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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. वस्तु के सम्पूर्ण अंश को ग्रहण करने वाला प्रमाण है तथा उसके एक अंश को ग्रहण करने वाला नय होता है। वस्तु अनन्त धर्मात्मक होने के कारण बड़ी जटिल है जैसे पेन लम्बा है, कड़ा है, गोल है, नीला है, सुंदर है, धातुमय है त्यादि। उसको एक साथ जाना तो जा सकता है, पर कहा नहीं जा सकता। उसका विश्लेषण क्रम पूर्वक अन्य धर्मों को गौण कर किसी एक धर्म की मुख्यता पूर्वक ही किया जा सकता है, वह नय के माध्यम से ही संभव है जैसे कि यह पेन लम्बा है। अत: सम्पूर्ण वस्तु के ज्ञान को प्रमाण एवं उसके अंश को नय कहते हैं। प्रमाण सम्यग्ज्ञान को प्रमाण कहा गया है। मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधि ज्ञान, मन:पर्यय और केवलज्ञान ये पाँचों ज्ञान प्रमाण हैं। प्रत्यक्ष प्रमाण और परोक्ष प्रमाण की अपेक्षा इसके दो भेद हो जाते हैं - प्रत्यक्ष प्रमाण - इन्द्रिय और मन की अपेक्षा से रहित और प्रकाश आदि की सहायता के बिना जो केवल आत्मा के द्वारा ही जानता है प्रत्यक्ष प्रमाण (ज्ञान) कहलाता है। केवल ज्ञान, अवधि ज्ञान एवं मन: पर्यय ज्ञान प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। परोक्ष प्रमाण - आत्मा से भिन्न इन्द्रियादि एवं प्रकाशादि बाह्य निमित्तों की अपेक्षा रखने वाला ज्ञान परोक्ष ज्ञान (प्रमाण) है। मतिज्ञान व श्रुत ज्ञान परोक्ष प्रमाण हैं इसे सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष भी कहते हैं। नय ज्ञाता अथवा वक्ता के अभिप्राय विशेष को नय कहते हैं। नय नौ कहे गये हैं :- १ द्रव्यार्थिक नय, २. पर्यायार्थिक नय, ३. नैगम नय, ४. संग्रह नय, ५. व्यवहार नय, ६. ऋजुसूत्र नय, ७. शब्द नय, ८. समभिरूढ़, ९. एवंभूत नय। द्रव्यार्थिक नय - द्रव्य ही जिसका प्रयोजन है वह द्रव्यार्थिक नय है, द्रव्यार्थिक नय के दश भेद है :- कर्मोपाधि निरपेक्ष शुद्ध द्रव्यार्थिक नय :- जैसे संसारी जीव सिद्ध समान शुद्धात्मा है। कर्मोपाधि सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय :- जैसे कर्म जनित क्रोधादि भाव रूप आत्मा। उत्पाद व्यय गौण सत्ता ग्राहक शुद्ध द्रव्यार्थिक नय :- जैसे द्रव्य नित्य है। उत्पाद व्यय सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय :- जैसे एक ही समय उत्पाद व्यय, श्रौव्यात्मक द्रव्य है। भेद कल्पना निरपेक्ष शुद्ध द्रव्यार्थिक नय :- जैसे ज्ञानी जीव, सिद्ध जीव। भेद कल्पना सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय :- जैसे आत्मा का ज्ञान गुण, आत्मा का दर्शन गुण आदि कहना। स्वद्रव्यादि ग्राहक द्रव्यार्थिक नय :- जैसे स्वचतुष्य की अपेक्षा द्रव्य अस्ति रूप है। परद्रव्यादि ग्राहक द्रव्यार्थिक नय :- जैसे परचतुष्टय यानि पर द्रव्य, पर क्षेत्र, पर काल और पर भाव की अपेक्षा द्रव्य नास्ति रूप है। अन्वय सापेक्ष द्रव्यार्थिक नय :- सम्पूर्ण गुण, पर्यायों, स्वभावों में द्रव्य को अन्वय रूप से 'यह वही है' इस प्रकार से स्वीकारना। परमभाव ग्राहक द्रव्यार्थिक नय - शुद्ध अशुद्ध के उपचार से रहित द्रव्य के स्वभाव को ग्रहण करना, जैसे आत्मा ज्ञान स्वभावी है। 2. पर्यायार्थिक नय - पर्याय ही जिसका प्रयोजन है वह पर्यायार्थिक नय है। पर्यायार्थिक नय के छह भेद हैं:- अनादि नित्य पर्यायार्थिक नय :- जैसे सुमेरु, सूर्य, चन्द्रमा, अकृत्रिम चैत्यालय आदि की पर्याय। सादि नित्य पर्यायार्थिक नय :- जैसे सिद्ध पर्याय, क्षायिक ज्ञान आदि पर्याय। सत्ता गौण उत्पाद-व्यय ग्राहक स्वभाव पर्यायार्थिक नय :- जैसे प्रति समय पर्याय विनाश होती है। सत्ता सापेक्ष स्वभाव नित्य अशुद्ध पर्यायार्थिक नय - जैसे एक समय में पर्याय उत्पाद-व्यय-धौव्यात्मक है। कर्मोपाधि निरपेक्ष स्वभाव नित्य शुद्ध पर्यायार्थिक नय - जैसे संसारी जीवों की पर्याय सिद्धों की पर्याय के समान शुद्ध है। कर्मोपाधि सापेक्ष स्वभाव अनित्य अशुद्ध पर्यायार्थिक नय - जैसे संसारी जीवों का जन्म-मरण होता है अथवा नरकादि पर्याय जीव स्वरूप है। 3. नैगम नय - संकल्प जिसका प्रयोजन हो वह नैगम नय है। जैसे प्रारम्भ किया कार्य, अपूर्ण होने पर भी पूर्ण हुआ कहना भोजन बनाने की सामग्री एकत्रित करने पर 'भोजन बना रहा हूँ" ऐसा कहना। 4. संग्रह नय - जो नय अभेद रूप से सम्पूर्ण वस्तु समूह को विषय करता है संग्रह नय है। जैसे सर्व द्रव्य सत् रूप है। 5. व्यवहार नय - संग्रह नय से ग्रहण किये हुए पदार्थ को भेद रूप से ग्रहण करना 'व्यवहार नय" है। जैसे जीव, पुद्गलादि द्रव्य हैं। 6. ऋजुसूत्रनय - जो नय अतीत अनागत के विषयों को न ग्रहण कर वर्तमान काल के विषय भूत पदार्थों को ग्रहण करता है वह ऋजु सूत्र नय है। जैसे मनुष्यादि पर्यायें अपनी-अपनी आयु प्रमाण काल तक रहती है। 7. शब्द नय - अनेक पर्यायवाची शब्द एक ही अर्थ को कथन करने वाले होने से 'शब्द नय' के विषय हैं। जैसे सहस्त्रनाम स्तोत्र में कहे हजार से अधिक नाम एक तीर्थकर आदिनाथ के ही पर्यायवाची है। 8. समभिरूढ़ - एक शब्द के अनेक अर्थ होने पर भी रूढ़ अथवा प्रधान अर्थ को ही ग्रहण करने वाला समभिरूढ़ नय है। जैसे - गो शब्द के वचन आदि अनेक अर्थ पाये जाते हैं तथापि वह पशु अर्थ में रूढ़ है। 9. एवंभूतनय - जिस नय में वर्तमान क्रिया की प्रधानता होती है वह एवं भूतनय है। जैसे जिस समय शिक्षक शिक्षण कार्य कर रहा हो उसी समय उसे शिक्षक कहना 'एवंभूत नय' है। उपनय जो नय के समीप रहते है उन्हें उपनय कहते हैं वे उपनय तीन हैं १. सद्भत व्यवहार उपनय २. असद्भूत व्यवहार उपनय ३. उपचरित असद्भूत व्यवहार उपनय। १. जो भेद के द्वारा वस्तु का व्यवहार करे वह 'सदभूत व्यवहार उपनय' है। इसके दो भेद हैं - १. शुद्ध सद्भूत व्यवहार नय २. अशुद्ध सद्भूत व्यवहार नय। शुद्ध गुण-गुणी, पर्याय-पर्यायी आदि में भेद करने वाला शुद्ध सद्भूत व्यवहार नय है जैसे शुद्ध जीव का शुद्ध ज्ञान गुण। इसे आध्यात्म भाषा में अनुपचरित सद्भूत व्यवहार नय भी कहते है। अशुद्ध गुण-गुणी, पर्याय-पर्यायी आदि में भेद करने वाला अशुद्ध सद्भूत व्यवहार नय है। जैसे संसारी जीव गुणी एवं मतिज्ञान गुण। इसे आध्यात्म भाषा में कर्म जनित विकार सहित होने से उपचरित सद्भूत व्यवहार नय कहा जाता है। २. जो उपचार के द्वारा वस्तु का व्यवहार करे। अर्थात अन्यत्र प्रसिद्ध धर्म (स्वभाव) का अन्यत्र समारोप करे वह 'असदभूत व्यवहार उपनय' है। जैसे कर्मबन्ध की अपेक्षा जीव को मूर्त कहना आदि। असद्भूत उपनय तीन प्रकार का है - १. स्वजाताय असद्भूत व्यवहार नय, २. विजातीय असद्भूत व्यवहार नय, ३. स्वजातायावजाताय असद्भूत व्यवहार नय। स्वजातीय असद्भूत व्यवहार नय :- जैसे अणु एकप्रदेशी होने पर भी बहुप्रदेशी कहना। विजातीय असद्भूत व्यवहार नय :- जैसे एकेन्द्रियादि जीवों के शरीर को जीव है ऐसा कहना। स्वाजातीय - विजातीय असद्भूत व्यवहार नय :- जैसे जीव-अजीव ज्ञेय को ज्ञान कहना। ३. उपचरित असदभूत व्यवहार उपनय - जो उपचार से भी उपचार करता है वह उपचरित असद्भूत व्यवहार उपनय है। यह भी स्वजाति, विजाति एवं स्वजातीय विजातीय उपचरित असद्भूत व्यवहार नय की अपेक्षा तीन भेद वाला है। अपनी ही जाति के पृथक द्रव्य को अपना कहना स्वाजातीय उपचरित असद्भूत व्यवहार नय है :- जैसे पुत्र, स्त्री आदि मेरे हैं। पृथक जाति वाले मकान धन आदि को अपना कहना:- विजातीय उपचरित असद्भूत व्यवहार नय है।
  2. चेतना लक्षण वाले जीव का व्याख्यान नौ अधिकारों के माध्यम से किया गया है वे इस प्रकार है :- 1. जीव, 2. उपयोगमय, 3. अमूर्तिक, 4. कर्ता, 5. भोक्ता 6. स्वदेह परिमाण वाला, 7. संसार में स्थित, 8. सिद्ध, 9. स्वभाव से उधर्वगमन करने वाला। 1. जीव :- व्यवहार नय से तीन कालों में जो इन्द्रिय, बल, आयु और श्वासोच्छवास इन चार प्राणों के द्वारा जीता था, जीता है, जीवेगा तथा निश्चय नय से जिसके चेतना पाई जावे वह जीव है। 2. उपयोगमय :- जो परिणाम आत्मा के चैतन्य गुण का अनुसरण करता है अर्थात चैतन्य को छोड़कर अन्यत्र नही रहता 'उपयोग' कहलाता है। उपयोग दो प्रकार का है :- (1) ज्ञानोपयोग, (2) दर्शनोपयोग। ज्ञानोपयोग आठ प्रकार का है जिनके नाम कुमति ज्ञानोपयोग, कुश्रुत ज्ञानोपयोग, कुअवधि ज्ञानोपयोग, मति ज्ञानोपयोग, श्रुत ज्ञानोपयोग, अवधि ज्ञानोपयोग, मन:पर्यय ज्ञानोपयोग तथा केवल ज्ञानोपयोग है। दर्शनोपयोग चार प्रकार है :- चक्षु दर्शनोपयोग, अचक्षु दर्शनोपयोग, अवधि दर्शनोपयोग, केवल दर्शनोपयोग। कुमति आदि ज्ञानों के साथ प्रयुक्त आत्मा का परिणाम कुमति आदि ज्ञानोपयोग कहलाता है इसे साकार उपयोग भी कहते हैं। तथा चक्षु आदि इन्द्रियों से होने वाले ज्ञान के पूर्व जो सामान्य प्रतिभास होता है उसे दर्शनोपयोग कहते हैं, इसे निराकार उपयोग भी कहा जाता है। छद्मस्थ जीवों के (केवल ज्ञान उत्पन्न होने के पूर्व की दशा) पहले दर्शनोपयोग तत्पश्चात ज्ञानोपयोग होता है। किन्तु केवल ज्ञानी जीवों के दोनों उपयोग एक साथ (युगपत्) होते हैं। आत्मा का उपयोग रूप परिणाम अशुभ, शुभ और शुद्ध के भेद से तीन प्रकार का भी है। विषय-कषायों में मग्न, कुमति, कुविचार और कुसंगति में लगा, उग्र तथा उन्मार्ग में लगा हुआ उपयोग 'अशुभोपयोग' है। देव गुरु शास्त्र की पूजा, दया, दान आदि कार्यों में, उपवास आदि को में लीन शुभ परिणाम 'शुभोपयोग" है। शुभ अशुभ दोनों ही क्रियाओं में इष्ट अनिष्ट की बुद्धि से रहित एक मात्र आत्म तत्व में लीन उपयोग 'शुद्धोपयोग' कहलाता है। मिथ्या दृष्टि, सासादन और मिश्र इन तीन गुणस्थानों में ऊपर ऊपर मन्दता से अशुभोपयोग रहता है। इसके आगे असंयत सम्यक्त्व देश संयत तथा प्रमत संयत इन तीन गुणस्थानों में परम्परा से शुद्धोपयोग का साधक ऊपर ऊपर तारतम्य से शुभोपयोग रहता है। तदनन्तर अप्रमतादि क्षीण कषाय तक 6 गुणस्थानों में जघन्य, मध्यम एवं उत्कृष्ट के भेद से विवक्षित एक देश शुद्धनय रूप शुद्धोपयोग रहता है (वर्तता है) यह उपयोग एकेन्द्रिय से लेकर पञ्चेन्द्रिय तक के सभी जीवों में हीनाधिक रूप से नियम से पाया जाता है कोई भी जीव उपयोग से रहित नहीं है। 3. अमूर्तिक :- निश्चय से जीव में पाँच वर्ण, पाँच रस, दो गन्ध और आठ स्पर्श नहीं है इसलिए वह अमूर्तिक है। किन्तु व्यवहार नय से कर्मबन्ध की अपेक्षा जीव मूर्तिक है। 4. कर्ता :- आत्मा व्यवहार नय से ज्ञानावरणादि कर्मों का कर्ता है। इसमें भी उपचरित असद्भूत व्यवहार नय से अपने से पृथक मकान भोजनादि का कर्ता है तथा अनुपचरित असद्भूत व्यवहार नय से शरीरादि नो कर्म एवं ज्ञानावरणादि कर्मों का कर्ता है। अशुद्ध निश्चय नय से राग-द्वेष रूप भाव कर्मों का जीव कर्ता है एवं शुद्ध निश्चय नय से केवलज्ञान, अनन्तसुख रूप शुद्ध भावों का कर्ता है। 5. भोक्ता :- आत्मा उपचरित असद्भूत व्यवहार नय से अपने से पृथक स्त्री, मकान, आम्र आदि फलों का भोक्ता है। अनुपचरित असद्भूत व्यवहार नय से जीव सुख दु:ख रूप कर्म फलों का भोक्ता है। तथा शुद्ध निश्चय नय से शुद्ध ज्ञान दर्शन का ही भोक्ता है। 6. स्वदेह परिमाण :- आत्मा व्यवहार नय से समुद्घघात को छोड़कर अन्य अवस्थाओं में संकोच विस्तार के कारण छोटे-बड़े शरीर के बराबर प्रमाण की धारण करने वाला है तथा निश्चय नय से जीव असंख्यात प्रदेशी है। समुदघात - मूल शरीर को छोड़े बिना आत्मा के प्रदेशों का शरीर से बाहर निकलना समुद्घात कहलाता है। समुद्घात सात प्रकार का होता है :- 1. वेदना, 2. कषाय, 3. वैक्रियिक, 4. मारणान्तिक, 5. तैजस, 6. आहारक, 7. केवलि समुद्घात। 7. संसारस्थ :- पृथ्वी कायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक ये स्थावर जीव हैं। तथा शंखादि दो, तीन, चार, पञ्चेन्द्रिय जीव त्रस है। पञ्चेन्द्रिय तिर्यच्च भी संज्ञी असंज्ञी के भेद दो प्रकार के हैं। व्यवहार नय से जीव संसार की इन पर्यायों में रहता है अत: संसारस्थ है। शुद्ध निश्चय नय से सभी संसारी जीव सिद्धों के समान शुद्ध हैं। 8. सिद्ध :- जीव स्वभाव से आठ कर्मों से रहित, आठ गुणों से सहित, अन्तिम शरीर से कुछ कम प्रमाण वाला, उत्पाद व्यय श्रीव्य युक्त, लोक के अग्रभाग में स्थित होने वाला सिद्ध है। 9. ऊध्र्वगमन स्वामी :- जैसे दीपक की शिखा स्वभाव से ही ऊपर की ओर जाती है, वैसे शुद्ध दशा में जीव भी उध्र्वगमन स्वभाव वाला होता है। धर्म द्रव्य का अभाव होने पर वह लोक के बाहर न जाकर लोकाग्र पर ही अवस्थित हो जाता है। हेय उपादेय तत्व जैसे सब्जी की दुकान पर सब्जी खरीदने जाते हैं तो जो सब्जी सड़ी हो, खराब हो, उसे नहीं खरीदते लेकिन जो सब्जी भक्ष्य होती है, ताजी होती है उसे ही खरीदते हैं। ठीक इसी प्रकार जीवादि सात तत्वों में कौन से तत्व हेय हैं कौन से तत्व उपादेय हैं ये जानना जरूरी है और हेय तत्व को छोड़ना और उपादेय तत्व को ग्रहण करना चाहिए। हेय तत्व : आस्रव बंध उपादेय तत्व : जीव, संवर निर्जरा ज्ञेय तत्व : अजीव ध्येय तत्व : मोक्ष
  3. आचार्य कुन्द कुन्द स्वामी ( ईसा सन्की द्वितीय शताब्दी ) दिगम्बर साहित्य के महान प्रणेता थे। यह समयसार ग्रन्थ आपकी सर्वोत्कृष्ट आध्यात्मिक कृति है। यहाँ समय शब्द के दो अर्थ विवक्षित है- समस्त पदार्थ और आत्मा। जिस ग्रन्थ में समस्त पदार्थों अथवा आत्मा का सार वर्णित हो, वह समयसार है। यह ग्रन्थ दश अधिकारों में विभक्त है १. जीवाधिकार २. कर्ताकर्म अधिकार ३. पुण्यपाप अधिकार ४. आस्रव अधिकार ५. संवर अधिकार ६. निर्जरा अधिकार ७. बन्ध अधिकार ८. मोक्ष अधिकार ९. सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार १०. स्याद्वाद अधिकार प्रथम जीवाधिकार में स्व-समय, पर-समय, शुद्धनय, आत्मभावना और सम्यकत्वका प्ररूपण है। जीव को कामभोग विषयक बन्धकथा ही सुलभ है। किन्तु आत्मा का एकत्व दुर्लभ है। एकत्व-विभक्त आत्मा को निजानुभूति द्वारा ही जाना जाता है। जीव प्रमत्त, अप्रमत्त दोनों दशाओं से पृथक ज्ञायकभावमात्र है। ज्ञानी के दर्शन, ज्ञान, चारित्र व्यवहार से कहे जाते हैं, निश्चय से नहीं। निश्चय से ज्ञानी एक शुद्ध ज्ञायकमात्र ही है। इस अधिकार में व्यवहार नय को अभूतार्थ और निश्चय को भूतार्थ कहा है। दूसरे कर्ताकर्माधिकार में आस्रव, बन्ध आदि की पर्यायों का विवेचन किया गया है। आत्मा के मिथ्यात्व, अज्ञान और अविरति ये तीन परिणाम अनादि से हैं। जब इन तीन प्रकार के परिणामों का कर्तृत्व होता है, तब पुदगलद्रव्य स्वयं कर्मरूप परिणमन करता है। परद्रव्य के भाव का जीव कभी भी कर्ता नहीं होता है। तीसरे पुण्य-पाप अधिकार में शुभाशुभ कर्मस्वभाव वर्णित है। अज्ञानपूर्वक किये गये व्रत, नियम,शील और तप मोक्ष के कारण नहीं हैं। जीवादि पदार्थों का श्रद्धान, उनका अधिगम और रागादि भाव का त्याग मोक्ष का मार्ग बतलाया है। चौथे आस्रवाधिकार में मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, योग और कषाय आस्रव बतलाये गये हैं। वस्तुत: राग, द्वेष, मोहरूप परिणाम ही आस्त्रव हैं। ज्ञानी के आस्त्रव का अभाव रहता है। अत: राग-द्वेष-मोहरूप परिणाम के उत्पन्न न होने से आस्त्रव प्रत्ययों का अभाव कहा जाता है। पाँचवें संवर अधिकार में संवर का मूल भेदविज्ञान बताया है। इस अधिकार में संवर के क्रम का भी वर्णन है। छठवे निर्जरा अधिकार में द्रव्य, भावरूप निर्जरा का विस्तारपूर्वक निरूपण किया है। ज्ञानी व्यक्ति कर्मों के बीच रहने पर भी कर्मों से लिप्त नहीं होता है, पर अज्ञानी कर्म रज से लिप्त रहता है। सातवें बन्धाधिकार में बन्ध के कारण रागादि का विवेचन किया है। आठवें मोक्षाधिकार में मोक्ष का स्वरूप और नववें सर्व विशुद्ध ज्ञानाधिकार में आत्मा का विशुद्ध ज्ञान की दृष्टि से अकर्तृत्व आदि सिद्ध किया है। अन्तिम दशम अधिकार में स्याद्वाद की दृष्टि से आत्मस्वरूप का विवेचन किया है। इस ग्रंथ में आचार्य अमृतचन्द्र जी का टीकानुसार ४१५ गाथायें और जयसेनाचार्य जी की टीका के अनुसार ४३९ गाथायें हैं। शुद्ध आत्मा का इतना सुन्दर और व्यवस्थित विवेचन अन्यत्र दुर्लभ है।
