मुक्तागिरि चातुर्मास की बात है। एक स्वाध्यायशील महिला आचार्य श्री के पास आकर पूछती है- आचार्य श्री जी, क्रमबद्धपर्याय क्या है ? हम सभी बहिनें भी इस विषय को समझना चाहते थे। इसलिये सभी वहाँ जिज्ञासा के साथ बैठ गये।
आचार्य श्री प्रश्न सुनते ही नासाग्र दृष्टि कर मौन बैठगये। उस महिलाने पुन : कहा- आचार्य श्री, इसे समझाइये ? आचार्य श्री नासाग्र दृष्टि किए हुए ही मुस्कुराने लगे। सभी प्रतीक्षा में थे कि विषय का समाधान मिलेगा। अन्त में आचार्य श्री जी बोले- देखो, मैं मौन था, तब बोलना नहीं हो पा रहा था। जब बोलना हुआ तो मौन नहीं रहा। एक साथ दो पर्याय नहीं होती हैं। एक ही द्रव्य में जो क्रमभावी परिणाम हैं उसका नाम पर्याय है। लेकिन आत्मा वही रहेगा। क्रमबद्ध पर्याय आगम का शब्द नहीं है। क्रमभुवा, क्रमभावी और क्रमवर्ती है। ऐसा सुनकर वह बहुत खुश हुई और कहने लगी, इसलिए आचार्य श्री आप मौन होकर समझा रहे थे। लेकिन हमें समझ में नहीं आ रहा था। मैं विकल्पों में उलझ गई थी। आखिरकार आचार्य श्री जबाव क्यों नहीं दे रहे। अब जब प्रश्न का जबाव मैंने सुना तो बड़ा अच्छा लगा। आज भी वह विषय मेरी स्मृतिपटल पर अंकित है। कि समाधान कितना सटीक व सुन्दरमौन होकर दिया था,गुरु महाराजने।