Jump to content
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

Administrators
  • Posts

    22,360
  • Joined

  • Last visited

  • Days Won

    896

 Content Type 

Forums

Gallery

Downloads

आलेख - Articles

आचार्य श्री विद्यासागर दिगंबर जैन पाठशाला

विचार सूत्र

प्रवचन -आचार्य विद्यासागर जी

भावांजलि - आचार्य विद्यासागर जी

गुरु प्रसंग

मूकमाटी -The Silent Earth

हिन्दी काव्य

आचार्यश्री विद्यासागर पत्राचार पाठ्यक्रम

विशेष पुस्तकें

संयम कीर्ति स्तम्भ

संयम स्वर्ण महोत्सव प्रतियोगिता

ग्रन्थ पद्यानुवाद

विद्या वाणी संकलन - आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के प्रवचन

आचार्य श्री जी की पसंदीदा पुस्तकें

Blogs

Events

Profiles

ऑडियो

Store

Videos Directory

Everything posted by संयम स्वर्ण महोत्सव

  1. मनुष्य गति नामकर्म के उदय से 'मैं मनुष्य हूँ" ऐसा अनुभव करते हैं वे जीव मनुष्य कहलाते हैं। क्षेत्र की अपेक्षा मनुष्य दो प्रकार के हैं। कर्मभूमिज मनुष्य और भोगभूमिज मनुष्य। कर्मभूमिज मनुष्य - जो मनुष्य कर्मभूमि में उत्पन्न होते है, शुभ-अशुभ कर्म करते हुए सद्गति-दुर्गति को प्राप्त होते है। असि, मसि, कृषि, शिल्प, सेवा और वाणिज्य रूप षट्कर्मों के द्वारा अपनी आजीविका चलाते हैं। जो जीव कर्म काट कर मोक्ष सुख को प्राप्त कर सकते है, कर्मभूमिज मनुष्य कहलाते हैं। भोगभूमिज मनुष्य - जो मनुष्य दस प्रकार के कल्पवृक्षों से प्राप्त सामग्री का भोग करते हैं। सदा भोगों में लीन सुखमय जीव व्यतीत करते हैं तथा मरणकर नियम से देवगति में ही जन्म लेते हैं। भोग भूमिज मनुष्य कहलाते हैं। आर्य व म्लेच्छ के भेद से भी मनुष्य दो प्रकार के होते हैं। जो गुणों से सहित हो अथवा गुणवान लोग जिनकी सेवा करें उन्हें आर्य कहते हैं। इसके विपरीत, गुणों से रहित, धर्महीन आचरण करने वाले, निर्लज वचन बोलने वाले म्लेच्छ होते हैं। कर्मभूमिज मनुष्यों की उत्कृष्ट आयु एक करोड़ पूर्व वर्ष प्रमाण है एवं जघन्य आयु अन्तर्मुहूर्त है। भोग भूमिज मनुष्यों की उत्कृष्ट आयु तीन पल्य एवं जघन्य आयु एक पूर्व कोटी है। भद्र मिथ्यात्व, विनीत स्वभाव, अल्प आरम्भ अल्प परिग्रह के परिणाम, सरल व्यवहार, हिंसादिक दुष्ट कार्यों से निवृत्ति, स्वागत तत्परता, कम बोलना, ईर्षारहित परिणाम, अल्प संक्लेश, देवता तथा अतिथि पूजा में रुचि, दान शीलता, कापोत पीत लेश्या रूप परिणाम, मरण काल में संक्लेश रूप परिणति का नहीं होना आदि मनुष्य आयु के आस्रव तथा मनुष्य गति में ले जाने के कारण है। मनवांछित वस्तु को देने वाले कल्पवृक्ष कहलाते हैं। वे दस प्रकार के होते हैं पानाङ्ग - मधुर, सुस्वादु छ: रसों से युक्त बतीस प्रकार के पेय को दिया करते हैं। तूर्याडू - अनेक प्रकार के वाद्य यंत्र देने वाले होते हैं। भूषणाङ्ग - कंगन, कटिसूत्र, हार, मुकुट आदि आभूषण प्रदान करते हैं। वस्त्राङ्ग - अच्छी किस्म (सुपर क्वालिटी) के वस्त्र देने वाले हैं। भोजनाङ्ग - अनेक रसों से युक्त अनेक व्यञ्जनों को प्रदान करते हैं। आलयाङ्ग - रमणीय दिव्य भवन प्रदान करते हैं। दीपाङ्ग - प्रकाश देने वाले होते हैं। भाजनाङ्ग - सुवर्ण एवं रत्नों से निर्मित भाजन और आसनादि प्रदान करते हैं। मालाङ्ग - अच्छी-अच्छी पुष्पों की माला प्रदान करते हैं। तेजाङ्ग - मध्य दिन के करोड़ों सूर्य से भी अधिक प्रकाश देने वाले इनके प्रकाश से सूर्य, चन्द्र का प्रकाश कांतिहीन हो जाता है। पानाङ्ग जाति के कल्पवृक्ष को मद्याङ्ग भी कहते हैं। ये अमृत के समान मीठे रस देते हैं। वास्तव में ये वृक्षों का एक प्रकार का रस है, जिन्हें भोगभूमि में उत्पन्न होने वाले आर्य पुरुष सेवन करते हैं, किन्तु यहाँ पर अर्थात् कर्मभूमि में जो मद्य पायी लोग जिस मद्य का पान करते हैं, वह नशीला होता है और अन्त:करण को मोहित करने वाला है, इसलिए आर्य पुरुषों के लिए सर्वथा त्याज्य है। सुपात्र की आहार दान देते समय की जाने वाली नवधा भक्ति १. पडुगाहन २. उच्चासन ३. पाद-प्रक्षालन ४. पूजन ५. नमोस्तु६. मन शुद्धि७. वचन शुद्धि८. काय शुद्धि९. आहार-जल शुद्धि
  2. जो मन वचन काम की कुटिलता/वक्रता को प्राप्त हैं। प्राय: तिरस्कार को प्राप्त होते हैं वे जीव तिर्यञ्च कहलाते हैं। एकेन्द्रिय से लेकर चार इन्द्रिय तक के जीव नियम से तिर्यञ्च जीव कहे जाते हैं। एकेन्द्रिय जीव सामान्य पृथ्वी, पृथ्वी काय, पृथ्वी कायिक एवं पृथ्वी जीव सामान्य पृथ्वी - जिसे किसी जीव ने अभी तक अपना शरीर नहीं बनाया ऐसा पृथ्वी पिंड, सामान्य पृथ्वी कहा जाता हैं। स्वर्गों में स्थित उपपाद शय्या सामान्य पृथ्वी कही गयी हैं। पृथ्वी काय - जिसमें से पृथ्वी जीव निकल गया हो, ऐसा पृथ्वी पिंड पृथ्वी काय है यह भी अचेतन है जैसे गरम किया गया नमक पृथ्वी कायिक - पृथ्वी जीव सहित पृथ्वी पिंड को पृथ्वी कायिक जीव कहते है यह सचेतन है। जैसे खदान में पड़ा एवं आसपास दिखने वाला पत्थर। पृथ्वी जीव - पृथ्वी नाम कर्म से सहित, विग्रह गति में स्थित जीव पृथ्वी जीव है। विग्रह गति का अर्थ – नवीन शरीर प्राप्त करने के लिए होने वाली जीव की मोड़े वाली गति। इसी प्रकार से जल, अग्नि, वायु और वनस्पति में भी इन भेदों को लगा लेना चाहिए। पृथ्वी कायिक जीव के शरीर का आकार मसूर के समान होता है। इसकी अधिकतम आयु बाईस हजार वर्ष एवं जघन्य आयु अन्तर्मुहूर्त है। जल कायिक जीव के शरीर का आकार मोती के समान (जल की बिन्दू) तथा उत्कृष्ट आयु ७००० वर्ष, जघन्य आयु अन्तर्मुहूर्त है। वायु कायिक जीव के शरीर का आकार पताका (ध्वजा) के समान तथा उत्कृष्ट आय ३००० वर्ष, जघन्य आयु अन्तर्मुहूर्त है। अग्निकायिक जीव का आकार सूई की नोंक के समान तथा उत्कृष्ट आयु तीन दिन एवं जघन्य आयु अन्तर्मुहूर्त है। वनपस्पति कायिक जीव का आकार अनेक प्रकार का है तथा उत्कृष्ट आयु १०,००० वर्ष, जघन्य आयु अन्तर्मुहूर्त है। द्वीन्द्रियादि जीव द्विइन्द्रिय जीव की उत्कृष्ट आयु बारह वर्ष एवं जघन्य आयु अन्र्तमुहूर्त की होती है। उत्कृष्ट अवगाहना बारह योजन प्रमाण शंख की होती है यह शंख स्वयम्भू रमण नामक अंतिम द्वीप में पाया जाता है। त्रीन्द्रिय जीव की उत्कृष्ट आयु उनचास दिन (४९) एवं जघन्य आयु अन्तर्मुहूर्त की होती है। उत्कृष्ट अवगाहना एक कोश प्रमाण चींटी की स्वयंभू रमण द्वीप में पाई जाती है। चतुरीन्द्रिय जीव की उत्कृष्ट आयु छह माह (६), जघन्य आयु अन्तर्मुहूर्त प्रमाण होती हैं। उत्कृष्ट अवगाहना एक योजन प्रमाण भ्रमर (भौंरा) की होती है। पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च जीव पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च के भोगभूमिज और कर्म भूमिज की अपेक्षा दो भेद हैं। भोगभूमि में जन्म लेने वाले तिर्यञ्च भोग भूमिज कहे जाते हैं। भोगभूमि तिर्यञ्च मुलायम हलुवे जैसी घास खाकर सुख पूर्वक निवास करते हैं। वे मरकर स्वर्ग ही जाते हैं परिणामों की निर्मलता होने से शेर और गाय सभी प्रीति पूर्वक रहते हैं। कर्म भूमि तिर्यञ्च प्राय: दु:खों को सहन करते है, बोझा ढोना आदि कार्य करते हैं। घास, पत्ती आदि खाकर पेट भरते हैं। कुछ क्रूर तथा कुछ सरल परिणामी होते हैं। तिर्यञ्चों की उत्कृष्ट आयु तीन पल्य, जघन्य आयु अन्तमुहूर्त है।''पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चों में उत्कृष्ट अवगाहना महामत्स्य की' १००० योजन लम्बाई, ५०० योजन चौड़ाई और २५० योजन मोटाई प्रमाण' होती है। कर्मभूमिज तिर्यच्चों के जलचर, थलचर और नभचर की अपेक्षा तीन भेद होते हैं। जल में रहने वाले जीव जैसे मछली, मगर, मेढ़क, कछुवा आदि जलचर जीव हैं। पृथ्वी पर रहने वाले गाय, घोड़ा, शेर आदि थलचर जीव है एवं आकाश में उड़ने वाले कोयल, चिड़िया, तोता आदि नभचर जीव हैं। मायाचारी करना, धर्मोपदेश में मिथ्या बातों को मिलाकर उनका प्रचार करना, शील रहित जीवन बिताना, जाति-कुल में दूषण लगाना, विसंवाद में रुचि होना, सद्गुण लोप और असद्गुणों ज्ञापन करना इत्यादि परिणामों से जीव तिर्यच्च गति में जन्म लेता है एवं जो पापी जिनलिंग को ग्रहण करके संयम एवं सम्यक्त्व भाव छोड़ देते हैं और पश्चात् मायाचार में प्रवृत होकर चरित्र को नष्ट कर देते हैं, जो मूर्ख मनुष्य कुलिंगियों को नाना प्रकार के दान देते हैं या उनके भेष को धारण करते हैं, वे भोगभूमि में तिर्यच होते हैं।
  3. नरक गति में रहने वाले जीव नारकी कहलाते हैं। वे आपस में कभी भी प्रीति - स्नेह को प्राप्त नहीं होते अत: इन्हें नारत भी कहते हैं। नारकियों का शरीर टेढ़ा-मेढ़ा (हुण्डक संस्थान वाला), अत्यन्त डरावना, धुए के रंग वाला, अत्यन्त दुर्गध युक्त, वैक्रियक किन्तु खून-पीव-मांस से युक्त होता है। सभी नारकी नपुंसक वेद वाले होते हैं। नीचे-नीचे के नारकी सदा अशुभ से अशुभ लेश्या वाले, परिणाम वाले, देह वाले और विक्रिया वाले होते हैं। प्रथम पृथ्वी के नारकियों में शरीर की जघन्य ऊँचाई तीन हाथ प्रमाण होती है वही नीचे की ओर बढ़ते-बढ़ते अंतिम सप्तम पृथ्वी में ५०० धनुष प्रमाण हो जाती है अर्थात् नारकियों की उत्कृष्ट ऊँचाई ५०० धनुष प्रमाण होती है। नारकी अधोलोक में एक के नीचे एक जो सात पृथ्वियाँ है, उनमें बने हुए बिलों में रहते हैं। नारकों में उत्पत्ति के निम्न कारण हैं :- बहुत आरंभ और बहुत परिग्रह का भाव, हिंसादि क्रूर कार्यों में निरंतर प्रवृति, परधन हरण की वृत्ति, इंद्रिय विषयों में तीव्र आसक्ति, मरण के समय क्रूर परिणाम, सप्त व्यसनों में लिप्तता, कुत्ते, बिल्ली, मुर्गी आदि क्रूर प्राणियों का पालन, शील और व्रतों से रहितता, जीर्णोद्धार, जिनपूजा, प्रतिष्ठा और तीर्थ यात्रा आदि के निमित्त समर्पित धन का उपभोग, अत्याधिक हिंसा वाले व्यापार जैसे चमड़ा, शराब, कीटनाशक, विष, शस्त्र आदि हिंसक वस्तुओं का व्यापार। रत्नप्रभा आदि सात पृथ्वियों के नाम, पटल, बिल एवं नारकियों की जघन्य, उत्कृष्ट आयु सारणी से समझते हैं। नारकियों को भूख इतनी अधिक लगती है कि तीन लोक का अनाज खा ले तो भी न मिटे और प्यास इतनी अधिक लगती है कि सारे समुद्र का पानी पी ले तो भी तृप्त न हो किन्तु वहाँ खाने के लिए अन्न का एक दाना व पीने के लिए पानी की एक बूंद भी नहीं मिलती। जिस प्रकार तलवार के प्रहार से भिन्न हुआ, कुएँ का जल फिर से मिल जाता है उसी प्रकार बहुत सारे शस्त्र से छेदा गया नारकियों का शरीर भी फिर से मिल जाता है। नारकियों को चार प्रकार के दु:ख होते हैं शारीरिक दु:ख, क्षेत्रकृत दु:ख, असुरदेवो कृत दु:ख एवं मानसिक दु:ख। असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च मरकर प्रथम नरक तक जा सकता है उसके आगे नहीं उसी प्रकार सरीसर्प द्वितीय नरक तक, पक्षी तीसरे नरक तक, सर्प चौथे नरक तक, सिंह पाँचवे नरक तक, महिला छटवे नरक तक एवं पुरुष सातवे नरक तक जा सकता है। स्वयंभूरमण समुद्र में रहने वाला सम्मूछनज महामत्स्य एवं तंदुल मत्स्य भी सप्तम नरक तक जा सकता है। प्रथम पृथ्वी से क्रमश: ८,७, ६, ५, ४, ३ एवं २ बार तक एक जीव लगातार नरकों में जन्म ले सकता है। इतना विशेष है कि नारकी मरण कर पुन: नारकी नहीं बनता, अत: बीच में मनुष्य अथवा तिर्यञ्च में जन्म धारण करता है।
  4. दिगम्बर साधु सन्त परम्परा में वर्तमान युग में अनेक तपस्वी, ज्ञानी ध्यानी सन्त हुए। उनमें आचार्य शान्तिसागरजी महाराज एक ऐसे प्रमुख साधु श्रेष्ठ तपस्वी रत्न हुए हैं, जिनकी अगाध विद्वता, कठोर तपश्चर्या, प्रगाढ़ धर्म श्रद्धा, आदर्श चरित्र और अनुपम त्याग ने धर्म की यथार्थ ज्योति प्रज्वलित की। आपने लुप्तप्राय, शिथिलाचारग्रस्त मुनि परम्परा का पुनरुद्धार कर उसे जीवन्त किया, यह निग्रन्थ श्रमण परम्परा आपकी ही कृपा से अनवरत रूप से आज तक प्रवाहमान है। जन्म - दक्षिण भारत के प्रसिद्ध नगर बेलगाँव जिला चिकोड़ी तालुका (तहसील) में भोजग्राम है। भोजग्राम के समीप लगभग चार मील की दूरी पर विद्यमान येलगुल गाँव में नाना के घर आषाढ़ कृष्णा 6, विक्रम संवत् 1929 सन् 1872 बुधवार की रात्रि में शुभ लक्षणों से युक्त बालक सातगौड़ा का जन्म हुआ था। गौड़ा शब्द भूमिपति-पाटिल का द्योतक है। पिता भीमगौड़ा और माता सत्यवती के आप तीसरे पुत्र थे इसी से मानो प्रकृति ने आपको रत्नत्रय और तृतीय रत्न सम्यकू चारित्र का अनुपम आराधक बनाया । बचपन - सातगौड़ा बचपन से ही वैरागी थे। बच्चों के समान गन्दें खेलों में उनकी कोई रूचि नहीं थी। वे व्यर्थ की बात नहीं करते थे। पूछने पर संक्षेप में उत्तर देते थे। लौकिक आमोद-प्रमोद से सदा दूर रहते थे, धार्मिक उत्सवों में जाते थे। बाल्यकाल से ही वे शान्ति के सागर थे। छोटी सी उम्र में ही आपके दीक्षा लेने के परिणाम थे परन्तु माता-पिता ने आग्रह किया कि बेटा! जब तक हमारा जीवन है तब तक तुम दीक्षा न लेकर घर में धर्मसाधना करो। इसलिए आप घर में रहे। व्यवसाय - मुनियों के प्रति उनकी अटूट भक्ति थी। वे अपने कन्धे पर बैठाकर मुनिराज को दूधगंगा तथा वेदगंगा नदियों के संगम के पार ले जाते थे। वे कपड़े की दुकान पर बैठते थे, तो ग्राहक आने पर उसी से कहते थे कि-कपड़ा लेना है तो मन से चुन लो, अपने हाथ से नाप कर फाड़ लो और बही में लिख दी। इस प्रकार उनकी निस्पृहता थी। आप कभी भी अपने खेतों में से पक्षियों को नहीं भगाते थे। बल्कि खेतों के पास पीने का पानी रखकर स्वयं पीठ करके बैठ जाते थे। फिर भी आपके खेतों में सबसे अधिक धान्य होता था। वे कुटुम्ब के झंझटों में नहीं पड़ते थे। उन्होंने माता-पिता की खूब सेवा की और उनका समाधिमरण कराया। संयम पथ - माता-पिता के स्वर्गस्थ होते ही आप गृह विरत हो गये एवं मुनिश्री देवप्पा स्वामी से 41 वर्ष की आयु में कर्नाटक के उत्तूर ग्राम में ज्येष्ठ शुक्ला त्रयोदशी सन् 1913 को क्षुल्लक के व्रत अंगीकार किए। आपका नाम शांतिसागर रखा गया। क्षुल्लक अवस्था में आपको कठिन परिस्थितियों का सामना करना पड़ा था, क्योंकि तब मुनिचर्या शिथिलताओं से परिपूर्ण थी। साधु आहार के लिए उपाध्याय द्वारा पूर्व निश्चित गृह में जाते थे। मार्ग में एक चादर लपेटकर जाते थे आहार के समय उस वस्त्र को अलग कर देते थे आहार के समय घण्टा बजता रहता था जिससे कोई विध्न न आए। महाराज ने इस प्रक्रिया को नहीं अपनाया और आगम की आज्ञानुसार चर्या पर निकलना प्रारम्भ किया। गृहस्थों को पड़गाहन की विधि ज्ञात न होने से वे वापस मंदिर में आकर विराज जाते इस प्रकार निराहार 4 दिन व्यतीत होने पर ग्राम में तहलका मच गया तथा ग्राम के प्रमुख पाटील ने कठोर शब्दों में उपाध्याय को कहा-शास्त्रोक्त विधि क्यों नहीं बताते ? क्या साधु को निराहार भूखा मार दोगे! तब उपाध्याय ने आगमोक्त विधि बतलाई एवं पड़गाहन हुआ। नेमिनाथ भगवान के निर्माण स्थान गिरनार जी की वंदना के पश्चात् इसकी स्थायी स्मृति रूप अपने ऐलक दीक्षा ग्रहण की ऐलक रूप में आपने नसलापुर में चतुर्मास किया वहाँ से चलकर ऐनापुर ग्राम में रहे। उस समय यरनाल में पञ्चकल्याणक महोत्सव (सन् 1920) होने वाला था वहाँ जिनेन्द्र भगवान के दीक्षा कल्याणक दिवस पर आपेन अपने गुरुदेव देवेन्द्रकीर्ति जी से मुनिदीक्षा ग्रहण की। समडोली में नेमिसागर जी की ऐलक दीक्षा व वीरसागर जी की मुनि दीक्षा के अवसर पर समस्त संघ ने महाराज को आचार्य पद (सन् 1924) से अलंकृत कर अपने आप को कृतार्थ किया। गजपंथा में चतुर्मास के बाद सन् (1934) पञ्चकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव हुआ। इस अवसर पर उपस्थित धार्मिक संघ ने महाराज को चारित्र चक्रवर्ती पद से अलंकृत किया। सल्लेखना - जीवन पर्यन्त मुनिचर्या का निर्दोष पालन करते हुए 84 वर्ष की आयु में दृष्टि मंद होने के कारण सल्लेखना की भावना से आचार्य श्री सिद्धक्षेत्र कुंथलगिरी जी पहुँचे। वहाँ पर उन्होंने 13 जून को विशाल धर्मसभा के मध्य आपने सल्लेखना धारण करने के विचारों को अभिव्यक्त किया। 