  4. मोह और मन-वचन-काय की प्रवृत्ति के कारण जीव के अंतरंग परिणामों में प्रतिक्षण होने वाले उतार-चढ़ाव का नाम गुणस्थान है। उनको चौदह श्रेणियों में विभाजित किया गया है। वे १४ गुणस्थान कहलाते हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं - १. मिथ्यात्व गुणस्थान २. सासादन सम्यक्त्व गुणस्थान ३. सम्यकू-मिथ्यात्व अथवा मिश्र गुणस्थान ४. अविरत गुणस्थान ५. देश विरत गुणस्थान ६. प्रमत्त गुणस्थान ७. अप्रमत्त गुणस्थान ८. अपूर्व करण गुणस्थान ९. अनिवृत्ति करण गुणस्थान १०. सूक्ष्म साम्पराय गुणस्थान ११. उपशांत मोह गुणस्थान १२. क्षीण मोह गुणस्थान १३. सयोग केवली गुणस्थान १४. अयोग केवली गुणस्थान इन गुणस्थानों का स्वरूप निम्न प्रकार है। मिथ्यात्व गुणस्थान - दर्शन मोहनीय कर्म की मिथ्यात्व प्रकृति के उदय से जीवादि सात तत्त्व, सच्चे देव-गुरु-शास्त्र के प्रति अश्रद्धान रूप परिणामों को मिथ्यात्व गुणस्थान कहते हैं। धर्म के प्रति अरुचि होना, रागी-द्वेषी देव की आराधना, जीव हिंसा से युक्त धर्म में रुचि और परिग्रह में फंसे हुए को गुरु मानना, शरीर को ही आत्मा मानना इत्यादि परिणाम मिथ्यादृष्टि जीव की पहचान के बाह्य चिह्न है। इस गुणस्थान में एक जीव जघन्य से अन्तर्मुहूर्त काल एवं उत्कृष्ट से अनन्त काल तक रह सकता है। सासादन गुणस्थान - अनन्तानुबन्धी क्रोध-मान-माया-लोभ में से किसी एक कषाय का उदय हाने से सम्यक्त्व परिणामों के छूटने पर और मिथ्यात्व प्रकृति के उदय न होने से मिथ्यात्व परिणामों के न होने पर मध्य के काल में जो परिणाम होते हैं उसे सासादन गुणस्थान कहते हैं। इस गुणस्थान का काल जघन्य से एक समय एवं उत्कृष्ट से छह आवली प्रमाण है। सम्यक्त्व मिथ्यात्वगुणस्थान – जात्यन्तर सर्वघाती सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति के उदय से केवल सम्यक्त्व रूप या मिथ्यात्वरूप परिणाम न होकर मिले हुए दही गुड़ के समान खटमीठा रूप मिश्र परिणाम होने से सम्यक्त्व मिथ्यात्व नाम वाला मिश्र गुणस्थान होता है। एक जीव की अपेक्षा इसका जघन्य व उत्कृष्ट काल मात्र अन्तर्मुहूर्त है इस गुणस्थान में नवीन आयु का बंध नहीं होता व मरण भी नहीं होता। अविरत सम्यक्त्व गुणस्थान – जहाँ मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व प्रकृति तथा अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ इन सात प्रकृतियों के उपशम, क्षय अथवा क्षयोपराम से सम्यग्दर्शन तो हो जाता है, परन्तु अप्रत्याख्यानादि चारित्र मोह की प्रकृतियों का उदय रहने से पाँच पाप के त्याग रूप परिणाम नहीं होते हैं। उसे अविरत सम्यक्त्व गुणस्थान कहते हैं। प्रशम, संवेग, अनुकम्पा आस्तिक्य ये सम्यग्दृष्टि की पहचान के चिह्न हैं। कोई एक जीव इस गुणस्थान में जघन्य से अन्तर्मुहूर्त एवं उत्कृष्ट से ३३ सागर + एक करोड़ पूर्व तक रह सकता है। देशविरत गुणस्थान - अप्रत्याख्यानावरण कषाय के अनुदय (उदय न होने से) से जहाँ जीव के हिंसा आदि पाँच पापों के एकदेश त्याग रूप परिणाम होते हैं उसे देशविरत गुणस्थान कहते है। इस गुणस्थान में त्रस हिंसा के त्याग रूप संयम एवं स्थावर हिंसा के त्याग नहीं रूप असंयम भाव होने से इसे संयमा संयम गुणस्थान भी कहते हैं। कोई एक जीव इस गुणस्थान में जघन्य से अन्तर्मुहूर्त एवं उत्कृष्ट से अन्तर्मुहूर्त कम एक करोड़ पूर्व वर्ष तक रह सकता है। प्रमत्त विरत गुणस्थान - प्रत्याख्यानावरण कषाय के अनुदय से जहाँ पाँच पाप के पूर्ण त्याग रूप सकल संयम तो हो चुका है, किन्तु संज्वलन और नो कषाय का उदय रहने पर संयम में मल उत्पन्न करने वाला प्रमाद रूप परिणाम होता है, अतएव इस गुणस्थान को प्रमत्त विरत गुणस्थान कहते हैं। एक जीव इस गुणस्थान में कम से कम एक समय एवं उत्कृष्ट से अन्तर्मुहूर्त तक रह सकता है। अप्रमत्त विरत गुणस्थान - जब संज्वलन कषाय और नोकषाय का मन्द उदय होता है, तब सकल संयम से युक्त मुनि के प्रमाद रूप परिणामों का अभाव हो जाता है, इसलिए इसे अप्रमत्त विरत गुणस्थान कहते हैं। इस गुणस्थान का काल जघन्य से एक समय एवं उत्कृष्ट से अन्तर्मुहूर्त है। इस गुणस्थान के आगे बढ़ने वाले साधक दो प्रकार के होते हैं। (१) उपशामक (२) क्षपक । उपशम श्रेणी में चढ़ने वाले साधक उपशामक कहलाते हैं, चारित्र मोहनीय का उपशम करने के लिए जो श्रेणी चढ़ी जाती है उसे उपशम श्रेणी कहते हैं, इस पर चढ़ने वाला साधक नियम से ग्यारहवें गुणस्थान तक पहुँचकर फिर नीचे के गुणस्थानों में गिर जाता है। उपशम का अर्थ दबाना होता है जैसे धूल कण मिश्रित जल के शांत होने पर उसके कण नीचे बैठ जाते हैं।क्षपक श्रेणी में चढ़ने वाले साधक क्षपक कहलाते हैं,जिसमें चारित्र मोह का क्षय होता है उसको क्षपक श्रेणी कहते हैं, इस श्रेणी पर चढ़ने वाला साधाक दसवे' गुणस्थान से सीधे बारहवें गुणस्थान में पहुंच जाता है।वह कमो का क्षय करता हुआ केवलज्ञान उपलब्ध कर लेता है | अपूर्वकरण गुणस्थान – जो परिणाम पहिले समय में नहीं थे ऐसे नवीन परिणाम जहाँ होते हैंउसे अपूर्वकरण गुणस्थान कहते हैं।यहाँ सम—समयवर्ती अनेक जीवों के परिणाम समान और असमान दोनों | प्रकार के तथा भिन्न समयवर्ती जीवों के परिणाम असमान ही होते हैं। यहाँ मोहनीय कर्म के उपशय एवं क्षय की भूमिका बनती है। अनिवृत्ति करण गुणस्थान - जहाँ समान समयवर्ती जीवों में परिणामों में भेद नहीं पाया जाता है परन्तु भिन्न समयवर्ती जीवों के परिणामों में सर्वथा भेद ही पाया जाता है। इसे अनिवृत्ति करण गुणस्थान कहते हैं। यहाँ उपशम क्षय का कार्य प्रारंभ होता है। सूक्ष्म साम्पराय गुणस्थान – साम्पराय का अर्थ कषाय, जहाँ सूक्ष्मता को प्राप्त संज्वलन लोभ कषाय का ही उदय पाया जाए उसे सूक्ष्म साम्पराय गुणस्थान कहते हैं। उपशांत मोह गुणस्थान - सम्पूर्ण मोहनीय कर्म के उपशम से उत्पन्न होने वाले, निर्मल परिणामों को उपशान्त मोह गुणस्थान कहते हैं। इस गुणस्थान का धारक जीव अन्तर्मुहूर्त की भीतर आयु क्षय अथवा (गुणस्थान के) काल क्षय के कारण नियम से नीचे के गुणस्थान में पतित होता है। क्षीण मोह गुणस्थान - मोहनीय कर्म का सर्वथा क्षय हो जाने से जहाँ आत्मा के परिणाम स्कटिक मणि के स्वच्छ पात्र में रखे हुए जल के समान निर्मल होते हैं, उसे क्षीणमोह गुणस्थान कहते हैं। सयोग केवली गुणस्थान - जहाँ घातिया कर्मों की ४६, नामकर्म की ६३ प्रकृतियों के क्षय से केवलज्ञान प्राप्त होता है तथा योग सहित प्रवृत्ति होती है, उसे सयोग केवली गुणस्थान कहते हैं। अयोग केवली गुणस्थान - जहाँ मन, वचन, काय इन तीनों योगों का सर्वथा अभाव हो जाता है, उसे अयोग केवली गुणस्थान कहते हैं। इस गुणस्थान का काल 'अ इ उ ऋ लू' इन पाँच लघु अक्षर के उच्चारण काल के बराबर है। आठवें से बारहवें तक के गुणस्थान में प्रत्येक का काल अन्तर्मूहूर्त होता है। तेरहवें गुणस्थान का जघन्य काल अन्तर्मूहूर्त एवं उत्कृष्ट काल आठ वर्ष अन्तर्मूहूर्त कम एक पूर्व कोटि वर्ष होता है। संसार में कोई भी जीव गुणस्थान से रहित नहीं होता है अत: पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, पेड़-पौधे, द्वि इन्द्रिय आदि विकलत्रय, असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय अभव्य जीव इनको प्रथम मिथ्यात्व गुणस्थान होता है। देशव्रती श्रावक (१ से १० प्रतिमाधारी), छुल्लक ऐलक (११ प्रतिमाधारी) एवं आर्यिका माताओों का पञ्चम संयमासंयम गुणस्थान होता है। इस पंचम काल में महाव्रती (मुनिराज) का छटवाँ-सातवा गुणस्थान होता है एवं उसी भव में मोक्ष जाने वाले मुनियों को ऊपर के गुणस्थान (८ से १४ तक) भी हो सकते हैं। नारकी जीवों में १ से ४ तक गुणस्थान होते हैं, तिर्यञ्च (संज्ञी पञ्चेन्द्रिय) में १ से ५ तक, मनुष्यों में १ से १४ तक तथा देवों में १ से ४ तक गुणस्थान होते है। भोगभूमिज तिर्यज्चों व मनुष्यों के १ से ४ ही गुणस्थान होते हैं। अद्वितीय रचना - सिरिभूवलय - ग्रन्थ आचार्य श्री कुमुदेन्दु (९ वीं सदी) द्वारा रचित सिरि भूवलय अद्भुत ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ में १८ महाभाषाएं एवं ७०० लघु भाषाएं गर्भित हैं। अंक राशि से निर्मित यह ग्रन्थ अद्वितीय सिद्धान्तों पर आधारित है। विज्ञान का भी यह अभूतपूर्व ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ में बड़ा वैचित्र्य है, इसमें २७ पंक्ति (लाइनें) और २७ स्तम्भ (कॉलम) में ७२९ खाने युक्त कई टेबल हैं। खानों में १ से ६४ तक अंकों का प्रयोग किया गया है, अंकों से ही अलग-अलग अक्षर बनते हैं। इन अक्षरों से इस ग्रन्थ के पढ़ने के कई सूत्र है, उन्हें बंध कहा जाता है। बन्धों के अलग-अलग नाम है जैसे चक्रबंध, हंसबंध, पद्म बंध, मयूर बंध आदि। बंध खोलने की विधी का जानकार ही इस ग्रन्थ का वाचन कर सकता है। इसके एक-एक अध्याय के श्लोकों को अलग-अलग रीति से पढ़ने पर अलग-अलग ग्रन्थ निकलते हैं। इसमें ऋषिमण्डल, स्वयम्भू स्तोत्र, पात्रकेशरी स्तोत्र, कल्याण कारक, हरिगीता, जयभगवद्गीता, प्राकृत भगवत् गीता, संस्कृत भगवत् गीता, कर्नाटक भगवत् गीता, गीर्वाण भगवद्गीता, जयाख्यान महाभारत आदि के अंश गर्भित होने की सूचना तो है ही साथ ही अब तक अनुपलब्ध स्वामी समन्तभद्राचार्य विरचित महत्वपूर्ण ग्रन्थ गन्ध हस्ति महाभाष्य के गर्भित होने की भी सूचना है। इसमें ऋग्वेद, जम्बूद्वीप पण्णर्त्ति, तिलोयपण्णत्ती, सूर्य प्रज्ञप्ति, समयसार्, पुष्पायुर्वेद एवं स्वर्ण बनाने की विधी आदि अनेक विषय वर्णित हैं। भगवान महावीर की दिव्य ध्वनि जैसे विभिन्न भाषा भाषियों को अपनी-अपनी भाषा में सुनाई देती थी, ठीक वही सिद्धान्त इसमें अपनाया गया है। जिससे एक ही अंकचक्र को अलग-अलग तरह से पढ़ने पर अलग-अलग भाषाओं के ग्रन्थ और विषय निकलते हैं। इस ग्रन्थ का परिचय जब भारत के तात्कालीन राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद जी को दिया गया तो उन्होंने इसको संसार का आठवां आश्चर्य बताया और राष्ट्रीय महत्व का कहकर इसकी पाण्डुलिपि राष्ट्रीय अभिलेखागार में सुरक्षित करवाई। इस सिरिभूवलय ग्रन्थ पर अनुसंधान कार्य जारी है। अनके साधु एवं संस्थान इस कार्य में लगे हुए हैं। खोज स्वरूप अनेक चौकाने वाले तथ्य प्रकाश में आएंगे।
  5. सोलापुर जिला के करकंब गाँव में सेठ पद्मसी के यहाँ ई. सन् १८९० में मोतीचंद जी का जन्म हुआ था। पिताजी का देहान्त होने पर वे अपने मामा, मौसी के यहाँ सोलापुर आए। वहीं आपका प्रारम्भिक अध्ययन हुआ। दुधनी गाँव से शिक्षा के लिए सोलापुर में आए बालचंददेवचंद जी (मुनि श्री समन्तभद्र महाराज) आपके परममित्र थे। आप दोनों ने कुंथलगिरि सिद्धक्षेत्र पर देशभूषण-कुलभूषण भगवान के समक्ष आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत अंगीकार किया था। देशभक्ति की भावना से ओतप्रोत होकर सन् १९०६ में आपने बालोत्तेजक समाज 'सोलापुर' की स्थापना तिलकजी के सान्निध्य में की थी। धर्म शिक्षा एवं राष्ट्रसेवा की भावना मन में लेकर आप देवचंद, बालचंद आदि साथियों के साथ जयपुर के पं. अर्जुनलालजी सेठी के पास पहुँचे। पं. अर्जुनलालजी भी क्रांतिकारी विचारधारा के थे। अंग्रेजों के सहयोगी समर्थन किसी महंत के हत्यारों की सहायता करने के दण्ड में आपको आरा कोर्ट ने फाँसी की सजा सुनाई। तब वन्दे मातरम् कहते हुए उन्होंने हंसते-हसते सजा स्वीकार कर उत्तम समाधि साधना की। अंतिम इच्छा भगवान् के दर्शन की होने पर प्रात: ४ बजे ही गाँव के मंदिर से पाश्र्वनाथ भगवान की मूर्ति जेल के कमरे में लाई गई, उत्कृष्ट भावों से उन्होंने भगवान के दर्शन किए, सामायिक की और तत्वार्थसूत्र का पठन कर एकाग्रता से सामायिक पाठ का श्रवण किया तथा एक घटे बाद मात्र २५ वर्ष की आयु में उन्हें फाँसी लगा दी गई। आध्यात्मिक जाग्रति और सम्यग्ज्ञान का प्रतिफल रहा कि वे अन्त समय तक आकुल-व्याकुल नहीं रहे अपितु प्रसन्नता पूर्वक फाँसी के फन्दे पर झूल गए। कारागृह में रहते हुए उन्होंने अपने युवा मित्रों के लिए खून से पत्र लिखा था, जिसके कुछ बिन्दु इस प्रकार हैं जो हुआ सो हुआ और जो हुआ वह होने ही वाला था, परन्तु हमें ऐसी स्थिति में निराश होने का कोई कारण नहीं क्योंकि जिन्होंने अनंत चतुष्टय प्राप्त किया, जो अनिर्वचनीय आनंद में लीन हुए हैं, उन महान पूर्वजों का और तेजस्वी आचार्यों का अभेद्य छत्र हमारे माथे पर है। दिन और संकट बीत जाएंगे, लेकिन कृति हमेशा के लिए चिरंतन रहेगी। कर्तव्य दक्षता से काम करें तो स्वदेश की और जैन धर्म की उन्नति सर्वस्वरूप से अपने हाथ में ही है। जैनधर्म की उन्नति के लिए हमें संकट सहने के लिए सदा तैयार रहना चाहिए। सिर्फ खुद का पेट भरने के लिए और परिवार के पोषण के लिए मैं विद्वान् बनूँ तो उस विद्वता का क्या काम? मैं जो कुछ सीखेंगा वह स्वधर्म के लिए ही, अमीर हुआ तो सिर्फ स्वधर्म के लिए, गरीब रह गया तो भी स्वधर्म के लिए ही, मैं जिऊँगा तो सिर्फ स्वधर्म के लिए और मरूंगा तो भी स्वधर्म की सेवा में।
  6. वास्तव में (निश्चय से) जीव ज्ञान-दर्शन उपयोग वाला, स्पर्श-रस-गंध-वर्ण से रहित अमूर्त स्वभाव वाला है। अर्थात् जीव को हम आँखों के माध्यम से देख नहीं सकते। फिर जो मनुष्यादि देखने में आ रहे वे कौन हैं ? ऐसा प्रश्न होने पर उत्तर यह है कि - जीव और पुद्गल इन दो के संयोग से उत्पन्न अवस्था विशेष है। जैसे प्रकाशमान बल्व। विद्युत (करंट) और बल्व का संयोग होने पर प्रकाश उत्पन्न होता है विद्युत देखने में नहीं आती किन्तु प्रकाशमान बल्व को देखकर करंट का ज्ञान हो जाता है। उसी प्रकार क्रियावान मनुष्यादि को देखकर यह मनुष्य जीव है ऐसा कहा जाता है। शुद्ध जीव देखने में नहीं आता कर्मबंध से सहित अशुद्ध जीव देखने में आता है अथवा निश्चय से कहें, तो पुद्गल ही देखने में आता है। विद्युत के अभाव में बल्व मात्र अकार्यकारी होता है उसी प्रकार जीव/आत्मा के अभाव में यह शरीर निष्क्रिय हो जाता है। शव अथवा मुर्दा कहा जाता है। जीव और कर्मों का संबंध स्वर्ण पाषाण की तरह अनादि काल से है। विशेष प्रक्रिया द्वारा जैसे स्वर्ण पाषाण में से सोना पृथक कर लिया जाता है किया जा सकता है। उसी प्रकार जीव और कर्मों को भी तप, ध्यान आदि की प्रक्रिया द्वारा पृथक-पृथक किया जा सकता है। शरीर शरीर नाम कर्म है जिसका उदय होने पर जीव को शरीर धारण करना पड़ता है। ये शरीर पाँच प्रकार के हैं (१) औदारिक शरीर, (२) वैक्रियक शरीर, (३) आहारक शरीर, (४) तैजस शरीर, (५) कार्मण शरीर। जो शरीर अत्यन्त स्थूल तथा उदार हो उसे औदारिक शरीर कहते हैं। जो शरीर अनेक प्रकार के छोटे-बड़े हल्के-भारी आदि अनेक रूप धारण करने की क्षमता रखता है, वैक्रियक शरीर कहलाता है। तत्वादिक विषयक शंका होने पर, तीर्थयात्रा आदि का विकल्प होने पर, असंयम के परिवार हेतु ऋद्धिधारी मुनिराज के मस्तक से एक हाथ प्रमाण सर्वाग सुन्दर शुभ्र वर्णवाला जो पुतला निकलता है, उसे आहारक शरीर कहते हैं। औदारिक और वैक्रियक शरीर में कांति और प्रकाश उत्पन्न करने वाले शरीर को तैजस शरीर कहते हैं। हमारे शरीर में रक्त संचार उष्मा के कारण होता है अत: यह उष्मा ही तैजस शरीर है एवं जिस जठराग्नि के माध्यम से पेट का भोजन पचता है वह भी तैजस शरीर का कार्य है। आठ कर्मों के समूह रूप शरीर को कार्मण शरीर कहते हैं। छतरी के मूठ की भाँति यह सब कर्मों का आधार भूत है। औदारिक शरीर से आगे-आगे के शरीर सूक्ष्म होते जाते हैं किन्तु उनमें प्रदेशों की संख्या बढ़ती जाती है। प्रदेशों की अपेक्षा औदारिक शरीर के प्रदेशो से असंख्यात गुणे प्रदेश वैक्रियक शरीर में, इससे असंख्यात गुणे प्रदेश आहारक शरीर में, इससे अनन्त गुणे प्रदेश तैजस शरीर में तथा इससे भी अनन्त गुणे प्रदेश कार्मण शरीर में होते हैं। प्रदेशों की संख्या अधिक होते हुए भी आगे-आगे अत्यधिक सघनता को लिए ये प्रदेश रहते हैं। अत: आगे-आगे शरीर सूक्ष्म होते जाते हैं। उदाहरण के लिए ५० ग्राम रुई अधिक स्थूलता को प्राप्त होती है जबकि ५० ग्राम ही लोहा उसकी अपेक्षा अत्यन्त सूक्ष्मता को धारण करता है। औदारिक शरीर से वैक्रियक शरीर सूक्ष्म होते हुए भी स्थूलता का परित्याग नहीं करते अत: औदारिक और वैक्रियक शरीर को हम नेत्रों द्वारा देख सकते हैं शेष शरीरों को नहीं। औदारिक, वैक्रियक और आहारक ये तीन शरीर पाँच इन्द्रियों के द्वारा पदार्थों का भोग उपभोग कर सकते हैं किन्तु कार्मण शरीर नहीं। एक जीव में दो को आदि लेकर चार शरीर तक हो सकते हैं। किसी के दो शरीर हों तो तैजस और कार्मण। तीन हों तो तैजस, कार्मण और औदारिक अथवा तैजस, कार्मण और वैक्रियिक। चार हों तो तैजस, कार्मण, औदारिक और वैक्रियिक शरीर अथवा तैजस, कार्मण, औदारिक और आहारक हो सकते हैं। एक साथ पाँच