रकार से होता है १. दण्ड समुद्धात, २. कपाट समुद्धात, ३. प्रतर समुद्धात, ४. लोकपूर्ण समुद्धात
  3. तीर्थकर अरिहन्त की अपेक्षा से अरिहन्त परमेष्ठ की ४६ मूल गुण कहे गये हैं। वे इस प्रकार हैं जन्म के दस अतिशय- १. अतिशय सुन्दर शरीर २. अत्यंत सुगंधित शरीर ३. पसीना रहित शरीर ४. मल-मूत्र रहित शरीर ५. हित-मित प्रिय वचन ६. अतुलनीय बल ७. दूध के समान सफेद खून ८. शरीर में १००८ लक्षण ९. समचतुरुत्रसंस्थान १०. वज्रवृषभ नाराच संहनन केवल ज्ञान के १० अतिशय - १. भगवान के चारों ओर १००-१०० योजन तक सुभिक्ष होना २. धरती से ४ अंगुल ऊपर आकाश में गमन ३. चारों दिशाओं में चार मुख का दिखना ४. अदया का अभाव ५ उपसर्ग का अभाव ६. कवलाहार का अभाव ७. समस्त विद्याओं का स्वामीपना ८. नख-केशों की वृद्धि रुक जाना ९. आँखों की पलकों का न झपकना १०. शरीर की परछाई नहीं पड़ना देवकृत १४ अतिशय - दिव्य ध्वनि का अद्धमागधी भाषारूप परिणमन प्राणी मात्र में प्रेम का संचार होना सभी दिशाओं का धूल आदि से रहित निर्मल होना मेघ आदि से निर्मल आकाश छहों ऋतुओं के फल-फूलों का एक ही समय में फलना फूलना पृथ्वी का दर्पण के समान निर्मल होना चलते समय चरणों के नीचे स्वर्ण कमल की रचना होना आकाश में सर्वत्र जय-जय घोष होना मंद-मंद सुगंधित वायु का बहना आकाश से सुगंधित जल की मंद-मंद वृष्टि पृथ्वी का कंकड़-कंटक रहित होना समस्त प्राणियों का आनन्दित होना भगवान के आगे-आगे धर्म चक्र का प्रवर्तन होना छत्र, चंवर, कलश, झारी, ध्वजा, पंखा, स्वस्तिक और दर्पण इन आठ मंगल द्रव्यों का साथ साथ रहना। 4. आठ महा प्रतिहार्य - १. अशोक वृक्ष २. सिंहासन ३. भामण्डल ४. तीन छत्र ५. चर्चौवर ६. पुष्पवृष्टि ७. दुन्दुभि बाजा ८. दिव्यध्वनि 5. चार अनन्त चतुष्टय – १. अनन्त ज्ञान २. अनन्त दर्शन ३. अनन्त सुख ४. अनन्त वीर्य सिद्ध परमेष्ठी के आठ मूल गुण होते हैं जो इस प्रकार हैं:- क्षायिक ज्ञान - अनन्त पदार्थों को एक साथ जानने की शक्ति। क्षायिक दर्शन – अनन्त दर्शन की शक्ति । क्षायिक सम्यक्र - निश्चल श्रद्धा रूप अवस्था। क्षायिक वीर्य - अनन्त भोगोपभोग की शक्ति। अव्याबाधत्व - बाधा रहित आत्मिक सुख। सूक्ष्मत्व – इन्द्रिय गम्य स्थूलता का अभाव। अगुरुलघुत्व - उच्चता एवं नीचता का अभाव । अवगाहनत्व - पर्याय विशेष में रहने की परतंत्रता का अभाव। आचार्य परमेष्ठी के छत्तीस मूल गुण होते हैं जो इस प्रकार हैं:- पंचाचार – ज्ञानाचार, दर्शनाचार, तपाचार, वीर्याचार, चारित्राचार । बारह तप - अनशन, अवमौदर्य, वृतिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विवित्त शय्याशन, कायक्लेश, प्रायश्चित, विनय, वैयावृत्त, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग, ध्यान। दस धर्म – उत्तम क्षमा, उत्तम मार्दव, उत्तम आर्जव, उत्तम शौच, उत्तम सत्य, उत्तम संयम, उत्तम तप, उत्तम त्याग, उत्तम। अकिंचन, उत्तम ब्रह्मचर्य। तीन गुप्ति – मन गुप्ति, वचन गुप्ति, काय गुप्ति। छह आवश्यक - समता, स्तुति, वंदना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, कायोत्सर्ग। उपाध्याय परमेष्ठी के पच्चीस मूल गुण होते हैं जो इस प्रकार हैं :- ११ अंग एवं १४ पूर्व ११ अंग- १. आचारांग, २. सूत्रकृतांग, ३. स्थानांग, ४. समवायांग, ५.व्याख्या प्रज्ञप्ति अंग, ६. ज्ञातृधर्म कथांगा ७. उपासकाध्ययनांग, ८. अन्तकृद्दशांग, ९. अनुत्तरोपपादिक दशांग, १०. प्रश्नव्याकरणांग, ११. विपाक सूत्रांग, १२. दृष्टिवाद अंग।। १४ पूर्व - १. उत्पाद पूर्व, २. अग्रायणी पूर्व, ३. वीर्यानुप्रवाद पूर्व, ४. अस्ति नास्ति प्रवाद पूर्व, ५ ज्ञान प्रवाद पूर्व ६. सत्य प्रवाद पूर्व,७. आत्म प्रवाद पूर्व, ८. कर्म प्रवाद पूर्व, ९. प्रत्याख्यान पूर्व, १०. विद्यानुप्रवाद पूर्व, ११. कल्याणवाद पूर्व, १२. प्राणवाय पूर्व, १३. क्रियाविशाल पूर्व, १४. लोक बिन्दुसार पूर्व। साधु परमेष्ठी के अट्ठाईस मूल गुण होते हैं जो इस प्रकार हैं:- १. पाँच महाव्रत, २. पाँच समिति, ३. पाँच इन्द्रिय विजय, ४. छह आवश्यक, ५. सात विशेष गुण। इनका वर्णन पूर्व के अध्याय में किया जा चुका है।
  4. मार्ग से च्युत न होने के लिए तथा कर्मो की निर्जरा के लिए क्षुधादि वेदना के होने पर जो सहा जाय वह परीषह है दु:ख आने पर भी संक्लेश परिणाम न होना, शांत भाव से सहन करना, परीषह का जीतना परीषह जय हिया | परीषह बाईस होते है वे इस प्रकार है :- १. क्षुधा, २. तुषा, ३. शीत, ४. उष्ण, ५. दशमशक, ६. नाग्न्य, ७. अरति, ८. स्त्री, ਬ १०.निषद्या, ११. शय्या, १२. आक्रोश, १३.वध, १४. याचना, १५. आलाभ, १६ रोग, १७. तृण स्पर्श, १८. मल, १९. सत्कार–पुरस्कार, २०. प्रज्ञा, २१. अज्ञान २२ अदर्शन परिषह। आहार न मिलने पर, अन्तराय - उपवास होने पर उत्पन्न क्षुधा वेदना को समता पूर्वक सहन करना 'क्षुधा परीषह जय' है। ग्रीष्म कालीन तपन से, अंतराय आ जाने पर उत्पन्न प्यास की वेदना को शान्त भाव से सह लेना 'तृषा परीषह जय' हे। बंदरों के भी मद को नष्ट करने वाली भयंकर सर्दी पड़ने पर, शीत लहर चलने पर संतोष रूपी कम्बल को धारण कर शीत वेदना को सहना 'शीत परिषह जय' है। ग्रीष्म ऋतु में गरम-गरम हवाओं के चलने पर, विहार में मार्ग तप जाने, गले और तालू सूख जाने पर भी प्राणियों की रक्षा का विचार करते हुए कष्टों को सहन करना 'उष्ण परीषह जय' है। डांस, मच्छर, मक्खी, खटमल, बिच्छु आदि डसने वाले जन्तु आदि के काटने पर उत्पन्न पीड़ा को अशुभ कर्मों का उदय मानकर शान्त भाव से सहन करना 'दंशमशक परीषह' है। वस्त्र रहित जिनलिंग को देखकर अज्ञानियों द्वारा उपहास करने पर, लोगों द्वारा अपशब्द कहने पर मन में किसी प्रकार का विकार नहीं लाना, खेद नहीं करना 'नाग्न्य परीषह जय' है। प्रतिकूल वसतिका, क्षेत्रादि मिलने पर, भूख-प्यास की वेदना होने पर संयम के प्रति अप्रीति नहीं करना, पूर्व में भीगे हुए सुखों का स्मरण नहीं करना 'अरति परीषह जय' है। एकान्त स्थान में स्त्रियों द्वारा अनेक कुचेष्टाएं करने पर, रिझाने का प्रयास करने पर उनके राग में नहीं फंसना 'स्त्री परीषह जय' है। गमन करते समय कांटा चुभने पर, छाले पड़ने पर, पैर छिल जाने पर, कंकड़ आदि चुभने पर भी प्रमाद रहित ईर्यापथ का पालन करते हुए खेद खिन्न नहीं होना 'चर्या परीषह जय' है। भयंकर श्मशान, वन पहाड़, गुफा आदि में बैठकर ध्यान करते समय नियमित काल पर्यन्त स्वीकृत आसन से विचलित नहीं होना 'निषद्या परीषह जय' है। छह आवश्यक कर्म, स्वाध्याय, ध्यान आदि करने से उत्पन्न थकान दूर करने के लिए कठोर कंकरीले आदि स्थानों पर एक करवट से निद्रा लेना, उपसर्ग आने पर भी शरीर को चलायमान नहीं करना 'शय्या परीषह जय' है। क्रोधादि के निमित्त मिलने पर, प्रतीकार की क्षमता होते हुए भी क्षमा धारण करते हुए शान्त रहना 'आक्रोश परीषह जय' है। तलवार आदि शस्त्रों के द्वारा, कंकड़ पत्थर द्वारा, शरीर पर प्रहार करने वालों से भी द्वेष नहीं करना शान्त रहना 'वध परीषह जय' है। शरीर कृश होने पर, औषध आदि की आवश्यकता होने पर दीन वचनों से, मुख म्लानता, हाथ के संकेत से औषधादि नहीं माँगना ' याचना परीषह जय' है। कई दिनों तक आहार न मिलने पर भी संतोष धारण करना, 'अलाभ परीषह जय' है। अनेक प्रकार की व्याधि कुष्ट रोग, जलोदर रोग आदि होने पर उनके उपशम करने की सामथ्र्य होने पर भी उसका इलाज नहीं करना, कर्म विनाश की इच्छा से सहन करना ' रोग परीषह जय ' है। कठोर स्पर्श वाले तृण, काष्ठ फलक आदि पर बैठना, शयन करना, उसमें उत्पन्न पीड़ा को सहन करना 'तृष स्पर्श परीषह जय' है। शरीर पर मैल, पसीना जम जाने पर उसे दूर करने का विचार नहीं करना 'मल परीषह जय" है। अपने गुणों में अधिकता होने पर भी यदि कोई सत्कार न करे, आगे आगे न करे, प्रशंसा न करे तो भी चित्त में व्याकुलता नहीं होना तथा प्रशंसा होने पर भी प्रसन्न न होना 'सत्कार पुरस्कार परीषह जय' है। बार-बार अभ्यास करते हुए भी ज्ञान की उपलब्धि न होने पर लोगों के द्वारा किए गए तिरस्कार को समता पूर्वक सहन करना ' अज्ञान परीषह जय' है। बहुत समय तक कठोर तपस्या करने पर भी विशेष ज्ञान या ऋद्धियाँ प्राप्त नहीं होने पर भी दर्शन के प्रति अश्रद्धा भाव नहीं रखना 'अदर्शन परीषह जय' है।
  5. भक्ष्य का अर्थ खाने योग्य और अभक्ष्य का अर्थ नहीं खाने योग्य। जो वस्तुएं विशेष जीव हिंसा में कारण हैं, स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है, प्रमाद वर्धक एवं बुद्धि विकार में कारण होती हैं, ऐसी वस्तुएं अभक्ष्य कहलाती हैं। अभक्ष्य पदार्थ भी मुख्य रूप से दो प्रकार के होते हैं प्रथम तो जिनका सेवन करना, सर्वथा निषेध है, दूसरे वे, जो एक समय सीमा, परिस्थिती तक तो खाने योग्य होते है उसके बाद नहीं, वे अमर्यादित पदार्थ भी जीव हिंसा में कारण होने से त्यागने योग्य हैं। अभक्ष्य पदार्थ अनेक प्रकार के हैं। कुछ का वर्णन यहाँ करते हैं :- मद्य, मांस, मधु व नवनीत ये चार महाविकृतियाँ कही गई है अत: सर्वथा अभक्ष्य हैं। मद्य (मदिरा, शराब) - अनेक फल-फूलादि को सड़ाकर शराब बनाई जाती है। इसमें अनेकों जीव उत्पन्न हो जाते हैं, इसे पीने वाला व्यक्ति बुद्धि और विवेक खो देता है। एक दो बार इनका सेवन करने वाला व्यक्ति फिर इतना आदि हो जाता है कि उसके बिना उसका किसी कार्य में मन ही नहीं लगता, धीरे-धीरे दरिद्रता उसे घेर लेती है। नशे की हालत में मारना-पीटना, गाली बकना, गंदी नालियों में पड़े रहना, आदि दुष्कृत्य उसके द्वारा हो जाते हैं। ऐसे ही अन्य पदार्थ गाँजा, भांग, अफीम, चरस, तम्बाकू, बीड़ी-सिगरेट, पान-मसाले आदि जो कि स्पष्ट ही कैंसर, हृदय रोग आदि बड़े-बड़े रोगों के कारण है तथा और भी तरह-तरह के नशीले पदार्थ भी अभक्ष्य की ही श्रेणी में आते हैं। मांस - जीव/प्राणियों की हत्या करके ही मांस प्राप्त होता है अत: मांसभक्षण करने वाले को नियम रूप से हिंसा का