15 अगस्त को महाराज ने आठ दिन की नियम-सल्लेखना का व्रत लिया जिसमें केवल पानी लेने की छूट रखी। 17 अगस्त को उन्होंने यम सल्लेखना या समाधिमरण की घोषणा की तथा 24 अगस्त को अपना आचार्य पद अपने प्रमुख शिष्य श्री १०८ वीरसागर जी महाराज को प्रदान कर घोषणा पत्र लिखवाकर जयपुर (जहाँ मुनिराज विराजमान थे) पहुँचाया। आचार्य श्री ने ३६ दिन की सल्लेखना में केवल १२ दिन जल ग्रहण किया। १८ सितम्बर १९५५ को प्रातः ६.५० पर ॐ सिद्धोऽहं का ध्यान करते हुए युगप्रवर्तक आचार्यं श्री शान्तिसागर जी ने नश्वर देह का त्याग कर दिया। संयम-पथ पर कदम रखते ही आपके जीवन में अनके उपसर्ग आये जिन्हें समता पूर्वक सहन करते हुए आपने शान्तिसागर नाम को सार्थक किया। कुछ उपसर्गों एवं परीषहों की संक्षिप्त झलकियाँ इस प्रकार हैं - क्षुल्लक दशा मे कोगनोली के मंदिर में ध्यानस्थ शान्तिसागर जी के शरीर से विशाल विषधर लिपट गया। बहुत देर तक क्रीड़ा करने के पश्चात् शांत भाव से वापस चला गया। मध्याह्न का समय था कोन्नूर की गुफा में महाराज सामायिक कर रहे थे एक उड़ने वाला सर्प आया और महाराज की जंघाओं के बीच छिप गया। वह लगभग तीन घंटे तक उपद्रव करता रहा। लेकिन आचार्य श्री ने अपनी स्थिर मुद्रा को भंग नहीं किया। द्रोणगिरी के पर्वत पर रात्रि में महाराज जब ध्यान करने बैठे तभी एक सिंह आ गया वह प्रात: लगभग 8-9 बजे तक महाराज के सामने ही बैठा रहा। इस प्रकार मुक्तागिरी पर्वत पर भी जब महाराज ध्यान में रहते थे, शेर झरने पर पानी पीने आ जाता था। आचार्यश्री का कहना था कि भय किस बात का? यदि वह पूर्व का बैरी न हो और हमारी ओर से कोई बाधा या आक्रमण न हो तो वह क्यों आक्रमण करेगा? बिना किसी भय के आत्मलीन रहते थे। कोन्नूर के जंगल में महाराज धूप में बैठकर सामायिक कर रहे थे, इतने में एक बड़ा सा कीड़ा उनके पास आया और उनके पुरुष चिह्न से चिपट कर वहाँ का रक्त-चूसने लगता है। खून बहने लगा किन्तु महाराज डेढ़ घण्टे तक अविचल ध्यान में बैठे रहे। जंगल के मंदिर में ध्यान करते वक्त असंख्य चीटियाँ उनके शरीर पर चढ़ गई एवं देह के कोमल अंग-उपांग को एक-दो घंटे ही नहीं सारी रात खाती रहीं तब वे महापुरुष साम्य भाव से परीषह सहन करते रहे। एक अविवेकी श्रावक जो कपड़े से गर्म दूध का बर्तन पकड़े हुए था उसने वह उबलता दूध महाराज की अंजुलि में डाल दिया। उष्णता की असह्य पीड़ा से महाराज की अंजुलि छूट गई और वे नीचे बैठ गये, किन्तु उनकी मुख मुद्रा पर क्रोध की एक रेखा तक नहीं उभरी। श्रावक की अज्ञानता के कारण नौ दिन तक पर्याप्त जल नहीं मिला। जिसके कारण उनकी छाती पर फफोले पड़ गए पर वे गंभीर और शांत बने रहे। दसवें दिन मात्र जल लेकर ही बैठ गए। दस-बारह वर्ष तक महाराज दूध और चावल ही मात्र लेते रहे। एक दिन किसी श्रावक ने पूछा-महाराज आप और कुछ आहार में क्यों नहीं लेते, तब महाराज बोले-जो आप देते हैं वही मैं लेता हूँ। दूसरे दिन श्रावकों ने दाल रोटी आदि सामग्री देनी चाही तो भी महाराज ने नहीं ली। पुन: पूछने पर बताया कि आटा, मसाला कब पिसा हुआ था? रात्रि में पिसा हुआ अन्न रात्रि भोजन के दोष का कारण बनता है। अत: पुन: मर्यादित भोजन प्राप्त होने पर ग्रहण करने लगे। आचार्य श्री ने गृहस्थ अवस्था में ही 38 वर्ष की आयु में घी-तेल का आजीवन त्याग कर दिया था, उनके नमक, शक्कर, छाछ आदि का भी त्याग था तथा उन्होंने 35 वर्ष के मुनि जीवन में 27 वर्ष 3 माह 23 दिन (9938) तक उपवास धारण किये। बम्बई सरकार ने हरिजनों के उद्धार के लिए एक हरिजन मंदिर प्रवेश कानून सन् 1947 में बनाया। जिसके बल पर हरिजनों को जबरदस्ती जैन मंदिरों में प्रवेश कराया जाने लगा। जब आचार्य श्री को यह समाचार ज्ञात हुआ तो उन्होंने इसे जैन संस्कृति, जैन धर्म पर आया उपसर्ग जानकर, जब तक यह उपसर्ग दूर नहीं होगा तब तक के लिए अन्नाहार का त्याग कर दिया। आचार्य श्री की श्रद्धा एवं त्याग के परिणाम स्वरूप लगभग तीन वर्ष पश्चात् इस कानून को हटा दिया गया। तभी आचार्य श्री ने 1105 दिन के बाद 16 अगस्त 1951 रक्षाबन्धन के दिन अन्नाहार को ग्रहण किया। दिल्ली में दिगम्बर मुनियों के उन्मुक्त विहार की सरकारी आज्ञा नहीं थी। अत: 10-20 आदमी हमेशा महाराज के विहार के वक्त साथ ही रहते थे। आचार्य महाराज को चतुर्मास के दो माह व्यतीत होने पर जब यह बात ज्ञात हुई तो महाराज ने स्वयं एक फोटोग्राफर को बुलवाया और ज्ञात समय के पूर्व अकेले ही शहर में निकल गये तथा जामामस्जिद, लालकिया, इंडिया गेट, संसद भवन आदि प्रमुख स्थानों पर खड़े होकर उन्होंने अपना फोटो खिचवाया। समाज में अपवाद होने लगा कि महाराज को फोटो खिचवाने का शौक है। इस विषय में महाराज से पूछे जाने पर उन्होंने ने कहा-हमारे शरीर की स्थिति तो जीर्ण अधजले काठ के समान है इसके चित्र की हमें क्या आवश्यकता और वह चित्र हम कहाँ रखेंगे। श्रावकों का कर्तव्य है कि इन चित्रों को सम्हाल कर रखें जिससे भविष्य में मुनि विहार की स्वतंत्रता का प्रमाण सिद्ध हो सके। हमारे इस उद्योग से सभी दिगम्बर जैन मुनियों में साहस आवेगा, दिगम्बर जैनधर्म की प्रभावना होगी। हमारे ऊपर उपसर्ग भी आए तो हमें कोई चिन्ता नहीं। अच्छे कार्य करते हुए भी यदि अपवाद आये तो उसे सहना मुनि धर्म है न कि उसका प्रतिवाद करना। आगम ग्रन्थों की सुरक्षा को दृष्टि में रखते हुए आचार्य श्री के आशीर्वाद एवं प्ररेणा से सिद्धान्त ग्रन्थों को ताम्रपत्र पर उत्कीर्ण कराया गया। अनेकों भव्य आत्माओं ने आचार्य श्री से व्रत-संयम ग्रहण कर अपने जीवन का उद्धार किया।
  5. आत्मा से पुद्गल कर्म चिपक जाते हैं और उदय में आने पर अनेक प्रकार से दु:ख देते हैं। सामान्यत: कषाय चार प्रकार की है - (१) क्रोध कषाय, (२) मान कषाय, (२) माया कषाय, (२) लोभ कषाय क्रोध कषाय - अपने और पर के घात आदि करने रूप क्रूर परिणाम करने को क्रोध कहते है। गुस्सा, रोष, क्षोभ, आवेश आदि इसी के रूप है। क्रोध जलते हुए अंगारे की तरह है, जिसे दूसरे की तरफ फेंकने पर पहले अपना हाथ ही जल जाता हैं। परम तपस्वी द्वीपायन मुनि क्रोध के कारण ही नरक गति गये। तुंकारी (जिसे कोई तू नहीं बोल सकता था) ने अनेक प्रकार के कष्ट भोगे। राजा अरविन्द क्रोध के कारण स्वयं अपनी तलवार के घात से मरण को प्राप्त हो नरक गया। मान कषाय - अहंकार, गर्व, घमण्ड करने को मान कषाय कहते हैं। ज्ञान, पूजा, कुल, धन रूपादि से दूसरों को तिरस्कृत करना, नीचा दिखाने का भाव रखना आदि मान के स्वरूप हैं। मारीचि को अहंकार (मान कषाय) के कारण अनेक दुर्गतियों में भटकना पड़ा। रावण विद्याधर अहंकार के कारण मरकर नरक गया। दुर्गन्धा नाम की कन्या ने अनेक दु:ख भोगे। माया कषाय - दूसरों को ठगने के लिए जो कुटिलता या छल-कपट आदि किये जाते हैं। उसे माया कषाय कहते है। मायाचारी व्यक्ति के जप-तप, पूजा-विधान, व्रताचरण आदि सभी धार्मिक अनुष्ठान मोक्षमार्ग में अकार्यकारी/निष्फल है। मायाचार के कारण की मृदुमति नामक मुनिराज हाथी की पर्याय को प्राप्त हुए। नारद महापुरुष नरकगामी हुआ। लोभ कषाय - धन-धान्यादि पर पदार्थों की प्राप्ति के लिए तीव्र आकांक्षा या गृद्धि लोभ कषाय है। लोभ से बड़ा कोई दूसरा अवगुण नहीं है इसे सब पापों का बाप कहा हैं। तृष्णा या लालच इसी के पर्यायवाची शब्द है। एक और रत्नमयी बैल की चाह रखने वाला सेठ मरकर खजाने में सर्प हुआ फिर मरकर नरक गया। वेश्या ने बाह्मण को पाप का बाप कौन है ज्ञात कराया। क्रोधादि चारों कषायों के शक्ति, कार्य, स्थिती तथा सम्यक्त्वादि घातने की अपेक्षा चार-चार भेद कुल सोलह हो जाते हैं। १. अनन्तानुबन्धी क्रोध २. अनन्तानुबन्धी मान ३. अनन्तानुबन्धी माया ४. अनन्तानुबन्धी लोभ ५. अप्रत्याख्यान क्रोध ६. अप्रत्याख्यान मान ७. अप्रत्याख्यान माया ८. अप्रत्याख्यान लोभ ९. प्रत्याख्यान क्रोध १०. प्रत्याख्यान मान ११. प्रत्याख्यान माया १२. प्रत्याख्यान लोभ उपरोक्त कषायों की शक्तियों के दृष्टान्तों को हम सारणी में समझने का प्रयास करें। अनन्तानुबन्धी कषाय सम्यक्त्व व चारित्र दोनों का घात करती है, अप्रत्याख्यान कषाय देश संयम का तथा प्रत्याख्यान कषाय सकल संयम का घात करती हैं। संज्वलन कषाय यथाख्यात चरित्र का घात करती है अर्थात् यथाख्यात चारित्र नहीं होने देती। उपरोक्त सोलह कषायों के अतिरिक्त नौ नो कषाय भी आगम में कही गई है। जिनके नाम क्रमश: हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद एवं नपुंसक वेद हैं। हंसने को हास्य कहते हैं। मनोहर वस्तुओं में प्रीति होना रति है। अरति इससे विपरीत है। उपकार करने वाले से सम्बन्ध टूट जाने पर जो विकलता होती है वह शोक है। उद्वेग का नाम भय है। ग्लानि को जुगुप्सा कहते हैं। पुरुष में आकांक्षा उत्पन्न होना स्त्रीवेद है। स्त्री की आकांक्षा होना पुरुष वेद है। स्त्री पुरुष दोनों की अभिलाषा से सहित परिणाम नंपुसक वेद हैं। जैन तत्त्व - विवेचन तत्व शब्द भाववाची है, जो पदार्थ जिस रूप में है उसके उसी स्वरूप, भाव का होना 'तत्व' कहलाता है जैसे जीव का चेतनपना, ज्ञान दर्शन स्वभाव, जल का शीतलपना आदि। तत्व सात होते हैं - १. जीव तत्व, २. अजीव तत्व, ३. आस्रव तत्व, ४. बंध तत्त्व, ५. संवर तत्त्व, ६. निर्जरा तत्त्व, ७. मोक्ष तत्त्व। इनमें से जीव का लक्षण चेतना है जो ज्ञानादिक के भेद से अनेक प्रकार की है। जीव से विपरीत लक्षण वाला अजीव है। शुभ और अशुभ कर्मों के आने के द्वार रूप आस्रव है। आत्मा और कर्म के प्रदेशों का परस्पर मिल जाना बन्ध है। आस्रव का रोकना संवर है। कर्मों का एकदेश अलग होना निर्जरा है और सब कर्मों का आत्मा से अलग हो जाना मोक्ष है। सब फल जीव को मिलता है अत: प्रारम्भ में जीव को लिया गया है। अजीव जीव का उपकारी है यह दिखलाने के लिए जीव के बाद अजीव का कथन किया। आस्त्रव जीव और अजीव दोनों को विषय करता है अत: इन दोनों के बाद आस्त्रव का ग्रहण किया। बन्ध आस्रव पूर्वक होता है इसलिए आस्रव के बाद बन्ध का कथन किया। व्रत, गुति आदि धारण करने वाले जीव में बन्ध नहीं होता अत: संवर बन्ध का उल्टा हुआ इस बात का ज्ञान कराने के लिए बन्ध के बाद संवर का कथन किया। संवर होने पर निर्जरा होती है इसलिए संवर के बाद निर्जरा कही। मोक्ष अन्त में प्राप्त होता है इसलिए उसका कथन अन्त में किया। अथवा मोक्ष का प्रकरण होने से मोक्ष का कथन आवश्यक है वह संसार पूर्वक होता है और संसार के प्रधान कारण आस्त्रव और बन्ध है तथा मोक्ष के प्रधान कारण संवर और निर्जरा है। इन सात तत्चों को एक उदाहरण के माध्यम से समझ लें। एक यात्री बस, जिसमें ड्राइवर (चलाने वाला) हो गया जीव, बस हो गई अजीव, यात्रियों का बस में प्रवेश करना आस्त्रव, सीट पर बैठ जाना बन्ध, दरवाजे का बंद हो जाना संवर मंजिल आने पर यात्रियों का क्रम क्रम से बाहर निकलना निर्जरा अंत में ड्राइवर सहित विशेष की संज्ञा नहीं है अपितु पूर्ण रूप से कमें से रहित दशा का प्राप्त होना ही मोक्ष है।
  6. दशलक्षण पर्व - जैन श्रावकों का सबसे पवित्र पर्व दशलक्षण अथवा पर्युषण पर्व है। यह पर्व प्रतिवर्ष में तीन बार माघ, चैत एवं भाद्रपद के शुक्ल पक्ष की पंचमी से चतुर्दशी तक मनाया जाता है। ये दश दिन दशलक्षण धर्म के दिन कहे जाते हैं। दश धर्मों के नाम पर ही इन पर्वो का नाम उद्घोषित किया जाता है इनके नाम उत्तमक्षमा पर्व, उत्तम मार्दव पर्व, उत्तम आर्जव, उत्तम शौच, उत्तम सत्य, उत्तम संयम, उत्तम तप, उत्तम त्याग, उत्तम अकिंचन्य एवं उत्तम ब्रह्मचर्य पर्व है। इन दिनों श्रावक लोग यथाशक्ति व्रतों का पालन करते हैं, पूजन-पाठ कर संयम के साथ दिन व्यतीत करते हैं। भादों शुक्ला चतुर्दशी को अनन्त चतुर्दशी कहते हैं, इस दिन प्राय: सभी जैन श्रावक व्रत-उपवास करते हैं। अश्विनी कृष्णा प्रतिपदा के दिन अथवा अन्य किसी दिन क्षमावाणी पर्व मनाते हैं, अपने द्वारा हुए अपराधों की एक-दुसरों से क्षमा मांगते हैं एवं परस्पर गले मिलते हैं। यह पर्व अनादि अनिधन माना गया है जैन सिद्धान्तानुसार अवसर्पिणी काल के अंत में भरत-ऐरावत क्षेत्र के आर्य खण्ड में महाप्रलय होता है। उसके बाद नवीन सृष्टि का प्रारंभ शुभ दिन माघ सुदी पंचमी से होता है। अत: आर्यखण्ड की इस पुन: स्थापना के स्मरण रूप भी यह पर्व मनाया जाता है। अष्टाहनिका पर्व - यह पर्व कार्तिक, फाल्गुन और आषाढ़ माह के अन्त के आठ दिनों (शुक्ल पक्ष की अष्टमी से पूर्णिमा तक) में मनाया जाता है। अष्टम द्वीप नन्दीश्वर में स्थित बावन जिनालयों की पूजा करने चतुर्णिकाय के देव इन दिनों यहाँ आते हैं। चूंकि मनुष्य वहां नहीं जा सकते इसलिए उत्त दिनों में पर्व मनाकर यहीं पर पूजन करते हैं। इन दिनों में मुख्य रूप से सिद्ध चक्र मण्डल विधान का आयोजन किया जाता है। साधु संघो में नंदीश्वर भक्ति का पाठ किया जाता है। साधु एवं श्रावक गण इन दिनों यथाशक्ति व्रत उपवास रखते हैं। महावीर जयन्ती - चैत्र शुक्ला त्रयोदशी (१३) भगवान महावीर की जन्म तिथी है। इसे सम्पूर्ण जैन समाज मिलकर बड़े धूमधाम से मनाती है। केन्द्रीय सरकार के द्वारा इस दिन सभी सरकारी कार्यालयों की छुट्टी रहती है। प्रात:काल प्रभात फेरी निकाली जाती है। दोपहर को नगर में विशाल जुलूस, शोभायात्रा निकाली जाती है जिसमें श्री जी का विमान भी रहता है। लौटकर आने के पश्चात् श्री जी का अभिषेक होता है एवं रात्रि में भगवान के जीवन एवं उपदेश पर विद्वानों द्वारा व्याख्यान, कवि सम्मेलन, सांस्कृतिक कार्यक्रम आदि होते हैं। इस दिन प्राय: सभी श्रद्धालु जैन श्रावक व्यापारिक प्रतिष्ठान बंद रखते हैं एवं जिनधर्म की प्रभावना में अपना सहयोग प्रदान करते हैं। इस दिन अस्पताल आदि संस्थाओं के लिए दान एवं रोगियों के लिए दूध, फल, औषध आदि भी नि:शुल्क वितरण किये जाते हैं। श्रुत पञ्चमी पर्व - भगवान महावीर के मुक्त हो जाने के लगभग ६०० वर्ष पश्चात् जब अंगश्रुतज्ञान लोप हो गया। तब गिरनार पर्वत की गुफा में निवास करने वाले धरसेनाचार्य महाराज के मन में श्रुत संरक्षण का विचार आया। निमित्त ज्ञान से उन्होंने जाना कि मेरी आयु अल्प रह गई है, मेरे बाद इस अंगज्ञान का लोप हो जावेगा। अत: योग्य शिष्यों को मुझे अंग आदि श्रुत का ज्ञान करा देना चाहिए। ऐसा विचार कर उन्होंने महिमा नगरी के यति सम्मेलन में पत्र भेजा। पत्र प्राप्त कर अहद्बलि आचार्य ने नरवाहन और सुबुद्धि नामक मुनिराज को उनके पास भेजा। ये दोनों मुनि जिस दिन आचार्य धरसेन के पास पहुंचने वाले थे, उसकी पिछली रात्रि को स्वप्न में उन्होंने दो हष्टपुष्ट, सुडौल और सफेद बैलों को बड़ी भक्ति से अपने पांवो में पड़ते देखा। सवेरा होते ही दो मुनियों ने जिनकी उन्हें चाह