शरीर नहीं हो सकते क्योंकि वैक्रियिक तथा आहारक ऋद्धि एक साथ नहीं होती है। प्राण शरीर धारी प्राणियों में जो जीवन शक्ति है अर्थात् जिससे प्राणी जीता था, जीता है व जीवेगा उसे प्राण कहते हैं। इन्द्रिय, बल, आयु और श्वासोच्छवास इनके उत्तर भेद करने पर दस प्राण हो जाते हैं। ५ इन्द्रिय प्राण - स्पर्शन इंन्द्रिय प्राण, रसना इंद्रिय प्राण, घ्राण इंद्रिय प्राण, चक्षु इंद्रिय प्राण और कर्ण इंद्रिय प्राण। ३ बल प्राण - मनबल प्राण, वचन बल प्राण और काय बल प्राण १ आयु प्राण तथा १ श्वासोच्छवास प्राण। एकेन्द्रिय आदि जीवों में प्राणों की संख्या सारणी के माध्यम से समझेंगे। सयोग केवली अरिहन्त के वचन बल, आयु, श्वासोच्छवास और काय बल ये चार प्राण होते हैं एवं अयोग केवली के मात्र एक आयु प्राण होता है। पर्याति - आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छवास, भाषा और मन रूप शक्तियों की पूर्णता के कारण को पर्याति कहते हैं। पर्यात नाम कर्म के उदय से सहित जिन जीवों की शरीर पर्याति पूर्ण हो जाती है, उन्हें पर्यातक जीव कहते हैं। पर्यातक नाम कर्म के उदय से युक्त जीव की जब तक शरीर पर्याति पूर्ण नहीं होती तब तक उसे निवृति अपर्यातक कहते हैं। ये जीव नियम से पर्यातियाँ पूर्ण करेंगे। अपर्यात नामकर्म के उदय से सहित जिन जीवों की एक भी पर्याति न पूर्ण हुई है और न आगे पूर्ण होगी, उन्हें लब्धि अपर्यातक जीव कहते हैं। जन्म एक गति को छोड़ दूसरी गति में जीव के उत्पन्न होने को जन्म कहते हैं, वह जन्म दो प्रकार का होता है, पहला जन्म अन्य गति में उत्पत्तिका प्रथम समय तथा दूसरा जन्म - योनि निष्क्रमण रूप अर्थात् गर्भ से बाहर आने रूप । जन्म स्थान में प्रवेश करते ही यह जीव अपने शरीर निर्माण हेतु योग्य पुद्गल वर्णणाओं को ग्रहण करता है तत्पश्चात् अन्तमुहूर्त काल में शरीर, इंद्रिय, श्वासोच्छवास, भाषा और मन का निर्माण करता है। उसके बाद यथायोग्य काल में विकास को प्राप्त हो गर्भ से बाहर निकलता है। यह जन्म तीन प्रकार का होता है - (१) गर्भजन्म (२) उपपाद जन्म (३) सम्मूछन जन्म। माता के उदर में रज और वीर्य के संयोग से जो जन्म होता है उसे गर्भजन्म कहते हैं। यह जन्म भी तीन प्रकार का है जरायु, अण्डज एवं पोत जन्म। जो जाल के समान प्राणियों का आवरण है और जो मांस और शोणित (खून) से बना है उसे जरायु कहते हैं, इसमें से जन्म लेने वाले जरायुज कहलाते हैं। पर्याप्तक मनुष्य, गाय घोड़े आदि जरायुज है। जो जीव नख के समान कठोर अवयव वाले अण्डे से उत्पन्न होते हैं उन्हें अण्डज कहते हैं। जैसे चील, कबूतर, मुर्गा आदि। जो जीव आवरण रहित उत्पन्न होते हैं और उत्पन्न होते ही चलने-फिरने लग जाते हैं, उन्हें पोत कहते हैं। जैसे - सिंह, हिरण, बिल्ली आदि। सम्पुट (ढकी हुई)शय्या एवं ऊँट आदि मुखाकार बिलों में लघु अन्तर्मुहूर्त काल में ही जीव का उत्पन्न होना उपपाद जन्म है। उपपाद जन्म देव और नारकियों के ही होता है। जन्मते ही उनका शरीर युवक की तरह होता है। आस-पास के योग्य वातावरण से पुद्गलों को ग्रहण कर जो जन्म होता है उसे सम्मूछन जन्म कहते हैं। एकेन्द्रिय से लेकर चार इंद्रिय तक के सभी जीव सम्मूछनज होते हैं। कोई-कोई पञ्चेन्द्रिय तिर्यज्च तथा- मल-मूत्र, पसीना आदि में उत्पन्न होने वाले मनुष्य भी सम्मूछनज होते हैं।
  7. संसार की कारण भूत बाहय और अंतरंग क्रियाओं से निवृत होना अथवा मन वचन काय से सम्यक दर्शन सम्यक ज्ञान पूर्वक विषय-वासना, हिंसादि पाप रूप अशुभ क्रियाओं का त्याग कर, शील व्रतादि रूप शुभ क्रियाओं को धारण करना 'सम्यक्र चारित्र' है। अणुव्रत एवं महाव्रत की अपेक्षा वह चरित्र दो प्रकार का हो जाता है एकदेश चारित्र व सर्वदेश चारित्र (सकल चारित्र) । सकल चारित्र के वीतराग चारित्र व सराग चारित्र दो भेद हैं :- वीतराग चारित्र - शुभ-अशुभ दोनों प्रकार के योगों से निवृत होना वीतराग चारित्र है। उत्सर्ग मार्ग, उपेक्षा संयम, निश्चय चारित्र, शुद्धोपयोग एकार्थवाची हैं। सरागचारित्र - सरागी जीव का प्राणियों और इन्द्रियों के विषय में अशुभ प्रवृति के त्याग को सराग संयम अथवा सराग चारित्र कहते हैं। अपवाद मार्ग, एकदेश परित्याग, अपहृत संयम, सराग चारित्र, व्यवहार चारित्र, शुभोपयोग ये सब एकार्थवाची हैं। सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहार विशुद्धि, सूक्ष्म साम्पराय और यथाख्यात चारित्र की अपेक्षा सम्यक्र चारित्र के पाँच भेद है। सामायिक चारित्र - जिसमें सकल संयम को स्वीकार किया है, ऐसे सर्व सावद्य के त्याग रूप एक मात्र अनुत्तर एवं दुष्प्राप्य अभेद संयम/चारित्र को धारण करना 'सामायिक चारित्र' है। छेदोपस्थापना चारित्र - यद्यपि दीक्षा ग्रहण करते समय साधु पूर्णतया साम्य रहने की प्रतिज्ञा करता है। परन्तु पूर्ण निर्विकल्पता में अधिक देर टिकने में समर्थ न होने पर व्रत, समिति, गुप्तिआदि रूप व्यवहार चारित्र तथा क्रियानुष्ठानो में अपने को स्थापित करता है, पुन: कुछ समय पश्चात् अवकाश पाकर साम्यता में पहुँच जाता और पुन: परिणामों के गिरने पर विकल्पों में स्थित होना 'छेदोपस्थापना चारित्र' है। अथवा भेद रूप चारित्र को छेदोपस्थापना कहते हैं। परिहार विशुद्धि चारित्र - प्राणिवध से निवृत्ति को परिहार कहते हैं इस युक्त शुद्धि जिस चरित्र में होती है वह 'परिहार विशुद्धि चारित्र' है। यह चारित्र अत्यन्त निर्मल है जिसने अपनी आयु के तीस वर्ष घर में रहकर व्यतीत किए पश्चात् संयम धारण कर तीर्थकर के पादमूल में प्रत्याख्यान नामक पूर्व का अध्ययन किया ऐसा धीर व उच्चदशीं साधु ही परिहार विशुद्धि संयम का धारी हो सकता है। सूक्ष्म साम्पराय चारित्र - जिस चरित्र में कषाय अत्यन्त सूक्ष्म हो अथवा सूक्ष्म लोभ कषाय का संवेदन करने वाले दसवें गुणस्थानवर्ती मुनि का चारित्र 'सूक्ष्म साम्पराय चारित्र' कहलाता है। यथाख्यात चारित्र - समस्त मोहनीय कर्म के उपशम या क्षय से आत्मा का जैसा स्वरूप है उसी प्रकार से अवस्थित होना 'यथाख्यात चारित्र' है।
  8. कर्मक्षय के लिए जो तपा जाता है, वह तप है। तप के मूल में दो भेद हैं – बाह्य तप और आभ्यंतर तप। बाह्य तप - बाह्य द्रव्य के आलम्बन से होता है और दूसरों के देखने में आता है, इसलिए इनको बाह्य तप कहते हैं। आभ्यंतर तप - आभ्यंतर तप (अंतरङ्ग तप) प्रायश्चित्तादि तपों में बाह्य द्रव्य की अपेक्षा नहीं रहती है। अंतरंग परिणामों की मुख्यता रहती है तथा इनका स्वयं ही संवेदन होता है। ये देखने में नहीं आते तथा इसको अनाहत (अजैन) लोग धारण नहीं कर सकते। इसलिए प्रायश्चित्तादि को अंतरङ्ग तप माना है। बाह्य तप छ: होते हैं - १. अनशन, २. अवमौदर्य, ३. वृत्तिपरिसंख्यान, ४. रसपरित्याग, ५. विवितशय्यासन ६. कायक्लेश। अशन का अर्थ है-आहार और अनशन का अर्थ है, चारों प्रकार के आहार का त्याग यह एक दिन को आदि लेकर बहुत दिन तक के लिए किया जाता है। प्राणि संयम व इन्द्रिय संयम की सिद्धि के लिए एवं कर्मों की निर्जरा के लिए अनशन तप किया जाता है। भूख से कम खाना अवमौदर्य नामक तप है। अवमौदर्य तप संयम को जागृत रखने, दोषों को प्रशम करने, संतोष और स्वाध्याय आदि की सुख पूर्वक सिद्धि के लिए किया जाता है। जब मुनि आहार के लिए जाते हैं तो मन में संकल्प लेकर जाते हैं, जिसे आप लोग विधि कहते हैं। जैसे-एक कलश, दो कलश से पड़गाहन होगा तो जाएंगे नहीं तो नहीं। एक मुहल्ला, दो मुहल्ला तक ही जाऊँगा। यह वृतिपरिसंख्यान तप है। ऐसा करें ही, यह नियम नहीं है। वृतिपरिसंख्यान तप आशा की निवृत्ति के लिए, अपने पुण्य की परीक्षा के लिए एवं कर्मों की निर्जरा के लिए किया जाता है। घी, दूध, दही, शकर, नमक, तेल, इन छ: रसों में से एक या सभी रसों का त्याग करना रस परित्याग तप है। अथवा वनस्पति, दाल, रस परित्याग तप रसना इन्द्रिय को जीतने के लिए निद्रा व प्रमाद को जीतने के लिए, स्वाध्याय की सिद्धि के लिए एवं कर्मों की निर्जरा के लिए किया जाता है। स्वाध्याय, ध्यान आदि की सिद्धि के लिए एकान्त स्थान पर शयन करना, आसन लगाना, विवितशय्यासन तप है। विवितशय्यासन तप चित्त की शांति के लिए, निद्रा को जीतने के लिए एवं कर्मों की निर्जरा के लिए किया जाता है। शरीर को सुख मिले ऐसी भावना को त्यागना कायक्लेश तप है।अथवा वर्षाऋतु में वृक्ष के नीचे, ग्रीष्म ऋतु में धूप में बैठकर तथा शीत ऋतु में नदी तट पर कायोत्सर्ग करना, ध्यान लगाना कायक्लेश तप है। कायक्लेश तप से कष्टों को सहन करने की क्षमता आती है, जिनशासन की प्रभावना होती है एवं कर्मों की निर्जरा हो इसलिए किया जाता है। अंतरङ्ग तप छ: होते हैं। १. प्रायश्चित, २. विनय, ३. वैयावृत्य, ४. स्वाध्याय, ५ व्युत्सर्ग ६ ध्यान। प्रमादजन्य दोष का परिहार करना प्रायश्चित तप है। व्रतों में लगे हुए दोषों को प्राप्त हुआ साधक, जिससे पूर्व किए अपराधों से निर्दोष हो जाय वह प्रायश्चित तप है। मोक्ष के साधन भूत सम्यग्ज्ञानादिक में तथा उनके साधक गुरुआदि में अपनी योग्य रीति से सत्कार आदि करना विनय तप है। अपने शरीर व अन्य प्रासुक वस्तुओं से मुनियों व त्यागियों की सेवा करना, उनके ऊपर आई हुई आपत्ति को दूर करना, वैयावृत्य तप है। 'ज्ञानभावनालस्यत्याग: स्वाध्याय:" आलस्य त्यागकर ज्ञान की आराधना करना, स्वाध्याय तप है। अथवा २. अङ्ग और अङ्गबाह्य आगम की वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा, आम्नाय और धर्मकथा करना, स्वाध्याय तप है। अहंकार ममकार रूप संकल्प का त्याग करना ही, व्युत्सर्ग तप है। उत्तम संहनन वाले का एक विषय में चित्तवृत्ति का रोकना ध्यान है, जो अन्तर्मुहूर्त तक होता है।
  9. जो ज्ञान वस्तु के स्वरूप को न्यूनता रहित तथा अधिकता रहित, विपरीतता रहित, जैसा का तैसा, सन्देह रहित जानता है, उसे सम्यक् ज्ञान कहते हैं। सम्यक् ज्ञान के आठ अंग होते है :- १. कालाचार, २. विनयाचार, ३. उपधान, ४. बहुमान, ५. अनिहनव ६. अर्थ ७. शुद्धि, ८. व्यञ्जन शुद्धि एवं ९. अर्थ-व्यञ्जन (तदुभय) शुद्धि। कालाचार - आगम में वर्णित स्वाध्याय के काल में ही अध्ययन करना 'कालाचार' कहलाता है। जैसे सन्धिकालों में, अष्टमी - चतुर्दशी आदि पर्व के दिनों में, सूर्यग्रहण चन्द्रग्रहण के काल में, अतिवृष्टि के साथ उल्कापात होने के काल में सिद्धान्त ग्रन्थों का अध्ययन नहीं करना। परन्तु ऐसे समयों में भी अनुप्रेक्षात्मक स्वाध्याय कर सकते हैं। विनयाचार - मन-वचन-काय से शास्त्र का विनय करना, आलस्य रहित होकर ज्ञान का ग्रहण करना अभ्यास और चिन्तन करना, जिनवाणी को उच्चासन पर विराजमान करना, शास्त्र पर वेष्टन लगाना, काय शुद्धि यानि हाथ-पैर धोकर ही ग्रन्थ को स्पर्श करना आदि 'विनयाचार' है। उपधान - स्वाध्याय प्रारंभ करने से लेकर पूर्ण होने तक खाद्य पदार्थ, भोगोपभोग आदि सामग्री का त्याग करना, विशेष नियम उपवासादि का नियम करना 'उपधान अंग' है। बहुमान – कर्म निर्जरा के हेतु, आचार्यां की वाणी का पूजा सत्कारादि से पाठ करना अर्थात् मंगलाचरण पूर्वक पवित्रता से हाथ जोड़कर, मन को एकाग्र कर, बड़े आदर के साथ ग्रंथों का स्वाध्याय करना 'बहुमान' नामक अंग है। अनिहनव - अपने पढ़ाने वाले गुरु का तथा पढ़े हुए शास्त्र का नाम नहीं छिपाना, उसको सबके समक्ष प्रगट करना 'अनिहनव" नामक सम्यक् ज्ञान का अंग है। अर्थ शुद्धि - अर्थ शब्द का भाव शब्दोच्चारण के होने पर मन में जो अभिप्राय उत्पन्न होता है वह है। अत: संशय, विपर्यय, अनध्यवसायादि दोषों से रहित गणधरादि द्वारा रचित सूत्र के अर्थ का निरूपण करना 'अर्थ शुद्धि' है। व्यञ्जन शुद्धि - उच्च उच्चार के समय उच्च उच्चारण करना एवं हृस्व उच्चार के समय हुस्व उच्चारण करना, वर्ण, पद वाक्य को शुद्ध पढ़ना 'व्यञ्जन शुद्धि' है। अर्थ-व्यञ्जन (तदुभय) शुद्धि - अर्थ शुद्धि और व्यञ्जन शुद्धि दोनों का पालन करते हुए स्वाध्याय करना अर्थात् व्यञ्जन की शुद्धि और उसके वाच्य, अभिप्राय की जो शुद्धि है वह अर्थ-व्यञ्जन नामा तदुभय शुद्धि है। सम्यक् ज्ञान पाँच प्रकार का है :- मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान मन:पर्यय ज्ञान और केवल ज्ञान। मतिज्ञान पाँच इन्द्रियों और मन से जो पदार्थ का ग्रहण होता है, उसे मति ज्ञान कहते है। यह मतिज्ञान अवग्रह, ईहा, आवाय और धारणा के भेद से चार प्रकार का है । अवग्रह मतिज्ञान - पदार्थ और इन्द्रिय का सम्बन्ध होने पर सर्वप्रथम दर्शन होता है उसके पश्चात् जो पदार्थ का ग्रहण होता है वह अवग्रह कहलाता है। जैसे चक्षु इन्द्रिय के द्वारा 'यह शुक्ल (सफेद) रूप है' ऐसा ग्रहण करना अवग्रह है। ईहा मतिज्ञान - अवग्रह के द्वारा ग्रहण किये गये पदार्थों में विशेष धर्म, गुण आदि जानने की इच्छा होना 'ईहा' है। जैसे ग्रहण किया शुल्क रूप ध्वजा है अथवा कोई पक्षी है इत्यादि। आवाय मतिज्ञान - ईहा से जाने गये पदार्थ में सन्देह दूर हो कर निर्णयात्मक, यथार्थ ज्ञान होना 'आवाय' है। जैसे यह ऊपर नीचे हो रहा है आगे बढ़ रहा है अत: श्वेत पक्षी ही है। धारणा मतिज्ञान - आवाय से निर्णीत पदार्थ को कालान्तर में नहीं भूलने रूप 'धारणा' मतिज्ञान है। श्रुतज्ञान इन्द्रिय से ग्रहण किये गए विषय से विषयान्तर का ज्ञान श्रुतज्ञान कहलाता है। जैसे आँखों से नीला पेन देखा यह मतिज्ञान, यह पेन किस कम्पनी का है। यह किस काम आता है इसमें कौन सी स्याही है इत्यादि का ज्ञान श्रुतज्ञान कहलाता है। अवधिज्ञान जो ज्ञान इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना, द्रव्य-क्षेत्रकालभाव की मर्यादा को लिये रूपी पदार्थों को स्पष्ट जानता है उसे अवधिज्ञान कहते हैं। इस अवधिज्ञान के छह भेद हैं :- (1) अनुगामी, (2) अननुगामी, (3) वर्धमान (4) हीयमान, (5) अवस्थित तथा (6) अनवस्थित। जी अवधिज्ञान अपने स्वामी (जीव) के साथ क्षेत्र से क्षेत्रान्तर, भव से भवान्तर जावे, उसे 'अनुगामी अवधिज्ञान' कहते हैं। जो अपने स्वामी के साथ न जावे, उसी क्षेत्र में ही छूट जावे उसे 'अननुगामी अवधिज्ञान' कहते हैं। जो शुक्ल पक्ष के चन्द्रमा की तरह अपने अन्तिम स्थान तक बढ़ता जाय उसे 'वर्धमान अवधिज्ञान' कहते हैं। जो कृष्ण पक्ष के चन्द्रमा की तरह अपने अन्तिम स्थान तक घटता जाय उसे 'हीयमान अवधिज्ञान' कहते हैं। जो सूर्यमण्डल के समान न घटे, न बढ़े, उसे 'अवस्थित अवधिज्ञान' कहते हैं। जो चन्द्रमण्डल की तरह कभी घटे और कभी बढ़े उसे 'अनवस्थित अवधिज्ञान' कहते हैं। मनः पर्यय ज्ञान जो इन्द्रियादिक बाहय निमित्तों की सहायता के बिना ही दूसरे के मन में स्थित चिन्तित, अचिन्तित अथवा अर्ध चिन्तित अर्थात भूतकाल में जिसका चिन्तन किया हो, जिसका भविष्य काल में चिन्तन किया जायेगा अथवा वर्तमान में जिसका चिन्तन किया जा रहा है। ऐसे रूपी पदार्थ को स्पष्ट जानता है उसे मन: पर्यय ज्ञान कहते हैं। यह ज्ञान अढ़ाई द्वीप में अर्थात मनुष्यलोक में मुनियों को ही होता है। केवल ज्ञान जो समस्त द्रव्य और उनकी समस्त पर्यायों को वर्तमान पर्याय की तरह स्पष्ट जाने उसे केवलज्ञान कहते हैं। उपरोक्त पाँच ज्ञानों में प्रथम तीन ज्ञान मति, श्रुत और अवधिज्ञान मिथ्यादृष्टि जीवों के आश्रय से मिथ्या भी होते हैं। इन मिथ्याज्ञानों को कुमति, कुश्रुत एवं कुअवधि (विभंग) ज्ञान कहा जाता है।