पाप लगता है। स्वयं मरे हुए पशु के मांस में भी अनन्त निगोदिया जीव होते हैं, मांस को अग्नि से गर्म करने पर भी वह जीव रहित नहीं होता उसमें तजाति(उसी पशु की जाति वाले) निगोदिया जीव निरन्तर उत्पन्न होते रहते हैं अत: मांस खाने योग्य तो दूर, छूने योग्य भी नहीं है। मांस व अन्न दोनों प्राणियों के अंग होने से समान है ऐसा कहना योग्य नहीं है स्त्रीपने की अपेक्षा समानता होने पर जैसे माता और पत्नी एक नहीं है उसी प्रकार मांस के सेवन से जैसे नरकादि दुर्गति प्राप्त होती है। वैसे अन्न, वनस्पतियों के सेवन से नहीं। मधु (शहद) - मधुमक्खियों की उगाल है। मांस के समान ही शहद कभी भी निगोदिया जीवों से रहित नहीं होता है। कई बार शहद प्राप्ति के लिए छत्ते को तोड़ दिया जाता है जिसके सैकड़ों मक्खियाँ मर जाती हैं। तथा शहद में सैकड़ों त्रस जीवों की उत्पत्ति होती रहती है। एक बूंद शहद के सेवन से सात गाँव को जलाने से भी अधिक पाप लगता है। मधुत्याग के दोष से बचने हेतु फूलों का रस अथवा आसव, गुलकन्द तथा अन्य शहद युक्त खाद्य पदार्थों का त्याग करना चाहिए। नवनीत (मक्खन) - काम, मद (अभिमान, नशा) और हिंसा उत्पन्न करने वाला है। बहुत से उसी वर्ण, जाति के जीवों का उत्पत्ति स्थान भूत होने से नवनीत विवेकी जन के द्वारा खाने योग्य नहीं है। अन्तर्मुहूर्त पश्चात ही उसमें अनेक सूक्ष्म जीव उत्पन्न हो जाते है। जिस बर्तन में नवनीत पकाया जाता है वह बर्तन भी छोड़ने/ त्यागने योग्य हैं। नवनीत को निकालते ही तुरन्त गर्म कर लेने पर प्राप्त घी खाने योग्य हैं। पाँच उदम्बर फल - बड़, पीपल, ऊमर, पाकर, कलूमर के फल, त्रस जीवों की उत्पति स्थान ही है। अत: अभक्ष्य है। सूख जाने पर भी विशेष रागादि रूप भाव हिंसा का कारण होने से अभक्ष्य है। अनजान फल जिसका नाम, स्वाद आदि न पता हो वह भी अभक्ष्य है। द्विदल अभक्ष्य है - जिसके दो भाग हो ऐसे दाल आदि को दही में मिलाने पर, तथा (मुख में उत्पन्न) लार के संयोग से असंख्य त्रस जीव राशि पैदा हो जाती है। इसका सेवन करने से महान हिंसा व त्रस जीवों के भक्षण का दोष लगता है। अत: द्विदल अभक्ष्य है इसका सर्वथा त्याग करना चाहिए जैसे दही बड़ा, दही की बड़ी, दही पापड़ आदि। कच्चे दूध से बनी दही व छाछ तथा गुड़ मिला दही व छाछ भी अभक्ष्य हैं। चुना व संदिग्ध अन्न अभक्ष्य है - चुने हुए अन्न में अनेक त्रस जीव होते हैं यदि सावधान होकर नेत्रों के द्वारा शोधा भी जाए तो भी उसमें से सब त्रस जीवों का निकल जाना असम्भव है। अत: सैकड़ों बार शोधा हुआ भी घुना अन्न अभक्ष्य है। तथा जिस पदार्थ में त्रस जीवों के रहने का संदेह हो ऐसा अन्न भी त्यागने योग्य है। कंदमूल (गडन्त) अभक्ष्य है - कंद अर्थात् सूरण, मूली, गाजर, आलू, प्याज, लहसुन, गीली हल्दी आदि जमीन के भीतर पैदा होने वाली गड़न्त वस्तुएं साधारण वनस्पति, अनन्तकाय होने से अभक्ष्य है अन्य वनस्पतियों की अपेक्षा इनमें अधिक हिंसा होती है। अत: जीवदया पालने वालों को इनका सेवन नहीं करना चाहिए। पुष्प व पत्रादि अभक्ष्य हैं - जो बहुत जन्तुओं की उत्पति के आधार के हैं जिनमें नित्य त्रस जीव पाये जाते हैं, ऐसे केतली के फूल, द्रोण पुष्पादि सम्पूर्ण पदार्थों को जीवन पर्यन्त के लिए छोड़ देना चाहिए क्योंकि इनके खाने में फल थोड़ा और घात बहुत जीवों का होता है तथा पते वाले शाक में सूक्ष्म त्रस जीव अवश्य होते हैं उसमें कितने ही जीव तो दृष्टिगोचर हो जाते हैं और कितने ही दिखाई नहीं देते। किन्तु वे जीव उस पते वाले शाक का आश्रय कभी नहीं छोड़ते। अत: अपना आत्म कल्याण चाहने वाले जीव को पते वाले सब शाक तथा पान तक छोड़ देना चाहिए। जिनका रूप, रस, गन्ध व स्पर्शादि चलित हुआ, विकृत हुआ है, फफूंद लगा हो ऐसे त्रस व निगोद जीवों का स्थान, स्वास्थ्य के लिए हानिकारक पदार्थ भी अभक्ष्य कहे गये हैं। होटल में अमर्यादित एवं अशोधित आटे आदि से तथा अनछने पानी से बनी वस्तुएँ सर्वथा अभक्ष्य हैं। अमर्यादित अचार, मुरब्बा आदि त्रस जीवों से संसत होने से अभक्ष्य हैं। कुछ पदार्थ भक्ष्य होने पर भी अनिष्टकारक होने से अभक्ष्य माने जाते हैं जैसे बुखार वाले को घी एवं शीत प्रकृति वालों के लिए ठंडे फल आदि। जो सेवन करने योग्य न हो ऐसे लार, मूत्र, कफ आदि अनुपसेव्य पदार्थ भी अभक्ष्य हैं। अभक्ष्य बाईस भी माने गये हैं - ओला घोर बड़ा निशि भोजन, बहुबीजा बैंगन संधान । बड़, पीपर, ऊमर, कठऊमर, पाकर फल या होय अजान । कंदमूल माटी विष आमिष, मधु माखन अरू मदिरापान। फल अतितुच्छ तुषार चलित रस, ये बाईस अभक्ष्य बखान । दूध को दुहने के पश्चात् अड़तालीस (४८)मिनिट के भीतर ही भीतर गर्म कर लेना चाहिए अन्यथा वह भी अभक्ष्य की कोटि में आ जावेगा, क्योंकि दूध के दुहने के एक मुहुर्त पश्चात् तजाति निगोद जीव उत्पन्न हो जाते हैं। अत: दूध की मर्यादा का विशेष ख्याल रखना चाहिए। भक्ष्य पदार्थों की मर्यादा निम्र प्रकार से है दूध उबलने के बाद चौबीस घंटे तक मर्यादित माना जाता है। गर्म दूध का दही जमावे पर चौबीस घंटे तक मर्यादित माना जाता है। बिलौते समय पानी डालने पर बनी छाछ बारह घंटे तक मर्यादित मानी गई है। मीठे पदार्थ मिले दही की मर्यादा ४८ मिनट की है। पिसे नमक की मर्यादा अड़तालीस मिनट एवं गर्म कर पीसे गये नमक की मर्यादा चौबीस घंटे की हैं एवं मसालेदार नमक की छह घंटे की मर्यादा है। मौन वाले पकवान की मर्यादा चौबीस घंटे, रोटी, पूड़ी, हलवा, बड़ा, कचौड़ी की मर्यादा बारह घंटे एवं खिचड़ी, दाल, सब्जी की मर्यादा छह घंटे की है। आटा, बेसन एवं पिसे मसाले की शीतकाल में सात दिन, ग्रीष्म काल में पाँच दिन एवं वर्षाकाल में तीन दिन की मर्यादा जाननी चाहिए। घी, गुड़, तेल स्वाद बिगड़ने पर अभक्ष्य माना जाता है। ७. चौबीस घंटे के बाद का मुरब्बा, आचार, बड़ी पापड़ आदि खाने योग्य नहीं है।
  6. वट्टकेरस्वामीकृत मूलाचार दिगम्बर सम्प्रदाय में मुनिधर्म के लिये सर्वोपरि प्रमाण माना जाता है। कहीं-कहीं यह ग्रन्थ कुन्द कुन्दाचार्यकृत भी कहा गया है। इसमें १२ अधिकार और १२५२ गाथायें है। १.मूलगुण अधिकार २. बृहत् प्रत्याख्यान संस्तव अधिकार ३. प्रत्याख्यान अधिकार ४. सम्यक्आचार अधिकार ५. पंचाचार अधिकार ६. पिण्ड शुद्धी अधिकार ७. षट् आवश्यक अधिकार ८. अनगार भावना अधिकार ९. द्वादशानुप्रेक्षा अधिकार १०. समयसार अधिकार ११. षट्पर्याप्ति अधिकार १२. शीलगुण अधिकार। पहले मूलगण अधिकार में मुनि के अट्ठाईस मूलगुणों का निरूपण किया है। बृहत्प्रत्याख्यानसंस्तव अधिकार में दर्शनाराधना आदि चार आराधनाओं का कथन किया गया है। प्रत्याख्यानाधिकार में सिंह, व्याघ्र आदि के द्वारा आकस्मिक मृत्यु उपस्थित होने पर कषाय और आहार का त्यागकर समताभाव धारण करने का निर्देश किया है। सम्यक्आचाराधिकार में दश प्रकार के आचारों का वर्णन है। आर्यिकाओं के लिये भी विशेष नियम वर्णित है। पंचाचाराधिकार में दर्शनाचार, ज्ञानाचार आदि पाँच आचारों और उनके प्रभेदों का विस्तार सहित वर्णन है। पिण्डशुद्धि अधिकार में एषणा समिति, आहारयोग्य काल, भिक्षार्थगमन करने की प्रवृत्ति-विशेष आदि का भी वर्णन आया है। सप्तम पडावश्यकाधिकार में कृति कर्म, कार्यात्सर्ग के दोष आदि का वर्णन है। आठवें अनगारभावनाधिकार में लिंग, व्रत, वसति, विहार, भिक्षा, ज्ञान, शरीर, संस्कारत्याग, वाक्य, तप और ध्यानसंबंधी शुद्धियों के पालन पर जोर दिया गया है। नवम द्वादशानुप्रेक्षाधिकार में अनित्य आदि अनुप्रक्षाओं के चिन्तन का वर्णन है। दशम समयसाराधिकार में तप, ध्यान, प्रतिक्रमण, प्रतिलेखनक्रिया विभिन्न प्रकार की शुद्धियों का निरुपण आया है। बारहवें शीलगुणाधिकार में शीलों के उत्पत्ति क्रम आलोचना के दोष, गुणों की उत्पत्ति प्रकार संख्या और प्रस्तार के निकालने की विधि का विस्तारपूर्वक वर्णन आया है। इस महाग्रन्थ में मुनि के आचार का बहुत ही विस्तृत एवं सुन्दर वर्णन किया गया है। यतिधर्म को अवगत करने के लिये एक स्थान पर इससे अधिक सामग्री का मिलना दुष्कर है। दिग. जैन श्रावक की चर्या का प्रतिपादक ग्रन्थ- रत्नकरण्डश्रावकाचार ईसा की द्वितीय शताब्दी में आचार्य समन्तभद्र स्वामी द्वारा श्रावक के जीवन और आचार की व्याख्या करते हुए १५० पद्यों की रचना संस्कृत भाषा में की गई। इस ग्रन्थ में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्रचारित्र का विवेचन करते हुए सलेखना को भी श्रावकों के व्रतों में स्थान दिया है। इसका दूसरा नाम समीचीन धर्मशास्त्र भी है। इस ग्रन्थ पर प्रभाचन्द्र आचार्य द्वारा संस्कृत टीका एवं अनेक विद्वानों द्वारा हिन्दी टीका भी लिखी गई है।