थी, आकर गुरुचरणों में सिर झुकाकर स्तुति की। दो-तीन दिनों के पश्चात् उनकी बुद्धि, शक्ति, सहनशीलता, कर्तव्य बुद्धि का परिचय प्राप्त कर दोनों को दो विद्याएं सिद्ध करने के लिए दी। गुरु आज्ञानुसार वे गिरनार पर्वत पर भगवान नेमिनाथ की निर्वाण शिला पर पवित्र मन से विद्या सिद्ध करने बैठ गये। मंत्र साधन का अवधि पूरी होने पर दो देवियां उनके पास आई। इन देवियों में एक देवी तो आँखों से अन्धी थी और दूसरी के दाँत बड़े और बाहर निकले थे। देवियों के असुन्दर रुप को देख इन्हे बड़ा आश्चर्य हुआ। इन्होंने सोचा देवों का तो ऐसा रूप होता नहीं फिर ऐसा क्यों ? तब इन्होंने मंत्रों की जाँच की, मंत्रों की गलती का उन्हें भास हुआ। फिर उन्होंने ने शुद्ध कर जपा। अबकी बार उन्हें दो देवियाँ सुन्दर वेष में दिखाई पड़ी। गुरु के पास आकर उन्होंने समस्त वृतान्त सुनया। धरसेनाचार्य बड़े प्रसन्न हुए क्योंकि उन्होंने परीक्षा हेतु जानबूझ कर ही हीनाधिक मात्राओं वाला मंत्र दिया था। परीक्षा में उतीर्ण शिष्यों को सब तरह योग्य पा उन्हें खूब शास्त्राभ्यास कराया तथा ग्रन्थ समाप्ति पर भूतों द्वारा मुनियों की पूजा करने पर नरवाहन मुनि का नाम भूतबलि तथा सुबुद्धि मुनि की अस्त-व्यस्त दंत पक्ति सुव्यवस्थित हो जोने से उनका नाम पुष्पदन्त रखा। आषाढ़ शु. ११ को अध्ययन पूरा हो जाने पर धरसेन गुरु से विदा ले दोनों गिरनार के निकट अंकलेश्वर आ गए वहाँ चातुर्मास किया। कुछ समय पश्चात् उन मुनिराजों ने षट्खण्डागम नामक सिद्धान्त ग्रंथ को लिपिबद्ध कर ज्येष्ठ शु पंचमी को पूर्ण किया। उस दिन बहुत उत्सव मनाया गया। तभी से प्रतिवर्ष ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी को श्रुत (ग्रन्थों)की पूजा की जाती है तथा शास्त्रों को निकालकर धूप में सुखाया जाता है तथा वेष्टन आदि बदलें जाते हैं। रक्षाबन्धन पर्व - भगवान अरनाथ तीर्थकर के काल में जब बलि आदि चार ब्राह्मण मंत्रियों ने धार्मिक द्वेष वश श्री अकम्वनाचार्य को ७०० मुनियों के संघ सहित जीवित जला देने की इच्छा से हस्तिनापुर के बाहर मुनि संघ के चारों ओर धुएंदार अग्नि जला दी, साधुगण अपने ऊपर महाविपत्ति समझकर आत्मध्यान में लीन हो गये। तब श्री विष्णुकुमार मुनि जो कि विक्रिया ऋद्धि के धारक थे, धार्मिक प्रेम वश एवं साधर्मी वात्सल्य वश तुरन्त हस्तिनापुर आये। और अपने शरीर को विक्रिया ऋद्धि से बौने ब्राह्मण का रूप बना कर बलि मंत्री से अपने लिए तीन पैड (३ कदम) पृथ्वी माँगी। उसने देना स्वीकार कर लिया तब उन्होंने विक्रिया से बड़ा रुप बना कर दो पैर (कदम) में ही मानुषोत्तर पर्वत तक सारी पृथ्वी नाप ली। तीसरा चरण बलि के कहने पर उसकी पीठ पर रखा। इस प्रकार पृथ्वी पर अधिकार पाकर उन्होंने तुरन्त अकम्पनाचार्य के संघ के चारों ओर से अग्नि हटवाकर उनकी विपत्ति दूर की। जनता को इससे शान्ति, संतोष हुआ, उपसर्ग दूर होने पर श्रावकों ने दूध की सिमेयो का हल्का आहार तैयार किया और मुनियों को दिया क्योंकि धुए से उनके गले भी भर आए थे। वह दिन श्रावण शुक्ला १५ का था। अत: उस दिन से प्रतिवर्ष उनके स्मरण में 'रक्षाबंधन पर्व'चालु हुआ और मुनिरक्षा के स्मरण स्वरूप रक्षा सूत्र हाथ में बाँधा जाता है। राखी धर्म की रक्षार्थ एक दूसरे की कलाई में बांधी जाती है। अत: रक्षा सूत्र बहन भाई को ही बाँधे ऐसा कोई नियम नहीं है। धर्म की रक्षार्थ, परस्पर में प्रेमभावना से रक्षासूत्र बाँधना लोक व्यवहार की अपेक्षा से मिथ्यात्व नहीं है। दीपावली पर्व - विक्रम स. से ४७० वर्ष पहले कार्तिक वदी अमावश्या के प्रात: से कुछ समय पहले अंतिम तीर्थकर श्री भगवान महावीर पावापुरी से निर्वाण को प्राप्त हुए थे अर्थात मोक्ष गये। उस समय रात्रि का कुछ अन्धकार शेष था। अतएवं देवों ने तथा मनुष्यों ने वहाँ पर अगणित दीपक जलाकर प्रकाश करके मोक्ष उत्सव मनाया। तदनुसार तबसे ही प्रतिवर्ष भारत में कार्तिक वदी अमावस्या को अनेक दीपकों का प्रकाश करके दीपावली उत्सव मनाया जाता है। चतुर्दशी की रात्रि व्यतीत होने पर प्रात: भगवान महावीर की पूजा करके निर्वाण लाडू चढ़ाया जाता है। शाम को उनके प्रधान शिष्य गौतम गणधर के केवलज्ञान उत्पन्न हुआ था। मुक्ति और ज्ञान ही जैन धर्म में सबसे बड़ी लक्ष्मी मानी जाती है। प. गुलाबचन्द जी पुष्प के लेखानुसार – दीपावली के दिन संध्याबेला में घर में सामान्य पूजव श्रावक कर सकता है, शुद्धि पूर्वक यह पूजन सूर्यास्त के पहले ही कर लेना चाहिए। पूजन करने का स्थान शुद्ध होना चाहिए जहाँ अटैच शौचालय न हो, जूते चप्पल न पहुँचते हों, भोजन न किया जाता हो। उपर्युक्त शुद्ध स्थल को जल से स्वच्छ कर, चौकी लगाकर उस पर जिनवाणी स्थापित कर, मंगल कलश एवं दीपक की स्थापना करे। मंगलाष्टक पढ़ते हुए दिग्बंधन करके अपनी मन्त्र शुद्धि पूर्वक, कार्य का शुभारम्भ करें। तत्पश्चात् गणधर भगवान की पूजा करना चाहिए। महावीराष्टक पढ़कर दीप प्रज्वलन आदि करें। आर्य ग्रन्थों में चित्रों की पूजा का विधान नहीं है अत: चित्र की पूजा न करके जिनवाणी की स्थापना कर पूजन सम्पादित करना चाहिए। किन्तु सजा हेतु यदि तीर्थकर आदि का चित्र लगाया जाता है तो अनुचित नहीं है। कम से कम पाँच कल्याणकों की अपेक्षा पाँच दीप प्रज्वलित करना चाहिए। अन्यत्र यह व्यवस्था भी दृष्टिगोचर होती है। चौमुखी सोलह दीपक १६x४ = ६४ ऋद्धियों का प्रतीक मानकर तथा दर्शन विशुद्धि आदि सोलह कारण भावनाओं का प्रतीक मानकर दीप प्रज्वलित किये जाते हैं।
  7. जो कर्मों से आत्मा को लिप्त करती हैं। उसकों लेश्या कहते है। लेश्या के छह भेद हैं- १. कृष्ण, २. नील, ३. कापोत, ४, पीत, ५. पद्म, और ६ शुक्ल कृष्ण लेश्या - सदा बुरे विचार करना, बात-बात में क्रोध करना, दूसरों से घृणा करना, दया धर्म से रहित होना, वैर भाव रखना, सदा शोक संतप्त रहना, शत्रुता को न छोड़ना,लड़ना आदि जिसका स्वभाव हो आदि कृष्ण लेश्या वालों के लक्षण है। नील लेश्या - आलसी, बुद्धिहीन, कामी, भोगी, डरपोक, ठग, परवंचना में दक्ष, आहारादि संज्ञाओं में आसक्त, अतिलोभी, सदा मान-सम्मान पाने के भाव आदि नील लेश्या वालों के लक्षण हैं। कापोत लेश्या - परनिन्दा,आत्म-प्रशंसा, बात-बात में नाराज होना, शोकाकुल होना आदि कापोत लेश्या वालों के लक्षण है। पीत लेश्या - दयालु, विवेकी, संतोषी, तीव्र बुद्धिमान होना, सबसे प्रेम करना आदि पीत लेश्या वालों के लक्षण है। पदमलेश्या - सदा प्रसन्न रहना, सदा परोपकार करना, देवपूजा - दानादि करना, त्याग के भाव रखना आदि पद्म लेश्या वालों के लक्षण है। शुक्ल लेश्या - राग-द्वेष से रहित होना, प्राणी मात्र के प्रति स्नेह भाव रखना, शोक-निंदा आदि से रहित होना आदि शुक्ल लेश्या वालों के लक्षण है। लेश्याओं का उदाहरण - छह मित्र एक बगीचे में गये। वहाँ उन्होनें आम से लदा हुआ वृक्ष देखा, पहला मित्र बोला — चलो इस वृक्ष को उखाड़ डालें और पेट भर आम खायें। दूसरे मित्र ने कहा - वृक्षों को उखाड़ने से क्या प्रयोजन, केवल बड़ी-बड़ी शाखाओं को काटने से ही हमारा काम हो जायेगा। तीसरे ने कहा - यह भी उचित नहीं है, हमारा काम तो छोटी-छोटी टहनियों के काटने से ही हो जायेगा। चौथे मित्र ने कहा - टहनियों को तोड़ने से क्या लाभ, केवल गुच्छों को तोडना ही पर्याप्त है। पाँचवा मित्र बोला — हमें गुच्छों से क्या प्रयोजन, केवल पके फल तोड़ लेना ही अच्छा है। तब अन्त में छठा मित्र गम्भीर होकर बोला- आप सब क्या सोच रहे हैं। हमें जितने फल चाहिए उतने तो नीचे ही पड़े हैं, फिर व्यर्थ में फल तोड़ने से क्या लाभ । इस दृष्टान्त से लेश्याओं का स्वरूप समझ में आ जाता है। पहले मित्र के परिणाम कृष्ण एवं छठे मित्र के परिणाम शुक्ल लेश्या के प्रतीक हैं। यह उदाहरण केवल परिणामों की तारतम्यता का सूचक है। तीन लोक का वर्णन करने वाला महान ग्रन्थ - 'तिलोयपण्णत्ती' ईसा की द्वितीय शताब्दी (सन् १७६) के आसपास के यशस्वी आगम ज्ञाता विद्वान आचार्य यतिवृषभ द्वारा तिलोयपण्णत्ती ग्रन्थ की रचना की गई। तिलोयपण्णत्ती में तीन लोक के स्वरूप, प्रकार, विस्तार, क्षेत्रफल और युगपरिवर्तन आदि विषयों का निरूपण किया गया है। प्रसंगवश जैन सिद्धांत, पुराण और भारतीय इतिहास विषयक सामग्री भी निरुपित है। यह ग्रन्थ ९ महाधिकारों में विभक्त है। १– सामान्य जगत्स्वरूप, २– नारकलोक, ३– भवनवासलोक, ४– मनुष्यलोक, ५– तिर्यक्लोक, ६– व्यन्तरलोक, ७- ज्योतिलॉक ८– सुरलोक ९— सिद्धलोक। इन नौ महाधिकारों के अतिरिक्त अवान्तर अधिकारों की संख्या १८० है। प्रथम महाधिकार में २८३ गाथायें हैं और तीन गद्य - भाग है। दृष्टिवाद- सूत्र के आधार पर त्रिलोक की मोटाई, चौड़ाई और ऊँचाई का निरूपण किया है। दूसरे महाधिकार में ३६७ गाथाये है, जिनमे नरकलोक के सवरूप का वर्णन है | तीसरे महाधिकार में २४३ गाथायें हैं। इनमें भवनवासी देवों के प्रासादों में जन्म शाला, औषधशाला, लतागृह आदि का वर्णन है। चतुर्थ महाधिकार में २९६१ गाथायें हैं। इसमें मनुष्य लोक का वर्णन करते हुए आठ मंगलद्रव्य, कल्पवृक्ष, तीर्थकरों की जन्मभूमि, नक्षत्र, समवशरण आदि का विस्तृत वर्णन है। पाँचवें महाधिकार में ३२१ गाथायें हैं। जम्बूद्धीप, आदि का विस्तार सहित वर्णन है। छठे महाधिकार में १०३ गाथायें हैं। इनमें व्यन्तरों के निवास क्षेत्र, उनके अधिकार क्षेत्र, उनके भेद, चिन्ह, उत्सेध, अवधिज्ञान आदि का वर्णन है। सातवें महाधिकार में ६१९ गाथायें हैं, जिनमें ज्योतिषी देवों का वर्णन है। आठवें महाधिकार में ७०३गाथायें हैं। जिनमें वैमानिक देवों के निवास स्थान, आयु परिवार, शरीर, सुखभोग आदि का विवेचन है। नवम महाधिकार में सिद्धों के क्षेत्र, उनकी संख्या, अवगाहना और सुख का प्ररूपण किया गया है। मध्य में सूक्तिगाथायें भी प्राप्त होती हैं। यथा-अन्धा व्यक्ति कूप में गिर सकता है, बधिर उपदेश नहीं सुनता है, तो इसमें आश्यर्च की बात नहीं। आश्चर्य इस बात का है, कि जीव देखता और सुनता हुआ नरक में जा पड़ता है।
  8. जिसका कभी नाश न हो ऐसी त्रिकालवर्ती वस्तु द्रव्य कहलाती है। द्रव्य सत् लक्षण वाला, उत्पाद व्यय श्रौव्य से युक्त होता है। गुण और पर्याय वाला द्रव्य होता है। द्रव्य में भेद करने वाले धर्म को गुण और द्रव्य के विकार को पर्याय कहते हैं। उदाहरण - सोना सत् होने से द्रव्य, पीलापन, भारीपन सदा साथ रहने से गुण, मुकुट कुण्डल आदि नाशवान् होने से पर्याय कहलाती है तथा कुण्डल का बनना-उत्पाद, मुकुट का मिटना-व्यय, इन दोनों दशाओं में स्वर्ण का ज्यों का त्यों रहना श्रीव्य है। द्रव्य छह होते हैं:- जीव द्रव्य - जो इन्द्रिय आदि चार प्राणों के द्वारा जीता था, जीता है एवं जीवेगा उसे जीव कहते है। पुदगल द्रव्य - स्पर्श-रस-गंध और वर्ण वाला पुद्गल द्रव्य होता है। हमारे आस-पास जो कुछ भी देखने में आ रहा हैं वह सब पुद्गल द्रव्य का ही परिणमन है जैसे टेबल, पुस्तक, शरीर इत्यादि। धर्म द्रव्य - चलते हुए जीव एवं पुद्गल के चलने में जो उदासीन निमित्त कारण है वह धर्म द्रव्य है जैसे पानी मछली के चलने में सहायक है, पटरी, रेल के चलने में सहायक है। अधर्म द्रव्य - ठहरते हुए जीव एवं पुद्गल के ठहरने में जो सहायक कारण। वह अधर्म द्रव्य है। जैसे- ठहरने वाले पथिक के लिए पेड़ की छाया, हवाई जहाज के लिए हवाई अड्डा ठहरने में निमित्त कारण है। आकाश द्रव्य - सभी द्रव्यों को रहने के लिए जो स्थान दे/ अवकाश दे उसे आकाश द्रव्य कहते हैं। जैसे मनुष्यों को रहने के लिए मकान, पक्षियों के रहने के लिए घोंसला स्थान देता है। काल द्रव्य - जो परिणमन करते हुए जीवादि द्रव्यों के परिणमन में सहकारी कारण है उसे कालद्रव्य कहते हैं। सेकंड, मिनट, घण्टा आदि काल द्रव्य की पर्याये हैं। जैसे घूमते हुए चक्र की कील। छहों द्रव्य लोकाकाश में सर्वत्र पाये जाते हैं अर्थात् लोकाकाश में ऐसा एक भी स्थान नहीं है जहाँ छहों द्रव्य न पाये जाते हों। आलोकाकाश में मात्र आकाश द्रव्य पाया जाता है। जीव द्रव्य अनन्त हैं, उनसे पुद्गल परमाणु अनन्त हैं। धर्म द्रव्य, अधर्म द्रव्य एक-एक हैं। काल द्रव्य असंख्यात है। आकाश द्रव्य एक है, छह द्रव्यों के निवास स्थान की अपेक्षा लोकाकाश और अलोकाकाश ये दो भेद आकाश के हो जाते हैं। एक अविभागी पुद्गल आकाश के जितने स्थान को घेरता हैं उसे प्रदेश कहते हैं। एक जीव द्रव्य के असंख्यात प्रदेश होते हैं। जीव संकोच - विस्तार स्वभाव वाला होने से छोटे से छोटे शरीर में अथवा बड़े से बड़े शरीर में भी रह सकता है। पुद्गल द्रव्य संख्यात, असंख्यात व अनन्त प्रदेश वाला होता है। धर्म द्रव्य व अधर्म द्रव्य के असंख्यात प्रदेश है एवं आकाश द्रव्य अनन्त प्रदेशी है। काल द्रव्य एक प्रदेश वाला है अत: काल द्रव्य को अप्रदेशी कहा गया है शेष द्रव्य सप्रदेशी जानना चाहिए। परस्पर जीवों का उपकार करना ही जीव द्रव्य का उपकार हैं। शरीर, वचन, मन, प्राणापान, सुख,दुख, जीवन, मरण ये सब पुद्गल द्रव्य के उपकार है। गति और स्थिती में निमित्त होना यह क्रम से धर्म और अधर्म द्रव्य का उपकार है। वर्तना, परिणाम, क्रिया, परत्व और अपरत्व ये काल द्रव्य के उपकार है। प्रत्येक द्रव्य में प्रति समय होने वाला परिवर्तन वर्तना कहलाता है। परिस्पदन रहित द्रव्य की पूर्व पर्याय की निवृत्ति, नवीन पर्याय की उत्पत्ति परिणाम है। परिस्पदन रूप परिणमन क्रिया कहलाती है। छोटे - बड़े के व्यवहार को परत्व-अपरत्व कहते हैं।
  9. चंद्रगिरी, डोंगरगढ़ राहुल देव जी के साथ परम पूज्य गुरुदेव आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज की हुई ४५ मिनट की गहन चर्चा, भाषा और भारत पर हुआ गंभीर विमर्श डोंगरगढ़ में विराजमान आचार्यश्री विद्यासागर जी महाराज से वरिष्ठ पत्रकार श्री राहुलदेव की बातचीत के मुख्य अंश