  10. जीव के मन-वचन और काय की क्रिया के निमित्त से कर्म योग्य पुद्गल परमाणु चारों ओर से आकृष्ट हो जाते हैं तथा कषायों के कारण जीवात्मा से चिपक जाते है। तथा यथायोग्य काल में वे कर्म अपना अच्छा-बुरा फल देकर पके हुए फल के समान आत्मा से पृथक हो जाते है अर्थात् झड़ जाते हैं। जीव ने जिस रूप में (प्रकृति आदि) कर्म बंध किया वे उसी रूप में उदय में आवें, फल देवें यह कोई जरूरी नहीं है। जीव के शुभाशुभ भावों के अनुसार कर्मों में बहुत कुछ परिवर्तन संभव है। जीव के शुभाशुभ भावों की अपेक्षा उत्पन्न होने वाली कर्मों की विविध अवस्थाओं को करण कहते हैं। करण दस होते हैं - १. बंध, २. सत्ता, ३. उदय,४. उत्कर्षण, ५. अपकर्षण ६. उदीरणा, ७. संक्रमण, ८. उपशम, ९. निधक्ति, १०. निकाचित। बन्ध - द्वित्व का त्याग करके एकत्व की प्राप्ति का नाम बन्ध है अर्थात जिस प्रकार एक साथ पिघलाए हुए स्वर्ण और चाँदी का एक पिण्ड बनाए जाने पर परस्पर प्रदेशों के मिलने से दोनों में एकरूपता मालूम होती है उसी प्रकार बन्ध की अपेक्षा जीव और कर्मों के प्रदेशों के परस्पर मिलने से दोनों में एकरूपता मालूम होती है। यह बन्ध प्रकृति, स्थिती, अनुभाग और प्रदेश की अपेक्षा चार भेद वाला है। इनका वर्णन पूर्व में किया जा चुका है। 148 कर्म प्रकृतियों में से 120 प्रकृति बंध योग्य होती हैं। चौदह गुणस्थानों में बंध ने योग्य कर्म प्रकृतियाँ है (1) मिथ्यात्व में 117, (2) सासादन में 101, (3) मिश्र में 74, (4) अविरत सम्यक्त्व में 77, (5) देश विरत में 67, (6) प्रमतविरत में 63, (7) अप्रमत विरत में 59,(8) अपूर्व करण में 58, (9) अनिवृत्ति करण में 22, (10) सूक्ष्म सांपराय में 17, (11) उपशांत मोह में 1, (12) क्षीण मोह में 1, (13) सयोग केवली में 1, (14)अयोग केवली में 0 शून्य। सत्व(सत्ता ) - कर्म बंधने के दूसरे समय से लेकर फल देने के पहले समय तक कर्म आत्मा में अपना अस्तित्व बनाये रखते है, कर्मों की इस अवस्था को सत्ता कहते हैं। सत्व योग्य कर्म प्रकृतियाँ 148 हैं। चौदह गुणस्थानों में सत्व योग्य कर्म प्रकृति क्रमश: निम्नलिखित हैं। पहले आठवे गुणस्थानों तक क्रमश: 148, 145, 147, 148, 147, 146, 146, 138 एवं नवमें गुणस्थानों के नौ भागों में 138, 122, 114, 113, 112, 106, 105, 104, 103 तथा दसवें गुणस्थानों से तेरहवें गुणस्थानों तक 102, 101, 85 चौदहवे गुणस्थानों के उपान्त समय में 85 एवं अंत समय में 13 अथवा 12 कर्म प्रकृतियों की सत्ता रहती है। उदय - द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के अनुसार कर्मों का फल देना उदय कहलाता है अथवा कर्मों का अपना फल देने की समर्थता रूप अवस्था को प्राप्त होना उदय का लक्षण है। उदय में आने वाले पुद्गल अपनी-अपनी प्रकृति के अनुसार फल देकर झड़ जाते हैं। बन्ध योग्य प्रकृतियों में सम्यक्र मिथ्यात्व एवं सम्यक्त्व प्रकृति मिलाने पर उदय योग्य 122 प्रकृतियाँ हो जाती है। मिथ्यात्वादि गुणस्थानों में क्रमश: उदय योग्य प्रकृतियों की संख्या निम्न प्रकार से है 117, 106, 100, 104,87, 81, 76, 72, 66, 60, 59, 57, 42 तथा 13 है। उत्कर्षण - कर्मों की स्थिति व अनुभाग में वृद्धि का होना उत्कर्षण कहलाता है। अर्थात नवीन बंध के संबंध से पूर्व की स्थिति में से कर्म परमाणुओं की स्थिति का बढ़ाना उत्कर्षण है। जैसे किसी मनुष्य अथवा तिर्यञ्च ने सौधर्म स्वर्ग की 2 सागर प्रमाण आयु बंध किया बाद में उत्कर्षण कर सोलहवें अच्युत स्वर्ग की 22 सागर की आयु बांध ली। विशुद्ध परिणामों से शुभ कर्मों का एवं संक्लेश भावों से अशुभ कर्मों में उत्कर्षण होता है। अपकर्षण - कर्मों की स्थिति व अनुभाग में हानि का होना 'अपकर्षण' है। जैसे राजा श्रेणिक ने सातवें नरक की 33 सागर प्रमाण आयु का बंध किया बाद में विशुद्ध परिणामों से स्थिति घटाकर प्रथम नरक की 84 हजार वर्ष प्रमाण आयु कर ली। विशुद्ध परिणामों से अशुभ कर्मों में तथा संक्लेश परिणामों से शुभ कर्मों में अपकर्षण होता है। उदीरणा - जिन कर्मों का उदय काल प्राप्त नहीं हुआ है उनको उपाय विशेष से पचाना अर्थात अपकर्षण कर उदय में दे देना उदीरणा है। जैसे आम्रादि फल प्रयास विशेष से समय से पूर्व ही पका लिये जाते हैं। वैसे ही तप आदि साधनों के बल पर कर्मों का अपकर्षण करण द्वारा स्थिति कम करके नियत समय के पूर्व ही भोग कर क्षय किया जा सकता है। संक्रमण - संक्रमण का अर्थ परिवर्तन है। एक कर्म की प्रकृति आदि का दूसरे सजातीय कर्म में परिवर्तन हो जाने को संक्रमण कहते हैं। यह संक्रमण किसी एक मूल प्रकृति की उत्तर प्रकृतियों में ही होता है। मूल प्रकृतियों में परस्पर संक्रमण नहीं होता अर्थात् ज्ञानावरण बदल कर दर्शनावरण नहीं हो सकता इत्यादि। ये संक्रमण पाँच प्रकार के होते हैं - उद्वेलन संक्रमण, विध्यात संक्रमण, अध: प्रवृत्त संक्रमण, गुण संक्रमण और सर्व संक्रमण। उपशम - कर्मों के विद्यमान रहते हुए भी, उदय में आने से रोक देना 'उपशम' कहलाता है। इस अवस्था में अपकर्षण, उत्कर्षण और संक्रमण तो संभव है किन्तु उदय, उदीरणा संभव नहीं है। उपशम अवस्था हटते ही पुन: कर्म अपना फल दे सकते हैं, जैसे बादल से ढका हुआ सूर्य, बादलों के हटते ही पुन: प्रकाश और प्रताप रूप कार्य करने में समर्थ हो जाता है। निधति - कर्म की वह अवस्था जिसमें उदीरणा और संक्रमण का सर्वथा अभाव रहता है किन्तु उत्कर्षण और अपकर्षण हो सके निधति कहलाती है। निकाचित - कर्म की वह अवस्था जिसमें उत्कर्षण, अपकर्षण, उदीरणा और संक्रमण चारों ही न हो सके। निकाचित कहलाती है। इस प्रकार जैन सिद्धान्त में प्राणियों के अपने कर्मों के फल भोग तथा पुरूषार्थ द्वारा उसको बदलने की शक्ति इन दोनों में भलीभाँति समन्वय स्थापित किया है। दस करणों के दृष्टान्त - बन्ध - १७ अगस्त २००५ को किसी फैक्ट्री में १० वर्ष के लिए नौकरी पकी हो जाना। सत्व - १७ अगस्त २००५ से १ अक्टूबर २०१५ तक का समय। उदय - २ अक्टूबर २००५ से नौकरी पर जाना प्रारम्भ हो जाना। उपशम - फैक्ट्री तो पहुँच गए किन्तु फैक्ट्री के ताले की चाबी न मिलने से कुछ समय रुकना पड़ा । उदीरणा - १अक्टूबर २००५ को ही फैक्ट्री में बुला लिया। अपकर्षण - १० वर्ष के लिए नौकरी मिली थी, किन्तु बाद में ९ वर्ष के लिए कर दी। उत्कर्षण - १० वर्ष के लिए नौकरी मिली थी, किन्तु बाद में ११ वर्ष के लिए हो गई। संक्रमण - फैक्ट्री मालिक ने दूसरी फैक्ट्री में भेज दिया। निधति - १ अक्टूबर २००५ से नौकरी पर गए न मालिक ने दूसरी फैक्ट्री भेजा। यथा समय गए यथास्थान पर रहे। निकाचित - १ अक्टूबर २००५ से नौकरी पर गए न मालिक ने दूसरी फैक्ट्री भेजा, न ही नौकरी ९ वर्ष की और न ही नौकरी ११ वर्ष की। अर्थात् कार्य सही समय पर सही स्थान में सही समय तक चलता रहा। जिस प्रकार किसी को मृत्युदण्ड मिला होतो राष्ट्रपति उसे अभयदान दे सकता है अर्थात् मृत्युदण्ड को वापस ले सकता है। उसी प्रकार आचार्य श्री वीरसेनस्वामी, श्री धवला, पुस्तक ६ में कहते हैं- "जिणबिंबदंसणेण णिधक्तणिकाचिदस्स वि मिच्छतादिकमकलावस्स खय दंसणादो।" अर्थात् जिनबिम्ब के दर्शन से निधति और निकाचित रूप भी मिथ्यात्वादि कर्मकलाप का क्षय होता देखा जाता है तथा नौवें गुणस्थान में प्रवेश करते ही दोनों प्रकार के कर्म स्वयमेव समाप्त हो जाते हैं।
  11. सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान और सम्यक चरित्र इन तीनों को रत्नत्रय कहते हैं। इन तीनों की एकता ही मोक्ष मार्ग अर्थात मोक्ष प्राप्ति का उपाय है। इसके दो भेद है - व्यवहार रत्नत्रय और निश्चय रत्नत्रय। सात तत्वों, देव, शास्त्र व गुरु आदि की श्रद्धा, आगम का ज्ञान तथा व्रतादि रूप चारित्र को भेद रत्नत्रय अर्थात् व्यवहार मोक्षमार्ग कहा जाता है। आत्म स्वरूप की श्रद्धा, इसी का स्वसंवेदन ज्ञान और इसी में निश्चल स्थिति या निर्विकल्प समाधि को अभेद रत्नत्रय अर्थात् निश्चय मोक्षमार्ग कहा जाता है। जीवादि सात तत्वों का और सच्चे देव-गुरु-शास्त्र का पच्चीस (२५) दोष रहित श्रद्धान करना सो व्यवहार सम्यक दर्शन है। प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य इसके लक्षण हैं। क्रोधादि कषायों एवं विकारों के उपशम यानि शान्त होने रूप परिणाम 'प्रशम' है। संसार से भयभीत एवं धर्म में रूचि रूप परिणाम 'संवेग' है। प्राणी मात्र के प्रति दया का भाव होना 'अनुकम्पा' है एवं धर्म, धर्म के फल तथा आत्म स्वरूप पर अकाट्य श्रद्धान होना आस्तिक्य है। सम्यक दर्शन के आठ अंग नि:शंकित अंग - जिनेन्द्र देव कथित तत्वादि के विषय में तलवार पर चढ़ाए लोहे के पानी के समान निष्कम्प श्रद्धावान होकर सत्य मार्ग पर अविचल बढ़ते जाना नि:शंकित अंग है। उदाहरण- बाँया पैर नि: कांक्षित अंग - सत्य मार्ग पर चलते हुए क्षण भंगुर धन-सम्पदा, वैभव विषय-भोगों की प्राप्ति हेतु इच्छा नहीं करना नि:कांक्षित अंग है। उदाहरण- दाँया पैर निर्विचिकित्सा अंग - रत्नत्रय से पवित्र मुनियों के मलीन शरीर को देखकर ग्लानि नहीं करना 'निर्विचिकित्सा अंग' है। उदा.- बाँया हाथ अमूढ़ दृष्टि अंग - मिथ्यात्व को बढ़ाने वाले लौकिक चमत्कार पूर्ण कुमार्ग और कुमार्गस्थ व्यक्तियों का समर्थन, प्रशंसा आदि नहीं करना 'अमूढ़ दृष्टि अंग' है। उदाहरण- पीठ उपगूहन अंग - सन्मार्गी के दोषों एवं अपराधों को सबके सामने, लोक में प्रगट नही करना सम्यक दृष्टि का उपगूहन अंग है। उदा.- गुप्तांग स्थितीकरण अंग - श्रद्धान एवं मार्ग से किसी कारण वश विचलित हुए प्राणियों को पुन: धर्म मार्ग में स्थिर कराना 'स्थितीकरण अंग" है। उदा- दाँया हाथ वात्सल्य अंग - साधर्मी भाइयों के प्रति गोवत्स के समान कपट रहित आन्तरिक स्नेह का होना 'वात्सल्य अंग' है। उदा.- हृदय प्रभावना अंग - सत्साहित्य प्रकाशन, धार्मिक महोत्सव, दान, पूजा, तप आदि के द्वारा जिनधर्म की महिमा का प्रचार-प्रसार करना सम्यक दृष्टि मनुष्य का 'प्रभावना अंग' है। उदा.- मुख सम्यक दर्शन जिन पच्चीस दोषों से रहित होता है वे इस प्रकार है:- शंकादि आठ दोष, आठ मद, छ: अनायतन और तीन मूढ़ताएं। - आठ दोष - शंका - सच्चे देव गुरु शास्त्र एवं उनके वचनों पर संदेह करना 'शंका' नामक दोष है। कांक्षा - धर्म साधना से विषय भोगों की इच्छा करना 'कांक्षा' नामक दोष है। विचिकित्सा – गुणवान पुरुषों के प्रति ग्लानि करना 'विचिकित्सा' नामक दोष है। मूढ़ दृष्टि - सत्य-असत्य, तत्व-कुतत्व की पहचान नहीं होना, 'मूढ़ दृष्टि' नामक दोष है। अनुपग्रहन - अपने दोषों को छिपाकर दूसरे के दोषों को प्रगट करना 'अनुपगूहन' नामक दोष है। अस्थितीकरण - सत्पथ से विचलित हुए धर्मात्मा को कषाय के वशीभूत हो धर्म में स्थिर न करते हुए, धर्म से भ्रष्ट कर देना, धर्म से च्युत कर देना 'अस्थितीकरण' दोष है। अवात्सल्य - साधर्मी भाइयों एवं गुणीजनों से प्रेम न कर उनकी उपेक्षा एवं बुराई करना 'आवत्सल्य' नामक दोष है। अप्रभावना - अपने आचरण से धर्म का उपहास कराना 'अप्रभावना' नामक दोष है। - आठ मद - ज्ञान मद - साहित्य-लेखन, वक्तृत्व आदि प्रतिभा विशेष का गर्व करना एवं अन्य की उपहास वृत्ति से उपेक्षा करना 'ज्ञान मद' है। पूजा अथवा कीर्ति मद - लौकिक ख्याति प्राप्त होने पर उसका अभिमान करना 'पूजा मद' कहलाता है। कुल मद - पिता की परम्परा क्षत्रिय आदि कुल के उज्वल एवं समर्थ होने पर उसका अभिमान करना 'कुल मद' कहलाता है। जाति मद - मातृ-वंश के उज्ज्वल एवं शक्तिशाली होने पर माता, नाना आदि को लेकर अहंकार करना 'जाति मद' है। बल मद - शारीरिक बल एवं अपने आधीन रहने वाली शक्ति पर अभिमान करना 'बल मद' है। रुप मद - अपने शरीर की सुन्दरता, रूप, रंग, निरोगता हष्ट-पुष्टता आदि का अभिमान करना 'रूप मद" है। धन मद - धन सम्पति, वैभव से सम्पन्न होने पर उसका अभिमान करना निर्धनों की उपेक्षा करना 'धन मद' है। तप मद - विशेष तपश्चर्या एवं सदाचार के परिपालन में समर्थ होने पर उसका घमण्ड करना 'तप मद' है। - छह अनायतन - असत्य देव भक्ति - क्रोध, मान, माया, लोभ, कषाय सहित परिग्रही देवों को मानना, उनकी पूजा स्तुति आदि करना। असत्य गुरु भक्ति - विषय लोलुपी, विकार ग्रस्त, गुरुओं की भक्ति करना, उनकों नमस्कार करना इत्यादि। असत्य धर्म भक्ति - हिंसा, मदिरा पान, गाँजा सेवन आदि पाप कार्यों को धर्म मानकर स्वीकारना तथा उसमें भक्ति रखना। असत्य देव उपासक भक्ति - मिथ्या देवों की भक्ति करने वाले भक्तों की संगति करना एवं उनके गलत कार्यों में सहयोग प्रदान करना। असत्य गुरु उपासक भक्ति - मिथ्या गुरु के सेवकों की संगति करना, उनके कार्यों में सहयोग करना दान देना आदि। असत्य धर्म उपासक भक्ति - मिथ्या धर्म के उपासकों की संगति करना, उनके प्रचार-प्रसार में सहयोग करना। - तीन मूढ़ता - देव मूढ़ता - मनोकामना की पूर्ति हेतु राग-द्वेष रूपमल से मलीन देवी-देवताओं के समक्ष बली चढ़ाना, अर्घ चढ़ाना, खाद्य सामग्री चढ़ाना, अनेक प्रकार से स्तुति करना देव मूढ़ता है। लोक मूढ़ता - अन्ध श्रद्धा से अनेक अविवेक पूर्ण कार्यों में धर्म मानना जैसे नदी में स्नान करने से, अग्नि में कूदने से, पहाड़ से गिरने इत्यादि कार्यों में धर्म मानना लोक मूढ़ता है। गुरु मूढ़ता - कषाय के वशीभूत हो विभिन्न प्रकार के भेष धारण करने वाले, अभिमानी, विषय लोलुपी, अपने को गुरु मानने वाले व्यक्तियों पर श्रद्धा रखना, उनकी स्तुति, पूजा आदि करना 'गुरु मूढ़ता' कहलाती है। सम्यक दृष्टि जीव प्रथम नरक छोड़ शेष नरकों में, भवनवासी-व्यन्तर-ज्योतिष देवों में, स्त्रीवेद-नपुंसक वेद में, स्थावर कायिकों में, विकलत्रयों में, पशु पर्याय में जन्म नहीं लेते। तीन काल और तीन लोक में जीवों का सम्यक्त्व के समान कुछ भी कल्याणकारी नहीं है तथा मिथ्यात्व के समान अकल्याणकारी भी कोई नहीं है। शुद्ध सम्यक दृष्टि जीव कान्ति, प्रताप, विद्या, वीर्य, यशोवृद्धि, विजय, वैभववान, उच्चकुली, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के साधक तथा मनुष्यों में शिरोमणी होते हैं।
  12. जीव का किसी विवक्षित शरीर में टिके रहने की अवधि का नाम आयु है। इस आयु का निमितभूत कर्म आयुकर्म कहलाता है। आयु कर्म से अस्तित्व से प्राणी जीवित रहता है और क्षय होने प मृत्यु के मुख में चला जाता है। मृत्यु का कोई देवता (यमराज) अथवा उस जैसी कोई अन्य शक्ति नहीं है अपितु आयु कर्म के सद्भाव और क्षय पर जन्म-मृत्यु अबलंबित है। आयु दो प्रकार की होती है - अपवर्तनीय और अनपवर्तनीय। अपवर्तनीय आयु - विष, वेदना, रक्त क्षय, शस्त्रघात, पर्वतारोहण आदि निमित्तों के मिलने पर जिस आयु की अवधि, काल की मर्यादा में कमी हो सके, उसे अपर्वनीय आयु कहते है। इसे अकाल मरण अथवा कदलीघात मरण भी कहा जाता है। अकाल मरण को प्राप्त जीव की आत्मा अपनी आयु के शेष काल तक भटकती रहती है अथवा दूसरी पर्याय में उस आयु को पूर्ण करती है ऐसा मानना सर्वथा गलत है। क्योंकि पूर्ण आयु के क्षय होने पर ही मरण होता है। विशेषता इतनी है कि अकाल मरण को प्राप्त जीव अपनी आयु को अन्तर्मुहूर्त (कुछ समय) में ही पूर्ण कर लेता है किन्तु नवीन आयु कर्म के बंधे बिना मरण संभव नही। जेसे छिद्र सहित मटके में भरा हुआ पानी बूंद-बूंद कर टपकता हुआ पानी दो घंटे में मटके को खाली कर देता है वही मटका यदि किन्ही कारणों से फूट जाये तो एक सेकंड में ही पूरा पानी बह जाता है, उसी प्रकार आत्मा में बंधे हुए आयु कर्म के निषेक क्रमक्रम से उदय में आते है किन्तु अकालमरण की अवस्था में वे एक साथ नष्ट हो/ झड़ जाते है। अत: यह भी संभव है कि एक करोड़ वर्ष की आयु को अन्तर्मुहूर्त में ही भोग कर नष्ट कर दिया जावें। अनपवर्तनीय आयु - आयु क्षय के अनेक बड़े-बड़े कारण मिलने पर भी निर्धारित आयु की मर्यादा एक क्षण को भी कम न हो उसे अनपवर्तनीय आयु कहते हैं। देव-नारकी, भोग भूमि के जीव, चरम देहधारी, तीर्थकर अनपवर्तनीय आयु वाले होते हैं। आयु कर्म का बंध सदा नहीं होता/इसके बंध का विशेष नियम है अपने जीवन की दो-तिहाई आयु व्यतीत होने पर ही आयु कर्म बंध है, वह भी अन्तर्मुहूर्त तक, इसे अपकर्ष काल कहते हैं। एक मनुष्य व तिर्यञ्च के जीवन ऐसे आठ अपकर्ष काल आते हैं जिसमें वह आयु बाँधने के योग्य होता है। इन कालों में जीव आयु का बंध कर ही लेता है अन्यथा आयु कर्म की समाप्ति के अन्तर्मुहूर्त पूर्व नियम से आगामी आयु का बंध कर लेता है। जैसे मान लिजिये किसी व्यक्ति की ८१ वर्ष की आयु हो तो वह 51 वर्ष की अवस्था तक आयु कर्म के बंध के योग्य नहीं होता। वह आयु कर्म का बंध पहली बार 51 वर्ष की अवस्था में कर सकता है यदि उस काल में न हो, तो शेष 27 वर्ष के दो तिहाई (18 वर्ष बीतने पर) यानि 72 वर्ष में आयु बंध द्वितीय बार हो सकता है। यदि इसमें भी बंध न हो पाये तो शेष बची आयु के त्रिभाग में पुन बंध काल आवेगा इसी प्रकार आठवें अपकर्ष काल में वह जीव आयु बंध कर लेता है अंतिम अपकर्ष काल 80 वर्ष 11 माह 25 दिन 13 घंटे 21 मिनट की आयु बीतने पर पड़ेगा। यदि इसमें भी आयु बंध न हो पावे तो मरण के अन्तर्मुहूर्त पूर्व आगामी आयु का बंध नियम से कर लेता है। देव, नारकी तथा भोगभूमि मनुष्य व तिर्यञ्च अपने जीवन के छह माह शेष रहने पर आयु बंध के योग्य होते हैं। इन छह माह में उनके भी आठ अपकर्ष काल होते है।