  7. भामाशाह, राणा उदयसिंह के समय से ही मेवाड़ राज्य का दीवान एवं प्रधानमंत्री था। हल्दी घाटी के युद्ध (१५७६ ई.) में पराजित होकर स्वतंत्रता प्रेमी और स्वाभिमानी राणाप्रताप जंगलों और पहाडों में भटकने लगे थे। वहाँ भी मुगल सेना ने उनहें चैन नही लेने दिया। अतएव सभी ओर से हताश और निराश होकर उन्होंने स्वदेश का परित्याग करके अन्यत्र जाने का संकल्प किया। इस बीच स्वदेश भक्त एवं स्वाभिमानी मंत्रीश्वर भामाशाह चुप नहीं बैठा था। वह देशोद्धार के उपाय में जुटा रहा। ठीक जिस समय राणा भरे मन से मेवाड की सीमा से विदाई ले रहा था। वहाँ भामाशाह आ पहुँचा और मार्ग रोक कर खड़ा हो गया। उसने राणा प्रताप को ढांढस बंधाई और देशोद्धार के लिये उत्साहित किया। राणा के कहा- न मेरे पास फूटी कौड़ी है न सैनिक और न साथी ही, फिर किस बूते पर प्रयत्न करूं। भामाशाह ने तुरन्त इतना विपुल द्रव्य उनके चरणों में समर्पित कर दिया। जिससे २५ हजार सैनिकों का १२ वर्षों तक निर्वाह हो सकता था। यह सब धन भामाशाह का अपना पैतृक एवं स्वयं उपार्जित किया हुआ था। इस अप्रतिम उदारता एवं अप्रत्याशित सहायता पर राणा ने हर्ष विभोर होकर भामाशाह को गले लगा लिया। वह दुगुने उत्साह से सेना जुटाने और मुगलों को देश से बाहर करने में जुट गया। अनेक युद्ध लड़े गये जिसमें वीर भामाशाह और ताराचन्द्र ने भी प्राय: बराबर भाग लिया। इस दोनों भाईयों ने मालवा पर जो मुगलों के आधीन था, चढ़ाई करके २५ लाख रुपये और २० हजार अशर्फियाँ दण्ड स्वरूप प्राप्त कर राजा को समर्पित की और राज्य के गाँव-गाँव में प्राणों का संचार कर दिया। सैनिकों को जुटाना युद्ध सामग्री की व्यवस्था और युद्ध में भाग लेना आदि हर प्रकार से देश के उद्धार को सफल बनाने में पूर्ण योगदान दिया। इन प्रयत्नों का परिणाम यह हुआ कि मेवाडी वीरों की रणभेदी के बाद मुगल सैनिकों के पैर उखडने लगे और १५८६ ई. तक चित्तौड़ और माण्डुवगढ़ को छोड़कर सम्पूर्ण मेवाड़ पर राजा का पुन: अधिकार हो गया। अपनी इस उदार और अपूर्व सफलता के कारण भामाशाह मेवाड़ का उद्धारकर्ता कहलाया। मेवाड़ प्रतिष्ठा के पुन: स्थापक, स्वार्थ त्यागी, वीरश्रेष्ठ एवं मंत्री प्रवर भामाशाह का जन्म सोमवार २८ जून १५४७ ई. को हुआ था और निधन लगभग ५२ वर्ष की आयु में २७ जनवरी १६०० ई. में हुआ था, जीवाशाह, भामाशाह का सुयोग्य पुत्र था। उदयपुर में भामाशाह की समाधि अभी भी विद्यमान है। इस नररत्न ने एक सच्चे जैन के उपर्युक्त आचरण द्वारा स्वधर्म, स्वसमाज एवं स्वदेश को गौरवान्वित किया। आचार्य व ग्रन्थ की प्रमाणिकता कोई ग्रन्थराज दो हजार वर्ष पुराना है अत: प्रथम, द्वितीय शताब्दी का है या वह ग्रंथ राज बड़ा है अत: एक हजार श्लोक प्रमाण है, भले ही आर्ष पद्धति के विपरीत है तो क्या प्रमाणिक है? नहीं अथवा वह प्राकृत व संस्कृत भाषा में रचित है पर आर्ष परंपरा के अनुकूल नहीं तो क्या प्रमाणिक है? नहीं। ग्रन्थराज की प्रमाणिकता व अप्रमाणिकता काल से नहीं है और न ही उसके विशाल कलेवर के होने से है और न ही संस्कृत, प्राकृत भाषा से है। भले ही छोटा ग्रन्थराज छहढाला हो या बीसवीं शताब्दी का हो अथवा संस्कृत प्राकृत भाषाएँ न होकर हिन्दी भाषा में हो पर आर्ष परंपरा के अनुकूल है। उसमें वीतरागता की छाप है तो वह प्रमाणिक है। इसी प्रकार जो आचार्य महावीर की परंपरा के हैं तो प्रमाणिक हैं और महावीर की परंपरा के प्रतिकूल हैं तो अप्रमाणिक। और हमारे लिए मूर्ति भी चाहे छोटी हो या बड़ी, रजत की हो या स्वर्ण की, प्रस्तर की हो या ताम्र की। पर यदि वीतरागता की छाप है तो पूज्य है। बहुत बड़ी चौदह मन की भी सराग प्रतिमा है तो पूज्य नहीं और छोटी प्रस्तर की प्रतिमा चाहे वह शिल्पकार से ठीक भी न बनी हो पर वीतराग छवि को दर्शाने वाली है तो वह प्रमाणिक है। जैसे सौ का नोट बिलकुल नया, कड़क, प्रेस से निकला हुआ और एक मैला कुचैला सी का नोट दोनों की कीमत क्या? जो अच्छा नया कड़क है उसका क्या एक सौ एक रुपया आएगा, और मैला कुचैला है उसके नब्बे रुपए? नहीं। दोनों की कीमत बराबर है। क्योंकि कीमत नए व पुराने की नहीं बल्कि उसमें जो गवर्नर की छाप है उसकी है। ठीक इसी प्रकार ग्रन्थराज व प्रतिमा की प्रमाणिकता भी काल से व बड़े होने से नहीं बल्कि वीतरागता की छाप से है।
  8. सल्लेखना का स्वरूप - अच्छे प्रकार से काय और कषाय का कृश करना सल्लेखना है। उपसर्ग आने पर, दुर्भिक्ष आने पर, बुढ़ापा आने पर और असाध्य रोग आने पर, धर्म की रक्षा के लिए सल्लेखना ली जाती है। सल्लेखना की विधि- जो सल्लेखना धारण करता है, वह क्षपक कहलाता है। वह क्षपक सबसे राग, द्वेष, मोह और परिग्रह को छोड़कर प्रियवचनों से स्वजन, परिजन, सबसे क्षमा माँगे एवं सबको क्षमा कर दे। अपने सम्पूर्ण जीवन के पापों की आलोचना करके, आजीवन के लिए पाँचों पापों का त्याग करें। शोक, भय, विषाद आदि को छोड़कर श्रुत रूपी अमृत का पान करे और क्रमश: इस प्रकार कषायों को कृश करता हुआ अपनी काया को कृश करने के लिए सर्वप्रथम इष्ट रस, इष्ट वस्तु का त्याग करे, पुन: गरिष्ठ रसों का त्याग करके, मोटे (ठोस) अनाज का त्याग करके पेय को बढ़ाए, फिर छाछ एवं गरम जल को ग्रहण करे, ऐसा करता हुआ जल का भी त्याग करके उपवास धारण करे एवं पञ्च नमस्कार का जाप, पाठ, ध्यान करते हुए देह का विसर्जन करे। सन्यास मरण के तीन भेद हैं भक्त प्रत्याख्यान - आहार का त्याग करके इसमें वैयावृत्ति स्वयं भी करता है एवं दूसरों से भी कराता है। इंगिनीमरण - इसमें वैयावृत्ति स्वयं करता है, दूसरों से नहीं कराता है। प्रायोपगमन - इसमें वैयावृत्ति न स्वयं करते हैं, न दूसरों से करवाते हैं। जिस आसन में बैठता है, उसी आसन से शरीर को छोड़ देता है। सल्लेखना एवं आत्महत्या में अंतर - आत्महत्या कषायों से प्रेरित होकर की जाती है तो सल्लेखना का मूल आधार समता है। आत्मघाती को आत्मा की अविनश्वरता का भान नहीं होता है। वह तो शरीर के नष्ट हो जाने को ही जीवन मुक्ति समझता है। जबकि सल्लेखन का प्रमुख आधार आत्मा की अमरता को समझकर अपनी परलोक यात्रा को सुधारना है। सूर्योदय की लाली सल्लेखना के समान है जो हमें प्रकाश की ओर ले जाती है एवं सूर्यास्त की लाली आत्मघात के समान है जो हमें अंधकार की ओर ले जाती है। समाधि कराने वाले आचार्य को निर्यापक आचार्य कहते हैं। आत्महत्या कषायों से प्रेरित होकर की जाती है तो सल्लेखना का मूल आधार समता है। आत्मघाती की आत्मा की अविनश्वरता का भान नहीं होता है। वह तो शरीर के नष्ट हो जाने को ही जीवन मुक्ति समझता है। जबकि सल्लेखना का प्रमुख आधार आत्मा की अमरता को समझकर अपनी परलोक यात्रा को सुधारना है। सूर्योदय की लाली सल्लेखना के समान है जो हमें प्रकाश की ओर ले जाती है एवं सूर्यास्त की लाली आत्मघात के समान है जो हमें अंधकार की ओर ले जाती है। समाधि कराने वाले आचार्य को निर्यापक आचार्य कहते हैं। सल्लेखना का फल - अतिचार से रहित सल्लेखना करने वाला नियम से स्वर्ग जाता है, वहाँ के सुखों को भोगकर मनुष्य होकर मोक्ष को प्राप्त होता है। जिसने एक बार सल्लेखना धारण कर मरण किया है, वह अधिक -से - अधिक ७-८ भव में एवं कम से कम २-३ भव में नियम से मोक्ष चला जाता है।
  9. पृथ्वी तल बहुत दूर आकाश में, हमें सूर्य, चन्द्रमा, तारे आदि दिखाई पड़ते हैं। इनके द्वारा ही दिन और रात का विभाजन होता है। इनके स्वरूप और स्थिती के बारे में आधुनिक वैज्ञानिकों ने अनेक प्रकार की घोषणाएं की हैं जो प्राय: काल्पनिक एवं भ्रम में डालने वाली हैं। जैसे सूर्य आग का धधकता गोला है, पृथ्वी से सूर्य २१० गुना बड़ा है, चन्द्रमा की उत्पत्ति पृथ्वी से हुई है, चन्द्रमा पर सूर्य का प्रकाश गिर कर परावर्तित होता है इस कारण चन्द्रमा प्रकाशित होता है तथा वैज्ञानिक चन्द्रमा पर पहुंच गए है इत्यादि। जैनाचार्यों द्वारा प्रणीत ग्रंथों में इन सबका विस्तृत वर्णन किया गया है। यहाँ उपलब्ध ग्रन्थों के अनुसार संक्षेप में ज्योतिलॉक का वर्णन करते हैं। सूर्य चन्द्रमा के विमान सूर्य, चन्द्रमा, ग्रह, नक्षत्र और तारे-ये सब ज्योतिष निकाय के देव हैं। आकाश में दिखने वाले सूर्य चन्द्रमा आदि इन्ही देवों के विमान है। इन विमानों का आकार अर्ध गोलाकार होता है। अर्थात् जिस प्रकार गोले के दो खण्ड करके उन्हें उध्वमुख रखा जावें तो चौड़ाई का भाग ऊपर एवं गोलाई वाला भाग नीचे रहता है। इसी प्रकार उध्वमुख अर्धगोले के सदृश ज्योतिष देवों के विमान है। इन विमानों के नीचे का गोलाकार भाग ही हमारे द्वारा देखा जाता है। ये विमान पृथ्वीकायिक (चमकीली धातु) के बने हुए, अकृत्रिम है। सूर्य के बिम्व में स्थित पृथ्वीकायिक जीव के आताप नाम कर्म का उदय से सूर्यविमान मूल में ठन्डा होने पर भी उसकी किरणें गरम होती है। चन्द्र बिम्ब में स्थित पृथ्वीकायिक जीव के उद्योत नाम कर्म का उदय होने से चन्द्र विमान मूल में ठन्डा है एवं उसकी किरणें भी शीतल हैं। इसी प्रकार तारा आदि के विमानों में भी उद्योत नामकर्म का उदय जानना चाहिए। सूर्य चन्द्र की गणना सूर्य चन्द्र आदि एक - दो नहीं किन्तु असंख्यात (जिन्हे गिना न जा सके) हैं। एक राजू प्रमाण लम्बे और एक राजू प्रमाण चौड़े मध्यलोक में पूर्व पश्चिम धनोदधि वातवलय पर्यन्त सूर्यादि के विमान फैले हुए हैं। जम्बूद्वीप में दो सूर्य एवं दो चन्द्रमा है एक चन्द्रमा के परिवार में एक सूर्य, अठासी (88) ग्रह, अट्ठाईस (28) नक्षत्र एवं छयासठ हजार नौ सौ पचहत्तर कोड़ाकोड़ी (66975 कोड़ा कोड़ी) तारे होते हैं। लवण समुद्र में चार चन्द्रमा अपने परिवार विमानों सहित है। धातकी खण्ड में बारह (12) चन्द्रमा कालोदधि समुद्र में ब्यालीस चन्द्रमा अपने सूर्यादि के विमानों के परिवार सहित होते हैं। इसके आगे मानुषोत्तर पर्वत के परभाग वाले पुष्करार्ध द्वीप के प्रथम वलय में एक सौ चौबालीस (144) चन्द्रमा परिवार सहित है एवं इस द्वीप में अंतिम वलय में इनकी संख्या (288) दो सौ अट्ठासी हो जाती है। आगे इनकी संख्या बढ़ते-बढ़ते अन्तिम स्वयम्भू रमण समुद्र तक असंख्यात हो जाती है। सूर्य चन्द्रमा आदि का अवस्थान पृथ्वी तल से सात सी नब्बे (790) योजन की ऊँचाई से लेकर नौ सौ (900) योजन तक की ऊँचाई में ज्योतिष मण्डल अवस्थित है। भूमि के समतल भाग से सात सौ नब्बे (790) योजन ऊपर, सबसे नीचे तारागण हैं, उनसे दस योजन ऊपर प्रतीन्द्र सूर्य और उससे अस्सी योजन ऊपर इन्द्र चन्द्रमा भ्रमण करते हैं। चन्द्रमा से तीन योजन ऊपर नक्षत्र और नक्षत्र से तीन योजन ऊपर बुध के विमान स्थित हैं। बुध ग्रह से तीन योजन ऊपर शुक्र, शुक्र से तीन योजन ऊपर बृहस्पति, उससे चार योजन ऊपर मंगल एवं मंगल से चार योजन ऊपर शनि ग्रह भ्रमण करता है। इस प्रकार सम्पूर्ण ज्योतिष मण्डल एक सौ दस (110) योजना नभस्थल में स्थित है। सूर्य चन्द्रमा का गमन ढाई द्वीप और दो समुद्र सम्बन्धी ज्योतिषी देव (विमान) मेरू पर्वत से ग्यारह सौ इक्कीस (1121) योजन छोड़कर मेरू पर्वत की प्रदक्षिणा करते हुए निरन्तर गमन करते हैं। इनसे बाहय क्षेत्र के ज्योतिषी देव अवस्थित हैं। इन सूर्य और चन्द्रमा आदि को आभियोग्य जाति के देव खीचतें हैं। चन्द्र और सूर्य के पूर्व दिशा में चार हजार देव सिंह के आकर को धारण कर, दक्षिण में 4000 देव हाथी के आकार को धारण कर, पश्चिम में 4000 देव बेल के आकार को धारण कर एवं उत्तर में 4000 देव घोड़े के आकार को धारण कर ऐसे 16000 देव सतत् खींचते रहते हैं। इसी प्रकार ग्रहों को कुल 8000 देव, नक्षत्रों को 4000 देव एवं ताराओं को 2000 वाहन जाति के देव खींचते रहते हैं।