  10. किसी वस्तु अथवा परिस्थिती के विषय में बार-बार चिन्तन करना अनुप्रेक्षा है। वैराग्य रूप परिणामों को उत्पन्न करने के लिए अनुप्रेक्षा माता के समान मानी गई है। अनुप्रेक्षा बारह होती हैं, इन्हें बारह-भावना भी कहा जाता है, इनके नाम क्रमश: १. अनित्य भावना, २. अशरण भावना, ३. संसार भावना, ४. एकत्व भावना, ५. अन्यत्व भावना, ६. अशुचि भावना, ७. आस्रव भावना, ८. संवर भावना, ९. निर्जरा भावना, १०. लोक भावना, ११. बोधि दुर्लभ भावना और १२. धर्म भावना है। 1. अनित्य अनुप्रेक्षा - अनित्य का अर्थ नष्ट होने वाला, नाशवान। धन परिवार आदि समस्त वैभव बिजली की चमक के समान क्षणभंगुर है, इन्हें कितना भी स्थायी रखने का प्रयास किया जाय ये स्थिरता को प्राप्त नहीं होते हैं। यौवनावस्था कुछ ही समय पश्चात् बुढ़ापे में परिवर्तित हो मृत्यु में ढल जाती है। भावना का फल - इस प्रकार संसार, शरीर, भोगों की अनित्यता का चिंतन करने पर, अशुभ कर्मोदय से इष्ट वस्तुओं का वियोग होने पर, अनिष्ट वस्तुओं का संयोग होने पर मन संताप को प्राप्त नहीं होता, शरीर आदि पर पदार्थों की क्षणभंगुरता का ज्ञान होने से उनमें घमंड, मद पैदा नहीं होता, पर पदार्थों के प्रति राग भाव कम होता है। मोह की श्रृंखला टूट जाती है। 2. अशरण अनुप्रेक्षा - अशरण का अर्थ सहारा देने वाला नहीं। माता-पिता आदि परिजन, धन-सम्पति, मंत्र-तंत्र, रागी-द्वेषी, देवी-देवता कोई भी मृत्यु से इस जीव को बचाने वाला नहीं है। बड़े-बड़े शक्तिशाली महापुरुष भी काल के गाल में समा गये। भावना का फल - अत: इस संसार में कोई भी हमारा रक्षक नहीं हैं, ऐसा विचार करते हुए धर्म में बुद्धि लगाना चाहिए। सच्चे दवे, गुरु, शास्त्र ही एक मात्र संसार के दु:खों से बचाने वाले हैं, वे ही एक मात्र शरण भूत है ऐसा विचार करना चाहिए। 3. संसार अनुप्रेक्षा - अज्ञान के कारण यह प्राणी द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और भव रूप पंचपरिवर्तन कर रहा हैं। नरक गति में यह जीव निरंतर भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी, शस्त्र घात आदि के कष्टों को सहन करता है। तिर्यञ्च गति में यह जीव छेदा भेदा जाना, बोझा ढोना, एक स्थान पर बंधे रहना इत्यादि अकथनीय सैकड़ों दु:खों को, कष्टों को सहन करता है। मनुष्य गति में इष्ट पुत्रादि के वियोग से उत्पन्न दु:ख, संतान का नहीं होना, खोटा पुत्र, कलह कारिणी स्त्री, धनहीनता, विकलांगता आदि नाना दु:खों को भोगता है। देवगति में इंद्रिय भोगों से तृप्त न होता हुआ, दूसरों देवों के वैभव से इष्य करता हुआ, मरण समय के पूर्व माला मुरझाने पर पीड़ा का अनुभव करता हुआ दु:खी होता है। भावना का फल - अत: इस संसार में वास्तव में कहीं सुख नहीं है, मोह के कारण यह जीव विषय-भोग से उत्पन्न पीड़ा को ही सुख मान लेता है। ऐसा बार-बार चिंतन करता हुआ जीव सांसारिक विषय भोगों से उदासीन होता हुआ, सच्चे धर्म में प्रवृत्ति करता है। 4. एकत्व भावना - यह जीव अकेला ही जन्मता और मरता है, अकेला ही सारे पुण्य-पाप के फलों को भोगता है, जन्म से साथ रहने वाला शरीर भी अंत समय में यहीं छूट जाता है। यहाँ कोई भी जीवन भर साथ नहीं निभाता, थोड़े दिनों के ये सभी स्वार्थवश साथी बने हुए हैं, परगति को जाते समय कोई भी साथ नहीं जाता है। भावना का फल - ऐसा विचार करता हुआ जीव स्त्री-पुत्रादि से राग भाव को कम करता है, उनके संयोग-वियोग में विशेष हर्ष-विषाद नहीं करता हुआ अपने स्वरूप का विचार करता है। पर निमित से अपने परिणामों को नहीं बिगाड़ता हुआ एकत्व/ आत्म तत्व की आराधना करता है। 5. अन्यत्व अनुप्रेक्षा - मेरा यह परिवार, शरीर, मकान आदि वैभव ये सब मुझसे अत्यन्त भिन्न/अलग है। मैं चेतन स्वभाव वाला ज्ञानी हूँ अन्य सब पुद्गल जड़ स्वभाव वाले, अज्ञानी हैं। इस प्रकार चिंतन करने से शरीरादि से राग भाव कम होता, पर के वियोग से उत्पन्न तनाव कम होता है, क्योंकि जो अपना है ही नहीं उसके अभाव में क्यों दु:खी होना। 6. अशुचि अनुप्रेक्षा - यह शरीर अत्यन्त अपवित्र है, गंदा है, घिनावने पदार्थ मल-मूत्र, पीव खून आदि को उत्पन्न करने वाला है, शुक्र शोणित से बना हुआ है। दुर्जन के समान स्वभाव वाले इस शरीर से मूर्ख लोग ही प्रीति रखते है। इस प्रकार अशुचि भावना का चिंतन करने पर शरीर के प्रति राग भाव कम होता है, विषय-वासनाओं से मन दूर हट जाता हैं, रूप, बलादि का मद उत्पन्न नहीं होता हैं। रत्नत्रय के प्रति प्रीती उत्पन्न होती है। 7. आस्त्रव अनुप्रेक्षा - कर्मों का आना आस्रव है। पाँच मिथ्यात्व, बारह अविरति, पन्द्रह योग और पच्चीस कषाय मुख्य रूप से आस्रव के कारण हैं। आस्रव इहलोक और परलोक दोनो में दु:खदायी है, इस प्रकार आस्रव के दोषों का चिंतन करना चाहिए। अत: कछुए के समान इंद्रिय को वश में रखना चाहिए। समता भाव धारण कर, मोह-आकुलता का त्याग करना चाहिए। 8. संवर अनुप्रेक्षा - कर्म जिस द्वार से आ रहे है, उस द्वार को बंद कर देना सो संवर है। आत्म उत्थान के हेतु पाँच महाव्रत, पाँच समिती, तीन गुप्ति, दस प्रकार के धर्म का पालन करना चाहिए एवं बाबीस परीषह सहन करना चाहिए। बारह भावनाओं का निरन्तर चिंतन करना चाहिए। यह संवर ही स्वर्ग एवं मोक्ष को देने वाला है, संवर सहित तप ही मुक्ति का कारण है। ऐसा विचार कर मोक्ष पुरुषार्थ में मन को स्थिर करना चाहिए। 9. निर्जरा अनुप्रेक्षा - आत्मा के साथ बंधे हुए कर्मों का एक देश झड़ना, थोड़ा-थोड़ा अलग होना निर्जरा है। वह निर्जरा दो प्रकार की है :- सविपाक निर्जरा और अविपाक निर्जरा। पहली निर्जरा चारों गतियों में जीवों के कर्मोदय होने पर होती है, इससे मोक्षामार्ग संबंधी कोई कार्य संभव नहीं। दूसरी अविपाक निर्जरा से ही संसार परिभ्रमण मिटता है एवं मोक्ष दशा प्राप्त होती है। इस प्रकार निर्जरा भावना का चिंतन करते हुए कर्म निर्जरा हेतु उद्यम करना चाहिए। 10. लोक भावना - चौदह राजू प्रमाण ऊँचा पुरुषाकार यह लोक है जिसमें जीवादि छह द्रव्य रहते हैं, इसकी लम्बाई - चौड़ाई आकार आदि के विषय में चिंतन करना लोक भावना है। चतुर्गति युक्त यह लोक एक मात्र दु:ख का हेतु होने के कारण छोड़ने योग्य है ऐसा विचार करते हुए निज स्वरूप में लीन होना चाहिए। 11. बोधि दुर्लभ भावना - मोक्ष सुख के साधन भूत रत्नत्रय (सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्रचारित्र) का प्राप्त होना बोधि कहलाता है, इस बोधि की दुर्लभता के विषय में चिंतन करना बोधि दुर्लभ अनुप्रेक्षा है। तप की भावना, समाधि मरण और अंत में मोक्ष सुख की उपलब्धि अत्यन्त दुर्लभ है। ऐसा चिंतन करते हुए प्राप्त अवस्था की दुर्लभता को समझते हुए आगे-आगे पुरुषार्थ करना चाहिए। 12. धर्म अनुप्रेक्षा - संसारी प्राणियों को दु:ख से उठाकर, उत्तम सुख में जो धरता है, उसे धर्म कहते हैं। इस संसार में धर्म को छोड़कर अन्य कोई सच्चा मित्र नहीं है, धर्म की आराधना से ही दु:खों से छुटकारा, मोक्ष सुख की प्राप्ति संभव है। अत: ऐसा चिंतन करते हुए पाप कार्यों को छोड़ना चाहिए एवं धर्म में बुद्धि लगाना चाहिए। संस्मरण - चित्र की सीख चित्र यदि सही-सही आकार प्रकार ले लेता है, तो चित्त के परिवर्तन का कारण बन सकता है। चित्त का परिवर्तन ही जीवन की सही चित्रकारी है जब बालक विद्याधर स्कूल में पढ़ते थे, उस समय वे चित्रकला भी सीखा करते थे। तब चित्र बनाना तो पूरा आता था, लेकिन नाक का नक्सा बिगड़ जाता था बचपन के चित्रकार आचार्य विद्यासागर जी महाराज आज वीतरागता के चलते फिरते जीवंत तीर्थ का निर्माण कर रहे हैं। जो जिनशासन की न केवल नाक अपितु संपूर्ण अंगों की बेहतर चित्रकारी कर दिगदिगन्त तक प्रभावना कर रहे हैं।
  11. दिगम्बर आम्नाय के प्रधान आचार्य, कलिकाल सर्वज्ञ, परम आध्यात्मिक संत कुन्दकुन्द स्वामि हुए जिनके विषय में विद्वानों ने सर्वाधिक खोजकी, जिनमें मुख्य विवरण इस प्रकार है। आप द्रविड़ देशस्थ कौण्डकुण्डपुर ग्राम के निवासी थे इस कारण कोण्डकुण्ड अथवा कुन्दकुन्द नाम से प्रसिद्ध हुए। कुन्दकुन्दाचार्य के अन्य चार नाम पद्मनन्दि, वक्रग्रीवाचार्य, ऐलाचार्य व गृद्धपिच्छाचार्य थे। आचार्य कुन्दकुन्द का काल लगभग अठारह सौ वर्ष (१८००) पूर्व विक्रम संवत् १३८ - २२२ के मध्य माना गया है। आप श्री जिनचन्द्र के शिष्य तथा उमास्वामी के गुरु थे। आचार्य कुन्दकुन्द के पास चारण ऋद्धि थी। वे धरती से चार अंगुल ऊपर गमन करते थे तथा उन्होंने विदेह क्षेत्र स्थित सीमंधर केवली (तीर्थकर) की साक्षात् वंदना की व उपदेश सुने। विदेह क्षेत्र से लौटते हुए आचार्य श्री की पिच्छिका मार्ग में ही गिर पड़ी तब उन्होंने गृद्ध पक्षी के पंखों की पिच्छिका धारण की। तबसे आप गृद्धपिच्छिकाचार्य के नाम से प्रसिद्ध हुए। विदेह क्षेत्र से लौट आने पर आचार्य महोदय सिद्धान्त के अध्ययन में, लेखन में इतने तन्मय हो गये कि उन्हें अपने शरीर का भी ध्यान नहीं रहा। गर्दन झुकाए हुए अध्ययन की उत्कटता के कारण उनकी गर्दन टेढ़ी पड़ गई और लोग उन्हें वक्रग्रीवाचार्य के नाम से संबोधित करने लगे। जब उन्हें अपनी इस अवस्था का ज्ञान हुआ तब अपने योग साधना के द्वारा उन्होने अपनी ग्रीवा ठीक कर ली थी। आचार्य कुन्दकुन्द ने चौरासी पाहुड की रचना की थी, जिनमें बारह उपलब्ध है। समयसार, प्रवचनसार, नियमसार, पञ्चास्तिकाय, दर्शन पाहुड़ आदि से सहित अष्टपाहुड़ बारसाणुवेक्खा, सिद्ध, सुद, आइरिय, जोई, णिव्वाण, पंचगुरु और तित्थयर भक्ति ये सभी प्राकृत भाषा की रचनाएँ है एवं षट्खण्डागम ग्रन्थ पर परिकर्म नाम से बारह हजार श्लोक प्रमाण व्याख्या लिखि गई जो अनुपलब्ध है। प्राकृत भाषा के अतिरिक्त तमिल भाषा पर भी आचार्य श्री का अधिकार था। तमिल भाषा में आपकी सर्वमान्य रचना 'कुरल काव्य' के नाम से प्रसिद्ध है यह अध्यात्म, नीति का सुंदर ग्रन्थ है। दक्षिण देश में यह तमिल वेद के नाम से प्रसिद्ध हैं। एक बार कुन्दकुन्दाचार्य अपने विशाल संघ (५९४ साधु) सहित गिरनार यात्रा को पहुंचे। उसी समय शुक्लाचार्य के नेतृत्व में श्वेताम्बर संघ भी पहुँचा। श्वेताम्बर आचार्य अपने को प्राचीन मानते थे और चाहते थे कि पहले हमारा संघ यात्रा करें। शास्त्रार्थ के द्वारा निर्णय न होने पर संघ समूह ने निर्णय लिया कि इस पर्वत की रक्षिका देवी जो निर्णय देवी को आमंत्रित किया, उसने दिगम्बर सांप्रदाय की प्राचीनता सिद्ध की। सभी ने उनके निर्णय को स्वीकारा और दिगम्बर संघ ने सर्वप्रथम यात्रा की।
  12. जैन श्रावक की पहचान के तीन चिह्न कहे गये हैं। उसमें सर्वप्रथम प्रतिदिन देव दर्शन, दूसरा रात्रि भोजन त्याग और तीसरा छान कर पानी पीना है। रात्रि भोजन त्याग का अर्थ – सूर्य अस्त होने के पश्चात् चारों प्रकार के आहार (भोजन) का त्याग करना है। वे चार प्रकार के आहार- खाद्य - दाल, रोटी भात आदि। स्वाद - इलायची, लौंग, सौंफ आदि। लेय - रवड़ी, लपसी, दही आदि। पेय - जल, रस, दूध आदि। जो श्रावक रात्रि में चारों प्रकार के आहार का त्याग करता है उसे एक वर्ष में छह महीने के उपवास का फल मिलता है। दिन का बना भोजन रात में करने से अथवा रात में बना भोजन रात में करने से रात्रि भोजन का दोष तो लगता ही है किन्तु रात में बना भोजन दिन में करने से भी रात्रि भोजन का दोष लगता है। वैज्ञानिकों के अनुसार - सूर्य के प्रकाश में अल्ट्रावायलेट और इन्फ्रारेड नाम की अदृश्य किरणें होती हैं। इन किरणों के धरती पर पड़ते ही अनेक सूक्ष्म जीव यहाँ - वहाँ भाग जाते हैं अथवा उत्पन्न ही नहीं होते, किन्तु सूर्य अस्त होते ही वे कीटाणु बाहर निकल आते हैं, उत्पन्न हो जाते हैं। रात्रि में भोजन करने पर वे असंख्यात सूक्ष्म त्रस जीव जो भोजन में मिल गए थे मरण को प्राप्त हो जाते हैं अथवा पेट में पहुँचकर अनेक रोगों को जन्म देते हैं। चिकित्सा शास्त्रियों का अभिमत है कि कम से कम सोने से तीन घंटे पूर्व तक भोजन कर लेना चाहिए। रात्रि में भोजन करते समय यदि चींटी पेट में चले जाये तो बुद्धि नष्ट हो जाती है, जुआ से जलोदर रोग उत्पन्न हो जाता हैं, मक्खी से वमन हो जाता है, मकड़ी से कुष्ट रोग उत्पन्न हो जाता है तथा बाल गले में जाने से स्वर भंग एवं कंटक आदि से कण्ठ में (गले में)पीड़ा आदि अनेक रोग उत्पन्न हो जाते है। अत: स्वास्थ्य की रक्षा हेतु भी रात्रि भोजन का त्याग अनिवार्य है। धार्मिक दृष्टिकोण - रात्रि में बल्व आदि का प्रकाश होने पर भी जीव हिंसा के दोष से बच नहीं सकते, बरसात के दिनों में साक्षात् देखने में आता है कि रात्रि में बल्व जलाते ही सैकड़ों कीट - पंतगे उत्पन्न हो जाते हैं, जो कि दिन में बल्व (लट्टू)जलाने पर उत्पन्न नहीं होते। सूक्ष्म जीव तो देखने में ही नहीं आते। तथा रात्रि के अंधकार में भोजन करने पर सैकड़ों जीवों का घात होना संभव हैं अत: धर्म, स्वास्थ्य तथा कुल परम्परा की रक्षा हेतु रात्रि भोजन का त्याग नियम से करना चाहिए। रात्रि भोजन से उत्पन्न पाप के फलस्वरूप जीव उल्लू, कौआ, विलाव, गृद्ध पक्षी, सूकर, गोह आदि अत्यन्त पाप रूप अवस्था दुर्गति को प्राप्त होता है तथा मनुष्य अत्यन्त विद्रुप शरीर वाला, विकलांग, अल्पायु वाला और रोगी होता है एवं भाग्य हीन, आदर हीन होता हुआ नीच कुलों में उत्पन्न होकर अनेक दु:खों को भोगता है। जल गालन - जल स्वयं जलकायिक एकेन्द्रिय जीव है एवं उस जल में अनेक त्रस जीव पाए जाते हैं। वे इतने सूक्ष्म होते हैं कि नग्न आँखों से दिखाई नहीं पड़ते। वैज्ञानिकों ने सूक्ष्मदर्शी यंत्रों की सहायता से देखकर एक बूंद जल में 36,450 जीव बताए हैं। जैन ग्रंथों के अनुसार उक्त जीवों की संख्या काफी अधिक (असंख्यात) है। ऐसा कहा जाता है कि एक जल की बूंद में इतने जीव पाए जाते हैं कि वे यदि कबूतर की तरह उड़े तो पूरे जम्बूद्वीप को व्याप्त कर लें। उक्त जीवों के बचाव के लिए पानी छानकर ही पीना चाहिए। जल को अत्यन्त गाढ़े (जिससे सूर्य का विम्ब न दिखे) वस्त्र को दुहरा करके छानना चाहिए। छन्ने की लंबाई, चौड़ाई से डेढ़ गुनी होनी चाहिए। छना हुआ जल एक मुहूर्त (४८ मिनट) तक, सामान्य गर्म जल छह (६) घंटे तक तथा पूर्णत: उबला जल चौबीस (२४) घंटे तक उपयोग करना चाहिए। इसके बाद उसमें त्रस जीवों की पुन: उत्पत्ति की संभावना रहने से उनकी हिंसा का दोष लगता हैं। छने हुए जल में लौंग, इलायची आदि पर्याप्त मात्रा में (जिससे पानी का स्वाद व रंग परिवर्तित हो जाए) डालने पर वह पानी प्रासुक हो जाता है एवं उसकी मर्यादा छह घंटे की मानी गई हैं।
  13. मनुष्यादि प्राणियों को किसने बनाया ? ये कब से हैं और कब तक रहेंगे ? इत्यादि प्रश्नों के समाधान हेतु अनके दर्शन व मत हमारे सामने हैं। कुछ दर्शनकार कहते हैं ब्रह्मा नाम वाले ईश्वर ने मनुष्यादि प्राणियों की रचना की। कुछ कहते हैं पृथ्वी आदि पंचभूतों से मिलकर जीव की रचना होती है और पंचभूतों के पृथक – पृथक होने पर जीव नष्ट हो जाता है। कुछ वैज्ञानिक मनुष्य को बंदर का ही सुधरा हुआ रूप मानते हैं अर्थात् लाखों वर्ष पूर्व मनुष्य बंदर ही था धीरे-धीरे वह मनुष्य बन गया।उपरोक्त मान्यताएं अज्ञानियों द्वारा प्रचलित होने से असत्य ही हैं। वास्तव में सृष्टि के सभी प्राणी अनादि काल से हैं और आगे अनन्त काल तक रहेंगे, उन्हें कोई बना नहीं सकता और न ही कोई नष्ट कर सकता है। क्योंकि सत्ता का कभी उत्पादन तथा नाश नहीं होता। मनुष्यादि पर्यायें हैं, जो बदलती रहती हैं जैसे मनुष्य मर कर बंदर हो सकता है हाथी हो सकता है, बंदर मरकर मनुष्य हो सकता है इत्यादि। कालक्रम के परिवर्तन के अनुसार उनकी उम्र, लंबाई, चौड़ाई, आहारादि में परिवर्तन देखा जाता है। भरत और ऐरावत क्षेत्र में काल-परिवर्तन उत्सर्पिणी काल एवं अवसर्पिणी काल के रूप में होता है। जिसमें जीवों की आयु, बल, बुद्धि तथा शरीर की अवगाहना आदि में क्रम से वृद्धि होती रहे उसे उत्सर्पिणी काल कहते हैं। इसके छह भेद हैं१. दुषमा दुषमा काल, २. दुषमाकाल, ३. दुषमा सुखमा काल, ४. सुषमा दुषमाकाल, ५. सुषमा काल, ६. सुषमा-सुषमा काल। जिसमें जीवों की आयु, बल, बुद्धि और शरीर की अवगाहना आदि में क्रम से हानि होती रहे वह अवसर्पिणी काल है। इसके छह भेद है - १. सुषमा–सुषमा काल, २. सुषमा काल ३. सुषमा–दुषमा काल ४. दुषमा–सुषमा काल ५. दुषमा काल ६. दुषमा - दुषमा काल। दस कोड़ा - कोड़ी सागर का उत्सर्पिणी और इतने ही वर्षों का अवसर्पिणी काल होता है। दोनों ही मिलकर बीस कोड़ाकोड़ी सागर का एक कल्प काल होता है। वर्तमान में जहाँ हम रह रहे हैं वह भरत क्षेत्र है यहाँ पर अभी अवसर्पिणी काल चल रहा है। यहाँ पर हुए/ हो रहे परिवर्तन को हम केवली भगवान द्वारा कहे गये वचनों के अनुसार समझने का प्रयास करेंगे। सुषमा - सुषमा काल अवसर्पिणी का यह प्रथम काल है, इस काल में सुख ही सुख होता है यह काल भोग प्रधान होता है, इसे उत्कृष्ट भोगभूमि का काल भी कहते हैं। नर-नारी युगल (जोड़ के) के रूप में जन्म लेते हैं।