  13. जो सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान और सम्यक चरित्र रूप रत्नत्रय से युक्त होते हैं, सिद्ध पद की प्राप्ति हेतु निरन्तर साधना करते हैं ऐसे दिगम्बर मुद्रा धारी महापुरुष साधु कहलाते हैं। श्रमण, यति, मुनि, अनगार, वीतराग, संयत, ऋषि, जिनरूप धारी भिक्षु इत्यादि साधु के अपर नाम है। श्रमण के २८ मूलगुण जिनेन्द्र देव ने कहे हैं - पाँच महाव्रत पाँच समिति पाँच इन्द्रियों को वश में करना (पंचेन्द्रिय विजय) छह आवश्यक सात विशेष गुण महाव्रत हिंसादि पाँच पापों का स्थूल एवं सूक्ष्म रूप से पूर्णत: त्याग करना महापुरुषों का महाव्रत है। महाव्रत पाँच होते हैं - १. अहिंसा महाव्रत, २. सत्य महाव्रत, ३. अचौर्य महाव्रत, ४. ब्रह्मचर्य महाव्रत, ५. अपरिग्रह महाव्रत अहिंसा महाव्रत - आत्मा में रागद्वेष आदि विकारी भावों की उत्पति नहीं होने देना तथा षट्काय के जीवों की मन, वचन एवं काय से विराधना न करना 'अहिंसा महाव्रत' कहलाता है। सत्य महाव्रत - रागद्वेष, मोह के कारण असत्य वचन तथा दूसरों को सन्ताप करने वाले ऐसे सत्य वचन को छोड़ना 'सत्य महाव्रत' है। अचौर्य महाव्रत - बिना दिये हुए किसी भी प्रकार के पदार्थ एवं उपकरण का ग्रहण न करना 'अचौर्य महाव्रत' है। ब्रह्मचर्य महाव्रत - स्त्री विषयक राग का, संपर्क का मन-वचन-काय से पूर्ण त्यागकर, ब्रह्म स्वरूप अपने आत्म तत्व में चर्या करना 'ब्रह्मचर्य महाव्रत' है । अपरिग्रह महाव्रत - अपने शुद्ध आत्म-स्वरूप की प्राप्ति के लिए दस प्रकार के बाहय परिग्रह से बुद्धिपूर्वक स्वयं को मोड़ना एवं चौदह प्रकार के अन्तरंग परिग्रह के त्याग के लिए पुरुषार्थ पूर्वक, मिथ्यात्व, कषाय एवं ममत्व का परित्याग करना 'अपरिग्रह महाव्रत' है। समिति प्राणियों को पीड़ा न होवे ऐसा विचार कर दया भाव से अपनी सर्वप्रवृत्ति करना समिति है। समितियाँ पाँच कहीं गई हैं:- १. ईर्या समिति, २. भाषा समिति, ३. एषणा समिति, ४. आदान–निक्षेपण समिति, ५. उत्सर्ग अथवा प्रतिष्ठापन समिति। सूर्य के प्रकाश में प्रासुक मार्ग से (जिस मार्ग पर पहले से आवागमन शुरु हो चुका है) चार हाथ आगे की भूमि देखकर जीवों की विराधना न करते हुए, किसी प्रयोजन वश, संयमी का गमन करना 'ईयाँ समिति' है। स्व और पर को मोक्ष की ओर ले जाने वाले कम शब्दों में स्पष्ट अर्थ को व्यक्त करने वाले, सन्देह रहित वचनों का बोलना भाषा समिति है। श्रद्धा एवं भक्ति से श्रावक द्वारा नवधा भक्ति पूर्वक दिये गये निर्दोष आहार को ग्रहण करना 'एषणा समिति' है। शास्त्र आदि उपकरणों को आँखों से देखकर, सावधानी पूर्वक प्रमार्जित करके उठाना और रखना आदान-निक्षेपण समिति" है। साधु वसतिका से दूर, एकान्त, जीव-जन्तु रहित, बिल तथा छेद रहित, विशाल स्थान पर मल, मूत्रादि का क्षेपण करना 'प्रतिष्ठापन अथवा उत्सर्ग समिति' है। पञ्चेन्द्रिय विजय पाँचो इन्द्रियों की स्वच्छन्द प्रवृत्ति को रोककर धर्म ध्यान, आत्महित में लगाना पञ्चेन्द्रिय विजय अथवा पञ्चेन्द्रिय निरोध है। षट् आवश्यक जिनके बिना सम्यग् चारित्र का निर्दोष पालन नहीं हो सके, जिनका करना आवश्यक हो, जरूरी हो, उन्हें आवश्यक कहते हैं मुनियों के छह आवश्यक कहे गये हैं वे इस प्रकार हैं। १. समता, २. स्तुति (स्तवन), ३. वंदना, ४. प्रत्याख्यान, ५. प्रतिक्रमण, ६. कायोत्सर्ग। शुत्र-मित्र में, बन्धु वर्ग में, सुख-दु:ख में, संयोग-वियोग में, प्रशंसा-निन्दा में, लोह-सुवर्ण में, जीवन-मरण में, प्रिय-अप्रिय में सदा साम्य भाव रखना, राग-द्वेष, हर्ष विषाद नहीं करना 'समता आवश्यक' है। चौंबीस तीर्थकरों के गुणों का बखान करते हुए स्तुति करना 'स्तवन आवश्यक' है। किसी एक तीर्थकर को नमस्कार करना, चैत्यालयादिकों के भेद को ग्रहण कर गुणानुवाद करना, नमस्कार करना 'वंदना आवश्यक' है। आगामी काल में पाप के आस्त्रव को रोकने के लिए पापों का त्याग करना कि मैं ऐसा पाप मन, वचन, काय से नहीं करूंगा तथा अयोग्य का त्याग करना, योग्य का भी जिसे आहार के पश्चात् योग्य काल पर्यन्त आहारादि का त्याग करना, 'प्रत्याख्यान आवश्यक' है। भूतकाल में लगे हुए दोषों के शोधनार्थ, प्रायश्चित, पश्चाताप व गुरु के समक्ष अपनी निन्दा-गहा करना, 'मेरा दोष मिथ्या हो।' ऐसा गुरु से निवेदन करना 'प्रतिक्रमण आवश्यक' है। देह के प्रति ममत्व का त्याग करना, खड़े-खड़े अथवा बैठे-बैठे शरीर का तथा कषायों का त्याग कर, आत्म स्वरूप में लीन होना 'कायोत्सर्ग आवश्यक' है। सात विशेष गुण साधु परमेष्ठी के शेष सात गुण निम्नलिखित है - १. अचेलकत्व (नग्नत्व), २. अस्नान, ३. अदन्त धोवन, ४. एक मुक्ति, ५. स्थिति भोजन, ६. भूशयन, ७. केशलोंच। वस्त्र, चर्म, पत्र आदि से शरीर को नहीं ढकना, जन्म लिए हुए बालक के समान नग्न रहना 'अचेलकत्व' नामक गुण है। जलकायिक जीवों की पीड़ा का परिहार करने लिए जल से नहाने रूप स्नानादि क्रिया का सदा के लिए त्याग करना श्रमणों का 'अस्नान मूलगुण' कहलाता है। अनेक प्रकार के मंजन, चूर्ण, दातौन, काष्ठ औषधि नींबू फल आदि के माध्यम के दाँतो को नहीं मांजना, साफ नहीं करना साधु का 'अदन्त धोवन' नामक मूलगुण है। श्रावकों के घर में, मौन पूर्वक, हाथ पर रखे हुए आहार को दिन में एक बार ग्रहण करना 'एक मुक्ति' नामक मूलगुण है। चार अंगुल के अन्तर से समपाद खड़े रह कर, अपने खड़े रहने की भूमि, आहार कराने वाले की भूमि तथा जूठन पड़ने की भूमि, ऐसी तीन भूमियों की शुद्धता (जीव जन्तु मलादि से रहित) से आहार ग्रहण करना 'स्थिति भोजन" नामक मूलगुण है। अल्प संस्तर (बिछौना) सहित एकान्त स्थान में दण्डाकार, धनुषाकार अथवा एक करवट से सोना 'भूमि शयन' नामक मूलगुण है। अल्प संस्तर का अर्थ जिसमें बहुत संयम का विघात न हो ऐसे तृणमय, काष्ठ मय, शिलमय और भूमि मय इन चार प्रकार का संस्तर लिया गया है। उपवास पूर्वक सम्मूछन आदि जीवों की हिंसा के परिहार के लिए, शरीर से राग भाव दूर करने हेतु हाथ से मस्तक तथा दाढ़ी,मूंछ के केशों का उखाड़ना, लोच करना 'केशलोंच' नामक मूलगुण कहलाता है।
  14. जो प्राणियों को संसार के दु:ख से उठाकर उत्तम सुख (वीतराग सुख) में धरता है उसे धर्म कहते हैं। यहाँ पर उत्तम क्षमादि रूप दश प्रकार का धर्म कहा गया है - १. उत्तम क्षमा धर्म २. उत्तम मादर्व धर्म ३. उत्तम आर्जव धर्म ४. उत्तम शौच धर्म ५. उत्तम सत्य धर्म ६. उत्तम संयम धर्म ७. उत्तम तप धर्म ८. उत्तम त्याग धर्म ९. उत्तम अकिंचन्य धर्म १०. उत्तम ब्रह्मचर्य धर्म । १. क्रोध उत्पन्न होने के साक्षात् बाहरी कारण मिलने पर तथा अपराधी के प्रति प्रतिकार करने की क्षमता होने पर भी क्रोध न करना, उन पर क्षमा भाव रखना उत्तम क्षमा धर्म है। क्षमा धर्म के पालनार्थ निम्न भावना भानी चाहिए अ. यदि अविद्यमान दोषों को कह रहा है तो वह अज्ञानी है अत: उस पर क्षमा धारण करना चाहिए। ब. यदि विद्यमान दोषों को कह रहा है तो वह उपकारी है वह मेरे दोष मुझे बताकर, दोष रहित होने की ओर प्रेरित कर रहा है। २. मृदुता, नम्रता का होना मार्दव है, श्रेष्ठ कुल, जाति, रूप, तप, बुद्धि, व्रत, आज्ञा-ऐश्वर्यादि होने पर भी घमंड नहीं करना उत्तम मार्दव धर्म है। मार्दव धर्म के पालनार्थ निम्न भावना भानी चाहिए अ. मैं इस संसार में अनेक बार नीच कुल, नीच अवस्थाओं को प्राप्त कर चुका हूँ। ब. मुझसे भी श्रेष्ठ कुल वाले, श्रेष्ठ रूपवान आदि लोग इस जगत में भरे पड़े हैं। स. बाहरी वैभव, शरीरादि सब पूर्व पुण्य के उदय से प्राप्त हैं परन्तु ये सभी पदार्थ अनित्य, शीघ्र ही नष्ट होने वाले हैं। द. मान कषाय इह लोक व परलोक सभी जगह दु:ख देने वाली है। ३. ऋजुता, सरलता का होना आर्जव है। कुटिलता पूर्वक मन, वचन, काय की प्रवृति नहीं करना। छल-कपट नहीं करना, अपने दोष नहीं छिपाना उत्तम आर्जव धर्म है। आर्जव धर्म के पालनार्थ निम्न भावनाएँ भानी चाहिए अ. सैकड़ों उपाय कर के छुपाया दोष भी कालान्तर में प्रगट हो ही जाता है। ब. यश, वैभव आदि छल-कपट से नहीं अपितु पूर्व पुण्य से प्राप्त होते हैं। स. मायाचार दुर्गतियों का कारण है। ४. निलभता, संतोष रूप परिणाम का होना उत्तम शौच धर्म है। समभाव और संतोष रूपी जल तृष्णा और लोभ रूपी मल को धोने वाला, भोजनादि के प्रति गृद्धता का अभाव रूप शौच धर्म है। शौच धर्म के पालनार्थ भावनाएँ अ. पुण्य रहित मनुष्य को लोभ करने पर भी इच्छित वस्तु की प्राप्ति नहीं होती है। ब. अनन्त बार ग्रहण कर धनादिकों का त्याग कर चुका हूँ अथवा वह स्वयं ही छूट चुका है। स. यह लोभ सद्गुणों को दूर भगाने में कारण है तथा नरकादि दुर्गतियों में ले जाने वाला, अनेक दु:खों की बीज भूत है। ५. अच्छे पुरुषों के साथ साधु वचन बोलना अथवा दूसरों को कष्ट न हो ऐसे अपने व दूसरों के हित करने वाले वचनों को बोलना उत्तम सत्य धर्म है। यदि कदाचित सत्य वचन बोलने में बाधा प्रतीत हो तो मौन रहना उचित है। सत्य धर्म के पालनार्थ भावनाएँ अ. सभी गुण, सम्पदाएँ सत्य वत्ता में प्रतिष्ठित होती हैं। ब. झूठ के बोलने वाले का कोई मित्र नहीं होता, सभी जगह उसका तिरस्कार होता है। स. असत्यवादी इस लोक में जिह्वा छेद आदि दु:खों को एवं परलोक अशुभ गति, मूकता आदि को प्राप्त होता है। ६. सम्यक् रूप से यम अर्थात् नियन्त्रण सो संयम है। पृथ्वीकायिक आदि पंचस्थावर एवं त्रस कायिक जीवों की विराधना, हिंसा नहीं करना तथा पाँच इन्द्रिय और मन को वश में रखना उत्तम संयम धर्म है। संयम धर्म के पालनार्थ भावनाएँ अ. असंयमी निरन्तर हिंसा आदि व्यापारों में लिप्त होने से अशुभ कर्मों का संचय करता है। ब. संयम के बिना स्वर्ग-मोक्ष आदि की संपदा नहीं मिल सकती है। स. संयम योग्य पर्याय की दुर्लभता का चिंतन। ७. कर्म क्षय के लिए, अन्तरंग में समता भाव धारण करते हुए विवेक पूर्वक (शक्ति के अनुसार) बाह्य -अभ्यन्तर तपों को धारण करना उत्तम तप धर्म है। तप धर्म के पालनार्थ भावनाएँ अ. तप के द्वारा ही पूर्व संचित कर्म नष्ट हो सकते हैं। ब. तप के द्वारा सहिष्णुता, परीषह जय आदि गुणों की प्राप्ति होती है। स. अभ्यन्तर एवं बहिरंग शुद्धि का मूल कारण तप है। ८. आत्मा के विकारी भावों का परित्याग करने के लिए प्रयत्न करना एवं चौदह प्रकार के अंतरंग तथा दस प्रकार के बाहय परिग्रह का त्याग करना अथवा अपेक्षा रहित ज्ञान दानादि का देना उत्तम त्याग धर्म है। त्याग धर्म के पालनार्थ भावनाएँ अ. त्याग ही समस्त आकुलता, संकल्प विकल्प को नष्ट करने का साधन है। ब. त्याग को स्वीकार किए बिना मुक्ति संभव नहीं। स. विषय कषाय एवं परिग्रह का त्याग करने वाला बड़े-बड़े राजा महाराजा तथा इन्द्रों के द्वारा भी पूज्य हो जाता है। ९. शरीर एवं बाह्य पदार्थों के प्रति ममत्व न रखते हुए स्व तत्व (आत्म तत्व) में उपादेय बुद्धि रखना उत्तम अकिंचन्य धर्म है। अकिंचन्य धर्म के पालनार्थ भावनाएँ अ. जब निरन्तर पाल-पोष कर पुष्ट किया यह शरीर भी मेरा नहीं है तो अन्य पदार्थ मेरे कैसे हो सकते हैं। ब. जीव अकेला ही जन्मता-मरता, सुख-दु:ख का भोता होता है। स. मैं शाश्वत्, अजर-अमर, सुख स्वभाव वाला हूँ। १०. मानुषी, देवी, तिर्यञ्चनी और अचेतन (चित्र, काष्ठादि में निर्मित) इन चारों प्रकार की स्त्रियों के संसर्ग से सर्वथा मुक्त होकर, त्रिकाली, शुद्ध ज्ञान दर्शन स्वभाव वाली निज आत्मा में रमण करना उत्तम ब्रह्मचर्य धर्म है। ब्रह्मचर्य धर्म के पालनार्थ भावनाएँ अ. श्रेष्ठ ब्रह्मचर्य ही सर्व ऋद्धि-सिद्धि को देने वाला है। ब. स्त्री संसर्ग से उत्पन्न दोष एवं शरीर की अशुचिता का चिंतन करें।स. इन्द्रिय सुख की नश्वरता एवं अतीन्द्रिय सुख शाश्वतता का विचार करें।
  15. संसार में अनके प्रकार के सुख दु:ख में कारण भूत कर्म कहे गये हैं। वे कर्म आठ होते हैं- १. ज्ञानावरण, २. दर्शनावरण, ३. वेदनीय, ४. मोहनीय, ५. आयु, ६. नाम, ७. गोत्र और ८. अन्तराय। इन कर्मों का स्वभाव, फल, कर्म बंध के कारण इत्यादि का सामान्य कथन पूर्व में किया जा चुका है अब इन कर्मों के भेद-प्रभेद का कथन करते हैं। ज्ञानावरणादि आठ कर्मों को घातिया एवं अघातिया की अपेक्षा दो भागों में विभक्त किया गया है। जो आत्मा के ज्ञानदर्शनादि गुणों का घात करते हैं ऐसे ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय एवं अन्तराय कर्मों की घातिया कर्म संज्ञा है। तथा जो आत्मा के गुणों का घात तो नहीं करते किन्तु आत्मा के रूप को अन्य रूप (शरीरादि आकार) कर देते हैं ऐसे वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र कर्म की अघातिया कर्म संज्ञा है। ज्ञानावरणीय कर्म के पाँच, दर्शनावरणीय कर्म के नौ, मोहनीय कर्म के अट्ठाइस, वेदनीय कर्म के दो, आयु कर्म के चार, नाम कर्म के ब्यालीस, गोत्र कर्म के दो एवं अंतराय कर्म के पाँच भेद हैं। अत: आठ कर्मों के कुल प्रभेद5+9+28+2+4+42+2+5 = 97 हो जाते हैं। 1.ज्ञानावरण कर्म के पाँच भेद - मतिज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण, अवधि ज्ञानावरण, मनः पर्यय ज्ञानावरण और केवल ज्ञानावरण हैं। ये कर्म क्रमश: मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय एवं केवल ज्ञान को आवृत करते हैं, ढाक देते हैं अर्थात ज्ञान होने नहीं देते। प्रथम चार कर्म ज्ञान को पूरा नहीं ढकते जबकि केवलज्ञानावरण, केवलज्ञान को पूर्ण रूप से ढक लेता है। अभव्य जीव के भी मन: पर्यय ज्ञान एवं केवलज्ञान शक्ति रूप में रहता है अत: उसके भी इनका आवरण पाया जाता है। 2.दर्शनावरण कर्म के नौ भेद - चक्षुदर्शनावरण, अचक्षुदर्शनावरण, अवधि दर्शनावरण, केवलदर्शनावरण, निद्रा, निद्रा-निद्रा, प्रचला, प्रचला-प्रचला, स्त्यान्गृद्धि है। यद्यपि आवरण कर्म प्रथम चार हैं। फिर भी निद्रा आदि पाँच दर्शनोपयोग में बाधक बनते है अत: इनकी भी दर्शनावरण में गणना करने से नौ भेद कहे। नेत्र इन्द्रिय को चक्षु कहते हैं इसके अलावा शेष चार इन्द्रिय व मन को अचक्षु कहते हैं जो चक्षु ज्ञान, अचक्षुज्ञान तथा अवधिज्ञान के पूर्व होने वाले सामान्य अवलोकन को न होने दे ऐसे कर्म को क्रमश: चक्षुदर्शनावरण, अचक्षुदर्शनावरण एवं अवधि दर्शनावरण कर्म कहते हैं। जो केवलज्ञान के साथ होने वाले सामान्य अवलोकन को न होने दे उसे केवल दर्शनावरण कहते हैं। मद, खेद और परिश्रम जन्य थकावट को दूर करने के लिए नींद लेना निद्रा है, निद्रावान पुरुष सुख पूर्वक जागृत हो जाता है। निद्रा पर पुन: पुन: निद्रा लेना अथवा गहरी नींद लेना, बार बार उठाने पर बहुत कठिनता से जाग पाना निद्रा-निद्रा कर्म है। बैठे-बैठे सो जाना, कुछ जागृत रहना, नेत्र और शरीर में विकार लाने वाली ऐसी क्रिया जो आत्मा को चलायमान कर दे प्रचला है। प्रचला की पुन: पुन: आवृत्ति प्रचला-प्रचला है मुंह से लार बहने लगना, हाथ पैर चलने लगना इस प्रचला-प्रचला के लक्षण है। जिसके निमित्त से जीव सोते समय भयंकर कार्य कर ले, शक्ति विशेष प्रगट हो जाये और जागने पर कुछ स्मरण न रहे स्त्यान्गृद्धि कर्म है। 3. वेदनीय कर्म के दो भेद - सातावेदनीय और असातावेदनीय हैं। जिस कर्म के उदय से देवादि गतियों में शरीर और मन सम्बन्धी सुख की प्राप्ति होती है उसे सातवेदनीय कर्म कहते है। जिस कर्म के उदय से शारीरिक-मानसिक अनेक प्रकार के दु:ख प्राप्त होते हैं वह असातावेदनीय कर्म है। 4.मोहनीयके अट्ठाईस भेद - अनन्तानुबन्धी क्रोध-मान-माया-लोभ, अप्रत्याख्यानावरण क्रोध-मान-माया-लोभ, प्रत्याख्यानावरण क्रोध-मान-माया-लोभ, संज्वलन क्रोध-मान-माया-लोभ ये सोलह कषाय, हास्य-रति-अरति-शोक-भय-जुगुप्सा पुरुष वेदस्त्री वेद - नपुंसक वेद ये नौ नोकषाय एवं मिथ्यात्व-सम्यक्र मिथ्यात्व और सम्यक्त्व ये तीन - कुल अट्ठाईस है। जो कषाय सम्यक्त्व को घातती है अथवा अनन्त मिथ्यात्व के साथ जिसका अनुबन्ध-सम्बन्ध हो उसे अनन्तानुबन्धी कहते है। जो अप्रत्याख्यान - एक देश चारित्र को प्रकट न होने दे उसे अप्रत्याख्यानावरण कहते हैं। जासे प्रत्याख्यान - सकल चारित्र का घात करे उसे प्रत्याख्यानावरण कहते हैं एवं जो यथाख्यात चारित्र को प्रकट न होने दे तथा संयम के साथ प्रकाश मान रहे उसे संज्वलन कहते हैं। प्रत्येक के क्रोध-मान-माया-लोभ ये चार-चार भेद हैं कुल ये सोलह कषाय आत्मा को निरन्तर कषती रहती हैं- दु:खी करती रहती है इसलिए इन्हे कषाय वेदनीय भी कहते हैं। जिसके उदय से हँसी आवे, उसे हास्य कहते हैं। जिसके उदय से स्त्री-पुत्र आदि में प्रीति रूप परिणाम होता है उसे रति कहते हैं। जिसके उदय से शत्रु आदि अनिष्ट पदार्थों में अप्रीति रूप परिणाम होते हैं उसे अरति कहते हैं। जिसके उदय से इष्ट वियोग और अनिष्ट संयोग में खेद रूप परिणाम होते हैं उसे शोक कहते हैं। जिसके उदय से भय रूप परिणाम होते हैं उसे भय कहते हैं। जिसके उदय से ग्लानि रूप परिणाम होता है उसे जुगुप्सा कहते हैं। जिसके उदय से स्त्री से रमने के भाव होते हैं उसे पुरुषवेद कहते हैं। जिसके उदय से पुरुष से रमने के भाव होते हैं उसे स्त्रीवेद कहते हैं। जिसके उदय से स्त्री तथा पुरुष दोनों से रमने के भाव हो उसे नपुंसक वेद कहते हैं। जिसके उदय से जीव की अक्तत्व श्रद्धान रूप परिणति होती है उसे मिथ्यात्व कहते हैं। जिसके उदय से मिथ्यात्व और सम्यक्त्व के मिश्रित परिणाम होते हैं उसे सम्यक मिथ्यात्व कहते हैं। जिसके उदय से क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन में चल, मलिन और अवगाढ़ दोष लगते हैं उसे सम्यक्त्व प्रकृति कहते हैं। सब तीर्थकरों की समान शक्ति होने पर भी शान्तिनाथ शान्ति के कर्ता हैं पाश्र्वनाथ रक्षा करने वाले है ऐसा भाव होना चल दोष कहलाता है। सम्यग्दर्शन में शंका-कांक्षा आदि अथवा तीन मूढ़ता आदि पच्चीस दोष लगने को मलिन दोष कहते हैं। एवं अपने द्वारा निर्मापित या प्रतिष्ठापित प्रतिमा आदि में यह मन्दिर मेरा है, यह प्रतिमा मेरी है इत्यादि प्रकार का भाव होना अवगाढ़ दोष कहलाता है। 