  10. तन की गर्मी तो मिटे, मन की भी मिट जाये। तीर्थ जहाँ पर उभय सुख, अमिट अमित मिल जाये। जहाँ पर शारीरिक और मानसिक दोनों प्रकार की आकुलताऐं नष्ट हो जाती हैं, जो शाश्वत और अनन्त सुख का साधन है। ऐसे तीर्थकर एवं केवलियों की निर्वाण भूमि (मोक्ष स्थान) तीर्थक्षेत्र कहलाते हैं। तीर्थकरों के पञ्चकल्याणकों से पवित्र एवं अतिशय युक्त स्थानों को भी तीर्थ कहते हैं। अष्टापदजी (कैलास पर्वत), ऊर्जयन्त पर्वत (गिरनारजी), श्री सम्मेदशिखरजी, चम्पापुरजी, पावापुरजी, नैनागिरजी, बावनगजाजी, सिद्धवरकूटजी, मुक्तागिरिजी, सिद्धोदयजी (नेमावर), कुंथलगिरिजी, मथुरा चौरासीजी, तारंगाजी, शत्रुजयजी, गुणावाजी, कुण्डलपुरजी आदि सिद्धक्षेत्र कहलाते हैं। रत्नपुरीजी, हस्तिनापुरीजी, मिथिलापुरजी, कुशाग्रपुरजी, शौरीपुरजी, कुण्डलपुरजी आदि। नवागढ़जी, नेमगिरिजी (जिन्तूर), कचनेरजी आदि अतिक्षेत्र कहलाते हैं। तीर्थराज श्री सम्मेदशिखरजी - तीर्थराज सम्मेदशिखर दिगम्बर जैनों का सबसे बड़ा और सबसे ऊँचा शाश्वत सिद्धक्षेत्र है। ये वर्तमान में झारखण्ड प्रदेश में पारसनाथ स्टेशन से 23 किलोमीटर पर मधुवन में स्थित है। तीर्थराज सम्मेदशिखर की ऊँचाई 4,579 फीट है। इसका क्षेत्रफल 25 वर्गमील में है एवं 27 किलोमीटर की पर्वतीय वन्दना है। सम्पूर्ण भूमण्डल पर के कण-कण में अनन्त विशुद्ध आत्माओं की पवित्रता व्याप्त है। अत: इसका एक-एक कण पूज्यनीय है, वन्दनीय है। कहा भी है- एक बार वन्दे जो कोई ताको नरक पशुगति नहीं होई। एक बार जो इस पावन पवित्र सिद्धक्षेत्र की श्रद्धापूर्वक वन्दना करते हैं। उसकी नरक और तिर्यच्चगति छूट जाती है अर्थात् वो नरकगति में और तिर्यञ्चगति में जन्म नहीं लेता है। इस तीर्थराज सम्मेदशिखर से वर्तमान काल सम्बन्धी चौबीसी के बीस तीर्थङ्करों के साथ-साथ अरबों मुनियों ने मोक्ष प्राप्त किया है। इस तीर्थ की एक बार वन्दना करने से करोड़ों उपवास का फल मिलता है। इस सिद्धक्षेत्र की भूमि के स्पर्श मात्र से संसार ताप नाश हो जाता है। परिणाम निर्मल, ज्ञान उज्वल, बुद्धि स्थिर, मस्तिष्क शांत और मन पवित्र हो जाता है। पूर्वबद्ध पाप तथा अशुभ कर्म नष्ट हो जाते हैं। दु:खी प्राणी को आत्मशांति प्राप्त होती है। ऐसे निर्वाण क्षेत्र की वन्दना करने से उन महापुरुषों के आदर्श से अनुप्रेरित होकर आत्मकल्याण की भावना उत्पन्न होती है। श्री पावापुरजी (बिहार) - यहाँ से अन्तिम तीर्थङ्कर महावीरस्वामी को निर्वाण की प्राप्ति हुई थी। यहाँ तालाब के मध्य में एक विशाल मन्दिर है, जिसे जलमन्दिर कहते हैं। जलमन्दिर में तीर्थङ्कर महावीरस्वामी, गौतम स्वामी एवं सुधर्मास्वामी के चरण स्थापित है | कार्तिक क्रष्ण अमावस्या को तीर्थकर महावीरस्वामी के निर्वाण दिवस के में यहाँ बहुत बड़ा मेला लगता है | गिरनारजी (गुजरात) - 22 वें तीर्थङ्कर श्री नेमिनाथजी के दीक्षा, केवलज्ञान एवं निर्वाण कल्याणक यहीं से हुए तथा 72 करोड़ 700 मुनि यहाँ से मोक्ष पधारे यहाँ कुल 5 पहाड़ी हैं। प्रथम पहाड़ी पर राजुल की गुफा, दूसरी पहाड़ी पर अनिरुद्धकुमार के चरण चिह्न, तीसरी पहाड़ी पर शम्भुकुमार के चरण चिह्न, चौथी पहाड़ी पर प्रद्युम्नकुमार के चरण चिह्न हैं। पाँचवीं पहाड़ी पर तीर्थङ्कर नेमिनाथ जी के चरण चिह्न हैं। चरणों के पीछे तीर्थङ्कर श्री नेमिनाथजी की भव्य दिगम्बर प्रतिमा है। गुरुवर आचार्य श्री विद्यासागरजी ने इस पहाड़ी पर सन् १९९७ में ५ एलक दीक्षा प्रदान की थीं।
  11. पुद्गल जैन दर्शन का विशिष्ट पारिभाषिक शब्द है। अन्य दर्शनों में इसे भूत तथा आधुनिक विज्ञान में इसे मैटर अथवा एनर्जी के नाम से जाना जाता है। यह चेतना शून्य, मूर्त-स्पर्श, रस, गंध वर्ण से युक्त द्रव्य है। जो एक दूसरे के साथ मिलकर बिछुड़ता रहे, ऐसे पूरण गलन स्वभावी मूर्तिक जड़ पदार्थ पुद्गल कहलाता है। पुद्गल के दो भेद हैं - 1 अणु और 2. स्कन्ध। अणु को परमाणु भी कहते हैं। परमाणु जो अत्यन्त तीक्ष्ण शस्त्र से भी छेदा या भेदा नहीं जा सकता तथा जल और अग्नि के द्वारा नाश को प्राप्त नहीं होता ऐसे पुद्गल द्रव्य के अन्तिम छोटे से छोटे भाग को परमाणु कहते हैं। एक परमाणु में स्पर्श गुण की दो (स्निग्ध - रूक्ष में से एक तथा शीत उष्ण में से एक), रस गुण की एक, गंध गुण की एक तथा वर्णगुण की एक इस प्रकार चार गुणों की पाँच पर्याय होती हैं। स्वयं ही जिसका आदि है, स्वयं ही जिसका अन्त है। इन्द्रिय से ग्राहय नही है, ऐसे अविभागी द्रव्य को परमाणु जानना चाहिए। इसका आकार गोल होता है। स्कन्ध १. जिनमें स्थूल रूप से पकड़ना, रखना आदि व्यापार होता है अर्थात् जिन परमाणुओं ने परस्पर बन्ध कर लिया है वे स्कन्ध कहलाते हैं। स्कन्ध के छह भेद कहे गये है जिनमें:- १. बादर-बादर स्कन्ध २. 'बादर स्कन्ध ३. बादर सूक्ष्म स्कन्ध ४. सूक्ष्म बादर स्कन्ध ५. सूक्ष्म स्कन्ध ६. सूक्ष्म-सूक्ष्म स्कन्ध । काष्ठ, पाषाण आदि जो कि छेदन करने पर स्वयं आपस में न जुड़ सके तथा जिन्हे एक स्थान से दूसरे स्थान तक आसानी से ले जाया जा सके, उन्हें 'बादर-बादर' अथवा स्थूल-स्थूल स्कन्ध कहते हैं। जिन्हें एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाया जा सकता है किन्तु छिन्न-भिन्न करने पर जो स्वयं जुड़ जाते हैं ऐसे दूध, पानी तेल आदि तरल पदार्थ स्थूल अथवा बादर स्कन्ध कहे जाते हैं। जिसे नेत्र इन्द्रिय के द्वारा देखा जा सके किन्तु पकड़ में न आ सके, ऐसे छाया, प्रकाश आदि 'बादर-सूक्ष्म स्कन्ध' है। चूंकि ये दिखते हैं इसलिए स्थूल हैं तथा पकड़ में न आने के कारण सूक्ष्म कहे जाते हैं। जो आँखों से तो नहीं दिखते हों किन्तु शेष इन्द्रियों के द्वारा अनुभव किये जाते हैं ऐसे हवा, गंध, रस आदि 'सूक्ष्म-बादर स्कन्ध' कहे जाते हैं। शब्द, रस, गन्ध, स्पर्श सूक्ष्म-बादर कहलाते हैं क्योंकि यद्यपि इनका चक्षु इन्द्रिय के द्वारा ज्ञान नही होता इसलिए ये सूक्ष्म हैं परन्तु अपनी-अपनी कर्ण आदि इन्द्रियों के द्वारा इनका ग्रहण हो जाता है इसलिए स्थूल भी कहलाते हैं। जो किसी भी इन्द्रिय का विषय न बने ऐसे कार्मण स्कन्ध की 'सूक्ष्म स्कन्ध' संज्ञा है। अत्यन्त सूक्ष्म द्वयणुक स्कन्ध को सूक्ष्म - सूक्ष्म स्कन्ध कहते हैं। यह स्कन्धों की अन्तिम इकाई है। अनन्त परमाणुओं का स्कन्ध भी लोक के एक प्रदेश में रह सकता है इसका कारण यह है कि पुद्गल परमाणु भी अवगाहन स्वभाव वाला है और उसका सूक्ष्म रूप से परिणमन हो जाता है, जिस प्रकार एक कमरे में अनेक दीपकों का प्रकाश (मूर्तिक) रह जाता है उसी प्रकार मूर्त पुदगलों का एक जगह अवगाह होने में कोई विरोध नहीं। चाक्षुष और अचाक्षुष के भेद से स्कन्ध दो प्रकार के होते हैं। चाक्षुष का अर्थ चक्षु (नेत्र) इन्द्रिय का विषय तथा अचाक्षुष का अर्थ नेत्र इन्द्रिय का विषय न होना अर्थात देखने में न आने वाला। अनन्तानन्त परमाणुओं के समुदाय से निष्पन्न होकर भी कोई स्कन्ध चाक्षुष होता है और कोई अचाक्षुष। अचाक्षुष स्कन्ध भी भेद और संघात से चाक्षुष बन जाता है जैसे हथेली में मल दिखता नहीं किन्तु अगुंली को जोर से रगड़ने पर मल दिखने लग जाता है अथवा हाइड्रोजन और आक्सीजन अचाक्षुष है किन्तु आक्सीजन के दो परमाणु टूट कर एक हाइड्रोजन में जुड़ जाते है तो H.O जल चाक्षुष बन जाता है। वैस्त्रसिक और प्रायोगिक के भेद से बन्ध दो भेद वाला है। जिसमें पुरुष का प्रयोग अपेक्षित नहीं है वह वैस्त्रसिक बन्ध है जैसे स्निग्ध रूक्ष गुण के निमित से होने वाला बिजली, उल्का, मेघ आदि के विषयभूत बन्ध। तथा जो बन्ध पुरुष के प्रयोग के निमित से होता है। वह प्रायोगिक बन्ध है जैसे लाख और लकड़ी आदि का अजीव सम्बन्धी और कर्म-नोकर्म का जीव से साथ जीवाजीव सम्बन्धी प्रायोगिक बन्ध है। सूक्ष्मता दो प्रकार की है - अन्य ओर आपेक्षिक। परमाणु में अन्य सूक्ष्मत्व है तथा बेल, आँवला और बेर आदि में आपेक्षिक सूक्ष्मत्व है। स्थौल्य भी दो भेद रूप है - अन्त्य और आपेक्षिक। जगव्यापी महास्कन्ध में अन्य स्थौल्य है तथा बेर, अाँवला और बेल आदि में आपेक्षिक स्थौल्य है। इत्थ लक्षण और अनित्यं लक्षण के भेद से संस्थान दो भेद वाला है। जिसके विषय में 'यह संस्थान इस प्रकार का है' यह निर्देश किया जा सके वह इत्थं लक्षण संस्थान है। जैसे - वृत्त, त्रिकोण, चतुष्कोण आदि। जिसके विषय में इस प्रकार का है नहीं कहा जा सकता वह अनित्थ वाला सस्थान है - जेसे मेध आदि का आकर उत्कर, चूर्ण, चूर्णिका, प्रत्तर और अणुचटन के भेद से भेद के छह प्रकार हैं। जो प्रकार का विरोधी है तथा जिससे द्रष्टि में प्रतिबन्ध होता है वह तम कहलाता है | प्रकाश को रोकने वाले पदार्थो के निमित्त से जो पैदा होती है वह छाया कहलाती है। जो सूर्य के निमित्त से उष्ण प्रकाश होता है उसे आतप कहते हैं। चन्द्रमणि और जुगनु आदि के निमित्त से जो प्रकाश पैदा होता है वह उद्योत है। सुख, दु:ख, जीवन, मरण, शरीर, वचन, मन, प्राणापान ये सब पुद्गल द्रव्य के जीव पर उपकार हैं|