इस युगल के जन्म लेते ही पुरुष (पिता) को छींक एवं स्त्री (माता) को जंभाई जाती है। जिससे दोनों का मरण हो जाता है एवं शरीर कपूरवत् उड़ जाता है। जन्म लेने वाले युगल शिशुओं का शय्या में अगूठा चूसते तीन दिन, उपवेशन (बैठना सीखने) में तीन दिन, अस्थिर गमन में तीन दिन, स्थिर गमन में तीन दिन, कला गुण प्राप्ति में तीन दिन, तारुण्य में तीन दिन और सम्यक्र ग्रहण की योग्यता में तीन दिन इस प्रकार कुल इक्कीस(२१) दिनों का काल जन्म से पूर्ण वृद्धि होते हुए व्यतीत होता है। इनका व्यवहार आपस में पति-पत्नी के समान ही होता है। मनुष्य अक्षर, गणित, चित्र, शिल्पादि चौसठ कलाओं में स्वभाव से ही अतिशय निपुण होते हैं। मनुष्यों में नौ हजार हाथियों के बराबर बल पाया जाता है। इनका अकाल मरण नहीं होता है। ये विक्रिया से अनेक रूप बना सकते हैं। मनुष्यों के शरीर की ऊँचाई ६००० धनुष प्रमाण होती है शरीर स्वर्ण के समान कांतिवाला, मल-मूत्रादि से रहित होता है। सभी मनुष्य एवं तिर्यच्चों का शरीर समचतुरस्र संस्थान वाला एवं वज़वृषभ नाराच संहनन वाला होता है। इस काल के जीव अत्यन्त अल्पाहारी होते हैं। तीन दिन के अनशन के बाद चौथे दिन हरड़ अथवा बेर के बराबर आहार ग्रहण करते हैं। इन जीवों की उत्कृष्ट आयु तीन पल्य (असंख्यात वर्ष) प्रमाण होती है। इस प्रकार की स्थिति वाला चार कोड़ा - कोड़ी सागर प्रमाण यह प्रथमकाल व्यतीत होता है इसके बाद अवसर्पिणी का द्वितीय काल प्रारम्भ होता है। सुषमा - काल प्रथम काल की अपेक्षा इस काल में सुख, आयु, शक्ति, अवगाहना आदि की हीनता पाई जाती है इसे मध्यम भोग-भूमि का काल माना गया है। इस काल में उत्पन्न युगलों का पाँच-पाँच दिन अमूँठा चूसने आदि में व्यतीत होने पर कुल पैंतीस (३५) दिन पूर्ण वृद्धि होने में लगता है। मनुष्यों की उत्कृष्ट ऊँचाई घटकर चार हजार धनुष प्रमाण ही बचती है। शरीर का वर्ण शंख के समान श्वेत होता है एवं उत्कृष्ट आयु दो पल्य प्रमाण होती है। इस काल में जीव दो दिन के बाद बहेड़ा के बराबर आहार ग्रहण करते हैं यह आहार अमृतमय होता है। इस प्रकार तीन कोड़ा-कोड़ी सागर प्रमाण वाला द्वितीय काल व्यतीत होता है। उत्सेध आदि के क्षीण होते-होते तीसरा सुषमादुषमा काल प्रवेश करता है। सुषमा - दुःषमा काल द्वितीय काल की अपेक्षा इस काल में सुख आदि की हीनता पाई जाती है इसे जघन्य भोग भूमि का काल कहा जाता है। इस काल में उत्पन्न युगल सात-सात दिन उपवेशन आदि क्रिया में व्यतीत करते हुए उनचास (४९) दिन में पूर्ण युवास्था को प्राप्त हो जाते हैं। मनुष्य के शरीर की ऊँचाई २००० धनुष प्रमाण तथा शरीर नील कमल के समान वर्ण वाला होता है। मनुष्यों एवं तिर्यञ्चों की उत्कृष्ट आयु १ पल्य एवं आहार एक दिन के बाद आँवले के बराबर होता है। कुछ कम पल्य के आठवें भाग प्रमाण तृतीय काल के शेष रहने पर प्रथम कुलकर उत्पन्न होता है फिर क्रमश: चौदह कुलकर उत्पन्न होते हैं। जिनके द्वारा कर्मभूमि की व्यवस्था की जाती है। इस काल का शेष वर्णन प्रथम-द्वितीय काल के सदृश्य ही जानना चाहिए। इस प्रकार दो कोड़ा-कोड़ी सागर वाला तृतीय काल व्यतीत होने पर सम्पूर्ण लोक प्रसिद्ध त्रेसठ शलाका पुरुषों के जन्म योग्य चतुर्थ काल प्रवेश करता है। दुषमा – सुषमा काल काल के ह्रास क्रम से भोग भूमि का समापन तथा कर्म भूमि का प्रारंभ इस दुषमा-सुषमा काल से हो जाता है इस काल में विशेष रूप से निम्न परिवर्तन देखा जाता है - यह काल कर्म प्रधान होता है। कल्पवृक्ष समाप्त हो जाते हैं, असि मसि, कृषि, शिल्प, विद्या और वाणिज्य इन षट्कर्मों के द्वारा मनुष्य अपनी आजीविका चलाते हैं। सामाजिक व्यवस्थाएं विवाह संस्कार आदि प्रारंभ हो जाते हैं। बालक-बालिकाओं का पृथक-पृथक जन्म होने लगता है, माता-पिता उनका पालन पोषण करते हैं। यथा योग्य काल में बच्चे वृद्धि को प्राप्त होते हैं। उनका व्यवहार आपस में भाई-बहन के समान होता है। सभी शलाका पुरुष (तीर्थकर आदि) एवं महापुरुष (कामदेव आदि) इसी काल में उत्पन्न होते हैं। मनुष्यों के शरीर की उत्कृष्ट ऊँचाई पाँच सौ अथवा पाँच सौ पच्चीस धनुष प्रमाण होती है। मनुष्य प्रतिदिन कवलाहार करते हैं, इस काल में मनुष्य एवं तिर्यच्चों की उत्कृष्ट आयु एक पूर्व कोटि की होती है। दु:ख की अधिकता और सुख की अल्पता के कारण यह काल दुषमा-सुषमा कहलाता है। इस प्रकार ब्यालीस हजार वर्ष कम एक कोड़ा-कोड़ी सागर प्रमाण वाला यह चतुर्थ काल व्यतीत होता है। इसके बाद आयु, शक्ति, बुद्धि आदि की हानि के क्रम से पंचम दुषमा काल प्रारंभ होता है। दुषमा काल भगवान महावीर के मोक्षगमन के पश्चात् तीन वर्ष आठ माह पंद्रह दिन पूर्ण होने पर दुषमा नामक पंचमकाल प्रवेश करता है इस काल में प्राय: दु:ख ही मिलता है। अभी हुण्डा अवर्पिणी काल का पाँचवा दुषमा काल चल रहा है। इस काल में निम्नलिखित परिवर्तन होते हैं। इस काल में मनुष्य हीन संहनन धारी, मंद बुद्धि एवं वक्र (कुटिल) परिणामी होवेंगे। मनुष्यों की उत्कृष्ट आयु एक सौ बीस वर्ष एवं शरीर की उत्कृष्ट ऊँचाई सात हाथ होगी। अंतिम कल्की द्वारा मुनिराज से शुल्क स्वरूप आहार के समय प्रथम ग्रास मांगने पर अन्तराय करके तथा पंचमकाल का अन्त आने वाला है ऐसा जानकर वे मुनिराज सल्लेखना ग्रहण करेंगे। उस समय वीरागंज नामक मुनि, सर्वश्री नामक आर्यिका तथा अग्निदत एवं पंगुश्री नामक श्रावक-श्राविका होंगे। ये चारों ही सल्लेखना धारण कर स्वर्ग में देव होंगे। उस दिन क्रोध को प्राप्त हो असुर देव कल्की को मार देता है, सूर्यास्त के समय अग्नि नष्ट हो जावेंगी। अर्थात् पूर्वाहण में धर्म का नाश, मध्याहण में राजा का नाश एवं अपराहण में अग्नि नष्ट हो जाती है। इस प्रकार धर्म के पूर्ण नाश के साथ ही २१ हजार वर्ष प्रमाण वाला यह पंचम काल समाप्त हो जावेगा। इसके पश्चात् अत्यन्त दु:ख पूर्ण छटवा दुषमा-दुषमा काल प्रारंभ होवेगा। दुषमा-दुषमा काल पंचम काल के व्यतीत होने पर अत्यन्त दुःखप्रद, नरक तुल्य, छटवाँ काल प्रारंभ होवेगा। इस काल में मनुष्यों की निम्नलिखित स्थिती होवेगी । मनुष्य धर्म-कर्म से भ्रष्ट, पशुवत् आचरण करने वाले होवेंगे। वे नग्न रहेंगे और वनों में विचरण करेंगे। बंदर जैसे रूप वाले, कुबड़े, काने, दरिद्र, अनेक रोगों से सहित, अति कषाय युक्त, दुर्गन्धित शरीर वाले होंगे। इनके शरीर का वर्ण धूम्र के समान काला होगा एवं शरीर की ऊँचाई उत्कृष्ट तीन हाथ एवं कम होते-होते एक हाथ हो जावेगी। आयु अधिकतम बीस वर्ष होवेगी। इस काल में मनुष्य नरक और तिर्यञ्च गति से ही आकर पश्चात् मरकर वही पहुचेंगे। इस प्रकार धर्म-कर्म एवं मानवीय सभ्यता का ह्रास होते-होते जब इस छटवे काल के मात्र ४९ दिन शेष बचेंगे तब जन्तुओं को भयदायक घोर प्रलय होगा। यही पर अवसर्पिणी काल का अन्त हो जावेगा। इसके पश्चात् उत्सर्पिणी काल का प्रारंभ होता है। विशाल अवगाहना के प्रमाण पूर्व काल में मनुष्य एवं तिर्यञ्चों की विशाल अवगाहना की सिद्धी हेतु कुछ तर्क व प्रमाण इस प्रकार है। राष्ट्रीय समुद्र विज्ञान संस्थान के पुरातत्व विभाग की खोज के अनुसार समुद्र में डूबी द्वारिका के मकानों की ऊँचाई २०० से ६०० मीटर तक है एवं इनके कमरो के दरवाजे ३० मीटर (लगभग १०० फुट) ऊँचे है। इससे सिद्ध होता है कि उसमें रहने वाले मनुष्य ५०-६० फुट ऊँचे होंगे ही, जैन शास्त्रों के अनुसार भ. नेमिनाथ की अवगाहना १० धनुष = ६० फीट थी। ज्ञात जानकारी के अनुसार मास्कों के म्यूजियम में २-३ लाख वर्ष पुराना नरकंकाल रखा है जिसकी ऊँचाई २३ फुट है एवं बड़ोदा (गुजरात) के म्यूजियम में एक छिपकली अस्थिपंजर रखा है जो १०-१२ फीट लम्बा है। फ्लोरिडा मे दस लाख वर्ष पुराना एक बिल्ली का धड़ मिला है जिसमें बिल्ली के दाँत सात इंच लम्बे हैं। रोम के पास कैसल दी गुड्डों में तीन लाख साल पुरानी हाथियों की हड्डी मिली है। इनमें से कुछ हाथी दाँत १० फुट की लंबाई के है। अत: विचारणीय है कि जब हाथी का दाँत 10 फुट लम्बा तो हाथी कितना लंबा हो सकता है। विशेष जानकारी हेतु गूगल पर 'स्केलेटन' सर्च करें पात्र के भेद पात्र के तीन भेद हैं- १. सुपात्र २. कुपात्र ३. अपात्र सुपात्र - सम्यक दर्शन एवं व्रतों से सहित। कुपात्र - सम्यक दर्शन से रहित एवं व्रतों से सहित। अपात्र - सम्यक दर्शन एवं व्रतों से रहित। सुपात्र के तीन भेद हैं - उत्तम सुपात्र - भावलिंग-द्रव्यलिंग से सहित रत्नत्रयधारी मुनि। मध्यम सुपात्र – सम्यक्त्व सहित प्रतिमाधारी श्रावक, आर्यिका। जघन्य सुपात्र - सम्यक्त्व सहित अव्रती श्रावक।
  14. जैन शासन में ऐसे अनेक कवि और लेखक हुए हैं, जो श्रावक पद का अनुसरण करते हुए राष्ट्रीय, सांस्कृतिक, जातीय एवं आध्यात्मिक भावनाओं की अभिव्यक्ति में पूर्ण सफल हुए। जिन तथ्य या सिद्धान्तों को श्रुतधर, सारस्वत, प्रबुद्ध और परम्परा पोषक आचार्यों ने आगमिक शैली में विवेचित किया है, उन तथ्य या सिद्धान्तों की न्यूनाधिक रूप में अभिव्यक्ति कवि और लेखकों द्वारा भी की गई है। अत: कुछ विद्वानों के व्यक्तित्व एवं कृतित्व को इस लेख में प्रस्तुत किया जा रहा है। महाकवि धनञ्जय ईसा की सातवी-आठवी शताब्दी के लगभग (१२०० वर्ष पूर्व) द्विसंधान महाकाव्य के प्रणेता परम जैन कविराज धनऊजय का जन्म हुआ था। इनकी माता का नाम श्री देवी, पिता का नाम वसुदेव तथा गुरु का नाम दशरथ माना गया है। जीवन की प्रमुख घटना - जिस समय आपके इकलौते पुत्र को सर्प ने डस लिया था, उस समय आप जिन-पूजा में लीन थे। घर से समाचार आने पर भी आप जिन-पूजा में लीन रहे। तब धर्मपत्नि ने मूच्छित पुत्र को लाकर पति से सामने डाल दिया। पूजा से निवृत होकर, जिन-भक्ति के प्रभाव स्वरूप, तत्काल विषापहार स्तोत्र की रचना प्रारंभ की, रचना पूर्ण होते-होते पुत्र के शरीर का विष पूर्णत: उतर गया और वह निर्विष होकर खड़ा हो गया। चारों ओर जैन धर्म की जय-जयकार गूंज उठी तथा धर्म की अभूतपूर्व प्रभावना हुई। आपने द्विसन्धान महाकाव्य, विषापहार स्तोत्र एवं धनञ्जय नाममाला ऐसे प्रधानत: तीन ग्रंथ संस्कृत भाषा में लिखे। महाकवि आशाधर जी ईसा की तेरहवीं शताब्दी के लगभग (७०० वर्ष पूर्व), वि.स. १२३०-३६ के लगभग दिगम्बर जैन परम्परा में संस्कृत भाषा के अद्वितीय विद्वान प. आशाधर जी का जन्म हुआ था। आप माण्डलगढ़ (मेबाड़) के मूल निवासी थे। इनके पिता का नाम सल्लक्षण एवं माता का नाम श्रीरत्नी था। आशाधर जी का अध्ययन बड़ा ही विशाल था। इनके विद्यागुरु प्रसिद्ध विद्वान पण्डित महावीर थे। वे जैनाचार, आध्यात्म, दर्शन, काव्य, साहित्य, कोष, राजनीति, कामशास्त्र, आयुर्वेद आदि सभी विषयों के प्रकाण्ड विद्वान पण्डित थे। स्वयं गृहस्थ रहने पर भी बड़े-बड़े मुनि और भट्टारकों ने इनका ज्ञान की अपेक्षा शिष्यत्व स्वीकार किया था। पण्डित आशाधर जी के तीन ग्रन्थ मुख्य हैं और सर्वत्र पाये जाते हैं। जिनयज्ञ कल्प, सागार धर्मामृत और अनगार धार्ममृत। महाकवि बनारसी दास ईसा की सोलहवी शताब्दी (४०० वर्ष पूर्व) संवत् १६४३ में हिन्दी साहित्य के महाकवि बनारसी दास जी का जन्म एक धनी परिवार में हुआ था। इनके पिता खड़गसेन जवाहारात के व्यापारी थे। पुत्र के जन्म का नाम विक्रमाजीत था, काशी के पण्डित ने उनका नाम बनारसी दास रखा। कवि जन्मना श्वेताम्ब - साम्प्रदाय के अनुयायी थे। आध्यात्म ग्रंथ समयसार एवं गोमटसार ग्रन्थ को पढ़कर व सुनकर बनारसी दास जी दिगम्बर साम्प्रदाय के अनुयायी बन गये। बनारसी दास जी के नाम से निम्नलिखित रचनाएं प्रचलित है। नाममाला,समयसार नाटक, बनारसा विलास, अद्धकथानक, महााववक युद्ध, नवरस पद्यावला। प. टोडरमल आचार्य कल्प प. टोडरमल जी का जन्म वि.स. १७९७ को जयपुर में हुआ था। पिता का नाम जोगीदास और माता का नाम रमा या लक्ष्मी था। इनके गुरु का नाम बंशीधर जी मैनपुरी बतलाया जाता है। टोडरमल जी बाल्यकाल से ही प्रतिभाशाली थे, गुरु जी इन्हे स्वयंबुद्ध कहते थे। वे व्याकरण के सूत्रों को गुरु से भी स्पष्ट व्याख्या करके सुनाते थे। छह माह में ही इन्होंने जैनेन्द्र व्याकरण को पूर्ण कर लिया था। टोडरमल जी की कुल ११ रचनाएं है। जिनमें सात टीका ग्रन्थ और चार मौलिक ग्रन्थ है। मौलिक ग्रन्थ १. मोक्षमार्ग प्रकाशक, २. आध्यात्मिक पत्र, ३. अर्थ संदृष्टि, ४. गोम्मट सार पूजा टीका ग्रन्थ:- गोम्मट सार(जीवकाण्ड) गोम्मट सार (कर्मकाण्ड) लब्धिसार टीका क्षपणासार वचनिका त्रिलोकसार टीका आत्मानुशासन (वचनिका) पुरुषार्थ सिद्ध्युपाय - इस ग्रन्थ की टीका अधूरी रह गई थी जिसे पण्डित दौलतराम कासलीवाल जी ने पूर्ण की।
  15. सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान, सम्यक चरित्र ये तीनों रत्नत्रय कहे जाते हैं। सम्यक दर्शन का लक्षण व भेद :- सच्चे श्रद्धान (विश्वास या यकीन ) को सम्यक दर्शन कहते हैं। निश्चय सम्यक दर्शनऔर व्यवहार सम्यक दर्शन ये दो सम्यक दर्शन के भेद हैं। आत्मा का जैसा का तैसा परद्रव्यों से भिन्न श्रद्धान (विश्वास) निश्चय सम्यक दर्शन कहलाता है। सच्चे देव-शास्त्र-गुरु, दयामय धर्म और सातों तत्वों का सच्चे दिल से यथार्थ श्रद्धान करना व्यवहार सम्यक दर्शन कहलाता है। सम्यक दर्शन की उत्पत्ति और आवश्यकता :- सम्यक दर्शन धर्मरूपी पेड़ की जड़ है। जड़ के बिना पेड़ नहीं ठहरता, वैसे ही सम्यक दर्शन के बिना सब धर्म-कर्म व्यर्थ होते हैं, उनसे कुछ अधिक लाभ नहीं होता। इसलिये आत्म-कल्याण के लिये सबसे पहले सम्यक दर्शन प्राप्त करना आवश्यक है। सम्यक दर्शन की महिमा:- जिस प्राणी को सम्यक दर्शन हो जाता है, वह मरने पर स्वर्ग का देव या भोगभूमि में मनुष्य गति में उत्पन्न होता है, स्त्री नहीं होता, पहले नरक को छोड़ अन्य छह नरकों में नहीं जाता, भवनत्रिक, स्थावर, विकलत्रय, पशु, नपुंसक, अल्पायु गरीब, हीनाङ्ग, पक्षी और नीचकुली भी नहीं होता। सम्यक ज्ञान का लक्षण व भेद:- ठीक-ठीक जैसा का तैसा जानना, किसी प्रकार का संशय नही होना सम्यक ज्ञान कहलाता है। निश्चय सम्यक ज्ञान और व्यवहार सम्यक ज्ञान ये दो सम्यक ज्ञान के भेद हैं। आत्मा को जैसा का तैसा पर द्रव्यों से भिन्न जानना, निश्चय सम्यक ज्ञान कहलाता है। पदार्थों के स्वरूप को ठीक-ठीक जैसा का तैसा जानना, उसमें किसी प्रकार का संशय नही होना, व्यवहार सम्यक ज्ञान कहलाता है। सम्यक ज्ञान की उत्पत्ति और आवश्यकता - सम्यक ज्ञान होने के पहले जो ज्ञान मिथ्या होता है, सम्यक दर्शन होने पर वही ज्ञान सम्यक ज्ञान कहलाने लगता है। सम्यक ज्ञान से ही आत्मज्ञान और केवलज्ञान प्राप्त होता है। सम्यक ज्ञान की महिमा :- सम्यक ज्ञान होने पर त्रिगुप्ति ( मन, वचन,काय की एकाग्रता ) से जन्म-जन्म के पाप कट जाते हैं, जो पाप अज्ञानी प्राणियों के करोड़ों जन्मों तक तप करने पर भी नहीं कटते। सम्यक ज्ञान की प्राप्ति का उपाय :- सच्चे शास्त्रों को पढ़ने, पढ़ाने, सुनने, सुनाने तथा बार-बार विचारने, आत्मचिन्तन करने, पाठशाला खुलवाने, शास्त्रदान करने या छात्रवृत्ति देने आदि से सम्यक ज्ञान प्राप्त होता है। सम्यक चारित्र का लक्षण व भेद :- अशुभ कार्यों को छोड़ना, शुभ कार्यों में प्रवृत्ति करना सम्यक् चारित्र कहलाता है। निश्चय सम्यक् चारित्र और व्यवहार सम्यक्रचारित्र ये दो सम्यक्चारित्र के भेद है। आत्मस्वरूप में लीन होना, निश्चय सम्यक्चारित्र कहलाता है। हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह इन पाँच पापों तथा क्रोध, मान, माया, लोभ इन चार कषायों का त्याग करना, व्यवहार सम्यक्चारित्र कहलाता है। सम्यक चारित्र की प्राप्ति का उपाय :- वीतरागी निग्रन्थ दिगम्बर साधुओं की संगति करने, दान देने, वैय्यावृत्ति आदि करने तथा व्रत, समिति, गुप्ति, तप, धर्म आदि करने से सम्यक्चारित्र प्राप्त होता है। इस सम्यक चरित्र से ही संवर व निर्जरा होती है। रत्नत्रय और मोक्षमार्ग :- सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान और सम्यक्चारित्र को रत्नत्रय कहते हैं, इन तीनों की ही एकता को मोक्षमार्ग कहते हैं। यथार्थ में यही मोक्ष प्राप्ति का उपाय है। शिक्षा :- संसार के दु:खों से छूटने का सच्चा उपाय रत्नत्रय ही है, अत: हमको रत्नत्रय धारण करना चाहिए हमारे मनुष्य जन्म की सफलता भी इसी में है। रत्नत्रय को धारण करने वाले व्रती-श्रावक या मुनि होते हैं।