5. आयु कर्म के चार भेद - नरकायु, तिर्यञ्च आयु, मनुष्यायु एवं देव आयु है। जिस कर्म के उदय से यह जीव निश्चित समय तक नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव की पर्याय में (शरीर में) रुका रहे उसे उस पर्याय सम्बन्धी आयुकर्म कहते हैं। 6. नाम कर्म के तिरानवे भेद - नाम कर्म के पिण्ड प्रकृति की अपेक्षा ब्यालीस भेद एवं सामान्य अपेक्षा से तिरानवे भेद होते हैं। गति, जाति, शरीर, अंगोपांग, निर्माण बन्धन, संघात, संस्थान, संहनन, स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण, आनुपूण्र्य, अगुरुलघु, उपघात, परघात, आतप, उद्योत, उच्छवास और विहायोगति तथा प्रतिपक्ष प्रकृतियों के साथ साधारण शरीर और प्रत्येक शरीर, स्थावर और त्रस, दुर्भग-सुभग, दुस्वर–सुस्वर, अशुभ-शुभ, बादर–सूक्ष्म, अपर्याप्त-पर्याप्त, अस्थिर-स्थिर, अनादेय-आदेय, अयशः कीर्ति, यश: कीर्ति एवं तीर्थकर ये ब्यालीस भेद हैं। गति आदि के उत्तर भेदों को मिलाने पर तिरानवे भेद हो जाते हैं। जिस कर्म के उदय से जीव भवान्तर को जाता है वह गति नाम कर्म है। यह चार प्रकार का - नरकगति, तिर्यच्च गति, मनुष्य गति एवं देव गति है। जिस कर्म के उदय से आत्मा एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय व पञ्चेन्द्रिय जाति में जन्म लेता है वह पाँच प्रकार का एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय व पञ्चेन्द्रिय जाति नाम कर्म है। जिस कर्म के उदय से जीव के शरीर की रचना होती है वह शरीर नाम कर्म है। वह पाँच प्रकार का है - औदारिक शरीर नाम कर्म, वैक्रियक शरीर नाम कर्म, आहारक शरीर नाम कर्म, तैजस शरीर और कार्माण शरीर नाम कर्म है। इन शरीरों का वर्णन आगे के अध्याय में किया जावेगा। जिस कर्म के उदय से अंग-उपांगो की रचना होती है उसे अंगोपांग नाम कर्म कहते हैं। इसके तीन भेद हैं :- औदारिक शरीर अंगोपांग, वैक्रियक शरीर अंगोपांग एवं आहारक शरीर अंगोपांग। जिस कर्म के उदय शरीर में अंग उपांगों की यथा स्थान, यथा आकार रचना होती है उसे निर्माण नाम कर्म कहते हैं। शरीर नाम कर्म के उदय से प्राप्त हुए पुद्गलों का अन्योन्य प्रदेश संश्लेष (बन्धन रूप अवस्था) जिसके निमित्त से होती है, वह बन्धन नाम कर्म हैं। औदारिक शरीरादि की अपेक्षा इसके भी पाँच भेद हो जाते हैं। जिस कर्म के उदय से शरीर के परमाणु परस्पर छिद्र रहित होकर मिले उसे संघात नाम कर्म कहते हैं। इसके भी औदारिक शरीर संघात आदि पाँच भेद हैं। जिसके उदय से शरीर की आकृति बनती है उसे संस्थान नाम कर्म कहते हैं। इसके 6 भेद हैं - 1. समचतुरस्र संस्थान, 2. न्यग्रोध परिमण्डल संस्थान, 3. स्वाति संस्थान, 4. कुब्जक संस्थान, 5. वामन संस्थान, 6. हुण्डक संस्थान। जिसके उदय से शरीर सुन्दर और सुडौल होता है उसे समचतुरस्र संस्थान कहते हैं। जिसके उदय से शरीर वट वृक्ष की तरह नीचे से पतला और ऊपर से मोटा हो उसे न्यग्रोध परिमण्डल संस्थान कहते हैं। जिसके उदय से शरीर सर्पकी वाँमी की तरह नीचे मोटा (नाभि के नीचे) तथा ऊपर पतला हो उसे स्वाति संस्थान कहते हैं। जिसके उदय से जीव का शरीरा कुबड़ा हो उसे कुब्जक संस्थान कहते हैं। जिसके उदय से शरीर बौना हो उसे वामन संस्थान कहते हैं। जिसके उदय से शरीर किसी खास आकृति का न होकर विरूप (टेढ़ा-मेढ़ा) हो उसे हुण्डक संस्थान कहते हैं। जिस कर्म के उदय से शरीर के अन्दर संहनन – हड्डी की रचना तथा अस्थियों का बन्धन विशेष होता है वह संहनन नाम कर्म है। इसके 6 भेद हैं - 1. वज़वृषभनाराच संहनन, 2. वज़नाराच संहनन, 3. नाराच संहनन, 4. अर्द्धनाराच संहनन, 5.कीलिक संहन, 6. असंप्रातासूपाटिका संहनन। जिस कर्म के उदय से वृषभ (वेष्टन) नाराच (कील) और संहनन (हड्डियाँ) वज़ की हो उसे वज़वृषभनाराच संहनन कहते हैं। जिस कर्म के उदय से वज़ के हाड़, वज़ की कीलियाँ हो परन्तु वेष्टन वज़ का न हो वह वज़ नाराच संहनन है। जिस कर्म के उदय से सामान्य वेष्टन और कीली सहित हाड़ हो उसे नाराच संहनन कहते हैं। जिसके उदय से हड्डियों की संधियाँ अर्द्धकीलित हों उसे अर्द्धनाराच संहनन कहते हैं। जिसके उदय से हड्डियाँ परस्पर कीलित हों उसे कीलक संहनन कहते हैं। और जिसके उदय से जुदी-जुदी हड्डियाँ नसों से बंधी हुई हों, परस्पर कीलित नहीं हो उसे असंप्राप्ता सृपाटिका संहनन कहते हैं। जिसके उदय से शरीर में स्निग्ध-रूक्ष आदि स्पर्श हो, उसे स्पर्श नाम कर्म कहते हैं। इसके आठ भेद हैं - 1. स्निग्ध, 2. रुक्ष, 3. कोमल, 4. कठोर, 5. हल्का, 6. भारी, 7. शीत और 8. उष्ण। जिसके उदय से शरीर में खट्टा मीठा आदि रस हो उसे रस नाम कर्म कहते हैं। इसके पाँच भेद हैं - 1. खट्टा 2. मीठा, 3. कडुआ, 4. कषायला और 5. चरपरा। जिसके उदय से शरीर में सुगन्ध या दुर्गन्ध उत्पन्न हो उसे गन्ध नाम कर्म कहते हैं। इसके दो भेद हैं- 1. सुगन्ध, 2. दुर्गन्ध। जिसके उदय से शरीर में काला-पीला आदि वर्ण उत्पन्न हो उसे वर्ण नाम कर्म कहते हैं। इसके पाँच भेद हैं - 1. काला, 2. पीला, 3. नीला, 4. लाल और 5. सफेद। जिसके उदय से विग्रह गति में आत्म प्रदेशों का आकार पिछले (छोड़े हुए) शरीर के आकार का हो, वह आनुपूव्र्य नाम कर्म हैं। इसके चार भेद हैं - नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य एवं देवगत्यानुपूव्र्य। जैसे कोई मनुष्य मरकर देवगति में जा रहा है तो देवगत्युनपूव्र्य कर्म के उदय से विग्रह गति में मनुष्य का आकार बना रहेगा। इसका उदय विग्रह गति में ही होता है। जिस कर्म के उदय से ऐसा शरीर प्राप्त हो जो लोहे के गोले के समान भारी और अर्क के तूल के समान हल्का न हो उसे अगुरुलघु नाम कर्म कहते हैं। जिससे उदय से अपना ही घात करने वाले अंगोपांग हो उसे उपघात नाम कर्म कहते है। जिसके उदय से दूसरों का घात करने वाले अंगोपांग हों उसे परघात नाम कर्म कहते हैं। जिसके उदय से ऐसा भास्वर शरीर प्राप्त हो जिसका मूल ठण्डा और प्रभा उष्ण हो उसे आतप नाम कर्म कहते हैं। इसका उदय सूर्य के विमान में रहने वाले बादर पृथ्वीकायिक जीवों के होता है। जिसके उदय से ऐसा भास्वर शरीर प्राप्त हो जिसका मूल और प्रभा दोनों शीतल हों उद्योत नाम कर्म कहलाता है। इसका उदय चन्द्र विमान में रहने वाले बादर पृथ्वीकायिक तथा जुगनू आदि के होता है। जिसके उदय से श्वासोच्छवास चलता है उसे उच्छवास नाम कर्म कहते हैं। जिसके उदय से आकाश में गमन ही उसे विहायोगति नाम कर्म कहते हैं। इसके दो भेद प्रशस्त विहायोगति और अप्रशस्त विहायोगति। इसका उदय मात्र पक्षियों के ही नहीं होता अन्य जीवों के भी होता है। जिसके उदय से ऐसा शरीर प्राप्त हो जिसका एक जीव ही स्वामी हो उसे प्रत्येक शरीर नाम कर्म कहते हैं। जिसके उदय से ऐसा शरीर प्राप्त हो जिसके अनेक स्वामी हो। इसका उदय वनस्पति कायिक जीव के ही होता है उसे साधारण शरीर कहते हैं। जिसके उदय से द्वीन्द्रियादि जाति में जन्म हो उसे त्रस नाम कर्म कहते हैं। जिसके उदय से एकेन्द्रिय जाति में जन्म हो उसे स्थावर नाम कर्म कहते हैं। जिसके उदय से विशेष रूपादि गुणों से रहित होते हुए भी जीव अन्य जनों के प्रीति स्नेह का पात्र बनता है वह सुभग नाम कर्म हैं। जिसके उदय से रूपादि गुणों से सहित होते हुए भी अन्य जनों के प्रीति, स्नेह का पात्र न बन सके, लोग द्वेष ग्लानि करे वह दुर्भग नाम कर्म है। जिसके उदय से जीव को अच्छा स्वर प्राप्त होता है उसे सुस्वर नाम कर्म कहते हैं। जिसके उदय से अच्छा स्वर न हो उसे दु:स्वर नाम कर्म कहते हैं। जिसके उदय से शरीर के अवयव सुन्दर हो उसे शुभ नाम कर्म कहते हैं। जिसके उदय से शरीर के अवयव सुन्दर न हो उसे अशुभ नाम कर्म कहते हैं। जिसके उदय से ऐसा शरीर प्राप्त हो जो न किसी से रुके और न किसी को रोक सके उसे सूक्ष्म नाम कर्म कहते हैं। यह शरीर एकेन्द्रिय जीवों के ही होता है। जिसके उदय से ऐसा शरीर हो जो स्वयं किसी से रुके तथा किसी को रोक सके उस बादर नाम कर्म कहते हैं। जिसके उदय से आहार, शरीर, इंद्रिय, श्वासोच्छवास, भाषा और मन इन छह पर्याप्तियों की यथायोग्य (पर्याय योग्य) पूर्णता हो उसे पर्याप्ति नाम कर्म कहते हैं। जिसके उदय से एक भी पर्याप्ति पूर्ण न हो अर्थात् लब्ध्यपर्याप्तक अवस्था हो उसे अपर्याप्ति नाम कर्म कहते हैं। इसका उदय सम्मूच्र्छन जन्म वाले मनुष्य और तिर्यञ्च में होता है। जिसके उदय से शरीर के धातु-उपधातु स्थिर रहें अर्थात् विशेष तप आदि करने पर शरीर कृश न हो उसे स्थिर नाम कर्म कहते हैं। जिसके उदय से शरीर के धातु उपधातु स्थिर न रहे अर्थात् चलायमान होते रहे वह अस्थिर नाम कर्म हैं। जिसके उदय से शरीर विशिष्ट कांति से सहित होता है उसे आदेय नाम कर्म कहते है। जिसके उदय से शरीर विशिष्ट कान्ति रहित हो उसे अनादेय नाम कर्म कहते हैं। जिसके उदय से जीव की संसार में कीर्ति विस्तृत हो उसे यशस्कीर्ति नाम कर्म कहते हैं। जिसके उदय से जीव का संसार में अपयश विस्तृत हो उसे अयशस्कीर्ति नाम कर्म कहते हैं। जिसके उदय से जीव तीर्थकर पद को प्राप्त होता है उसे तीर्थकर नाम कर्म कहते हैं। यह प्रकृति सातिशय पुण्य-प्रकृति है। 7. गोत्र कर्म के दो भेद हैं - 1. उच्च गोत्र 2. नीच गोत्र।जिसके उदय से लोक प्रसिद्ध उच्चकुलों में जन्म होता है उच्च आचरण होता है उसे उच्चगोत्र कर्म कहते हैं। जिसके उदय से लोक निन्द्य नीच कुलों में जन्म होता है नीच आचरण होता है उसे नीच-गोत्र कर्म कहते हैं। 8. अन्तराय कर्म के पाँच भेद हैं - 1. दानान्तराय, 2.लाभान्तराय, 3. भोगान्तराय, 4. उपभोगान्तराय और 5.वीर्यान्तराय। जिस कर्म के उदय से देने की इच्छा करता हुआ भी नहीं दे पाता वह दानान्तराय कर्म है। जिस कर्म के उदय से प्राप्त करने की इच्छा रखता हुआ भी नहीं प्राप्त करता वह लाभन्तराय कर्म है। जिसके उदय से भोगने की इच्छा करता हुआ भी नहीं भोग सकता वह भोगान्तराय कर्म है। जिसके उदय से उपभोग की इच्छा करता हुआ भी उपभोग नहीं कर सकता वह उपभोगान्तराय कर्म है। जिस कर्म के उदय से उत्साहित होने की इच्छा रखता हुआ भी उत्साहित नहीं होता है वह वीर्यान्तराय कर्म है।
  16. पाँच पापों के एकदेश अर्थात् स्थूल रूप से त्याग को अणु व्रत कहते हैं। अणुव्रत पांच होते हैं- १. अहिंसाणुव्रत, २. सत्याणुव्रत, ३. अचौर्याणुव्रत,४. ब्रह्मचर्याणुव्रत, ५. परिग्रहपरिमाणुव्रत । अहिंसा अणुव्रत - हिंसा के स्थूल त्याग को अहिंसाणुव्रत कहते हैं। यह श्रावक संकल्प पूर्वक मन, वचन, काय से किसी भी इस प्राणी का घात अपने मनोरंजन एवं स्वार्थपूर्ति के लिए नहीं करता है तथा शेष तीन प्रकार की हिंसा को अपने विवेक पूर्वक कम करता है। आगम कथित मर्यादा के भीतर की ही खाद्य वस्तुओं का, पानी आदि का प्रयोग करता है। सभी प्राणियों को अपने समान मानकर ही व्यवहार करता है। सत्याणुव्रत - झूठ के स्थूल त्याग को सत्याणुव्रत कहते हैं। जिस झूठ से समाज में प्रतिष्ठा न रहे, प्रमाणिकता खण्डित होती हो, लोगों में अविश्वास हो, राजदण्ड का भागी बनना पड़े, इस प्रकार के झूठ को स्थूल झूठ कहते हैं। सत्याणुव्रती ऐसा सत्य भी नहीं बोलता जिससे किसी पर आपत्ति आ जावे। अचौर्य अणुव्रत - स्थूल चोरी का त्याग करने वाला अचौर्य अणुव्रती श्रावक कहलाता है। अचौर्याणुव्रती जल और मिट्टी के सिवा बिना अनुमति के किसी के भी स्वामित्व की वस्तु का उपयोग नहीं करता। लूटना, डाका-डालना, जेब काटना, किसी की धन-सम्पति, जमीन हड़प लेना, गड़ा धन निकाल लेना स्थूल चोरी के उदाहरण हैं। यह श्रावक चोरों की सहायता नहीं करता, चोरी का माल नहीं खरीदता, राजकीय नियमों का उल्लंघन नहीं करता कालाबाजारी एवं मिलावट नहीं करता है। ब्रह्मचर्य अणुव्रत - इसका दूसरा नाम स्वस्त्री संतोष व्रत भी है। अपनी विवाहिता स्त्री के अतिरिक्त शेष स्त्रियों के प्रति माँ बहन और बेटी का व्यवहार करना ब्रह्मचर्य अणुव्रत है। ब्रह्मचर्याणुव्रती अपने परिवार जन को छोड़कर अन्य जनों के विवाहव्यवसाय नहीं करता और न कराता है। काम सम्बन्धी कुचेष्टाओं को नहीं करता, चारित्रहीन स्त्री-पुरुषों की संगति नहीं करता। परिग्रह परिमाण व्रत - तीव्र लोभ को मिटाने के लिए परिग्रह की सीमा निर्धारित करना परिग्रह परिणाम व्रत है। धन धान्यादि बाह्य पदार्थों के प्रति ममत्व, मूच्छा या आशक्ति को परिग्रह कहते हैं, धन धान्यादि बाह्य पदार्थों की सीमा बनाकर उसमें संतोष धारण करना परिग्रह परिमाणुव्रत है। यह व्रती श्रावक दूसरों के लाभ में विषाद नहीं करता, लाभ हानि में संक्लेशित नहीं होता। लोभ के वशीभूत हो नौकर आदि पर अधिक भार नहीं डालता। चूंकि इस व्रत के द्वारा वह अपनी अन्तहीन इच्छाओं को एक सीमा में बांध देता है। अत: इसे इच्छापरिमाण व्रत भी कहते हैं। जिससे अणुव्रतों में विकास होता है उन्हें गुण-व्रत कहते हैं, गुणव्रत तीन हैं- १. दिग्व्रत, २. देशव्रत तथा ३. अनर्थदण्ड त्याग व्रत। 6. दिग्व्रत - जीवन पर्यन्त के लिए दशों दिशाओं में आने-जाने की मर्यादा बना लेना दिग्व्रत है। जैसे कि मैं व्यापार आदि के निमित अमुक दिशा में वहाँ जाऊँगा उससे आगे नहीं। 7. देशव्रत - दिग्व्रत में ली गयी जीवन भर की मर्यादा के भीतर भी अपनी आवश्यकताओं एवं प्रयोजन के अनुसार आवागमन को सीमित समय के लिए नियन्त्रित रखना देशव्रत है। जैसे कि एक माह तक इस नगर से, मोहल्ले से बाहर नहीं जाऊँगा। अथवा आज मैं घर से बाहर नहीं जाऊँगा इत्यादि। 8. अनर्थदण्ड त्याग व्रत - बिना प्रयोजन पाप के कार्य करने को अनर्थदण्ड कहते हैं। इनका त्याग करना अनर्थदण्ड त्याग व्रत है। यह व्रती खोटे व्यापार का उपदेश नहीं देता, अस्त्र शस्त्रादि, हिंसक उपकरणों का आदान-प्रदान नहीं करता, किसी ही हार, जीत, लाभ, हानि की व्यर्थ चिन्ता नहीं करता बिना मतलब पृथ्वी आदि नहीं खोदता, अप्रयोजनीय स्थावर जीवों की हिंसा नहीं करता, मन को विकृत करने वाले साहित्य, गीत नाटक आदि कार्यक्रमों को न पढ़ता न सुनता और न देखता है तथा आवश्यकता से अधिक वस्तुओं का संग्रह भी नहीं करता है। शिक्षा व्रत - जिनसे मुनि बनने की शिक्षा / प्रेरणा मिले उन्हें शिक्षा व्रत कहते है वे चार हैं। १. सामायिक, २. प्रोषधोपवास, भोगोपभोग परिमाण तथा ३. अतिथि संविभाग। 9. सामायिक - समय आत्मा को कहते हैं आत्मा के गुणों का चिन्तन कर समता का अभ्यास करना सामायिक है। सामायिक में संसार, शरीर, भोगों के स्वरूप का चिन्तन, बारह भावनाओं का चिन्तन, चैत्य-चैत्यालयों की वन्दना, भक्ति आदि का पाठ तथा णमोकार मंत्र का जाप भी किया जा सकता है। प्रतिदिन दोनों संध्याओं में कम से कम २४ मिनट तक इसका अभ्यास करना चाहिए। 10. प्रोषधोपवास - अष्टमी चतुदर्शी पर्व के दिनों में एकासन पूर्वक उपवास करना प्रोषधोपवास है। शरीर की शक्ति के अनुसार उत्तम, मध्यम एवं जघन्य विधी से इसको धारण करना चाहिए। उपवास के दिन घर-गृहस्थी और व्यवसाय-धन्धे के समस्त कामों को छोड़कर धर्मध्यान पूर्वक दिन बिताना चाहिए। 11. भोगोपभोग परिणाम - भोग और उपभोग के साधनों का कुछ समय या जीवन पर्यन्त के लिए त्याग करना भोगोपभोग परिणाम व्रत कहलाता है। इससे गृहस्थ अनावश्यक संग्रह, खर्च और आकुलता से बच जाता है। 12. अतिथी संविभाग - जो संयम का पालन करते हुए देश-देशान्तर में भ्रमण करते हैं, उन्हें अतिथी कहते हैं। ऐसे अतिथियों को अपने लिए बनाये गये भोजन में से विभाग करके भोजन देना अतिथी संविभाग व्रत कहलाता है। उत्तरदायित्व से महान बल प्राप्त होता है। जहाँ कहीं भी उत्तरदायित्व होता है वहीं विकास होता है। हताश न होना ही सफलता का मूल है। उद्यम स्वर्ग है आलस्य नरक । संसार में सबसे बड़े अधिकार सेवा और त्याग से मिलते हैं। अध्ययन आनन्द का अलंकरण और योग्यता का काम करता है। अभागा वह है जो संसार में सबसे पवित्र धर्म कृतज्ञता को भूल जाता है।