  12. महा महापुरुषों की संख्या प्रत्येक काल में ६३ ही होती है। जिनमें २४ तीर्थकर, १२ चक्रवर्ती, ९ बलदेव, ९ नारायण, ९ प्रतिनारायण होते हैं। तीर्थकरों के माता-पिता ४८ ९ नारद ११ रुद्र, २४ कामदेव तथा १४ कुलकर मिलाने से १६९ शलाका पुरुषा होते हैं। तीर्थकर :- तीर्थकर नामक विशेष पुण्य प्रकृति का जिनके उदय होता है, वे तीर्थकर कहलाते हैं। चक्रवर्ती :- एक आर्यखण्ड तथा पाँच म्लेच्छखण्ड इस प्रकार छह खण्डों का स्वामी ३२ हजार मुकुटबद्ध राजाओं का तेजस्वी अधिपति चक्रवर्ती हुआ करता है। वह १४ रत्न एवं ९ निधियों का मालिक होता है। चक्रवर्ती की ९६ हजार रानियाँ होती है। प्रतिदिन स्वादिष्ट भोजन बनाकर देने वाले ३६५ रसोईया होते हैं। चक्रवर्ती के वैभव स्वरूप- तीन करोड़ गौशालायें, एक करोड़ हल, एक करोड़ स्वर्ण थाल, ८४ लाख हाथी इतने ही रथ, १८ करोड घोड़े, ८४ करोड योद्धा एवं ४८ करोड़ पदाति होते हैं। १४ रत्न एवं ९ निधियाँ इस प्रकार है:- १ चक्र रत्न २. छत्त्र रत्न ३. खड्ग रत्न ४. दण्ड रत्न ५. काकिणी रत्न ६. मणि रत्न ७. चर्मरत्न ८. सेनापति रत्न ९. गृहपति रत्न १०. गज रत्न ११. अश्व रत्न १२. पुरोहित रत्न १३. स्थपित रत्न १४. युवति रत्न निधियों १- कालनिधि २– महाकाल ३– पाण्डु ४- मानव ५- शंख ६– पद्म ७– नैसर्प ८. पिंगल ९– नाना रत्न बलदेव - वे नारायण के भ्राता होते हैं और उनसे प्रगाढ़ स्नेह रखते हैं। ये अतुल पराक्रम के धनी, अतिशय रूपवान और यशस्वी होते हैं। इनकी ८ हजार रानियाँ होती हैं। तथा ये पाँच रत्नों के स्वामी होते हैं। वासुदेव (नारायण) - प्रतिवासुदेव (प्रतिनारायण) – ये दोनों समकालीन होते हैं। पूर्वभव में निदान सहित तपश्चरण कर स्वर्ग में देव होते हैं और वहाँ से च्युत होकर वासुदेव-प्रतिवासुदेव बनते हैं। दोनों अर्धचक्रवर्ती होते हैं। इनकी सोलह-सोलह हजार रानियाँ होती हैं। प्रतिनारायण (प्रतिवासुदेव) प्राय: विद्याधर होते हैं और नारायण (वासुदेव) भूमिगोचरी, इनका आपस में जन्मजात बैर होता है। इनमें किसी निमित्त से युद्ध होता है, जिसमें नारायण के द्वारा प्रतिनारायण मारा जाता है। ये दोनों निकट भव्य होते हैं, परन्तु अनुबद्ध बैर के कारण नरक में जाते हैं। नारद - ये नारायण -प्रतिनारायण के काल में होते हैं, ये अत्यन्त कौतूहली और कलहप्रिय होते हैं। नारायण और प्रतिनारायण को आपस में लड़ाने में इनकी प्रमुख भूमिका रहती है। ये ब्रह्मचारी होते हैं और इन्हें राजर्षि का सम्मान प्राप्त होता है। ये सारे राजभवन के बेरोकटोक आते जाते रहते हैं, ये निकट भव्य होते है, परन्तु कलहप्रियता के कारण नरक में जाते हैं। रुद्र - ये सभी अधर्मपूर्ण व्यापार में संलग्न होकर रौद्रकर्म किया करते हैं, इसलिये रुद्र कहलाते हैं। ये कुमारावस्था में जिनदीक्षा धारण कर कठोर तपस्या करते हैं। जिसके फलस्वरूप इन्हें अंगों का ज्ञान हो जाता है, किन्तु दशवें विद्यानुवाद पूर्व का अध्ययन करते समय विषयों के आधीन होकर पथभ्रष्ट हो जाते हैं। संयम और सम्यक्त्व से पतित होने के कारण सभी रुद्र नरकगामी ही होते है। तिलेायपण्णत्ति के अनुसार रुद्रों एवं नारदों की उत्पत्ति हुण्डावसर्पिणी काल में ही होती है। कामदेव - प्रत्येक कालचक्र के दुषमासुषमा काल में चौबीस कामदेव होते हैं। ये सभी अद्वितीय रूप और लावण्य के धनी होते हैं।
  13. जैन साहित्य में चौदहवीं शताब्दी के बाद संस्कृत महाकाव्य की विछि । श्रृंखला को जोड़ने वाले, त्याग, तपस्या, निरभिमानता उदारता, साहित्य सृजना आदि गुणों की साक्षात् मूर्ति श्री ज्ञानसागर जी महाराज हुए हैं। राजस्थान प्रान्त के सीकर जिलान्तर्गत राणोली ग्राम में सेट सुखदेवजी रहते थे। उनके पुत्र श्री चतुर्भुज का विवाह धृतवरी देवी से हुआ। चतुर्भुज जी को छह पुत्र रत्नों की प्राप्ति हुई, जिनमें से पाँच जीवित रहे। सबसे बड़े पुत्र का नाम छगनलाल रखा गया। इसके पश्चात् धृतवरी देवी ने संवत् 1981 में जुड़वा पुत्रों को जन्म दिया किन्तु जन्म के कुछ ही समय बाद जीवन के लक्षण न मिलने से दोनों शिशुओं को मृत जान लिया गया। परन्तु शीघ्र ही एक शिशु में जीवन के लक्षण प्राप्त हुए पर दूसरा बालक मृत्यु को प्राप्त हुआ। जीवित बालक का नाम भूरामल रखा गया। भूरामल के तीन अनुज और हुए जिनका नाम क्रमश: गंगा प्रसाद, गौरीलाल और देवीदत्त था। बाल्यकाल से ही भूरामल जी की अध्ययन के प्रति रुचि थी। सर्वप्रथम कुचामन के पं. श्री जिनेश्वरदास जी ने राणोली ग्राम में ही भूरामल को धार्मिक एवं लौकिक शिक्षा दी। भूरामल जी की 10 वर्ष की अवस्था में ही उनके पिता जी की मृत्यु हो गई, जिससे उनकी पारिवारिक अर्थव्यवस्था बिगड़ गई। आजीविका हेतु बड़े भाई गया पहुँच गये। गाँव में शिक्षा की व्यवस्था न होने के बाद में भूरामल जी भी गया नगर पहुँच गये। कुछ दिन पश्चात् स्याद्वाद महाविद्यालय वाराणसी के छात्र किसी समारोह में भाग लेने के लिए गया आये। उनको देखकर भूरामल जी के मन में भी वाराणसी में विद्या ग्रहण करने की इच्छा बलवती हो आई। तब वे बड़े भाई से आज्ञा लेकर 15 वर्ष की उम्र में वाराणसी चले गये। वाराणसी में स्याद्वाद महाविद्यालय से उन्होंने संस्कृत साहित्य एवं जैनदर्शन की उच्चशिक्षा ग्रहण की। इसी बीच क्वीन्स कॉलेज काशी से उन्होंने शास्त्री परीक्षा उत्तीर्ण की। वहाँ पर संस्कृत अध्यापक छात्रों की इच्छा होने पर भी उन्हें जैनाचार्य प्रणीत ग्रन्थों की शिक्षा नहीं देते थे। दृढ़ निश्चय के अनुसार येन केन प्रकारेण अध्यापकों से जैन ग्रन्थों की शिक्षा प्राप्त की, उस समय पं. उमराव सिंह जी महाविद्यालय में धर्मशास्त्र के अध्यापक थे। इन्हीं से भूरामल जी को जैन ग्रन्थों के अध्ययन की प्रेरणा मिली। वे अपने अध्ययन काल में भी स्वालम्बन पर ही विश्वास करते थे तथा अपने परिश्रम से उपार्जित धन से ही विद्यालय के भोजनालय में भोजन किया करते थे। अधिक अध्ययन की भावना से आप अजैन विद्वानों के पास पहुँचे और जैन ग्रन्थों के अध्ययन करने हेतु अपना निवेदन किया-तब एक अजैन विद्वान् व्यंग्य करके बोले-जैनों के यहाँ कहाँ है ऐसा साहित्य जो मैं तुम्हें पढ़ाऊँ। ये शब्द सुनकर उनके हृदय को बहुत टीस पहुँची उन्होंने मन से संकल्प लिया कि अध्ययन के उपरान्त ऐसे साहित्य का निर्माण करूंगा जिसे देखकर जैनेतर विद्वान् दाँतों तले अंगुली दवा लेंगे। कुछ दिन पश्चात् जब जयोदय महाकाव्य की प्रति जैनेतर विद्वानों को प्राप्त हुई तो विद्वानों ने कहा - कालिदास के साहित्य से टक्कर लेने वाला यह जैन साहित्य है। आपने विवाह को जैन साहित्य के निर्माण और उनके प्रचार में बहुत बड़ी बाधा मानकर मात्र अठारह वर्ष की उम्र में ही आजीवन ब्रह्मचारी रहने की प्रतिज्ञा कर ली थी। आपने संस्कृत हिन्दी में अनेक मौलिक रचनाएं की एवं कई ग्रन्थों की हिन्दी टीका तथा पद्यानुवाद भी किए। जो निम्नलिखित हैं - संस्कृत साहित्य - 1. जयोदय महाकाव्य, (2 भाग), 2. वीरोदय महाकाव्य, 3. सुदर्शनोदय महाकाव्य, 4. भद्रोदय महाकाव्य, 5. दयोदय चम्पू काव्य, 6. सम्यक्त्वसार शतक, 7. मुनिमनोरञ्जनाशीति, 8. भक्ति संग्रह, 9. हित सम्पादक। हिन्दी साहित्य - 10. भाग्य परीक्षा, 11. ऋषभ चरित्र, 12. गुण सुन्दर वृत्तान्त, 13. पवित्र मानव जीवन, 14. कर्तव्य पथ प्रदर्शन, 15. सचित विवेचन, 16. सचित विचार, 17. स्वामी कुन्दकुन्द और सनातन जैन धर्म, 18. सरल जैन विवाह विधि, 19. इतिहास के पन्ने, 20. ऋषि कैसा होता है? टीका ग्रन्थ – 21. प्रवचनसार, 22. समयसार, 23. तत्त्वार्थसूत्र, 24. मानवधर्म।। पद्यानुवाद - 25. विवेकोदय, 26. देवागम स्तोत्र, 27. नियमसार, 28. अष्टपाहुड एवं 29. शांतिनाथ पूजन विधान। इस प्रकार उपरोक्त अनेक ग्रन्थों के निर्माण एवं पठन-पाठन करते हुए भूरामल जी ने अपनी युवावस्था व्यतीत की। आत्मकल्याण की प्रबल भावना होने पर सन् 1947 ई (संवत् 2004) में आचार्य वीरसागरजी महाराज की आज्ञा से अजमेर नगर में ब्रह्मचर्य प्रतिमा अंगीकार की। धीरे-धीरे ब्र. भूरामल जी के मन में वैराग्य भाव और भी बढ़ा फलस्वरूप विक्रम संवत् 2012 सन् 1955 ई. में मनसुरपुर (रेनवाल) में उन्होंने वीरसागरजी महाराज से क्षुल्लक दीक्षा प्राप्त कर ज्ञानभूषण नाम प्राप्त किया उसके बाद कुछ समय और ऐलक अवस्था में व्यतीत कर सन् 1959 में आचार्य शिवसागरजी महाराज से मुनि दीक्षा स्वीकार कर उनके प्रथम शिष्य मुनि ज्ञानसागर बनने का सौभाग्य प्राप्त किया। आप संघ में रहकर साधु आर्यिका एवं श्रावक-श्राविकाओं को अध्ययन कराते रहे। कुछ समय पश्चात् धर्म प्रचार हेतु आचार्य संघ से पृथक् अनके स्थानों पर आपने विहार किया एवं अनेक आत्म कल्याण के इच्छुक भव्य जनों को संयम-व्रत प्रदान किया। श्री विवेकसागरजी के मुनिदीक्षा ग्रहण के अवसर पर जैनसमाज ने 7 फरवरी सन् 1969 ई. को मुनि ज्ञानसागरजी को आचार्य पद से सुशोभित किया। महाकवि ज्ञानसागरजी महाराज का शरीर क्षीणता को प्राप्त हो रहा था तब उन्होंने 22 नवम्बर 1972 ई. (मार्गशीर्ष कृ.2 वि.सं. 2020) को अपना पद सुयोग्य शिष्य मुनि विद्यासागर जी को सौंप दिया एवं स्वयं पूर्णरूपेण वैराग्य, तपश्चरण एवं सल्लेखना में सन्नद्ध हो गये। इस समय उन्होंने जल और रस पर ही शरीर धारण करना शुरू कर दिया शेष खाद्य सामग्री का सदा के लिए परित्याग कर दिया। 28 मई सन् 1973 को उन्होंने सभी प्रकार के आहार का परित्याग कर दिया। अन्त में ज्येष्ठ कृष्णा 15 विक्रम संवत् 2023 शुक्रवार तदनुसार दिनांक 1 जून सन् 1973 ई. को दिन में 10 बजकर 50 मिनट पर नसीराबाद में महाकवि ज्ञानसागर जी महाराज समाधिस्थ हो गये। श्री ज्ञानसागर जी के प्रमुख शिष्य में मुनि श्री विद्यासागर जी, मुनि श्री विवेकसागर जी, मुनि श्री विजयसागर जी, ऐलक श्री सन्मतिसागर जी, क्षुल्लक श्री स्वरूपानन्दजी, क्षुल्लक सुखसागर जी, क्षुल्लक संभवसागर जी, ब्र. जमनालाल जी एवं ब्र. लक्ष्मीनारायण जी थे।