  16. इस युग में घोर उपसर्ग को सहन करने वाले तेइसवें तीर्थकर श्री पार्श्वनाथ स्वामि हुए। वर्तमान में सबसे अधिक जिनबिम्ब तथा जिन मन्दिर भगवान पार्श्वनाथ के दिखाई देते हैं। इनके बिम्ब के ऊपर प्राय: फण फैलाया हुआ सर्प दृष्टिगोचर होता है, जो उनपर हुए उपसर्ग की घटना का प्रतीक है। पार्श्वनाथ भगवान का संक्षिप्त जीवन – दर्शन इस प्रकार है। राजा अरविन्द के दो मंत्री कमठ और मरुभूति थे। कमठ बड़ा भाई अत्यन्त दुष्ट प्रकृति का, दुव्र्यवहारी था, जबकि छोटा भाई मरुभूति सज्जन और सद्व्यवहारी था। एक दिन मरुभूति को राज्य कार्य से नगर से बाहर जाना पढ़ा तब कमठ ने छोटे भाई की पत्नी के साथ दुव्यवहार करना चाहा। जब राजा को यह बात ज्ञात हुई तो उसने कमठ को देश निकाला दे दिया, अत: वह तापसी बनकर जंगल में रहने लगा और कुतप करने लगा, मरुभूति के लौट आने पर, सब घटना ज्ञात होने पर भातृ-प्रेम के कारण वह कमठ के पास गया और पैर पड़ते हुए क्षमा-याचना पूर्वक घर चलने की प्रार्थना करने लगा। तब कमठ ने और अत्यधिक क्रोधित हो उस पर शिला पटक दी, जिससे मरुभूति दुध्यान पूर्वक मरण कर वज़घोष नाम का हाथी हुआ तथा मुनि अरविन्द के उपदेशों को सुन पंचाणुव्रत को धारण किया, अंत समय कीचड़ में फंस जाने पर सांप के द्वारा डसे जाने पर अणुव्रतों के प्रभाव से सोलहवें स्वर्ग में देव हुआ। वहाँ से च्युत हो अग्निवेग नाम का राजपुत्र हुआ दीक्षा धारण की। एक दिन जंगल में ध्यान करते समय बड़े भारी अजगर द्वारा निगले जाने पर मरण कर अच्युत स्वर्ग के पुष्कर विमान में देव हुआ। वहाँ से आकर पुन: व्रजनाभि नाम का चक्रवर्ती हुआ, क्षेमंकर मुनि के उपदेशों से प्रभावित हो जिन दीक्षा धारण की, तब कुरंग नाम के भील द्वारा उपसर्ग किये जाने पर मरण कर मध्यम ग्रेवेयक में अहमिन्द्र हुआ। वहाँ से चयकर आनन्द नमाक राजपुत्र हो जिन दीक्षा धारण कर सोलहकारण भावनाओं का चिंतन कर तीर्थकर प्रकृति का बंध किया। तब सिंह के द्वारा भक्षण किये जाने पर समाधि पूर्वक मरण कर आनत स्वर्ग में इन्द्र हुआ। यह जीव स्वर्ग से च्युत हो, श्री पार्श्वनाथ तीर्थकर बना। जम्बूद्वीप संबंधी भरत क्षेत्र के काशी देश स्थित वाराणसी (बनारस) नगरी में काश्यप गोत्री, उग्रवंशी राजा अश्वसेन राज्य करते थे। वामादेवी उनकी महारानी थी। महारानी वामादेवी ने आनत स्वर्ग के इन्द्र को पौष कृष्णा एकादशी को तीर्थकर सुत के रूप में जन्म दिया। सोलह वर्ष की अवस्था में ये नगर के बाहर वन बिहार करते हुए अपने नाना महीपाल के पास पहुँचे। वह पंचाग्नि तप के लिए लकड़ी फाड़ रहा था, इन्होंने उसे रोका और बताया कि लकड़ी में नागयुगल है। वह नहीं माना और क्रोध से युक्त होकर उसने वह लकड़ी काट डाली। उसमें जो नागयुगल था वह कट गया। मरणासन्न सर्पयुगल को इन्होंने संबोधित किया जिससे शान्तचित हो वे धरणेन्द्र और पद्मावती हुए। तीस वर्ष की उम्र के पश्चात् जातिस्मरण होने पर संसार से विरक्त हो पौष कृष्ण एकादशी के दिन अश्व वन में प्रात: काल तीन सौ राजाओं के साथ दीक्षित हुए। पारणा के दिन गुल्मखेट नगर में धन्य नामक राजा ने आहारदान देकर पञ्चाश्चर्य प्राप्त किये। छद्मस्थ अवस्था के चार माह व्यतीत कर अश्व वन में जब प्रभु तेला का नियम लेकर देवदारु वृक्ष के नीचे ध्यानावस्था में थे तब कमठ के जीव शम्बर नामक देव ने सात दिन तक इन पर विभिन्न प्रकार के घोर उपसर्ग किया। उस समय उन धरणेन्द्र और पदमावती ने आकर उपसर्ग का निवारण किया। चैत्र कृष्णा त्रयोदशी के दिन प्रात:काल घातिया कर्म नष्ट हो जाने से प्रभु को केवल ज्ञान प्राप्त हुआ। समवशरण में अष्ट महाप्रातिहार्यों से युक्त होते हुए अनेक भव्य जीवों को समीचीन धर्म का उपदेश देते हुए उनहतर वर्ष सात मास तक पृथ्वी तल पर विहार किया तथा श्रावण शुक्ला सप्तमी के दिन प्रात: बेला में अष्टकर्मों को नाश कर निर्वाण को प्राप्त किया। भगवान पार्श्वनाथ के शरीर की ऊँचाई नौ हाथ थी, आयु १०० वर्ष की एवं शरीर का वर्ण हरा था।
  17. इन्द्रिय का स्वरूप - शरीर धारी जीव को जानने के साधन रूप चिह्न को इन्द्रिय कहते हैं। इन्द्रियों के भेद एवं परिभाषा - वे इन्द्रियाँ पाँच होती हैं - १. स्पर्शन, २. रसन, ३. घ्राण, ४. चक्षु और ५. कर्ण। जो पदार्थ का छूकर जाने वह स्पर्शन (त्वचा) इन्द्रिय है। हल्का, भारी, कड़ा, नरम, रूखा, चिकना, ठण्डा और गरम, ये स्पर्शन इन्द्रिय के आठ विषय हैं। जैसे बर्फ को छूने पर 'यह ठंडा है' तथा अग्नि को छूने पर 'यह ऊष्ण है गरम है' यह ज्ञान होना। जो पदार्थ को चखकर जाने वह रसना (जिह्वा) इन्द्रिय है। खट्टा, मीठा, कड़वा, कषैला और चरपरा, ये पाँच रसना इन्द्रिय के विषय हैं। जैसे ' शक्कर मीठी है" और 'नीम कड़वी' ऐसा ज्ञान होना। जो सूघकर पदार्थों को जाने वह घ्राण (नासिका) इन्द्रिय है। सुगन्ध और दुर्गन्ध, ये दो घ्राण इन्द्रिय के विषय हैं। जैसे गुलाब पुष्प सुगन्धित है। जो देखकर पदार्थों को जाने वह चक्षु (नेत्र) इन्द्रिय है। काला, नीला, लाल, पीला और सफेद, ये पाँच चक्षु इन्द्रिय के विषय है। जैसे 'कौआ काला है' और 'तोता हरा है' आदि का ज्ञान। जो सुनकर जाने/जो सुनती है वह श्रोत (कर्ण) इन्द्रिय है। सा, रे, ग, म, प, ध और नि, ये सात मुख्यत: श्रोत इन्द्रिय के विषय है। जैसे 'यह राम है' यह सुनना, गीत आदि सुनना। इन्द्रियों का आकार - पाँचों द्रव्य इन्द्रियों में प्रत्येक का अलग-अलग आकार है - स्पर्शन इन्द्रिय अनेक प्रकार के आकार वाली रसना इन्द्रिय अर्धचन्द्र या खुरपा के आकार वाली घ्राण इन्द्रिय कदम्ब के फूल के आकार वाली चक्षु इन्द्रिय मसूर के आकार वाली एवं कर्ण इन्द्रिय यव (जी) की नाली के आकार वाली आगम ग्रंथो में कही है। जीव और इन्द्रियाँ – पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और वनस्पति कायिक जीवों की एक मात्र स्पर्शन इन्द्रिय होती है। लट, शंख, सीप, कृमि आदि जीवों की स्पर्शन और रसना ये दो इन्द्रियाँ होती है। चींटी, बिच्छु, खटमल, कीड़े आदि की स्पर्शन, रसना और घ्राण ये तीन इंद्रियाँ होती हैं। मच्छर, मक्खी, भ्रमर, पतंगा आदि जीवों की स्पर्शन, रसना, घ्राण और चक्षु ये चार इंद्रियाँ होती हैं। गाय, घोड़ा, मनुष्य, देव, नारकी आदि जीवों की स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और कर्ण ये पाँच इन्द्रियाँ होती हैं। रसना इन्द्रिय के दो कार्य है पहला चखना और दूसरा बोलना।
  18. ज्ञानावरणादि कर्मों का तथा रागादि दोषों का जिनमें अभाव पाया जावे वे देव हैं। अरिहंत देव क्षुधादि अठारह दोषों से रहित, वीतरागी, सर्वज्ञ और हितोपदेशी होते हैं निम्नलिखित अठारह दोष अरिहंत के नहीं होते हैं - क्षुधा रहित - आहारादि की इच्छा, भूख का अभाव। तृषा रहित - पानी की इच्छा, प्यास का अभाव। भयरहित - किसी भी प्रकार का डर उत्पन्न नहीं होना। राग रहित - प्रेम, स्नेह, प्रीति रूप परिणामों का अभाव। द्वेष रहित - द्वेष, शत्रुता रूप परिणामों का अभाव। मोह रहित - गाफिलता, विपरीत ग्रहण करने रूप भावों का अभाव। चिन्ता रहित — मानसिक तनाव का नहीं होना। जरा रहित - दीर्घ काल तक जीवित रहने पर भी बुढ़ापा नहीं आना। रोग रहित - शारीरिक व्याधियों का अभाव। मृत्यु रहित पुनर्जन्म कराने वाले मरण का अभाव। खेद रहित - मानसिक पीड़ा/ पश्चाताप का नहीं होना। स्वेद रहित - पसीना आदि मलों का शरीर में अभाव। मदरहित - अहंकारपने का अभाव, गर्व, घमंड रहितता। अरति रहित - किसी भी प्रकार की पीड़ा/दु:ख नहीं होना। जन्म रहित - पुनर्जन्म, जीवन धारण नहीं करना। निद्रा रहित - प्रमाद, थकान जन्य शिथिलता का न होना। विस्मय रहित - आश्चर्य रूप भावों का नहीं होना। विषाद रहित - उदासता रूप भावों का अभाव। इन राग -द्वेष रूप अशुभ परिणामों के क्षय हो जाने पर जीव वीतरागीवीतद्वेषी कहा जाता है। जिन्होंने सभी प्रकार के धन-धान्य, सोना-चाँदी, घरपरिवार, दुकान, आभूषण, वस्त्रादि का त्याग कर दिया है। जो षट्काय के जीवों की विराधना के कारण भूत किसी भी प्रकार का 'सावद्य-कार्य" नहीं करते तथा जिन्होंने अपने आत्म तत्व की उपलब्धि हेतु जिनेन्द्र भगवान द्वारा कथित मोक्षमार्ग को स्वीकार किया है, ऐसे निग्रन्थ श्रमण भी वीतरागता के उपासक होने से वीतरागी कहे जाते हैं। हमें वीतरागी भगवान को ही नमस्कार करना चाहिए। उनकी ही स्तुति, वंदना, पूजन करनी चाहिए। अन्य रागी-द्वेषी देवी-देवता हमारें आराध्य नहीं हो सकते, इनकी आराधना घोर-संसार का कारण एवं अति दु:ख का कारण है। भगवान हमारे लिए आदर्श, पथ-प्रदर्शक हुआ करते हैं। उनके दर्शन से हमें अपने शुद्ध स्वरूप, स्वभाव का ज्ञान होता है यदि भगवान कहे जाने वाले भी सामान्य मनुष्यों के समान ही विषय-भोगों में लीन है, स्त्रियों से सहित है, दूसरों की हिंसा करने में रत है, नानाआभूषणों से श्रृंगारित हैं, अस्त्र-शस्त्र अपने पास रखते हैं तो हममें और उनमें क्या विशेष अंतर रहा, हम उनके दर्शनों से क्या प्राप्त कर सकते हैं? कुछ भी नहीं। यदि आप कहें इससे उनका शक्तिशाली होना, ऐश्वर्यता, स्वामीपना प्रगट होता है वे हमें भी सुखी बना सकते है, हमारे दु:खों को दूर कर सकते हैं तो फिर राजा-महाराजा, धनपति सेठ आदि भी भगवान माने जायेंगे उनकी भी पूजा करनी पड़ेगी वह ठीक नहीं किन्तु जो हमारे पास है ऐसे राग-द्वेष, धनादि से रहित वीतरागी प्रभु के दर्शन से ही आत्मिक शांति की उपलब्धि दु:खों का नाश एवं सत्य का ज्ञान हो सकता है। सर्वज्ञ - ज्ञानावरणादि चार घातियाँ कर्मों के क्षय से जिन्हें केवलज्ञान उत्पन्न हुआ है जिनके ज्ञान में तीन लोक के समस्त चराचर पदार्थ युगपत हाथ में रखी स्फटिक मणी के समान झलकते हैं, वे सर्वज्ञ कहलाते हैं। हितोपदेशी - पूर्ण ज्ञानी होकर संसार के प्राणियों के आत्म कल्याणार्थ हित-मित-प्रिय वचनों के माध्यम से उपदेश देने वाले प्रभु हितोपदेशी कहलाते हैं। सच्चे शास्त्र - वीतरागी श्रमणों द्वारा रचित ग्रन्थ सम्यक्रमोक्ष मार्ग का कथन करने वाले, प्राणी मात्र के हित का जिसमें उपदेश हो ऐसे ग्रन्थ सच्चे शास्त्र कहलाते हैं। सच्चे गुरु - विषयों की आशाओं से अतीत, निरारम्भी, निष्परिग्रही, ज्ञान, ध्यान, तप में लीन, दिगम्बर मुद्रा धारी मुनि सच्चे गुरु कहलाते हैं।
  19. वर्तमान अवसर्पिणी काल में भरत क्षेत्र में जो चौबीस तीर्थकर हुए उनमें सर्वप्रथम धर्मतीर्थ प्रवर्तक ऋषभ देव हुए। उनका संक्षिप्त जीवन परिचय इस प्रकार है। वज़जंघ और श्रीमति (ऋषभदेव व राजा श्रेयांस के पूर्व भव के जीव) ने पुण्डरीकिणी पुरी को जाते समय सरोवर के तट पर मुनि युगल के लिए आहार दान दिया, जिसके फलस्वरूप सम्यक्त्व रहित होने से मरण होने पर उत्तम भोग भूमि उत्तर कुरुक्षेत्र में आर्य-आर्या हुए। तथा वहाँ पर प्रीतिंकर नामक मुनिराज से संबोधन प्राप्त कर उन्होंने सम्यग्दर्शन धारण किया एवं मरण कर स्वर्ग गये। पुन: वज़सेन तीर्थकर के पुत्र वज़नाभि की पर्याय में चक्रवर्तित्व को प्राप्त कर पुन: राज-पाट त्याग कर दिगम्बर दीक्षा धारण कर सोलह कारण भावना भाते हुए तीर्थकर प्रकृति का बंध किया। आयु के अन्त समय में सल्लेखना पूर्वक मरण कर सर्वार्थसिद्धि में अहमिन्द्र हुए। वे ही अगले भव में प्रथम तीर्थकर ऋषभदेव हुए। अंतिम कुलकर नाभिराय और उनकी पत्नी मरुदेवी से ऋषभदेव का जन्म अयोध्या नगरी में हुआ। इन्हे वृषभनाथ व आदिनाथ भी कहते हैं। इस युग में जैनधर्म का प्रारंभ इन्हीं से माना जाता है। भोगभूमि के अवसान होने पर जबकि कल्पवृक्षों ने भोग्य सामग्री देना बंद कर दी तब उन्होंने आजीविका के साधनभूत असि, मसि, कृषि, विद्या, वाणिज्य और शिल्प इन छह कर्मों की विशेष रूप से व्यवस्था की तथा देश, नगरों को सुविभाजित कर संपूर्ण भारत को ५२ जनपदों में विभाजित किया। लोगों को कर्मों के आधार पर इन्होंने क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन तीन वर्णों की व्यवस्था दी, इसीलिए इन्हें प्रजापति कहा जाने लगा | ऋषभदेव की दो पत्नियाँ थी सुनन्दा और नन्दा। इनके सौ पुत्र और दो पुत्रियाँ थी, जिनमें सुनंदा से भरत और ब्राह्मी तथा नंदा से बाहुबली और सुंदरी प्रमुख हैं। इन्होंने अपनी ब्राह्मी और सुंदरी नामक दोनों पुत्रियों को क्रमश: अक्षर और अंक विद्या सिखाकर समस्त कलाओं में निष्णात किया। बाह्मी लिपि का प्रचलन तभी से हुआ। आज की नागरी लिपि को विद्वान उस ही का विकसित रूप मानते हैं। एक दिन राजमहल में नीलांजना नामक देवी अप्सरा (नृत्यागना) की नृत्य करते हुए आकस्मिक मृत्यु हो जाने से इन्हे वैराग्य उत्पन्न हो गया। फलत: अपने ज्येष्ठ पुत्र भरत को समस्त राज्य का भार सौंपकर दिगम्बरी दीक्षा धारण कर वन को तपस्या करने चले गये। दीक्षा के बाद वे छह माह तक ध्यान में बैठे रहे तथा उसके बाद छह सात माह तक विधी पूर्वक आहार न मिलने से अन्तराय होता रहा। अत: लगभग १ वर्ष पश्चात् राजा श्रेयांस के यहाँ मुनिराज का आहार हुआ। आहार में मात्र इक्षु रस ही लिया। एक हजार वर्ष की कठोर तपश्चर्या के परिणाम स्वरूप उन्होंने कैवल्य (सम्पूर्ण ज्ञान) प्राप्त कर समस्त भारत भूमि को अपने धर्मोपदेश से उपकृत किया। चूंकि उन्होंने अपने समस्त घातियाँ कर्मों को जीत लिया था, इसीलिए वे जिन कहलाए तथा उनके द्वारा प्ररूपित धर्म 'जैन-धर्म' कहलाने लगा। अपने जीवन के अंत में तृतीय सुषमादुषमा काल की समाप्ति के तीन वर्ष आठ माह पन्द्रह दिन शेष रहने पर कैलाश पर्वत से मोक्ष प्राप्त किया। भरत बहुत प्रतापी राजा हुए। उन्होंने अपने दिग्वजय द्वारा सर्वप्रथम चक्रवर्ती पद प्राप्त किया। दीक्षा लेते ही उन्हे अन्तमुहूर्त में केवल ज्ञान उत्पन्न हो गया था, कैलाश पर्वत से वे मोक्ष पधारें। भ. ऋषभदेव के शरीर की ऊँचाई ५०० धनुष थी एवं आयु ८४ लाख पूर्व थी। शरीर का वर्ण स्वर्ण सदृश था। भ. ऋषभदेव के समवशरण का विस्तार १२ योजन था। इनके ८४ गणधर थे, जिनमें प्रमुख ऋषभ सेन थे।