  17. ऋद्धि - तपश्चरण के प्रभाव से योगीजनों को चमत्कारिक शक्तियाँ प्राप्त हो जाती हैं, उन्हें ऋद्धियाँ कहते हैं। मुख्य रूप से ऋद्धियाँ आठ होती हैं। उनके उत्तर भेद चौसठ होते हैं। ऋद्धियों के कार्य व शक्ति इस प्रकार हैं - बुद्धि ऋद्धि १. अवधिज्ञान बुद्धि ऋद्धि - जिसमें बिना किसी बाह्य आलम्बन के मर्यादापूर्वक रूपी पदार्थों को जानने की शक्ति होती है। २. मन: पर्ययज्ञान बुद्धि ऋद्धि - जिसमें अवधिज्ञान बुद्धि ऋद्धि की तरह मर्यादापूर्वक दूसरों के मनोगत अर्थ को जानने की शक्ति होती है। ३. केवलज्ञान बुद्धि ऋद्धि - जिसमें समस्त द्रव्य और उनकी अनंत पर्यायों को वर्तमान पर्याय की तरह स्पष्ट जानने की शक्ति होती है। ४. बीज बुद्धि ऋद्धि - एक ही बीज पद को ग्रहण कर उस पद के आश्रय से सम्पूर्ण श्रुत का विचार करने वाली होती है। ५. कोष्ठ बुद्धि ऋद्धि - नाना प्रकार के ग्रन्थों में से विस्तारपूर्वक चिह्न सहित शब्द रूप बीजों को अपनी बुद्धि में ग्रहण कर उन्हें मिश्रण के बिना बुद्धि रूपी कोठे में धारण करने की शक्ति होती है। ६. पदानुसारी बुद्धि ऋद्धि - ग्रन्थ के एक पद को ग्रहण कर संपूर्ण ग्रन्थ को ग्रहण करने वाली ऋद्धि है। ७. संभिन्न श्रोतृत्व बुद्धि ऋद्धि - श्रोतेन्द्रिय के उत्कृष्ट विषय क्षेत्र से संख्यात योजन बाहर स्थित दसों दिशाओं के मनुष्य एवं तिर्यन्चों की वाणी को एक साथ सुनकर प्रत्युत्तर देने वाली बुद्धि होती है। ८. १२. दूर स्पर्शत्व आदि पाँच बुद्धि ऋद्धियाँ - अपनी पृथक-पृथक स्पर्शनादि इन्द्रियों के उत्कृष्ट विषय से बाहर संख्यात योजन में स्थित तत्-तत् संबंधी विषयों को जान लेने की क्षमता को प्राप्त होने वाली बुद्धि का होना। १३. दशपूर्वित्व बुद्धि ऋद्धि - दस पूर्वो का ज्ञान कराने वाली बुद्धि। १४. चतुर्दश पूर्वित्व बुद्धि ऋद्धि - चौदह पूर्वो का ज्ञान कराने वाली बुद्धि। यह श्रुत पारंगत श्रुत केवलियों के होती है। १५ अष्टांग महानिमित्त बुद्धि ऋद्धि - नभ, भौम, अंग, स्वर, व्यंजन, लक्षण चिन्ह और स्वप्न इन आठ निमित्तों से त्रिकाल का ज्ञान कराने वाली बुद्धि। १६. प्रज्ञाश्रमण बुद्धिऋद्धि - अध्ययन के बिना ही चौदह पूर्वो के अर्थ का निरूपण करने वाली बुद्धि। १७. प्रत्येक बुद्धि ऋद्धि - गुरु के उपदेश के बिना ही संयम-तप में प्रवृत्त कराने वाली बुद्धि। १८. वादित्व बुद्धि ऋद्धि - वाद के द्वारा इन्द्र के पक्ष को भी निरस्त कराने में समर्थ बुद्धि। विक्रिया ऋद्धि अणु के बराबर सूक्ष्म शरीर बनाने की क्षमता अणिमा विक्रिया ऋद्धि है। मेरू के बराबर बड़ा शरीर बनाने की क्षमता महिमा विक्रिया ऋद्धि है। वायु से भी हल्का शरीर करने की क्षमता लघिमा विक्रिया ऋद्धि है। वज़ से भी भारी शरीर करने की क्षमता गरिमा विक्रिया ऋद्धि है। भूमि पर स्थित रहकर अंगुलि के अग्रभाग से सूर्य-चन्द्रमा, मेरू शिखर आदि को स्पर्श करने की क्षमता प्राप्ति विक्रिया ऋद्धि है। जल के समान पृथ्वी पर तथा पृथ्वी के समान जल पर गमन करने की क्षमता प्राकाम्य विक्रिया ऋद्धि है। सब जगत् में प्रभुत्व बने, जिससे वह ईशित्व विक्रिया ऋद्धि है। समस्त जीव समूह को वश में करने की क्षमता वशित्व विक्रिया ऋद्धि है। शैल, वृक्षादि के मध्य में होकर आकाश के समान गमन करने की क्षमता अप्रतिघात विक्रिया ऋद्धि है। एक साथ अनेक रूप 'घोड़ा, गायादि' बनाने की क्षमता कामरूपित्व ऋद्धि है। अदृश्य हो जाने की क्षमता अन्तर्धान विक्रिया ऋद्धि है। क्रिया ऋद्धि आसन लगाकर बैठे अथवा खड़े हुए भी आकाश में गमन करने की क्षमता नभस्तलगामित्वचारण क्रिया ऋद्धि है। जलकायिक जीवों को बाधा न पहुँचाते हुए इच्छानुसार जल, कुहरा, ओस, बफॉदि में गमन करने की क्षमता जलचारणत्व क्रिया ऋद्धि है। चार अंगुल प्रमाण पृथ्वी को छोडकर आकाश में घुटनों को मोड़े बिना बहुत योजनों तक गमन करने की क्षमता जंघाचारण क्रिया ऋद्धि है। फल, पत्र तथा पुष्पादि में स्थित जीवों अथवा उनके आश्रित जीवों की विराधना न करते हुए उनके ऊपर पैर रखकर चलने की क्षमता फल पत्र पुष्प चारण क्रिया ऋद्धि है। अग्नि शिखा में स्थित जीवों की विराधना न करके उन पर चलने तथा धुएँ का सहारा ले ऊपर चढ़ने की शक्ति अग्नि धूम चारण क्रिया ऋद्धि है। जलकायिक जीवों को बाधा पहुँचाये बिना मेघ पर तथा बरसती जलधारा पर चलने की क्षमता मेघ चारण क्रिया ऋद्धि है। मकड़ जाल के तंतु अथवा वृक्ष के तन्तुओं पर जीवों को बाधा पहुँचाये बिना चलने व चढ़ने की क्षमता तन्तु चारण क्रिया ऋद्धि है। सूर्य, चन्द्र, तारा, नक्षत्र, ग्रह की किरणों का अवलम्बन ले योजनों तक गमन करने की क्षमता ज्योतिष चारण क्रिया ऋद्धि है। वायु की पंक्ति के सहारे कोशों तक चलने की क्षमता मरुच्चारण क्रिया ऋद्धि है। तप ऋद्धि दीक्षा उपवास को आदि कर मरण पर्यत एक-एक उपवास अधिक करने की शक्ति उग्र तप ऋद्धि है। (जैसे- पारणा दो उपवास, पारणा तीन उपवास, पारणा चार उपवास इत्यादि क्रम से बढते जाना) बहुत उपवास हो जाने के बाद भी शरीर सूर्य की किरणों के समान चमकता रहे ऐसी शक्ति दीप्त तप ऋद्धि है। तपे हुए लोह पर गिरी जल बूंद के समान खाया हुआ अन्नादि सब क्षीण हो जाये अर्थात् मल-मूत्रादि रूप परिणमन न हो, ऐसी शक्ति तप्त तप ऋद्धि है। सभी ऋद्धियों की उत्कृष्टता को प्राप्त करने वाले मंदर पंक्ति, सिंहनिष्क्रीड़ित आदि उपवास करने की क्षमता प्राप्त होना महातप ऋद्धि है। अनशनादि बारह तपों का उग्रता से पालन, हिंसक जंतुओं से भरे जंगल में निवास, अभ्रावकाश आदि योग धारण की क्षमता का प्राप्त होना घोर तप ऋद्धि है । अनुभव एवं वृद्धिगत तप से सहित, तीन लोक के संहार की शक्ति से युक्त, कटक, शिला, अग्नि आदि बरसाने में समर्थ, समुद्र की जलराशि को सुखा देने में समर्थ घोरपराक्रम तप ऋद्धि है। जिस ऋद्धि के निमित्त से दु:स्वप्न नष्ट हो जाते हैं, अविनश्वर ब्रह्मचर्य व्रत का पालन हो, मुनि के रहने वाले क्षेत्र में चोरादिक की बाधाएँ अकाल एवं महायुद्ध आदि न हों, अघोर ब्रह्मचारित्व तप ऋद्धि है। बल ऋद्धि एक मुहूर्त काल के भीतर अन्तमुहूर्त में संपूर्ण श्रुत का चिंतन करने की क्षमता मनोबल ऋद्धि है। जिस ऋद्धि के प्रकट होने पर मुनि श्रम रहित अहीन कठ होता हुआ मुहूर्त मात्र काल के भीतर संपूर्ण श्रुत को जानता व उच्चारण करता है। वह वचन बल ऋद्धि है। जिस ऋद्धि के प्रभाव से चतुर्मासादिक रूप कायोत्सर्ग करते हुए भी श्रम रहितता हो तथा कनिष्ठ अंगुली मात्र से तीन लोक को उठाकर अन्यत्र स्थापित करने की क्षमता हो काय बल ऋद्धि है। औषधि ऋद्धि जिस ऋद्धि के प्रभाव से ऋषि के हाथ-पैर के स्पर्श मात्र से रोगी का रोग दूर हो जाये आमर्ष औषधि ऋद्धि है। ऋषि के लार, कफ, थूक, आदि में रोग को दूर करने की क्षमता क्ष्वेल औषधि ऋद्धि है। पसीने के आश्रय से शरीर में लिप्त मल जल्ल कहलाता है। उस जल्ल में रोग दूर करने की क्षमता जल्लौषधि ऋद्धि है। जिस शक्ति के निमित्त से जिह्वा, ऑठ, दाँत, कर्ण एवं नासिका का मल रोग दूर करने का कारण बने मल औषधि ऋद्धि है। जिस ऋद्धि से मल-मूत्र, रुधिर आदि रोग दूर करने में कारण बनें वह विपृष् औषधि ऋद्धि है। जिस ऋद्धि के बल से मुनि से स्पर्शित जल तथा वायु सर्व रोग को हरने वाली हो सर्वोषधि ऋद्धि है। जिस शक्ति के निमित्त से वचन मात्र द्वारा महाविष से व्याप्त व्यक्ति निर्विष हो जाये अथवा विष युक्त भोजन भी निर्विषता को प्राप्त हो मुखनिर्विष ऋद्धि कहलाती है। रोग व विष से युक्त जीव जिस ऋद्धि के प्रभाव से झट देखने मात्र से ही नीरोगता व निर्विषता को प्राप्त हो जाये दृष्टि निर्विष ऋद्धि कहलाती है। रस ऋद्धि १. मर जाओ - ऐसा कहने पर जीव शीघ्र ही मर जाये ऐसी शक्ति आशीर्विष ऋद्धि है। २. जिस ऋद्धि के बल से रोष युक्त ऋषि से देखा गया जीव, सर्प से काटे गये के समान तुरंत मर जावे वह दृष्टि विष ऋद्धि है। नोट - वीतरागी श्रमण ऐसा अपकार कभी नहीं करते। यहाँ केवल तप का प्रभाव बतलाया गया है। ३. ६ - जिस ऋद्धि के प्रभाव से हाथ में रखा हुआ रूखा सूखा अन्न भी दुग्ध, मधु, अमृत, तथा घृत रूप परिणाम को प्राप्त हो जावें अथवा जिनके वचनों को सुनकर तिर्यज्च व मनुष्यों के दु:ख शांत हो जावे, वे क्रमश: क्षीरस्रावि, मधुरस्रावि, अमृतस्रावि एवं सर्पिस्रावि रस ऋद्धियाँ हैं। अक्षीणा ऋद्धि जिस ऋद्धि के प्रभाव से मुनि के आहार के पश्चात् शेष बचे भोजन में, चक्रवर्ती की पूरी सेना भी जीम ले तो भी थोड़ा-सा भोजन कम न पड़े वह अक्षीण महानस ऋद्धि है। जिस ऋद्धि के प्रभाव से समचतुष्कोण चार धनुष प्रमाण क्षेत्त्र में असंख्यात मनुष्य व तिर्यञ्च बिना किसी व्यवधान के बैठ सके, वह अक्षीण महालय ऋद्धि है।
  18. राम, रावण, हनुमान, लक्ष्मण आदि महापुरुषों के चरित्र सम्बन्धी अनेक विचारधाराएँ वर्तमान में प्रचलित हैं। लेकिन इनके वास्तविक स्वरूप को जानने के लिए जैन ग्रन्थों का आधार लेना आवश्यक है। इस पाठ में हम संक्षिप्त कथा के माध्यम से रामलक्ष्मण, हनुमान आदि का यथार्थ स्वरूप समझेंगे। मुनिसुव्रतनाथ तीर्थकर के काल में उत्पन्न नवमें बलभद्र श्री राम अत्यन्त लोकप्रिय महापुरुष हुए। जैनाचार्यों द्वारा प्रतिपादित ग्रंथों के अनुसार संक्षिप्त में रामकथा इस प्रकार है - अयोध्या के राजा दशरथ की चार रानियाँ थीं, जिनके नाम अपराजिता (कौशल्या), सुमित्रा, कैकेयी और सुप्रभा था। बड़ी राशि अपराजिता (कौशल्या) के राम (पद्म) नाम का पुत्र हुआ एवं शेष रानियों के क्रमश: लक्ष्मण, भरत, शत्रुध्न नाम के पुत्र हुए। यौवनावस्था प्राप्त होने पर राम का विवाह राजा जनक की पुत्री सीता के साथ कर दिया गया। दिगम्बरी दीक्षा धारण करने की भावना होने पर, संसार - शरीर और भोगों से उदासीन हो दीक्षा धारण करने के लिये उद्यत राजा दशरथ ने अपने ज्येष्ठ पुत्र राजकुमार राम को राजगद्दी देनी चाही, पर कैकेयी को दिये हुये वचन के कारण भरत को राजा बनाकर स्वयं ने सर्वभूतशरण्य मुनिराज से समस्त परिग्रह को त्याग कर दैगम्बरी दीक्षा धारण की। उधर राम, लक्ष्मण और सीता, राजा भरत के राज्य की सीमा से बहुत दूर जा दण्डक वन में रहने लगे। बहुत काल व्यतीत होने पर एक दिन रावण नाम का विद्याधर सीता का रूप लावण्य देखकर मोहित हो गया एवं छल से उसने सीता का हरण कर लिया। पश्चात् सीता की खोज के लिये निकले राम की महिमा सुनकर हनुमान-विद्याधर राम के पास पहुँचा। पश्चात् सुग्रीव, भामण्डल आदि अनेक विद्याधर राजाओं के साथ राम-लक्ष्मण सेना सहित आकाश मार्ग से लंका पहुँचे। वहाँ रावण का छोटा भाई विभीषण भी अधर्म का साथ छोड़कर राम के साथ आ मिला। राम और रावण की सेना के बीच कई दिनों तक भयंकर युद्ध चला, अन्त में रावण ने चक्ररत्न चला दिया तो वह तीन प्रदक्षिणा दे चक्ररत्न लक्ष्मण के हाथ में आ जाता है एवं लक्ष्मण नारायण घोषित होते हैं और उसी चक्ररत्न से रावण (प्रतिनारायण) का वध कर देते हैं। तदनन्तर विभीषण को लंका का राज्य सौंपकर, कुछ दिन विभीषण के आतिथ्य में रहकर, राम, लक्ष्मण और सीता के साथ वापस अयोध्या नगर में आ जाते हैं। राजा भरत पूर्व से वैराग्य भाव को धारण किये हुए उदासीन भाव से राजपाठ सम्हाल रहे थे। रामचन्द्र जी के वापस आते ही, राम को राजा बनाकर स्वयं दिगम्बर दीक्षा धारण करते हैं। कालान्तर में सीता के विषय में लोकोपवाद होने पर, कुलमर्यादा की रक्षा हेतु राम, गर्भवती सीता का परित्याग कर देते हैं तथा तीर्थयात्रा के दोहले (इच्छा अथवा भाव) को पूर्ण करने के बहाने कृतान्तवक्र सेनापति के द्वारा जंगल में सीता को छुड़वा देते हैं जब कृतान्तवक्र के सीताजी से कहा माँ रामचन्द्र जी से कोई संदेश कहना है क्या? तब सीता ने कहा 'जिस प्रकार प्रजा के कहने पर मुझे छोड़ दिया, उसी प्रकार किसी के कहने पर धर्म को नहीं छोड़ना।'अथानन्तर पुण्य योग से सीता के समीप विद्याधर राजा वज़जंघ जंगल में पहुँचा एवं सीता को बहिन बनाकर अपने महल में ले जाता है। वहीं सीता ने अनंग लवण और मदनांकुश नामक युगल पुत्रों को जन्म दिया। सिद्धार्थ नामक क्षुल्लक से शिक्षा प्राप्त कर बड़े हुए उन पुत्रों को जब अपनी माँ की पूरी कहानी पता चली तो उन्होंने युद्ध हेतु अयोध्या नगरी को घेर लिया। घोर युद्ध हुआ जब राम सेना सहित उन पुत्रों को न जीत सके तब सिद्धार्थ क्षुल्लक नामक नारद जी ने राम लक्ष्मण से उनका रहस्य प्रकट किया। तब उन्होंने युद्ध को छोड़कर पुत्रों को पुकारा और वे पिता-पुत्र आपस में प्रीति को प्राप्त हुए। समस्त लोगों के समक्ष निर्दोषता सिद्ध करने की शर्त पर राम ने सीता को बुलाया और उनकी अग्नि परीक्षा ली तब अग्निकुण्ड जलकुण्ड बन गया और देवताओं ने सीता जी को सिंहासन पर बैठाकर जय-जय कार किया। परीक्षा में निर्दोष सिद्ध होने पर राम ने सीता से राजमहल में चलने का आग्रह किया, परन्तु सीता ने कहा अब मैं भवन की ओर नहीं किन्तु वन की ओर जाऊँगी और आत्मकल्याण करूंगी। तब राम की आज्ञा ले सीता ने पृथ्वीमती आर्यिका से आर्यिका के व्रतों को अंगीकार किया एवं स्त्री पर्याय के छेदन हेतु घोर तप करने लगी। तपस्या करते हुये आयु की पूर्णता निकट जान तैतीस दिन की सल्लेखना धारण कर समाधिमरण को प्राप्त हो अच्युत स्वर्ग में स्त्री पर्याय से छूट पुरुष पर्याय में प्रतीन्द्र हो गयी। एक दिन भाई-भाई के प्रेम की परीक्षा करने आये देवों के द्वारा ऐसा कहने पर कि राम की मृत्यु हो गई, सुनते ही लक्ष्मण मरण को प्राप्त हो जाते हैं। राम मोह के वशीभूत हो उनके शव को अपने कंधे पर लटकाये छह माह तक पागलों की भाँति भटकते रहे। तदनन्तर देवों के द्वारा अनेक प्रकार से सम्बोधे जाने पर प्रतिबोध को प्राप्त हो, सीता के पुत्र अनंग लवण को राज्य सौंपकर राम ने निग्रन्थ दीक्षा धारण की। घोर तप करते हुये माघ शुक्ल द्वादशी को श्री राम मुनि ने केवलज्ञान प्राप्त किया एवं आयु कर्म के पूर्ण होने पर अष्ट कर्मों को क्षय कर मांगीतुंगी से मोक्ष को प्राप्त किया। जैन रामकथा के महत्वपूर्ण बिन्दु रावण राक्षस नहीं था अपितु रावण का जन्म राक्षस वंश में हुआ था। वह विद्याधर तीन खण्ड का स्वामी, अत्यन्त रूपवान, नीति का ज्ञाता विद्वान् था। रावण के बचपन का नाम दशानन था। कुम्भकर्ण की बुद्धि सदा धर्म में लीन रहती थी, वह शूरवीर था, कलाओं में निपुण, पवित्र भोजन करने वाला तथा शयनकाल में ही निद्रा लेने वाला था। रावण की मृत्यु के पश्चात् अनन्तवीर्य केवली के समक्ष मुनि दीक्षा अंगीकार की एवं चूलगिरि पर्वत (बावनगजा) से मोक्ष प्राप्त किया। विभीषण ने राम के साथ मुनि दीक्षा धारण की। रावण की बहिन चन्द्रनखा एवं पत्नि मंदोदरी ने शशिकान्ता आर्यिका से दीक्षा ली। हनुमान बन्दर नहीं सुन्दर महापुरुष वानरवंश के शिरोमणि तद्भव मोक्षगामी थे। अंजना का मामा प्रतिसूर्य जब बालक को अपने निवास हनुरुह द्वीप ले जा रहा था तब बालक विमान से उछलकर नीचे शिला पर गिर पड़ा, जिस शिला पर बालक गिरा वह शिला चूर-चूर हो गई, संभवत: इसलिये उनका एक नाम वज़ांग (बजरंग) पड़ा हो। शैल (पर्वत) की गुफा में जन्म लेने के कारण उनका नामकरण श्रीशैल किया गया, पिता पवनंजय के कारण पवनपुत्र भी कहा जाता है। हनुरुह द्वीप में पालन-पोषण होने से लोक में हनुमान नाम प्रसिद्ध हुआ। इनके शरीर की समस्त क्रियायें मनुष्यों के समान ही थीं। वे अत्यन्त सुन्दर, कांति के धारक, कामदेव थे। उन्होंने मुनिदीक्षा धारण की एवं मांगीतुंगी से मोक्ष प्राप्त किया। राजा जनक की रानी विदेहा के गर्भ से एक साथ पुत्र और पुत्री का जन्म हुआ। पुत्र का नाम भामण्डल एवं पुत्री का नाम सीता रखा गया। कर्णरवा नदी के तट पर राम-सीता ने चारण-ऋद्धिधारी मुनियुगल सुगुप्ति और गुप्ति मुनियों को आहार दान दिया। तभी देवों द्वारा पंचाश्चर्य किये गये। उसी समय एक गिद्ध पक्षी आया और मुनि के चरणोदक में लौटने लगा। उस चरणोदक के प्रभाव से उसका शरीर रत्नों की कांति के समान उज्जवल एवं पंख सुवर्ण के समान हो गये।उस गिद्ध पक्षी ने मुनिराज के उपदेश से श्रावक के व्रतों को स्वीकार किया एवं राम लक्ष्मण के साथ रहने लगा। चूँकि उसके शरीर पर रत्न तथा स्वर्ण निर्मित किरण रूपी जटाएँ सुशोभित होती थीं, अत: राम आदि उसे जटायु नाम से पुकारते थे। जब लक्ष्मण रावण के द्वारा अदृश्य शक्ति से मूच्छित कर दिये गये थे, तब राजकुमारी विशल्या को समीप लाने पर लक्ष्मण स्वस्थ्य हो गये और वह शक्ति भाग गई। पश्चात् लक्ष्मण से विशल्या का विवाह कर दिया गया। रावण-मंदोदरी के पुत्र इन्द्रजीत और मेघवाहन ने रावण वध के बाद अनन्तवीर्य महामुनि के पास दीक्षा ली और अंत में केवलज्ञान प्राप्त कर मोक्ष गये। श्री रामचन्द्रजी की आयु 17000 वर्ष की थी एवं शरीर की ऊँचाई सोलह धनुष (64 हाथ=96 फीट) प्रमाण थी। त्रिखण्डाधिपति लक्ष्मण की आयु 12,000 वर्ष की थी एवं शरीर की ऊँचाई सोलह धनुष प्रमाण थी। अनेक विद्याओं को धारण करने वाले, देवों के समान आकाश में गमन करने वाले, अनेक रूप धारण करने में सक्षम विद्याधर श्रेणी में रहने वाले मनुष्य विद्याधर कहलाते हैं, वे भी विद्याओं का त्यागकर मुनि बन सकते हैं एवं कर्म काट मुक्ति जा सकते हैं।