  14. लोकाकाश का आकार जीवादि छह द्रव्य जहाँ पर रहते हैं, उसे लोकाकाश कहते हैं। इसका आकार दोंनो पैर फैलाकर, कमर पर हाथ रखे हुए, पंक्तिबद्ध खड़े हुए, सात पुरुषों के समान है। यह लोकाकाश सभी और से क्रमश: घनोदधि वातवलय, घन वातवलय व अंत में तनुवातवलय से घिरा है। लोकाकाश के तीन भेद - ऊध्वलोक , मध्यलोक व अधोलोक हैं। लोकाकाश के बाहर अनन्त आकाश है जिसे अलीकाकाश कहते हैं, अलोकाकाश में एक मात्र आकाश द्रव्य है। ऊध्र्वलोक मृदंग के आकार का, अधोलोक वेत्रासन के आकार का एवं मध्यलोक झालर के आकार का है। तीन लोक की लंबाई चौड़ाई - लोकाकाश के बीचों बीच एक राजू लम्बी, एक राजू चौड़ी और चौदह राजू ऊँची लोक नाड़ी हैं। लोक नाड़ी के बाहर का स्थान निष्कुट क्षेत्र कहलाता है जिसमें मात्र स्थावर जीव ही रहते हैं। ऊध्र्वलोक में स्वर्ग है जिसमें देव गण निवास करते हैं। अधोलोक में नरक हैं जिसमें नारकी रहते हैं एवं मध्यलोक में सिद्ध परमेष्ठी को छोड़कर शेष चार परमेष्ठी एवं अन्य जीव (देव, मनुष्य, तिर्यच गति के) रहते हैं। मध्यलोक के द्वीप समुद्र मध्यलोक के बीचों - बीच थाली के आकार का गोल जम्बूद्वीप है। जिसे घेरे हुए चूड़ी के समान गोलाकार असंख्यात समुद्र व द्वीप हैं। जम्बूद्वीप के बाद लवण समुद्र उसके बाद धातकीखण्ड, फिर कालोदधि समुद्र, फिर पुष्कर द्वीप है। इस जम्बूद्वीप, धातकीखंड व आधे पुष्कर द्वीप को मिलाने पर ढाई द्वीप हो जाते हैं। मानुषोत्तर पर्वत के द्वारा पुष्करद्वीप दो भागों में बँट जाता हैं। मनुष्य गति के जीव इस पर्वत के भीतर ही रहते है बाहर नहीं अत: मानुषोत्तर पर्वत के आगे पुष्करार्ध द्वीप को आदि करके चूड़ी के आकार वाले एक दूसरे को घेरे असंख्यात द्वीप समुद्र हैं। सबसे अन्त में स्वयंभूरमण द्वीप व समुद्र है। इस द्वीप एवं समुद्र में ही उत्कृष्ट अवगाहना वाले तिर्यच्च जीव पाये जाते हैं। मध्यलोक के मध्य में नाभि सदृश अत्यन्त ऊँचा, हरे-भरे वृक्ष, उपवन, चैत्यालयों से युक्त सुमेरु पर्वत है। इस पर्वत के ऊपरी भाग में पाण्डुक वन है जिसमें पाण्डुक शिला है उस पर ही इन्द्र द्वारा तीर्थकर बालक का जन्माभिषेक किया जाता है। मध्यलोक के बीचों – बीच स्थित जम्बूद्वीप के क्षेत्र विभाजन का सामान्य वर्णन करते हैं :- इस जम्बूद्वीप का विभाजन पूर्व - पश्चिम दिशा में फैले हुए छह पर्वतों के द्वारा होता है, इनके द्वारा जम्बूद्वीप सात क्षेत्रों में विभाजित हो जाता है। छह पर्वतों के नाम क्रमश: हिमवान, महा हिमवान, निषध, नील, रक्मि और शिखरिणी पर्वत है तथा सात क्षेत्रों के नाम क्रमश: भरत, हैमवत, हरि, विदेह, रम्यक, हिरण्यवत् और ऐरावत क्षेत्र है। मध्य लोक में नदियाँ प्रत्येक पर्वत पर क्रमश: पदम, महापदम, तिगिछ, के शरी, महापुण्डरीक व पुण्डरीक नाम वाले एक-एक तालाब हैं। इन तालाबों में से क्रमश: ३, २, २, २, २ व ३ अर्थात् कुल चौदह नदियाँ निकलती हैं। गङ्गा, रोहित, हरित, सीता, नारी, सुवर्णकूला और रक्ता ये सात नदियाँ पूर्व लवण समुद्र में मिलती हैं। सिंधु, रोहितास्या, हरिकांता, सीतोदा, नरकांता, रूप्यकूला और रतोदा ये सात नदियाँ पश्चिम लवण समुद्र में मिलती हैं। ढाई द्वीप में आर्य व म्लेच्छ खण्ड भरत क्षेत्र में बहने वाली गंगा, सिन्धु नदियों के द्वारा भरत क्षेत्र एक आर्यखण्ड एवं पाँच म्लेच्छ खण्ड ऐसे छह भागों - भागों में बँट जाता हैं। इसी प्रकार अपनी - अपनी नदियों के द्वारा ऐरावत क्षेत्र एवं विदेह क्षेत्र संबंधी बतीस नगरियों में भी एक-एक आर्यखण्ड एवं पाँच-पाँच म्लेच्छखण्ड होते हैं। अत: जम्बूद्वीप में कुल चौतीस (३४) आर्यखण्ड एवं एक सौ सत्तर (१७०) म्लेच्छखण्ड होते हैं। धातकीखण्ड एवं पुष्करार्ध द्वीप में दो-दो भरत क्षेत्र, दो-दो ऐरावत क्षेत्र, दो-दो विदेह क्षेत्र (कुल चौसठ - चौसठ नगरियाँ) होते हैं। अत: कुल ढाई द्वीप में एक सौ सत्तर (१७०) आर्यखण्ड एवं आठ सौ पचास (८५०) म्लेच्छखण्ड होते हैं। आर्यखण्ड में ही तीर्थकरों का जन्म होता हैं अत: सभी एक सौ सत्तर आर्यखण्डों में यदि एक साथ तीर्थकर होवे तो अधिक से अधिक एक सौ सत्तर तीर्थकर एक साथ हो सकते हैं। वातवलय का स्वरूप - जैसा छाल वृक्ष को चारों ओर से घेरे रहती है, वैसे ही घनोदधि आदि वातवलय चारों ओर से लोक को घेरे हुए हैं।सर्वप्रथम गोमूत्र के वर्ण वाला घनोदधि वातवलय है जिसमें सघन रूप से जल और वायु भरी है। उसके पश्चात् मूंग के वर्ण वाला घनवात वलय हैं जिसमें सघन वायु भरी हैं। तीसरा अंतिम तनुवात वलय अनेक वर्ण वाला है जिसमें विरल वायु का अवस्थान हैं।
  15. ईसा पूर्व चौथी शताब्दी के अंतिम पाद में शक्तिशाली नन्दवंश का उच्छेद कर मौर्य वंश की स्थापना करने वाले प्रधान नायक ये दोनों थे। जो गुरु-शिष्य थे। चाणक्य राजनीति विद्या-विलक्षण एवं नीति विशारद ब्राह्मण पंडित था। चन्द्रगुप्त पराक्रमी एवं तेजस्वी क्षत्रिय वीर था। इस विरल मणि-कांचन संयोग को सुगन्धित करने वाला अन्य सुयोग यह था कि वह दोनों ही अपनेअपने कुल परम्परा तथा व्यक्तिगत आस्था की दृष्टि से जैन धर्म के प्रबुद्ध अनुयायी थे। चाणक्य का जन्म ईसा पूर्व ३७५ के लगभग चणय नामक ग्राम में हुआ था। माता का नाम चणेश्वरी एवं पिता का नाम चणक था। चणक के पुत्र होने से उनका नाम चाणक्य हुआ। यह लोग जाति की अपेक्षा ब्राह्मण थे किन्तु धर्म की दृष्टि से पापभीरु जैन श्रावक थे। शिशु चाणक्य के मुंह में जन्म से ही दाँत थे, यह देखकर लोगो को बड़ा आश्चर्य हुआ। इस लक्षण को देख भविष्य वक्ता ने इसे 'एक शक्तिशाली नरेश' होना बताया। ब्राह्मण चणक श्रावको चित क्रिया करने वाला था, संतोषी वृत्ति का धार्मिक व्यक्ति था वैसे ही उनकी सहधर्मिणी थी। राज्य वैभव को वे लोग पाप और पाप का कारण समझते थे। अतएव चणक ने शिशु के दाँत उखड़वा डाले। इस पर साधुओं ने भविष्य वाणी की, कि अब वह स्वयं राजा नहीं बनेगा, किन्तु अन्य व्यक्ति के माध्यम से राज्य शक्ति का उपयोग और संचालन करेगा। बड़े होने पर तात्कालिक ज्ञान केन्द्र तक्षशिला तथा उसके आस-पास निवास करने वाले आचार्यों से शिक्षण प्राप्त किया। तीक्ष्ण बुद्धिमान होने से समस्त विद्याओं एवं शास्त्रों में वह पारंगत हो गया। दरिद्रता धनहीनता से पीड़ित चाणक्य पाटलीपुत्र के राजा महापद्मनंद के पास पहुंचा। अपनी विद्वता से उसने राजा को प्रभावित किया एवं दान विभाग के प्रमुख का पद प्राप्त किया। किन्हीं कारणो से राजपुत्र के द्वारा किये गये अपमान से क्षुब्ध एवं कुपित चाणक्य ने भरी सभा में नंद वंश के समूल नाश की प्रतिज्ञा की और पाटलिपुत्र का परित्याग कर दिया। घूमते-घूमते वह मयूर ग्राम पहुचा, वहाँ के मुखिया की इकलौती लाड़ली पुत्री गर्भवती थी, उसी समय उसे चन्द्रपान का विलक्षण दोहला उपत्पन्न हुआ। जिसके कारण घर के लोग चिंतित थे। चाणक्य ने उसके दोहले को शांत करने का आश्वासन दिया और यह शर्त रखी कि यह लड़का हुआ तो उस पर मेरा अधिकार होगा जब चाहे उसे ले जा सकता हूँ। अन्य कोई उपाय न देखकर शर्त मान ली गई, तब चाणक्य ने एक थाली में जल भरवाकर उसमें पूर्ण चन्द्र को प्रतिबिम्बित कर गर्भिणी को इस चतुराई से पिला दिया कि उसे विश्वास हो गया की उसने चन्द्रपान किया। कुछ दिनों बाद मुखिया की पुत्री ने एक पुत्र रत्न को जन्म दिया। जिसका नाम चन्द्रगुप्त रखा गया। यह घटना ईसा पूर्व ३४५ के आसपास की है। विशाल साम्राज्य के स्वामी नंद वंश को नष्ट करना हँसी खेल नहीं था। यह चाणक्य जानता था फिर भी धुन का पक्का था। अतएवं धैर्य के साथ अपनी तैयारी में संलग्न हो गया। अपने कई वर्ष उसने धातु विद्या की सिद्धी एवं स्वर्ण आदि धन एकत्र में व्यतीत किये। आठ-दस वर्ष बाद पुन: चाणक्य उसी मयूर ग्राम में आया। वहाँ पर उसने खेलते हुए कुछ बालक देखे। कौतुक वश वह उनके खेल को देखने लगा। बाल राजा के अभिनय से वह अत्यन्त आकृष्ट हुआ पास जाकर उसने उस बालक को राजा बनने योग्य लक्षणों को पाया, तब मित्रों से उसका पता पूछने पर ज्ञात हुआ यह वही मुखिया का नाती है चन्द्रगुप्त तब अत्यन्त प्रसन्न होता हुआ माता-पिता को अपने वचनों का स्मरण करा राजा बनाने के उद्देश्य वश उसे ले गया। कई वर्षों तक उसने चन्द्रगुप्त को विविध अस्त्र-शस्त्रों के संचालन, युद्ध-विद्या, राजनीति तथा अन्य उपयोगी ज्ञान-विज्ञान एवं शास्त्रों की समुचित शिक्षा दी एवं धीरे-धीरे युवा वीर साथी जुटा लिये। ई.पू. 325 के लगभग चाणक्य के पथ प्रदर्शन में मगध राज्य की सीमा पर अपना एक छोटा सा स्वतंत्र राज्य स्थापित किया। कुछ दिनों पश्चात् इन्होंने छद्म भेव में नन्दों की राजधानी पाटलीपुत्र में प्रवेश कर आक्रमण कर दिया। चाणक्य के कूट कौशल के बाद भी नंदों की असीम सैन्य शक्ति के सम्मुख ये बुरी तरह पराजित हुए। औरे जैसे-तैसे प्राण बचाकर भागे। एक बार घूमते हुए रात्रि में उन्होंने एक झोपड़े में बुढ़िया की डाट सुनी कि हे पुत्र! तू भी चाणक्य के समान अधीर एवं मूर्ख है, जो गर्म-गर्म खिचडी को बीच से ही खा रहा है, हाथ न जलेगा तो क्या होगा। चाणक्य को समझ आयी कि सीधे राजधानी पर हमला बोलकर मैने गलती की फिर उन्होंने नंद साम्राज्य के सीमावर्ती प्रदेशों पर अधिकार करना प्रारंभ किया। एक के पश्चात् एक ग्राम नगर, गढ़ छल-बल कौशल से जैसे भी बना हस्तगत करते चले गये। चन्द्रगुप्त के पराक्रम, रण कौशल एवं सैन्य संचालन पटुता, चाणक्य की कूट नीति एवं सदैव सजग गिद्ध दृष्टि के परिणाम स्वरूप प्रायः सभी नन्दकुमार लड़ते-लड़ते वीरगति को प्राप्त हुए। वृद्ध महाराज महापद्म चाणक्य को धर्म की दुहाई दे, सपरिवार सुरक्षित अन्यत्र चले गये। नंद दुहिता राजरानी सुप्रभा का विवाह चन्द्रगुप्त के साथ हुआ और वह अग्रमहिषी बनी। इस प्रकार ई.पू. ३१७ में पाटलीपुत्र में नंदवंश का पतन और उसके स्थान पर मौर्य वंश की स्थापना हुई। व्यक्तिगत रुप से सम्राट चन्द्रगुप्त धार्मिक एवं साधु सन्तों को सम्मान करने वाला था। प्राचीन सिद्धान्त शास्त्र तिलोय पण्णक्ति में चन्द्रगुप्त को क्षत्रिय कुलोत्पन्न मुकुटबद्ध माण्डलिक सम्राटो में अंतिम कहा गया है जिन्होंने दीक्षा लेकर अंतिम जीवन जैन मुनियों के रूप में व्यतीत किया। उनके गुरु आचार्य भद्रबाहु थे। जिन्होंने श्रवण बेलगोला में समाधि मरण ग्रहण किया। उसी स्थान के एक पर्वत पर कुछ वर्ष उपरांत चन्द्रगुप्त मुनिराज ने सल्लेखना पूर्वक देह त्याग किया। लगभग २५ वर्ष राज्य भोग करने के पश्चात् ईसा पूर्व २९८ में अपने अपने पुत्र बिम्बसार को राज्यभार सौंपकर और उसे गुरु चाणक्य के ही अभिभावकत्व में छोड़ दक्षिण दिशा की ओर प्रस्थान किया। कुछ दिनों पश्चात् चाणक्य ने भी मन्त्रित्व का भार अपने शिष्य राधागुप्त को सौंपकर मुनि दीक्षा लेकर तपश्चरण के लिए चले गये थे। अंत समय में सल्लेखना पूर्वक देह त्याग किया।