  20. पाप का स्वरूप - जिन कार्यों को करने से जीव दुर्गति का पात्र बनता है, उसे इस लोक में व परलोक में निन्दा तथा धिक्कार के साथ-साथ अनेक कष्टों को सहन करना पड़ता है, उसे पाप कहते हैं। पाप के भेद - पाँच पाप -१. हिंसा, २. झूठ ३. चोरी ४. कुशील (अब्रह्म) और ५. परिग्रह है। हिंसा पाप – प्रमाद के कारण किसी दूसरे जीव के अथवा स्वयं के प्राणों का घात करना हिंसा पाप कहलाता है। इस पाप को करने वाले हिंसक, क्रूर, निर्दयी, हत्यारे कहलाते हैं। किसी को मार-पीट कर दुखी करना, धर्म मानकर पशु आदि की बलि चढ़ाना, पुतला जलाना, मिठाई आदि में पशु का आकार बनाकर काटना, खाना, वीडियों गेम में चिड़िया आदि मारना हिंसा पाप है। हिंसा से बचने के उपाय - राग-द्वेष बढ़ाने वाले कुटिल विचारों को छोड़ना चाहिए। चलते समय नीचे देखकर चलना चाहिए। वस्तुओं को उठाते रखते समय सावधानी रखना चाहिए। रात्रि में भोजन नहीं करना चाहिए अर्थात् सूर्य प्रकाश में ही भोजन-पान करना चाहिए। त्रस जीवों की रक्षा का शक्त्यानुसार संकल्प लेना चाहिए। हिंसा परिणामों को उत्पन्न करने वाले सिनेमा आदि नहीं देखना चाहिए। बिना प्रयोजन घूमना नहीं, पानी फेंकना नहीं एवं पेड़ पौधो, फूल, पत्ती आदि तोड़ना नहीं चाहिए। झूठ पाप – जिस बात या जिस घटना को जैसा सुना अथवा देखा हो वैसा न कहकर अन्य प्रकार से कहना'झूठ पाप' कहलाता है। जिन वचनों के कहने से किसी अन्य पर विपत्ति आ जावे, किसी के प्राणों का घात हो जावे, ऐसा सत्य वचन भी झूठ कहलाता है। झूठ के अन्य रूप - मर्मप्छदा वचन, कठार वचन, उद्वगकारा वचन, बरात्पादक, कलहकारा वचन, भयात्पादक तथा अवज्ञाकारा वचनइस प्रकार के अप्रिय वचन, हास्य, भीति, लोभ, क्रोध, द्वेष इत्यादि कारणों से बोले जाने वाले वचन सब असत्य भाषण (झूठ) है। झूठ, अनृत, असत्य ये एकार्थ वाची हैं। झुठ पाप से बचने हेतु निम्न कार्य करना चाहिए। हमेंशा सत्य बोलना चाहिए क्योंकि एक झूठ को छिपाने के लिए सौ झूठ और बोलना पड़ता है। क्रोध और लोभ का त्याग करना चाहिए क्योंकि इन कारणों से भी व्यक्ति झूठ बोलता है। हमेशा निर्भय रहना चाहिए। व्यर्थ की हँसी - मजाक, वाद-विवाद नहीं करना चाहिए। आगम के अनुसार हित-मित-प्रिय वचन बोलना चाहिए। तू मूर्ख है, अज्ञानी है इत्यादि कठोर वचन, तू अंधा है लगड़ा हैं, इत्यादि कठोर वचन नहीं बोलना चाहिए। झूठा उपदेश देना, पत्र पत्रिकाओं में गलत बात छापना, दूसरों की निन्दा इत्यादि कार्य नहीं करना चाहिए। चोरी पाप – बिना दिए किसी की गिरी, रखी या भूली हुई वस्तु को ग्रहण करना अथवा उठाकर किसी को दे देना चोरी पाप है। चोरी महापाप – धन को मनुष्य का बारहवां प्राण कहा है जिसका धन हरण किया जाता है उसको जैसा मरने में दु:ख होता है वैसा ही दु:ख धन के नाश हो जाने पर होता है। आचार्यों ने सुअर का घात करने वाले, मृगादिक को पकड़ने वाले तथा परस्त्री गमन करने वाले से भी अधिक पापी 'चोर' को कहा है। चोरी के अन्य रूप - चोरी करने के उपाय बताना, चोरी का माल खरीदना, राज्य नियमों के विरुद्ध कालाबजारी करना, टेक्स चुराना, मापने व तौलने के उपकरणों में कमती बढ़ती रखना, मिलावट करना, अन्याय पूर्वक धन कमाना इत्यादि चोरी पाप के ही अन्य रूप है। चोरी से बचने हेतु निम्न कार्य करना चाहिए - बिना पूछे, आज्ञा लिए किसी के स्वामित्व की वस्तु नहीं लेना। आवश्यकता से अधिक वस्तु को ग्रहण नहीं करना। विक्रय कर, आय कर, बिजली पानी आदि के बिल का भुगतान करना। दूसरे की वस्तु पर अपना स्वामित्व नहीं जमाना। सधर्मियों के साथ विसंवाद नहीं करना। कुशील पाप – जिनका आपस में विवाह संबंध हुआ हो, ऐसे स्त्री पुरुषों का एक दूसरे को छोड़कर अन्य किसी पुरुष अथवा स्त्री से संबंध रखने को (रमण करने को) कुशील पाप कहते हैं। स्त्री पुरूष की राग जन्य चेष्टा, गाली बकना, बुरा आचरण करना अथवा विवाह के पूर्व लड़के-लड़कियों का वासना की दृष्टि से एक-दूसरे को मित्र बनाना, छूना, हाथ पकड़ना, गले में हाथ डालना, चुम्बन लेना, देखना इत्यादि कुशील पाप है। कुशील पाप के कारण - स्त्री संबंधी विषयों की अभिलाषा रखना, अनंग क्रीड़ा, शरीर को संस्कारित करना, राग वर्धक गंदे चित्र, फिल्म, नाटक आदि देखना, वेश्या गमन करना इत्यादि अब्रह्म पाप के कारण है। कुशील पाप के बचने के उपाय - अब्रह्म पाप से बचने के लिए निम्न उपाय हैं। वृद्धा, बाला और यौवन अवस्था वाली स्त्री को देखकर अथवा उनकी तस्वीरों को देखकर माता, पुत्री, बहन समान समझ स्त्री सम्बन्धी कथादि का अनुराग छोड़ना। एवं इसी प्रकार स्त्रियों द्वारा पुरुष में रागवर्धक वार्ता को छोड़ना। शरीर की मलिनता, क्षणभंगुरता का विचार करना। इष्ट एवं गरिष्ट पदार्थों का सेवन नहीं करना। जो स्व को इष्ट हो परन्तु शिष्ट जनों के द्वारा धारण करने योग्य नहीं हैं ऐसे विचित्र प्रकार के वस्त्र, वेशभूषा, आभरण आदि का त्याग करना। व्यभिचारी एवं कामी पुरुषों की संगति नहीं करना। परिग्रह पाप – जमीन, मकान, धन, धान्य, गाय, बैल, इत्यादि पदार्थों के प्रति मूच्छा (आसक्ति) रूप परिणाम रखना, 'यह मेरा है मैं इसका स्वामी हूँ।' इस प्रकार का ममत्व परिणाम परिग्रह है। परिग्रह के दो भेद है। १. बाहय परिग्रह एवं २. अंतरंग परिग्रह बाहय परिग्रह दस प्रकारका है – क्षेत्र (खेतादि), वास्तु (मकानादि), हिरण्य (चाँदी), सुवर्ण(सोना), धन (गौ आदि पशु), धान्य (गेहूँ आदि), दासी, दास, कुष्य (वस्त्र, किराना आदि), भाण्ड (बर्तनादि) अंतरंग परिग्रह चौदह प्रकार का है – मिथ्यात्व, क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुष वेद और नंपुसक वेद। परिग्रह के अन्य रूप – आवश्यकता से अधिक वस्तुओं का संग्रह करना, सत् कार्यों में धन का उपयोग नहीं करना, दिन रात धन इकट्ठा करने की चिंता करना इत्यादि सब परिग्रह पाप के ही कारण समझना चाहिए। परिग्रह पाप से बचने के निम्न उपाय है - परिग्रह परिमाण व्रत ग्रहण कर संतोष धारण करना। अपनी इच्छाओं, पंचेन्द्रिय के विषयों को सीमित करना। धन के कारण उत्पन्न दु:ख, विपत्ति आदि का चिन्तन करना। जीवन, धन, यौवन की नश्वरता के विषय में सोचना। पंचेन्द्रिय के अच्छे बुरे विषयों में राग-द्वेष नहीं करना। जिन सूत्र - जिनवाणी का अध्ययन, स्वाध्याय करना। अष्टमी, चतुर्दशी आदि पर्वो के दिन गृह त्याग, पूर्ण परिग्रह त्याग रूप व्रत को स्वीकारना।
  21. आचार्यश्री विद्यासागरजी के पचासवें संयम स्वर्ण महोत्सव की राष्ट्रीय समिति के राजनैतिक एवं प्रशासनिक संयोजक, इंदौर के निर्मलकुमार पाटोदी के आमंत्रण-पत्र को स्वीकार करते हुए देश के जानेमाने वैज्ञानिक व इसरो, बैंगलोर के पूर्व अध्यक्ष कृष्णास्वामी कस्तूरीरंगन, जो कि भारत सरकार के मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा गठित देश की नौ सदस्यीय कमेटी के मुखिया हैं, छत्तीसगढ़ के डोंगरगढ़ पहुंचे। आपके साथ प्रो. टीवी कट्टीमनी, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय ट्राइबल केंद्रीय विश्वविद्यालय अमरकंटक के कुलपति डॉ. विनय चंद्रा बी.के., नई शिक्षा नीति समिति के वरिष्ठ तकनीकी सलाहकार और इसरो मुख्यालय के सह निदेशक डॉ. पी.के. जैन, राजनैतिक व प्रशासनिक संयोजक निर्मलकुमार पाटोदी भी उपस्थित थे। पद्मविभूषण डॉ. कस्तूरीरंगन ने आचार्यश्री विद्यासागरजी महाराज से पूछा कैसी हो तीस साल के लिए नई शिक्षा नीति? विद्यासागरजी महाराज बोले- ऐसी नीति बनाइए कि शिक्षा उपभोग व विनिमय की वस्तु न हो। 53 मिनट की चर्चा में विद्यासागरजी महाराज ने कहा कि वर्तमान शिक्षा नीति प्रासंगिकता खो चुकी है। अर्थ के द्वारा सब प्राप्त कर सकते हैं, यह भ्रम उत्पन्न हुआ है। वस्तु विनिमय के बदले अर्थ का विनिमय होने लगा है। स्किल डेवलपमेंट कर देने भर से विद्यार्थी सक्षम हो रहा है। यह जरूरी नहीं है। शिक्षा धन से जुड़ गई है। मुख्य धन तो नैतिकता है। विद्यासागरजी महाराज ने कहा कि मैं भाषा के रूप में अंग्रेजी का विरोध नहीं करता हूं। इस भाषा को विश्व की अन्य भाषाओं के साथ ऐच्छिक रखा जाना चाहिए। शिक्षा का माध्यम मातृभाषाएं ही हों। अंग्रेजों ने भारत की परंपरा के साथ चालाकी करके ‘भारत’ को ‘इंडिया’ बना दिया। जबकि भारत के दो नाम नहीं हो सकते हैं। इसी प्रकार कस्तूरीरंगन नाम को अन्य भाषाओं में बदला नहीं जा सकता है। भारत के साथ संस्कृति और इतिहास जुड़ा है। इंडिया ने हमारे भारत की भारतीयता, जीवन पद्धति, नैतिकता, रहन-सहन और खानपान सब कुछ छीन लिया है। अब शिक्षा भारतीय गणित, इतिहास, ज्ञान और परिवेश पर आधारित हो। प्रारंभिक शिक्षा मातृभाषाओं में ही हो तथा एक संपूर्क भाषा भारतीय भाषा ही हो। ऐसा होने से भारत की एकता मजबूत होगी। शिक्षा में शोधार्थी की रूचि किसमें है, इसकी स्वतंत्रता होनी चाहिए। आज मार्गदर्शक के अनुसार शोधार्थी शोध करता है। इससे मौलिकता नहीं उभर पा रही है। शिक्षा रोजगार पैदा करने वाली हो, बेरोजगारी बढ़ाने वाली नहीं हो। शिक्षा कोरी किताब नहीं हो। कौशल से जुड़ी हो। कस्तूरीरंगन ने बताया कि नई शिक्षा नीति का ड्रॉफ्ट शीघ्र ही तैयार कर लिया जाएगा। यह अगले तीस वर्षों को ध्यान में रखकर बनाई जा रही है। पूर्व शिक्षा नीति छब्बीस साल पहले बनी थी। अब राज्यपालों, मुख्यमंत्रियों, विश्वविद्यालयों के कुलपतियों और शिक्षाविदों और अन्य धर्मों के प्रतिनिधियों से मिलकर सुझाव लिए जाएंगे।
  22. सोलहकारण भावना तीर्थङ्कर नामक महान् पुण्य प्रकृति के बंध में कारणभूत जो सोलह भावनाएँ होती हैं, उन्हें सोलहकारण भावना कहा जाता है। 1. दर्शन विशुद्धि 2. विनय सम्पन्नता 3. शील-व्रतादि का निरतिचार पालन 4. अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग 5. अभीक्षण संवेग 6. शक्तितस्त्याग 7. शक्तितस्तप 8. साधु समाधि 9. वैयावृत्य 10. अर्हत् भक्ति 11. आचार्य भक्ति 12. बहुश्रुत भक्ति 13. प्रवचन भक्ति 14. आवश्यक अपरिहाणि 15. मार्ग प्रभावना 16. प्रवचन वात्सल्य 1. दर्शन विशुद्धि - यह सोलहकारण भावना में प्रधान है। इसके बिना शेष 15 भावनाएँ निरर्थक हैं। सम्यग्दर्शन का अत्यन्त निर्मल व दृढ़ हो जाना ही दर्शनविशुद्धि है। 2. विनय सम्पन्नता - मोक्ष के साधन भूत सम्यक् ज्ञानादिक में तथा उनके साधक गुरु आदिकों में अपनी योग्य रीति से सत्कार, आदर आदि करना तथा कषाय की निवृत्ति करना विनय सम्पन्नता है। 3. शील - व्रतादि का निरतिचार पालन - अहिंसा आदिक व्रत हैं और इनके पालन करने के लिए क्रोधादिक का त्याग करना शील है। इन दोनों के पालन में निर्दोष प्रवृत्ति करना शीलव्रतेषु अनतिचार भावना है। 4. अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग - जीवादि पदार्थ रूप स्वतत्व विषयक सम्यग्ज्ञान में निरन्तर लगे रहना, निरन्तर ज्ञान का उपयोग करना ही अभीक्षण ज्ञानोपयोग है। 5. अभीक्ष्ण संवेग - संसार के दु:खों से नित्य डरते रहना तथा धर्म, धर्म के फल में जो हर्ष होता है, वह अभीक्ष्ण संवेग है। 6. शक्तितस्त्याग - शक्ति की सीमा को पार न करना और साथ ही अपनी शक्ति को नहीं छिपाना इसे यथाशक्ति कहते हैं और इस शक्ति के अनुरूप त्याग करना ही शक्तितस्त्याग कहा जाता है। 7. शक्तितस्तप – शक्ति को न छिपाकर मोक्षमार्ग के अनुकूल शरीर को क्लेश-कष्ट देना शक्तितस्तप है। 8. साधु समाधि – समाधि का अर्थ मरण है। साधु का अर्थ श्रेष्ठ–अच्छा। अतः श्रेष्ठ–आदर्श मृत्यु को साधु समाधि कहते हैं। हर्ष विषाद से परे आत्म सत्ता की सतत् अनुभूति ही सच्ची समाधि है। 9. वैयावृत्य - गुणों में अनुराग पूर्वक संयमी पुरुषों के खेद को दूर करना, पाँव दबाना तथा और भी निर्दोष विधि से उनका कष्ट दूर करना वैयावृत्य है। 10. - 11.अर्हत् भक्ति और आचार्य भक्ति - अर्हत् अर्थात् जिन्होंने चार घातिया कर्मों का नाश कर दिया है तथा जो अतिशय पूजा के योग्य हैं। आचार्य जो स्वयं पंचाचार का पालन करते हैं व शिष्यों को पालन करवाते हैं अर्थात् आचार्य ऐसे अहत् एवं आचार्य बिना किसी इच्छा, अपेक्षा के भक्ति स्तुति गुणमान करना अहत्व आचार्य भक्ति है। 12. बहुश्रुत भक्ति - बहुश्रुत का तात्पर्य उपाध्याय परमेष्ठी से है। इनकी पूजा, उपासना या अर्चना करना बहुश्रुत भक्ति कहलाती है। 13. प्रवचन भक्ति - तीर्थकर केवलियों ने अज्ञात और अदृष्ट का अनुभव प्राप्त किया, अत: उनके जो भी वचन खिर गये वे सरस्वती बन गये, श्रुत बन गये। ऐसे श्रुत के प्रति अनुराग प्रीति होना ही प्रवचन भक्ति है। 14. आवश्यक अपरिहाणि - श्रावक व साधु को अपने उपयोग की रक्षा के लिए नित्य ही छह क्रियाएँ करनी आवश्यक होती है, उन आवश्यकों को यथाकाल करना आवश्यक अपरिहाणि है। 15. मार्ग प्रभावना - अहिंसा मार्ग की प्रभावना ही मार्ग प्रभावना है । 16. प्रवचन वात्सल्य - प्रवचन वात्सल्य का अर्थ है साधर्मियों के प्रति करुणा भाव जैसे - गाय बछड़े पर स्नेह करती है। इसी प्रकार साधर्मियों पर स्नेह रखना साधर्मियों को देखकर उल्लास बढ़ आना प्रवचन वात्सल्य है। श्रावकों के द्वारा प्रतिदिन करने योग्य- षट् आवश्यक देव पूजा - जल चन्दनादि अष्ट द्रव्य से वीतरागी देव, अरिहन्तादि पज्चपरमेष्ठियों की आराधना करना, उनका गुणगान करना 'देव-पूजा' आवश्यक है। प्रत्येक गृहस्थ को प्रतिदिन आत्मविशुद्धि के साधन भूत जिनेन्द्र देव की पूजा करनी चाहिए। गुरुपास्ति - जिन लिंग को धारण करने वाले निग्रन्थ मुनि, आर्यिका, ऐलक, छुल्लक, छुल्लिका आदि व्रतियों की शक्ति के अनुसार सेवा, वैयावृत्य, पूजन, गुणगान करना गुरुपास्ति आवश्यक कहलाता है। स्वाध्याय - आलस्य को त्याग कर जिनवाणी का अध्ययन करना 'स्वाध्याय आवश्क' है। पाप से बचने के लिए, धर्म मार्ग में समीचीन प्रवृत्ति करने के लिए श्रावक को प्रतिदिन स्वाध्याय करना ही चाहिए। स्वाध्याय हेतु प्रारम्भ में प्रथमानुयोग के ग्रन्थों को पढ़ना चाहिए पश्चात् क्षयोपशम के अनुसार आदर पूर्वक गुरुओं के सानिध्य में शेष अनुयोगों का स्वाध्याय करना चाहिए। संयम - समीचीन रुप से इन्द्रियों को वश में करना तथा त्रस एवं स्थावर जीवों का घात नहीं करना 'संयम आवश्यक' कहलाता है। संयम जीवन में गाड़ी के ब्रेक के समान आवश्यक है। तप आवश्यक - अनशनादि बारह प्रकार के तपों का यथाशक्ति अनुष्ठान करना तप आवश्यक है। अष्टमी चतुर्दशी आदि पर्वो के दिनों में उपवास अथवा एकासन करना, रसों का त्याग कर भोजन करना, भक्तामर, णमोकार, सोलह कारण आदि के व्रतों का उत्तम, मध्यम, जघन्य रीति से पालना, सीमित समय के लिए गृह का, भोगोपभोग सामग्री का त्याग कर निर्जन स्थान, तीर्थ क्षेत्र आदि स्थानों पर निवास करना इत्यादि 'तप आवश्यक' कहलाता है। दान आवश्यक - अपने कमाये हुए धन के द्वारा अतिथियों के लिए योग्य वस्तुओं का देना दान आवश्यक है। यह दान पाप को नष्ट करने वाला पुण्य प्रदाता एवं परम्परा से निर्वाण का कारण है।