  16. जो आत्मा को परतंत्र करता हैं, दु:ख देता है, संसार में परिभ्रमण कराता है उसे कर्म कहते हैं। अनादि काल से जीव का कर्म के साथ सम्बन्ध चला आ रहा है, इन दोनो का अस्तित्व स्वत: सिद्ध है। 'मैं हूँ।" इस अनुभव से जीव जाना जाता है और जगत में कोई दरिद्र है कोई धनवान है, कोई रोगी है कोई स्वस्थ्य है इस विचित्रता से कर्म का अस्तित्व जाना जाता है। वे कर्म मुख्य रुप से आठ प्रकार के हैं - (१) ज्ञानावरणी (२) दर्शनावरणी (३) वेदनीय (४) मोहनीय (५) आयु (६) नाम (७) गोत्र (८) अंतराय ज्ञानावरणी कर्म - जो कर्म ज्ञान को न होने दे अथवा ज्ञान की हीनाधिकता जिस कर्म के उदय से हो उसे ज्ञानावरण कर्म कहते हैं। जैसे एक व्यक्ति विद्वान और दूसरा मूख, किसी को बार-बार पढ़ने पर याद होता है तो किसी को एक बार पढ़ने पर याद होता है। मूर्ति पर पड़ा हुआ कपड़ा जिस तरह मूर्ति का ज्ञान नहीं होने देता वैसे ही ज्ञानावरण कर्म का कार्य है। दूसरों के गुणों को देखकर भीतर ही भीतर जलना, गुरु का नाम छिपाना, दूसरों के ज्ञान का आदर न करना, किताब कॉपी आदि फाड़ देना, पढ़ने वालों को बाधा उत्पन्न करना इत्यादि अनेक कारणों से ज्ञानावरणी कर्म का आस्त्रव-बंध होता है। दर्शनावरणी कर्म - जो कर्म ज्ञान के पूर्व होने वाले दर्शन को न होने दे तथा जिस कर्म के उदय से बहुत निद्रा आवे, गहन निद्रा आवे, कम निद्रा आवे उसे दर्शनावरण कर्म कहते हैं। द्वारपाल जैसे महल में प्रवेश ही नहीं करने देता है उसी प्रकार दर्शनावरणी कर्म भी पदार्थ का सामान्य अवलोकन (दर्शन) नहीं होने देता है। जिनवाणी का अनादर पूर्वक श्रवण करना, दर्शन आदि में बाधा पहुँचाना, बहुत देर तक सोना, दिन में सोना, आलस्य करना, इन्द्रिय की विपरीत प्रवृत्ति करना इत्यादि कारणों से दर्शनावरणी कर्म का आस्त्रव-बंध होता है। वेदनीय कर्म - जिस कर्म के उदय से सुख और दु:ख रूप वेदन हो, अनुभव हो, उसे वेदनीय कर्म कहते हैं। पीड़ा होने पर दु:ख तथा अच्छे भोग सामग्री मिलने पर सुख की अनुभूति होना वेदनीय कर्म का कार्य है। जैसे गुड़ की चाशनी लपटी तलवार को चाटने पर जीभ के कटने पर उसकी पीड़ा में दु:ख तथा गुड़ की मधुरता में सुख का अनुभव होता है। स्वयं रोना एवं दूसरों को रुलाना, मारना, पीटना, बाँधना, दूसरों की निन्दा, विश्वास घात इत्यादि कार्यों से असाता वेदनीय कर्म का बंध होता है। सभी प्राणियों पर अनुकम्पा, अर्हत् पूजा, दान, तपस्वी की वैयावृत्य करना, विनयशीलता आदि कायों से साता वेदनीय कम का बंध होता है। मोहनीय कर्म - जिस कर्म के उदय से जीव पदार्थों के यथार्थ स्वरूप को नहीं जान पाता उसे मोहनीय कर्म कहते हैं अथवा जिस कर्म के उदय से बुद्धि में भ्रम उत्पन्न होता है, गाफिलता हो उसे मोहनीय कर्म कहते हैं। शरीर को ही जीव (आत्मा) मानना, अपने से पृथक वस्तुओं को अपना मानना, संयम पालन में कष्ट मानना इत्यादि मान्यताएं मोहनीय कर्म के उदय से होती है। जैसे शराब पिया हुआ व्यक्ति कभी माँ को पत्नी कहता है तो कभी पत्नी को माँ कहता है, इस तरह का विपरीत परिणमन मोहनीय कर्म कराता है। सच्चे धर्म की निंदा करना, धार्मिक कार्यों में अन्तराय पहुँचाना, अत्यधिक कषाय करना, बहुत बोलना, बहुत हँसना इत्यादिक कार्यों से मोहनीय कर्म का आस्रव व बंध होता है। आयु कर्म - जिस कर्म के उदय से मनुष्यादि भवों में गतियों में रुकना होता है उसे आयु कर्म कहते हैं। जैसे दोनों पैरों में पड़ी हुई बेड़ी (सांकल) मनुष्य को स्वेच्छा से यहाँ-वहाँ नहीं जाने देती एक ही स्थान पर रोके रखती है। बहुत आरम्भ करने व बहुत परिग्रह रखने से नरक आयु का, मायाचारी करने से तिर्यच्च आयु का, अल्प आरंभ और परिग्रह से मनुष्य आयु का तथा सराग संयम, संयमासंयम रुप परिणामों से देव आयु का बंध होता है। नाम कर्म - जिस कर्म के उदय से अनेक प्रकार से शरीर की रचना होती है उसे नार्म कर्म कहते हैं। मोटा-पतला, काला-गोरा, सुरुप-कुरुप इत्यादि कार्य नाम कर्म के माने जाते हैं। जैसे चित्रकार अनेक प्रकार के चित्र बनाता है उनमें रंग भरता है इसी तरह का कार्य नाम कर्म का है। मन, वचन, काय की कुटिलता से अशुभ नाम कर्म का तथा मन, वचन काय की सरलता से शुभ नाम कर्म का बंध होता है | गोत्र कर्म - जिस कर्म के उदय से उच्च कुलों में अथवा नीच कुलों में जन्म होता है उसे गोत्र कर्म कहते हैं अथवा जिस कर्म के उदय से उच्च आचरण में व नीच आचरण में प्रवत्ति होती है उसे गोत्र कर्म कहते हैं। जैसे कुम्हार अनेक प्रकार के बड़े घड़े बनाता है उसी प्रकार गोत्र कर्म भी उच्च गोत्री व नीच गोत्री बनता है। दूसरों की निन्दा, अपनी प्रशंसा करने से जाति आदि का मद (घमंड) करने से नीच गोत्र का बंध होता है। आत्म निन्दा पर प्रशंसा, निरभिमानता, नम्र व्रती रखने से उच्च गोत्र का बंध होता है। अन्तराय कर्म - जिस कर्म के उदय से दाता और पात्र के बीच लेन-देन में वित्र उत्पन्न हो जाये उसे अंतराय कर्म कहते हैं अथवा वस्तु सामने होते हुए भी जिस कर्म के उदय से उसका ग्रहण, भोग, उपयोग न हो सके उसे अंतराय कर्म कहते हैं जैसे मुनिराज को आहार दान देना चाहे किन्तु मुनिराज के पड़गाहन का योग ही प्राप्त न हो, घर में मिठाई बनाई हो और बुखार हो जाये, मिठाई न खा सके इत्यादि अंतराय कर्म के कार्य है | इस क्रम को खजांची की उपमा दी है | प्राणियों की हिंसा करना, दूसरों की वस्तु चुरा लेना, दान आदि देने नहीं देना, निर्माल्य का ग्रहण करना इत्यादि कार्यों से अंतराय कर्म का बन्ध होता है। उपरोक्त कमों का बन्ध चार प्रकार का होता है १. प्रकृति बन्ध २. स्थिति बंध ३. प्रदेश बंध ४. अनुभाग बंध प्रकृति बन्ध - प्रकृति का अर्थ स्वभाव है, बंधे हुए कर्मों में अपने स्वभाव के अनुसार प्रकृति पड़ जाना प्रकृति बंध है जैसे ज्ञानावर्णी कर्म का प्रकृति बंध ज्ञान को न होने देने रूप। स्थिति बंध - बंधा हुआ कर्म कितने समय तक अपना फल देगा यह समय सीमा निर्धारण स्थिति बन्ध है, जेसे यह कर्म एक वर्ष तक अपना फल देगा । प्रदेश बन्ध - बन्धे हुए कर्म स्कंध में प्रदेशों की स्कंध संख्या प्रदेश बंध पर निर्भर करती है, जैसे अमुख कर्म में संख्यात अथवा असंख्यात प्रदेश हैं। अनुभाग बन्ध - बन्धे हुए कर्म में फल देने की शक्ति की होनाधिकता का निर्धारण अनुभाग बंध से होता है जैसे यह कर्म तीव्रता से उदय में आया अथवा मन्दता से यानि सिर दर्द बहुत तेज है अथवा हल्का-हल्का। एक उदाहरण के माध्यम से इन चारों बन्धों को समझे- बाजार से एक नींबू खरीदा, नींबू का स्वभाव खट्टा है, प्रकृति बन्ध का परिणाम | नीबूं एक माह तक खाने योग्य है - स्थिति बन्ध का परिणाम, नींबू बहुत खट्टा है - अनुभाग बन्ध का परिणाम, नीबू २०० पुदगल परमाणु से मिलकर बना है अथवा इसमें ८ कली हैं, प्रदेश बंध का परिणाम है। इस प्रकार शुभाशुभ कर्म के बंध को जानकर उनके बंध के कारण उनका फल जानकर विवेक पूर्वक कर्मों से बचने का छुटकारा पाने का उपाय ही कर्म सिद्धान्त को पढ़ने समझने का प्रयोजन है।
  17. राजबाई क्लॉक टावर मुम्बई विश्वविद्यालय परिसर में स्थित एक घड़ी टावर है। इस टावर की ऊँचाई २८० फुट है। इसका निर्माण २ लाख रुपये की लागत से नवम्बर १८७८ में किया गया था। यह टावर प्रेमचन्द रायचन्द ने अपनी माँ राजाबा के नाम से उन्ही के लिए बनवाया था। जिससे वे बिना किसी की मदद से अपने कार्य समय पर सम्पन्न कर सके। राजाबाई दृष्टिहीन थीं । जैन धर्म की कट्टर अनुयायी थीं । इस टावर की घंटी से उन्हें समय का पता चल जाता था, जिससे वे रात्रि होने के ४८ मिनट पूर्व ही भोजन किया करती थी ।
  18. स्कूल के वार्षिक समारोह में रामू को पढ़ाई, खेलकूद व अन्य गतिविधियों में श्रेष्ठ छात्र का पुरस्कार दिया जा रहा था। पुरस्कार लेने के बाद जैसे ही वह मंच से नीचे उतर का माँ के पास पहुँचा तो उसकी नजर अपने दोस्तों पर पड़ी जो उसे नफरत भरी नजरों से देख रहे थे। उसमें से कुछ दोस्त उसकी माँ पर हँस भी रहे थे। क्योंकि वह एक आँख से वंचित थी। इस घटना के बाद से रामू के मन में भी माँ के प्रति हीन भावना पैदा हो गई। उसे लगने लगा कि हर क्षेत्र में आगे रहने के बावजूद भी लोग उसे तिरस्कार की भावना से देखते हैं। मन ही मन इसके लिए वह माँ को दोषी मानने लगा। परिणाम स्वरूप धीरे-धीरे उसके मन में माँ के प्रति एक दूरी पनप गई। समय बीतता गया और माँ से उसकी दूरियाँ बढ़ती रही। बड़े होने पर राम सफसफल व्यवसायी बन गया। उसके पास सुखी परिवार, धन, सम्पदा, सब कुछ था। गाँव तो वह कभी का छोड़ चुका था। साथ ही माँ से दूर रहने के कारण वह खुद को बचपन की उस हीन भावना से मुक्त महसूस कर रहा था। समय गुजरता गया। एक दिन उसे गाँव के स्कूल का पत्र मिला जहाँ सभी पुराने विद्यार्थियों को एक समारोह में बुलाया गया था। स्कूल समारोह से लौटने के बाद जिज्ञासावश रामू अपने पुराने घर पहुँचा, जहाँ उसका बचपन बीता था। मकान वीरान पड़ा था। अब तक माँ की मृत्यु हो चुकी थी। घर के भीतर पुरानी चीजें टटोलते हुए अचानक उसका हाथ एक पुराने तुड़े-मुड़े कागज के टुकड़े पर पड़ा। उसने उसे गौर से देखा तो वे माँ के अक्षर थे। लिखा था- 'प्रिय बेटे रामू मेरी एक आँख हमेशा तुम्हारी शर्मिदगी का कारण बनी। मुझे इसका दु:ख रहा लेकिन कुछ चीजों पर किसी का नियंत्रण नहीं होता। बेटे! जब तुम बहुत छोटे थे तब एक दुर्घटना में तुम्हारी एक आँख चली गई थी। मैं तुम्हें एक आँख के साथ बड़ा होते नहीं देख सकती थी। इसलिए मैंने तुम्हें अपनी एक आँख दान कर दी थी। यह जानकर तुम परेशान मत होना, मैं जानती हूँकि तुम आज भी मुझसे बेहद प्यार करते हो।" यह पढ़कर रामू अवाक् खड़ा रह गया। अचानक उसे अपने जीवन में सब कुछ निरर्थक प्रतीत हो रहा था। उसकी आँखें तो खुलीं लेकिन माँ की आँखें बन्द होने के बाद। सच है बिना विचारे जो करे सो पीछे पछताए।
  19. किसी ग्राम में संसार, शरीर, भोगों से भयभीत एक शिवभूति नाम का पुरुष रहा करता था। नगर के निकट ही मुनि संघ को आया सुन वह उनके दर्शनार्थ पहुँचा। दर्शन के पश्चात् उसने आचार्य श्री से दु:खों से मुक्ति का उपाय पूछा- तब आचार्य श्री बोले हे भव्य प्राणी यदि तुम दु:खों से मुक्त होना चाहते हो तो श्रमणत्व / मुनित्व को अंगीकार करो। परम वैराग्य युक्त हो उसने मुनि दीक्षा ग्रहण की। ज्ञान का क्षयोपशम कम होने के कारण गुरु जो भी पढ़ाते थे वह शीघ्र ही भूल जाते थे। अत: गुरु ने तुष मास भिन्न इन अक्षरों का ही पाठ करने का उपदेश दिया। जिसे वे शिवभूति मुनिराज दिन-रात रटते थे। वे आत्मा को शरीर तथा कर्मों के समूह से भिन्न जानते। किन्तु शब्द ज्ञान उनके पास नहीं था। एक दिवस वे आहारचर्या को निकले किन्तु रास्ते में गुरु वाक्य भूल गये तथा देखा कि एक महिला दाल रूप परिणत उड़दों को पानी में डुबाकर तुसों (छिलकों) को पृथक् कर रही है। देखकर उन्होंने पूछा आप यह क्या कर रही हों? उन्होंने बताया मैं दाल और छिलकों को पृथक् कर रही हूँ क्योंकि दाल पृथक् है और छिलता पृथक् है। इतना सुनते ही बोध हो गया। इसी प्रकार मेरी आत्मा पृथक् है और शरीर पृथक् है। वे वापस अपने स्थान में लौट आए और आत्मध्यान में लीन हो गए। कुछ ही क्षणों में उन्हें केवलज्ञान की प्राप्ति हो गई। गुरु से पहले ही भावों की निर्मलता से शिष्य ने केवलज्ञान प्राप्त कर लिया। केवलज्ञानी हो अनेक भव्य जीवों को धर्म का उपदेश प्रदान कर मोक्ष चले गये। सारांश : चारित्र के प्रति सच्ची आस्था होने पर निश्चित सुख की उपलब्धि होती है। भले ही ज्ञान कम हो। आचार्य श्री कहते हैं - चारित्र में निर्मलता होने पर ज्ञान स्वयमेव प्रकट हो जाता है।
  20. मोहन जोदड़ो की खुदाई से प्राप्त मुहर पर भगवान ऋषभदेव का चिह्न अंकित हैं। यह सभ्यता ५००० वर्ष प्राचीन है। हड़प्पा की खुदाई में एक नग्न मानव धड़ मिला हैं। नग्न मुद्रा कायोत्सर्ग मुद्रा है यह जैन मूर्ति है। यह सभ्यता भी लगभग ५००० वर्ष प्राचीन है। कलिंगाधिपति सम्राट खारबेल द्वारा उदयगिरी खंडगिरी के हाथी गुफा में लिखाये गये लेख का प्रारंभ 'नमो अरहंतानं, नमो सव्व सिद्धानं' से किया गया हैं। यह राजवंश ईसा से ४५० वर्ष पूर्व तक था। मथुरा के कंकाली टीले में महत्त्वपूर्ण जैन पुरातत्व, ११० शिलालेख, एवं अन्य अनेक सामग्री प्राप्त हुई जै जो जैन धर्म की प्राचीनता के अकाट्य प्रमाण उपस्थित करती हैं। इसका निर्माण ईसा के पूर्व ८०० वर्ष का माना जाता है। वैदिक साहित्य में सर्वाधिक प्राचीन ऋग्वेद में अनेक स्थलों पर ऋषभदेव का, वातरशना केशी आदि मुनियों का वर्णन मिलता है। इस मुनियों का संबंध जैन श्रमणों से ही हैं। ऋग्वेद की अनेक ऋचाओं में प्रयुक्त 'अहन्।' शब्द भी जैन संस्कृति के पुरातन होने का परिचय देता है। वेदों के अतिरिक्त श्रीमद् भागवत, मार्कण्डेय पुराण, कुर्म पुराण, वायु पुराण, अग्नि पुराण, ब्रह्मांड पुराण, बराह पुराण, विष्णु पुराण, स्कंध पुराण एवं बौद्ध ग्रन्थ धम्मपद, मंजुश्री मूलकल्प, न्याय बिन्दु धर्मोत्तर प्रदीप में भी ऋषभदेव की स्तुति के साथ उनके परिजन एवं जीवन की घटनाओं का विस्तृत वर्णन मिलता हैं।
  21. जल में जलचर जीवों के अलावा अन्य जीवों का ज्यादा देर तक आवास मौत का कारण बनता है। परन्तु यदि कोई अपने प्रयास से उसमें ठहरता है तो समझिएगा कि वह भव-जल से पार होकर किनारा अवश्य पाने वाला होगा। इस प्रयास में अभ्यास परम अनिवार्य है। सदलगा में बालक विद्या के घर के पास एक बावड़ी बनी थी। उस बावड़ी में आसपास के बच्चे आदि नहाया करते थे। उसमें विद्या कभी पद्मासन लगाकर, कभी चित्त तैरकर, अपने को स्थिर करके ध्यान लगाया करते थे। आसपास के लोग समझते थे, विद्या पानी मचा देता है इसलिए एक दिन श्रीमति से मुहल्ले वालों ने शिकायत कर दी कि आपका बेटा आज फिर बावड़ी में ऊधम कर रहा है, पानी मचा रहा है। जब विद्या अपने घर वापस आये तो माँ बोली-क्यों रे! तुझे हजारों बार समझाया कि बावड़ी में मत नहाया कर, पर तू मानता क्यों नहीं ? बावड़ी में नहाने से आँखें लाल हो जाती हैं, सर्दी बनी रहती है, बुखार भी आ जाता है और बीमार अलग बना रहता है। क्यों रे! बोल तू कब सुधरेगा ? क्यों करता है हम लोगों को परेशान ? कब आयेगी तुझे अकल ? विद्या शान्त रहे शायद बावड़ी के शान्त जल की तरह। न हिले, न डुले, परन्तु जब माँ ने डाँट रूपी हवा चलायी तो विद्या रूपी जल तरंगित हो उठा एवं जवाब में बोले-मैं पानी नहीं मचाता हूँ मैं तो ध्यान लगाता हूँ। अब क्या कहती, माँ भी हो गयी शान्त सरोवर के नीर की भाँति। पर वो क्या समझे कि आज बावड़ी में ध्यान लगाने वाला कल को भव-जल में ध्यान लगाकर किनारे जाने वाला है। वास्तव में आत्मा में ध्यान लगाने वाले परम साधक ही मूल्यवान रत्नों की प्राप्ति के अधिकारी होते हैं। आज जगत् पूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज जब चर्या करते हैं तो मूलाचार का पालन एवं ध्यान लगाते तो समयसार की साधना करते हैं। इस विधि से भव जल से पार पाया जा सकता है, यह उपदेशों में बताते हैं।
  22. महात्मा गाँधी पर जैनधर्म का प्रभाव भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की लड़ाई में जिन्होंने सत्य और अहिंसा के बल पर भारत को सैकड़ों वर्षों की अंग्रेजो की गुलामी से स्वतंत्र कराया, ऐसे राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी का जीवन जैन संस्कारों से प्रभावित था। जब मोहनदास करमचंद गाँधी ने अपनी माता पुतलीबाई से विदेश जाने की अनुमति माँगी तब उनकी माँ ने अनुमति प्रदान नहीं की, क्योंकि माँ को शंका थी, कि यह विदेश जाकर माँस आदि का भक्षण करने न लग जाये। उस समय एक जैन मुनि बेचरजी स्वामी के समक्ष गाँधी के द्वारा तीन प्रतिज्ञा ( माँस, मदिरा व परस्त्री सेवन का त्याग ) लेने पर माँ ने विदेश जाने की अनुमति दी। इस तथ्य को गाँधी ने अपनी आत्मकथा सत्य के प्रयोग , पृ. ३२ पर लिखा है।
  23. उपदेश का प्रभाव एक सेठ जी की पुत्री मुनि महाराजजी के दर्शन करने गई मुनि महाराज पाँच पापों पर धर्मोपदेश दे रहे थे, वह पुत्री भी पाँच पापों का वर्णन सुन रही थी, तभी मन पवित्र कर उसने उन पाँचों पापों का त्याग कर दिया और पाँच अणुव्रत लेकर घर गई। घर आकर व्रत लेने की बात अपने पिता जी से कह सुनाई। पिता जी नाराज हो गए और कहा कि मेरी आज्ञा के बिना मेरी पुत्री को व्रत देने वाले मुनि कौन होते हैं? और अपनी पुत्री से व्रत छोड़ने की बात कही पर वह नहीं मानी तब दोनों मुनि महाराज जी के पास जाते हैं तब देखते हैं कि - रास्ते में एक व्यक्ति को सूली पर चढ़ाया जा रहा था। पुत्री ने उसे देखकर पिता से पूछा पिता जी इसे सूली पर क्यों चढ़ाया जा रहा है, पिता ने कहा इसने अपने एक साथी की हत्या की है अत: इसे फाँसी दी जा रही है। पुत्री ने कहा जो हिंसा इस लोक में सूली और दु:ख देने वाली है और परलोक में नरकगति का कारण है अत: हिंसा नहीं करना चाहिए, पिताजी यह व्रत तो बहुत अच्छा है, मैंने हिंसा पाप छोड़ दिया तो क्या बुरा किया ? पिता ने कहा, अच्छा बेटी यह व्रत रख ले। किन्तु शेष चार को छोड़ दे। कुछ आगे और चले तो देखा कि एक पुरुष की जीभ काटी जा रही थी। बेटी ने पूछा पिताजी इसकी जीभ क्यों काटीं जा रही है? पिताजी ने कहा बेटी इसने झूठ बोला था उसी कारण उसे सजा दी जा रही है। बेटी ने कहा झूठ बोलने वाले का कोई विश्वास नहीं करता और राजा भी दंड देता है परलोक में भी दुर्गति होती है अत: झूठ बोलने से बचना चाहिए पिताजी यह व्रत लेकर मैंने क्या बुरा किया? पिता ने कहा अच्छा यह भी रख लो किन्तु शेष तीन छोड़ दे। कुछ और आगे चलकर देखा कि एक पुरुष को पुलिस वाले हाथ में हथकड़ी बांधे ले जा रहे हैं। बेटी ने पिताजी से पूछा-इसने क्या किया है पिता ने कहा इसने चोरी की है यह चोर है इसलिए इसके हाथ काटने को पुलिस इसे ले जा रही हैं। बेटी ने कहा देखों तो चोरी छोड़ना तो मेरा तीसरा व्रत है। पिताजी अच्छा इसे भी रख ले। दो मुनि महाराज जी को वापस कर देना और आगे चलकर देखा तो एक पुरुष के हाथ पैर काठ में फैंसाए जा रहे हैं। बेटी ने पूछा इसने क्या किया, पिताजी ने कहा इसने पर स्त्री सेवन किया उसी अपराध में यह सजा दी जा रही है। बेटी ने कहा जिस कुशील पाप से व्यभिचारी का मन सदा भ्रान्त रहता है लोगों को दुर्गति का दंड भोगना पड़ता है वह तो छोड़ना ही चाहिए, पिताजी ने कहा यह व्रत भी रख ले, बाकी अब एक तो वापस कर देना। आगे देखा कि पुलिस वाला एक पुरुष को पकड़े लिए जा रहा है बेटी ने पूछा इसे क्यों पकड़े हुए हैं पिता ने कहा इसने अत्यधिक धन एकत्रित किया है। बेटी ने कहा धन कमाने जोड़ने रखवाली करने में कष्ट है तृष्णा बढ़ती है, लोभी कहलाता है अत: दु:ख उठाता रहता है और अधिक परिग्रह नरक आयु के बंध का कारण है अत: ऐसे परिग्रह पाप को मैंने त्याग दिया तो क्या बुरा किया ? पिता ने कहा ठीक है यह व्रत भी रख लो। इस तरह हिंसादि पापों की बुराई का विचार करते रहना चाहिए। उसके पिता ने भी मुनिराज के समक्ष पापों को बुरा जानकर मुनिव्रत धारण कर आत्मकल्याण किया इसी तरह हम सभी को आत्म कल्याण के मार्ग पर बढ़ना चाहिए। शिक्षा- नियम की नियम से परीक्षा होती है, अत: लिए हुए नियमों का दृढ़ता से पालन करना चाहिए।
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