  23. गति का स्वरूप - गति नाम कर्म के उदय से संसारी जीव जिस अवस्था विशेष को प्राप्त करते हैं उसे गति कहते हैं। मैं मनुष्य हूँ मैं देव हूँ आदि इस प्रकार की अनुभूति जिस कर्म का फल है वह गतिनाम कर्म है। गति के भेद - गतियाँ चार होती है - नरक गति, तिर्यञ्च गति, मनुष्य गति और देवगति। नरक गति – हिंसादि पाप कर्मों के फलस्वरूप दु:ख भोगने हेतु जीव की प्राप्त अवस्था विशेष नरक गति है। इस गति में रहने वाले नारकी एक क्षण के लिए भी सुख प्राप्त नहीं करते, निरन्तर क्षेत्र जनित, शारीरिक, मानसिक और असुरकृत दु:खों को यथावसर अपनी पर्याय के अन्तसमय पर्यन्त भोगते रहते हैं। नरक गति को प्राप्त जीव रत्नप्रभा आदि सात पृथ्वियों में बनें ८४ लाख बिलों में रहते हैं। जिसमें ८२,२५,००० बिल अत्यधिक उष्ण (गरम) एवं १,७५,००० बिल अत्यधिक शीत (ठंड) प्रकृति वाले होते हैं। तिर्यञ्च गति – मायाचार रूप परिणामों से उपार्जित पाप तथा हिंसादि पाप के फलों को भोगने हेतु प्राप्त जीव की अवस्था विशेष तिर्यञ्च गति कहलाती है। तिर्यञ्च गति में एकेन्द्रिय से लेकर पञ्चेन्द्रिय तक के जीव होते हैं अर्थात पत्थर, पानी, हवा, अग्नि तथा पेड़- पौधे इत्यादि सभी एकेन्द्रिय जीव तिर्यञ्च गति के हैं। इस गति में जीवों के पास प्रतिकार करने की क्षमता का अभाव होने पर उन्हे अनेक प्रकार के सर्दी, गर्मी, भूख - प्यास आदि के कष्टों को सहन करना पड़ता है तिर्यच्चों के दु:खों को करोड़ों जिहवा के द्वारा भी कहना शक्य नहीं है। मनुष्य गति - व्रत रहित जीव के सरल परिणाम, कम आरंभ परिग्रह से उत्पन्न शुभाशुभ कर्मों के फलस्वरूप प्राप्त जीव की अवस्था विशेष मनुष्य गति कहलाती है। इस गति में पुरुषार्थ की मुख्यता रहती है यह गति जंक्शन के समान है, जीव यहाँ से सभी गतियों में जा सकता है तथा कर्म काट कर मोक्ष भी जा सकता हैं। मनुष्य गति मिलना अन्य गतियों की अपेक्षा दुर्लभ है। देव भी मनुष्य बनने के लिए तरसते हैं। देवगति - मोक्ष प्राप्ति के योग्य पुरुषार्थ की कमी होने पर देव - पूजा, दान व्रतादि से उत्पन्न विशेष पुण्य फलों को भोगने हेतु प्राप्त जीव की अवस्था विशेष देव गति है। आणिमादि आठ गुणों से नित्य क्रीड़ा करते रहते हैं, और जिनका प्रकाशमान, अत्यन्त सुंदर, धातु - उपधातु से रहित दिव्य शरीर है वे देव कहे जाते हैं। इस गति में सुख की बहुलता रहती है, भूख प्यास आदि की बाधा अत्यल्प होती है। सबकुछ भोगोपभोग सामग्री पूर्व पुण्य के उदय से स्वयमेव मिल जाती है किसी प्रकार की मेहनत/परिश्रम नहीं करनी पड़ती। पाँच इन्द्रियों के विषयों के योग्य भोग सामग्री पर्यात होती है किन्तु आयु पूर्ण होने पर यह सब वैभव छूट जाता है। जीवों की गति अगति - नरक गति के जीव मरणकर मनुष्य व तिर्यञ्च गति में ही जन्म लेते हैं देव गति व नरकगति में नहीं। इसी प्रकार देवगति के जीव भी मरणकर मनुष्य व तिर्यच्च गति में ही जन्म लेते हैं अन्य गतियों में नहीं। विशेषता इतनी है कि देव मरणकर पृथ्वी कायिक, जल कायिक और वनस्पति कायिक एकेन्द्रिय पर्याय में भी जन्म ले सकते हैं। किन्तु नारकी नहीं। नारकी नियम से संज्ञी पऊचेन्द्रिय पर्याय में ही जन्म लेता है। तिर्यञ्च व मनुष्य गति के जीव चारों गतियों में जन्म ले सकते है विशेषता इतनी है एकेन्द्रिय से लेकर चार इन्द्रिय तक के जीव मरणकर मनुष्य व तिर्यञ्च इन दो गतियों में ही जन्म ले सकते हैं देवगति व नरकगति में नहीं जा सकते। एकेन्द्रिय वायुकायिक एवं अग्निकायिक जीव मरणकर तिर्यञ्च गति में ही जन्म ले सकते हैं अन्य गतियों में नहीं। मनुष्य गति का जीव ही कर्मों का पूरी तरह क्षय कर मुक्ति प्राप्त कर सकता है अन्य गति के जीव नहीं। गृहस्थ के योग्य '' षट्-कर्म" असिकर्म - तलवार, तीर, कमान, बंदूक, तोप, भाला आदि के द्वारा प्रजा की रक्षा करने का कार्य असि कर्म कहलाता है। असिकर्म करने वाले के मन में जीवों की रक्षा का उद्देश्य होने से यह कर्म निन्द्य नहीं माना जाता है। श्री ऋषभदेव, श्री शान्तिनाथ, श्री रामचन्द्र आदि असिकर्म करते थे। सैनिक, सुरक्षा बल, पुलिस आदि का कार्य भी असिकर्म कहा जा सकता है। मसि कर्म - द्रव्य अर्थात् रुपये-पैसे की आमदनी खर्च आदि के लेखन का कार्य अर्थात् मुनीमी करना, मसि कर्म कहलाता है। सी.ए., सेल्स टेक्स, इन्कमटेक्स के वकील मसि कर्म वाले माने जा सकते है। कृषि कर्म - हल, कुलिश, दन्ताल आदि कृषि उपकरणों के उपयोग की विधी को जानकर, कृषि कार्य करना कृषि कर्म कहलाता है। यद्यपि कृषि कार्य में त्रस जीवों की हिंसा होती है तदपि कृषक के मन में सभी जीवों के पेट भरे रहे, सभी सुखी रहें ऐसी सद्भावना होने से कृषि कार्य को निन्द्य नहीं माना। अपितु कृषि को उत्तम कार्य कहा गया है। आचार्य श्री शान्तिसागर जी, विद्यासागर जी के गृहस्थाश्रम में कृषि कार्य ही मुख्यता से किया जाता था। शिल्प कर्म - धोवी, नाई, लुहार, कुल्हार, सुनार आदि अनेक प्रकार के वस्त्राभूषण, हथियार आदि बनाते हैं उनके इस कर्म को शिल्प कर्म कहते हैं। मकान बनाना, महल बनाना, पुल बनाना, मशीन, यंत्र आदि बनाना भी शिल्प कर्म है। सेवा अथवा विद्या कर्म - लेखन, गणित, चित्रादि पुरुष की बहत्तर कलाओं को विद्याकर्म कहते हैं। लेखक, कवि पत्रकार, टाइप राइटर आदि का कार्य विद्या कर्म है इसी प्रकार से शिक्षक, प्रशासनिक सेवा आदि का कार्य भी सेवा कर्म माना जाता है। वाणिज्य कर्म - चन्दन आदि सुगन्धित पदार्थ, घी, तेल, धान्यादि, कपास, वस्त्र, हीरे, मोती, सोना चांदी इत्यादि अनेक प्रकार के द्रव्यों का संग्रह कर उन्हें बेचना 'वाणिज्य कर्म' कहलाता है। इसमें सभी प्रकार का लेन-देन रूप व्यापार सम्मिलित होता है। कुछ क्रूर व्यापार (खर कर्म) ग्रन्थों में कहे गये है ये कर्म प्राणियों को दु:ख देने वाले होने से त्यागने योग्य है। अर्थात दयाभाव रखने वाले जैन श्रावकों को यह कार्य नहीं करना चाहिए। जैसे - ईट के, चूने के भट्टे लगवाना गोबर गैस प्लान्ट लगवाना, सेप्टिक टैंक बनवाना, हीटर आदि अग्नि उत्पादक यंत्रो का निर्माण करना, पटाखे बम बारुद की चीजें बनाना एवं बेचना, कीट नाशक दवांए जहर आदि बेचना, वन में पते आदि जलाने का ठेका लेना, बारुद द्वारा पहाड़ों को तुड़वाना, दास दासियों का व्यापार, गर्भपात की दवाई तथा खून मांस से उत्पन्न दवाईयां बेचना, लाख, शहद, शराब, हाथीदांत, नशीले पदार्थ, मक्खन आदि का व्यापार, बैल आदि पशुओं के नाक कान आदि छेदने का व्यापार, चमड़े की वस्तुओं का व्यापार। इसके अलावा कुछ छुद्र कर्म भी माने है जिन्हें श्रावक न करे जैसे, जूते-चप्पल का व्यापार, बालों के कटिंग की दुकान, हिसंक प्राणियों (कुत्ते बिल्ली आदि) का पालन पोषण करना, इनको बेचना।
  24. लगभग २६०० वर्ष पूर्व इस भारत भूमि पर एक महापुरुष का जन्म हुआ। जिसने इस धरती पर फैले अज्ञान को दूर कर सत्य, अहिंसा और प्रेम का प्रकाश फैलाया। उन महापुरुष को जन-जन अंतिम तीर्थकर भगवान महावीर के नाम से जानते हैं। भगवान महावीर संक्षिप्त जीवन-दर्शन इस प्रकार है :- मधु नाम के वन में एक पुरुरवा नाम का भील रहता था। कालिका उसकी पत्नी का नाम था। एक दिन रास्ता भूलकर सागरसेन नाम के मुनिराज उस वन में भटक रहे थे, कि पुरुरवा हिरण समझकर उन्हें मारने के लिए उद्यत हुआ, तब उसकी पत्नी ने कहा कि स्वामी! ये वन के अधिष्ठाता देव हैं। इन्हें मारने से तुम संकट में पड़ जाओगे, कहकर रोका। तब दोंनो प्रसन्नचित्त हो मुनिराज के पास पहुँचे तथा उपदेश सुनकर शक्त्यानुसार मांस का त्याग किया। आयु के अंत में निर्दोष व्रतों का पालन करते हुए, शान्त परिणामों से मरण प्राप्त कर वह भील सौधर्म स्वर्ग में देव हुआ। स्वर्ग सुख भोगकर भरत चक्रवर्ती की अनन्तमति नामक रानी से मारीचि नाम का पुत्र हुआ तथा प्रथम तीर्थकर वृषभनाथ जी के साथ देखा-देखी दीक्षित हो गया। भूख प्यास की बाधा सहन न कर सकने के कारण भ्रष्ट हो, अहंकार के वशीभूत होकर तापसी बन सांख्य मत का प्रवर्तक बन गया। तथा अनेक भवों तक पुण्य-पाप के फलों को भोगता हुआ, सिंह की पर्याय को प्राप्त हुआ। एक समय वह हिरण का भक्षण कर रहा था, तभी अजितञ्जय और अमितदेव नाम के दो मुनिराजों के उपदेश सुन जातिस्मरण होने पर व्रतों को धारण किया तथा सन्यास धारण किया जिसके प्रभाव से सौधर्म स्वर्ग में सिंह केतु नाम का देव हुआ। आगे आने वाले भवों में चक्रवर्ती आदि की विभूति का उपभोग कर जम्बूद्वीप में नंद नाम का राजपुत्र हुआ। प्रोष्ठिल नाम के मुनिराज से दीक्षा ले सोलह कारण भावना भाते हुए महापुण्य तीर्थकर प्रकृति का बंध किया फिर आयु के अंत में आराधना पूर्वक मरण कर अच्युत स्वर्ग के पुष्पोत्तर विमान में इन्द्र हुआ। वहां से च्युत होकर अंतिम तीर्थकर भगवान महावीर हुआ। भगवान महावीर का जन्म वैशाली गणतंत्र के कुण्डलपुर राज्य के काश्यप गोत्रीय नाथ वंश के क्षत्रिय राजा सिद्धार्थ और त्रिशला रानी के आँगन में चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी के शुभ दिन हुआ। बालक सौभाग्यशाली, अत्यन्त सुन्दर, बलवान, तेजस्वी, मुक्तिगामी जीव था। सौधर्म इन्द्र ने सुमेरू पर्वत पर भगवान बालक का अभिषेक करने के बाद 'वीर' नाम रखा। जन्म समय से ही पिता सिद्धार्थ का वैभव, यश, प्रताप, पराक्रम और अधिक बढ़ने लगा। इस कारण उस बालक का नाम वर्द्धमान भी पड़ा। राजकुमार वर्द्धमान असाधारण ज्ञान के धारी थे। संजयन्त और विजयन्त नामक दो मुनि अपनी तत्व विषयक कुछ शंकाओं को लिए आकाश मार्ग से गमन कर रहे थे तभी बालक वर्द्धमान को देखते ही उनको समाधान प्राप्त हो जाने से उन्होंने उस बालक का नाम 'सन्मति' रखा। एक दिन कुण्डलपुर में एक बड़ा हाथी मदोन्मत्त होकर गजशाला से बाहर निकल भागा। वह मार्ग में आने वाले स्त्री पुरुषों को कुचलता हुआ नगर में उथल-पुथल मचाते हुए घूम रहा था। जिससे जनता भयभीत हो प्राण बचाने हेतु इधर-उधर भागने लगी। तब वर्द्धमान ने निर्भय हो हाथी को वश में कर मुट्ठियों के प्रहार से उसे निर्मद बना दिया। तब जनता ने बालक की वीरता से प्रसन्न हो बालक को 'अतिवीर' नाम से सम्मानित किया। वर्द्धमान एक बार मित्रों के साथ खेल रहे थे तभी संगम नामक देव विषधर का रूप धरकर आया। जिसे देखकर सभी मित्र डर के मारे भाग गये। परन्तु वर्द्धमान सर्प को देख रंच मात्र भी नहीं डरे, अपितु निर्भयता से उसी के साथ खेलने लगे। तब देव प्रकट होकर भगवान की स्तुति करने लगा एवं उनका नाम 'महावीर' रखा। जब वर्द्धमान यौवन अवस्था को प्राप्त हुए। तब माता-पिता ने वर्द्धमान का विवाह राजकुमारी यशोदा के साथ करने का निर्णय लिया। अपने विवाह की बात जब महावीर को ज्ञात हुई तो उन्होंने उसे स्वीकार नहीं किया। गृहस्थ जीवन के बंधन में न फंसते हुए तीस (30) वर्ष की यौवनावस्था में स्वयं ही दिगम्बर दीक्षा अंगीकार की। बारह वर्ष तक मौन पूर्वक साधना करते हुए व्यालीस (42) वर्ष की अवस्था में केवलज्ञान प्राप्त किया फिर लगभग तीस (30) वर्ष तक भव्य जीवों को धर्मोपदेश देते हुए बहात्तर (72) वर्ष की आयु में कार्तिक वदी अमावस्या के ब्रह्ममुहूर्त में (सूर्योदय से कुछ समय पहले) पावापुर ग्राम के सरोवर के मध्य से निवाण को प्राप्त किया। भगवान महावीर का शेष परिचय गर्भ - तिथी - आषाढ़ शुक्ल ६ जन्म - तिथी - चैत्र शुक्ल १३ दीक्षा - तिथी - मार्ग कृष्ण १० केवलज्ञान - तिथी वैशाख शुक्ल १० उत्सेध/वर्ण - ७ हाथ/ स्वर्ण वैराग्य कारण - जाति स्मरण दीक्षोपवास - बेला दीक्षावन/वृक्ष - नाथवन/साल वृक्ष सहदीक्षित - अकेले सर्वऋषि संख्या - २४,००० गणधर संख्या - ११ मुख्य गणधर - इन्द्रभूत आर्यिका संख्या - ३६,००० तीर्थकाल - २९,०४२ वर्ष यक्ष - गुहयक यक्षिणी - सिद्धायिनी योग निवृत्तिकाल - दो दिन पूर्व केवलज्ञान स्थान - ऋजुकूला चिहन - सिंह समवशरण में श्रावक संख्या - १ लाख श्राविका - ३ लाख मुख्य श्रोता - श्रेणिक विशेष - केवलज्ञान उत्पन्न होने के पश्चात् गणधर के अभाव में छयासठ (६६) दिन तक भगवान महावीर की दिव्य ध्वनि नहीं हुई। जिस दिन भगवान महावीर की प्रथम देशना हुई भी उसे वीर शासन जयन्ती के रूप में (श्रावण कृ. १) मनाते हैं।
  25. जिसमें चेतना पाई जावे अर्थात् जो सुख दु:ख का संवेदन करता हो उसे जीव कहते हैं। जीव ही संसार में सुख दु:खों को भोगता है एवं जीव ही कर्मों को क्षय कर मुक्ति प्राप्त करता है। जो चेतना शून्य, सुख दु:ख के संवेदन से रहित, जड़ अज्ञानी हो उसे अजीव कहते है। हमारे आस-पास जो कुछ भी हम देखते हैं वह अजीव है जैसे पुस्तक, पेन कॉपी, कुर्सी, टेबिल, घड़ी इत्यादि। अजीव के मुख्य रूप से पाँच भेद जैनाचार्यों ने कहे हैं - पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल। इनमें से पुद्गल ही हमें देखने में आता है शेष नहीं। धर्मादि का वर्णन आगे के अध्याय में किया जावेगा। जीव के मुख्य रूप से दो भेद हैं - (१) संसारी जीव (२) मुक्त जीव जिन्होंने ज्ञानावरणादि आठों कर्मों का क्षय (नष्ट) कर दिया हैं, ऐसे जीव मुक्त जीव कहलाते हैं। सिद्ध परमेष्ठी ही मुक्त जीव हैं। जिन्होंने कर्मों का क्षय नहीं किया तथा चारों गतियों में भ्रमण कर रहे हैं, उन्हें संसारी जीव कहते हैं। त्रस व स्थावर जीव संसारी जीव त्रस और स्थावर के भेद से दो प्रकार के हैं। जो कष्टों से भयभीत हो भागते हैं, चलते फिरते हैं उन्हें त्रस जीव कहते हैं। जिनके दो से लेकर पांच तक इन्द्रियाँ होती हैं उन्हें त्रस जीव कहते हैं। उदाहरण - देव, मनुष्य, हाथी, मक्खी, चीटीं, इल्ली आदि। जो प्राय: एक ही स्थान पर रहते हैं दु:खों से भयभीत हो भाग नहीं सकते उन्हें स्थावर जीव कहते हैं। इनके एक मात्र स्पर्शन इंद्रिय ही होती है। उदाहरण - पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति। संसारी जीव समनस्क और अमनस्क के भेद से भी दो प्रकार के हैं। मन सहित जीव समनस्क कहे जाते हैं इन्हें संज्ञी भी कहा जाता है। मन रहित जीव अमनस्क होते हैं। इन्हें असंज्ञी कहते हैं। पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों में कुछ संज्ञी व कुछ असंज्ञी होते हैं। देव, मनुष्य व नारकी नियम से संज्ञी ही होते हैं। आत्मा के प्रकार - बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा की अपेक्षा से भी जीव के तीन भेद कहे हैं। जो अपने देह व पर के देह को ही आत्मा मानता हैं बहिरात्मा कहलाता है। जो सम्यग्दृष्टि जीव, आत्मा और देह के भेद को जानते हैं वे अन्तरात्मा है। आत्मा की शुद्ध अवस्था को प्राप्त जीव परमात्मा कहलाते हैं। भव्य-अभिव्य जीव जो जीव मोक्ष प्राप्त करने की अर्थात् भगवान बनने की क्षमता रखते हैं उन्हें भव्य जीव कहते हैं। पेड़-पौधे, निगोदिया जीव भी भव्य हो सकते हैं। भव्य कभी अभव्य एवं अभव्य कभी भव्य नहीं बन सकता। जो जीव मोक्ष प्राप्त करने की क्षमता नहीं रखते उन्हें अभव्य जीव कहते हैं। महाव्रतों को धारण करने वाले मुनि भी अभव्य हो सकते हैं। अभव्य जीव मुनिव्रतों को धारण कर नवमें ग्रेवेयक (स्वर्ग) तक जन्म ले सकता है किन्तु मोक्ष नहीं जा सकता। भव्य, अभव्य परिणामिक भाव है अत: उन्हें हम तुम नहीं जान सकते मात्र केवलज्ञानी ही जान सकते हैं कि कौन सा जीव भव्य हैं और कौन सा जीव अभव्य। भव्य जीव भी आसन्न भव्य, दूर भव्य, दूरान्दूर भव्य की अपेक्षा से तीन प्रकार के होते हैं। जिन्होंने सम्यग्दर्शन प्राप्त कर लिया है एवं शीघ्र ही मुक्ति का लाभ प्राप्त करेंगे वे आसन्न भव्य हैं इन्हें निकट भव्य भी कहते हैं। जिन्होंने सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं किया, किन्तु भविष्य में प्राप्त करेंगे और मुक्ति का लाभ प्राप्त करेंगे वे दूर भव्य हैं। जिन्होंने सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं किया, न ही भविष्य में प्राप्त कर पायेंगे, किन्तु क्षमता तो है, वे दूरान्दूर भव्य हैं इन्हें अभव्यसम भव्य भी कहते हैं। संसारी जीवो में सबसे उत्कृष्ट आत्मा को, कर्म कलंक से रहित आत्मा को परमात्मा कहते है। शरीर सहित अहन्त तो सकल परमात्मा हैं। शरीर रहित सिद्ध निकल परमात्मा हैं
×
×
  • Create New...