  19. देवाधिदेव चरणे परिचरणं सर्व दुःख निर्हरणम्। कामदुहि कामदाहिनि, परिचिनुया दादूतो नित्यम। श्रावकों के कर्तव्यों का वर्णन करते हुए आचार्य श्री समन्तभद्र जी ने रत्नकरण्डक श्रावकाचार में लिखा है - देवों के भी देव ऐसे जिनेन्द्र देव के चरणों की नित्य ही पूजा करना चाहिए। कैसी है वह पूजा? सभी दु:खों को हरण/नष्ट करने वाली, मनवांछित फल को देने वाली एवं तृष्णा को जलाने वाली है। ऐसी परमोपकारी जिन-पूजा के अंग, जिन-पूजा की विधी, प्रकार, जिन पूजक आदि के विषय की इस अध्याय में जानकारी प्राप्त करेंगे। पूजा शब्द का अर्थ होता है आराधना करना, अर्चना, स्वागत-सम्मान करना। अत:पूज्य की आराधना में मन, वचन और काय पूर्वक समर्पित होना पूजा है। जैन दर्शन में व्यक्ति की पूजा नहीं बल्कि व्यक्तित्व (गुणों) की पूजा की जाती है अर्थात् जिनके पास वीतरागता हो ऐसे पंचपरमेष्ठी जिनधर्म, जिनगम, जिनचैत्य और जिनचैत्यालय ये नव देवता ही अष्ट द्रव्य से पूजनीय है अन्य कोई नहीं। सम्यक्र दृष्टि देवी-देवता सम्मान, जय जिनेन्द्र आदि व्यवहार करने योग्य तो हो सकते हैं किन्तु पूज्यनीय नहीं। पूजा के मुख्यत: दो भेद हैं - द्रव्य पूजा और भाव पूजा। जल, चन्दनादि अष्ट द्रव्यों से भक्ति पूर्वक जिनेन्द्र देव की पूजा करना 'द्रव्य पूजा' है। बिना द्रव्य के मात्र निर्मल भावों के द्वारा जिनेन्द्र देव की स्तुति, भक्ति करना 'भाव पूजा' है। द्रव्य पूजा में भाव सहित मन-वचन-काय की प्रवृत्ति की मुख्यता होती है, बाह्य पदार्थों का अवलम्बन होता है जबकि भाव पूजा में निवृत्ति की मुख्यता के साथ-साथ निरालम्बता रहती है। कुछ व्यक्ति धर्म के अर्थ हिंसा करने से तो महापाप होता है, अन्यत्र करने से थोड़ा पाप लगता है ऐसा कहते है सो यह आगम का/सिद्धान्त का वचन नहीं है। गृहस्थ की भूमिका में मात्र संकल्पी हिंसा का त्याग होता है, आरंभी, विरोधी और उद्योगी हिंसा का नहीं। दीपक जलाते समय, धूप खेते समय सावधानी रखें तो त्रस जीवों के घात से बच सकते हैं। आचार्यों ने जिन पूजा आदि में होने वाले सावद्य को अल्पदोष कारक एवं बहुपुण्य राशि को देने वाला माना है। मधुर जल से भरे तालाब में नमक की कणिका के समान ही पूजा आदि कार्यों में पाप कर अल्प बन्ध होता है। आचार्यों ने पूजन के छह अंग कहे हैं- १. अभिषेक, २. आहवानन, ३. स्थापन, ४. सन्निधीकरण, ५. पूजन ६ विसर्जन। किन्ही किन्ही आचार्यों ने अभिषेक की क्रिया का पृथक वर्णन करते हुए पूजा के पाँच अंग भी माने हैं। अभिषेक पूरी जिन-प्रतिमा जल से सिंचित हो इस प्रकार जल की धारा भगवान के ऊपर करना 'अभिषेक' है। अभिषेक पूजा का अनिवार्य अंग है इसके बिना पूजा अधूरी अथवा गलत है। अभिषेक प्रतिमा की स्वच्छता के उद्देश्य से नहीं अपितु साक्षात् प्रभु का स्पर्शन, परिणामों की विशुद्धता, पापों के क्षय के लिए किया जाता है। जिनबिम्ब से स्पर्शित जल 'गन्धोदक' कहा जाता है। यह गंधोदक विश्व की आधि - व्याधि समूह का हर्ता, विष एवं ज्वरों का विनाशक एवं मोक्ष लक्ष्मी का प्रदाता है। आहवानन, स्थापन एवं सन्निधीकरण पूजन के अंग रूप आहवानन, स्थापन एवं सन्निधीकरण क्रिया वीतरागी अहन्त प्रभु के प्रति भावनात्मक समर्पण की क्रिया है। आहवानन का अर्थ - भाव सहित उल्लास पूर्वक त्रिलोकी नाथ को आमन्त्रित (अवतरित) करने का विनय भाव। यद्यपि जिन्होंने सिद्ध दशा को प्राप्त कर लिया वे प्रभु कभी लौटकर आते नहीं। फिर भी पूजक विनय प्रदर्शन हेतु मंत्र और मुद्रा के द्वारा आहवानन क्रिया को संपन्न करता है। दोनों हाथों को जोड़कर एक साथ मिलाकर फैलाना, फिर दोनों अंगूठे, दोनों अनामिकाओं के मूल स्थान में रखना, इससे जो आकृति बनती है, वह आहवानन मुद्रा कहलाती है। इसे आकर्षणी मुद्रा भी कहते हैं। स्थापन का अर्थ - सजग/ सतर्क होकर भगवान से ठहरने का आग्रह भाव यहाँ स्थापना का अर्थ पीले चावल आदि में भगवान की स्थापना करने का नहीं है। स्थापनी मुद्रा के द्वारा यह क्रिया संपन्न की जाती है। आकर्षिणी मुद्रा में जो दोनो हथेली उध्र्वमुख थी उन्हे अधोमुख कर देने पर, जो आकृति होती है उसे स्थापनी मुद्रा कहते हैं। सन्निधीकरण का अर्थ भगवान को हृदय कमल पर विराजमान होने का अनुरोध/श्रद्धा पूर्वक साक्षात् जिनेन्द्र भगवान से निकटता प्राप्त करने का भाव / समर्पण का भाव। सन्निधीकरण मुद्रा के द्वारा यह क्रिया संपन्न की जाती है। दोनो हाथों की मुट्ठी बांधकर रखने से सन्निधीकरण मुद्रा होती है। सन्निधीकरण मुद्रा से हृदय स्पर्श और नमस्कार करना चाहिए। आहवानन, स्थापन एवं सन्निधीकरण करने के पूर्व दृष्टि जिन प्रतिमा की ओर रहे एवं मन्त्र पढ़ने तक हाथ जोड़े तत्पश्चात् मुद्रा बनाते हुए क्रिया का भाव करें। अर्थात् क्रमश: प्रत्येक क्रिया पूर्ण करने के पश्चात् पुन: हाथ जोड़कर अगली क्रिया, मन्त्र पढ़ते हुए प्रारम्भ करें। आह्वानन – ॐ ह्रीं श्री देव शास्त्र गुरु समूहः (सम्बोधनं) अत्र अवतर अवतर संवौषट्र (आकर्षण मन्त्र) आहूवान्मू (आह्वानन मुद्रा) स्थापन — ऊँ हीं श्री देव शास्त्र गुरु समूह (सम्बोधन) अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: (स्तम्भन मंत्र) स्थापनम् (स्थापनी मुद्रा) सन्निधीकरण - ऊँहीं श्री देव शास्त्र गुरु समूह (सम्बोधन) अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् (वशीकरण मन्त्र) सन्निधिकरणम् (सन्निधी करण मुद्रा) इसके बाद पूजा करने का संकल्प करने हेतु ठोने में 'संकल्प पुष्प' क्षेपण करना चाहिए। तीन, पाँच, सात आदि पुष्पों की संख्या का कोई विकल्प नहीं करना चाहिए। क्योंकि हम भगवान की पूजा का संकल्प करके संकल्प पुष्प ठोने पर क्षेपण कर रहे हैं, भगवान को नहीं। बैठकर के पूजन करने वालो को भी आहवानन आदि क्रिया खड़े होकर करनी चाहिए। पूजन जिनेन्द्र भगवान के अनन्त गुणों का स्मरण करके (गुणानुवाद) अष्ट द्रव्य को संकल्प पूर्वक जिनेन्द्र चरणों में समर्पित करना पूजा कहलाती है। पूजन में प्रयोग की जाने वाली अष्ट द्रव्य एवं उसका प्रयोजन क्रमश: निम्न प्रकार है जल - संसार में परिभ्रमण कराने वाले जन्म-जरा-मृत्यु के क्षय के लिए। चन्दन - संसार का आताप / दुःख मिटाने के लिए। अक्षत - कभी नष्ट न होने वाले ऐसे अक्षय पद की प्राप्ति के लिए। पुष्प - कामवासना के नष्ट करने हेतु। नैवेद्य - क्षुधा रोग के क्षय / विनाश के लिए। दीप - महा मोह रूपी अन्धकार के विनाश हेतु। धूप - अष्ट कर्म के दहन हेतु। फल - महा मोक्ष फल की प्राप्ति हेतु । आठों द्रव्य को मिलाने से अर्घ बन जाता है। जिसे अमूल्य शिव पद की प्राप्ति हेतु जिनेन्द्र देव के चरणों के समक्ष चढ़ाया जाता है। द्रव्य चढ़ाने का मन्त्र -ॐ हीं श्री..................निर्वपामीति स्वाहा। बीजाक्षरों का अर्थ - ऊँ - पञ्च परमेष्ठी का वाचक हीं - चौबीस तीर्थकर का वाचक श्री - लक्ष्मी, अनन्त चतुष्टय का वाचक निर्वपामीति - सम्पूर्ण रूप से समर्पित करना स्वाहा - पाप नाशक, मंगल कारक, आत्मा की आन्तरिक शक्ति उद्घाटित करने वाला बीजाक्षर। भावार्थ - पञ्च परमेष्ठी, चौबीस तीर्थकरों को साक्षी मानकर अनन्त चतुष्टय की प्राप्ति के लिए, संसार परिभ्रमण के कारण दुष्कर्मों को नष्ट करने के लिए मैं यह द्रव्य सम्पूर्ण रूप से समर्पित करता हूँ। इस प्रकार जिनेन्द्र गुणों की प्राप्ति ही पूजा का उद्देश्य है। पूजा ही परम्परा से मोक्ष का कारण है। विसर्जन विश्व शान्ति की मंगल कामना के साथ शान्ति पाठ पढ़कर, पूजा में होने वाली अशुद्धियों, ज्ञाताज्ञात त्रुटियों की क्षमा याचना पूर्वक पूजा कार्य की समाप्ति करना विसर्जन है। विसर्जन का तात्पर्य पूजा संकल्प के विसर्जन से है न कि देवताओं के विसर्जन से। विनय पूर्वक हाथ जोड़कर भगवान की ओर दृष्टि करते हुए जितने पुष्प हाथ में आये उन्हें ठोने में क्षेपण करना चाहिए। तत्पश्चात् ठोने के संकल्प पुष्पों को निर्माल्य की थाली में ही डाल देना चाहिए। उन्हें अग्नि में नहीं जलाना चाहिए।
  20. तत्वों पर यथार्थ श्रद्धान नही होना ही मिथ्यात्व है अथवा सच्चे देव, शास्त्र, गुरू पर श्रद्धान न करना या झूठे देव, शास्त्र गुरु का श्रद्धान करना मिथ्यात्व है। विपरीत या गलत धारणा का नाम मिथ्यात्व है। मिथ्यात्व के उदय से जीव को सच्चा धर्म नही रुचता है। जैसे-पित्त के रोगी को दूध भी कड़वा लगता है। मिथ्यात्व के दो भेद होते हैं- गृहीत एवं अगृहीत। गृहीत मिथ्यात्व - पर के उपदेश आदि से कुदेवादि में जो श्रद्धा उत्पन्न हो जाती है, उसे गृहीत मिथ्यात्व कहते हैं। अगृहीत मिथ्यात्व - अनादिकाल से किसी के उपदेश के बिना शरीर को ही आत्मा मानना व पुत्र, धन आदि में अपनत्व करना, अगृहीत मिथ्यात्व है। मिथ्यात्व के पाँच भेद भी होते हैं। विपरीत - जीवादि पदार्थों में विपरीत मान्यता एवं अधर्म को धर्म मानना ही विपरीत मिथ्यात्व है। जैसे - शरीर को ही आत्मा मानना। एकान्त - जीवादि पदार्थों में पाये जाने वाले अनेक धर्मों में से एक धर्म को ही स्वीकार करना एकान्त मिथ्यात्व है। जैसे पदार्थको नित्य मानना । विनय - सच्चे देव, शास्त्र, गुरु, एवं अन्य मिथ्या देव, शास्त्र, गुरु, को समान मानना विनय मिथ्यात्व है। जैसे अरिहंत देव तथा अन्य देवों की समान विनय करना। संशय - सद्-असद् धर्म में सच्चे धर्म का निश्चय नही होना संशय मिथ्यात्व है। जैसे स्वर्ग-नरक होते भी हैं या नहीं। अज्ञान - जीवादि पदार्थों के समझने का प्रयास न करना अज्ञान मिथ्यात्व है। अथवा पुण्य पाप का ज्ञान ही नहीं होना । जैसे रात्रि में भोजन करने से पाप का बंध होता है अथवा नहीं। सच्चे देव-शास्त्र-गुरु को छोड़कर अन्य कुदेव में देव बुद्धि, कुशास्त्र में शास्त्र बुद्धि, कुगुरु में गुरु बुद्धि एवं अधर्म में धर्म बुद्धि का होना 'मूढ़ता' मानी जाती है। इन मूढ़ताओं से युक्त व्यक्ति मिथ्यादृष्टि माना जाता है। इन कुदेव आदि का सहारा पत्थर की नाव के समान संसार समुद्र में डुबाने वाला, घोर दु:खों का कारण है। अत: मूढ़ताओं का संक्षित स्वरूप भी कहा जाता है। देव-मूढ़ता- जो राग-द्वेष रूपी मल से मलीन (रागी-द्वेषी) है और स्त्री, आभूषण, गदा, तीर-कमान आदि अस्त्र शस्त्र रूप चिह्नों से जिनकी पहचान होती है, वे कुदेव हैं। वीतराग सर्वज्ञ देव के स्वरूप को न जानते हुए ख्याति, लाभ, पूजा की इच्छा से अथवा भय से कुदेवताओं की आराधना करना देव-मूढ़ता है। लोक मूढ़ता - धर्म समझकर गंगा-जमुना आदि नदियों में स्नान करना, बालू पत्थर आदि का ढेर लगाना, पर्वत से गिरकर मरना, अग्नि में जल जाना, पृथ्वी, अग्नि, वट वृक्ष, पीपल, तुलसी आदि की पूजा करना लोक मूढ़ता है। धर्म मूढ़ता - जो राग-द्वेष रूप भाव हिंसा सहित तथा त्रस स्थावर जीवों के घात स्वरूप द्रव्य हिंसा से सहित संसार वर्धक क्रियाएं हैं, उन्हें कुधर्म कहते हैं। ऐसे कुधर्म में धर्म बुद्धि, आस्था होना धर्म मूढ़ता है। शास्त्र मूढ़ता - हिंसक यज्ञ, बलि आदि के प्ररूपक शास्त्र, महान पुरुषों को दोष लगाने वाले एवं उनके विकृत रूप को प्रदर्शित करने वाले शास्त्र कुशास्त्र हैं। कुशास्त्र में सत् शास्त्र की बुद्धि होना शास्त्र मूढ़ता है। गुरु मूढ़ता - जो भीतर से राग-द्वेषादि परिणाम रखते हैं, बाहर धन, अम्बर (वस्त्र) आभूषण धारण करते हैं तथा स्वयं को महात्मा कहते हुए अनेक प्रकार के मिथ्या भेष को धारण करते हैं कुगुरु कहलाते हैं। अज्ञानी लोगों के चित्त में चमत्कार अर्थात् आश्चर्य उत्पन्न करने वाले ज्योतिष, मन्त्रवाद आदि को देखकर वीतराग, सर्वज्ञ द्वारा कहा हुआ जो धर्म है उसको छोड़कर ख्याति लाभ-पूजा के लिए खोटा तप करने वाले, परिग्रह आरंभ और हिंसा सहित, संसार चक्र में भ्रमण करने वाले, पाखण्डी साधु, तपस्वियों का आदर, सत्कार, भक्ति पूजा आदि करना गुरु मूढ़ता है।शरीर धारी प्राणियों का मिथ्यात्व के समान अन्य कुछ अकल्याणकारी नहीं है।
  21. आत्म कल्याण का इच्छुक कोई व्यक्ति जब गुरु के पास पहुँचता है तब सर्वप्रथम गुरु उसे पाँच पापों के पूर्ण त्यागरूप महाव्रतों का उपदेश देते हैं। वह भव्यात्मा शक्तिहीनता तथा चारित्रमोहनीय कर्म के उदय वशीभूत हो यदि सकल संयम धारण नहीं कर पाता है तो उसे श्रावक के योग्य व्रतों / धर्म का उपदेश दिया जाता है। श्रावक शब्द तीन अक्षरों के योग से बना है श्र, व, क । इसमें 'श्र' शब्द श्रद्धा का, 'व' विवेक का तथा 'क' कर्तव्य का प्रतीक है अर्थात जो श्रद्धालु और विवेकी होने के साथ - साथ कर्तव्य निष्ठ हो वह श्रावक है। श्रावक के तीन भेद कहे गये है - पाक्षिक व्रतिक अथवा नैष्ठिक साधक पाक्षिक श्रावक जो पाक्षिक श्रावक असि, मसि, कृषि, शिल्प, सेवा और वाणिज्य रूप गृहस्थों के योग्य कार्यों को करता हुआ जिनेन्द्र भगवान का पक्ष रखता है, शक्ति को न छिपाते हुए पाँच पाँपों के त्याग का अभ्यास करता है, सप्त व्यसन का त्याग करता है, अष्टमूलगुणों को धारण करता है तथा कुलाचार का पालन करता हुआ रात्रि भोजन का त्याग करता है पानी छानकर पीता है एवं प्रतिदिन देव दर्शन करता है। किसी भी निमित से 'संकल्प पूर्वक त्रस जीवों की हिंसा नहीं करूंगा" इस प्रकार की प्रतिज्ञा करके मैत्री, प्रमोद आदि भावनाओं से सहित होते हुए हिंसा का त्याग करना पक्ष है और इस पक्ष सहित श्रावक पाक्षिक श्रावक कहलाता है। व्रतिक अथवा नैष्ठिक श्रावक व्रतधारी श्रावक नैष्ठिक श्रावक कहलाता है। पूरी निष्ठा से व्रतों का पालन करने वाला, श्रावक की दार्शनिक आदि ग्यारह प्रतिमाओं (संयम स्थान) को धारण करने वाला पीत, पद्म और शुक्ल लेश्या से युक्त श्रावक, नैष्ठिक श्रावक' कहा जाता है। ग्यारह प्रतिमा उत्तरोत्तर विकास की श्रेणियाँ हैं जिनके नाम क्रमश: दर्शन, व्रत, सामायिक, प्रोषधोपवास, सचित विरत, दिवा मैथुन त्याग अथवा रात्रि भुक्ति विरत, ब्रह्मचर्य, आरम्भ त्याग, परिग्रह त्याग, अनुमति त्याग तथा उद्दिष्ट त्याग है। दर्शन प्रतिमा - पाक्षिक श्रावक के आचरणों के संस्कार से निश्चल और निर्दोष हो गया है सम्यग्दर्शन जिसका ऐसा संसार, शरीर भोगों से अथवा संसार के कारणभूत भोगों से विरक्त, पज्चपरमेष्ठी के चरणों का भक्त, मूलगुणों में से अतिचारों का दूर करने वाला, व्रतिक आदि पदों को धारण करने में उत्सुक तथा शरीर को स्थिर रखने के लिए न्यायाकूल आजीविका को करने वाला व्यक्ति दर्शन प्रतिमाधारी माना गया है। व्रत प्रतिमा - पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रतों का निरतिचार पालन करने वाला व्रत प्रतिमा धारी श्रावक कहलाता है। इस प्रकार बारह व्रतों का पालन द्वितीय व्रत प्रतिमा से प्रारम्भ होता है। बारह व्रतों का वर्णन आगे किया जायोगाद्ध सामायिक प्रतिमा - पूर्वग्रहीत व्रतों के साथ तीनों सन्ध्याओं में कम से कम 48 मिनट तक सर्व संकल्प विकल्पों को छोड़ कर आत्म चिन्तन करने वाला सामायिक प्रतिमाधारी श्रावक कहलाता है। प्रोषधोपवास प्रतिमा - पूर्व की तरह पर्व के दिनों में उपवास को व्रत के रूप में करने वाला श्रावक प्रोषधोपवास प्रतिमाधारी कहलाता है। पूर्व में वह व्रत को अभ्यास के रूप में करता था। सचित विरति - सचित पदार्थों का त्याग कर साग सब्जी आदि वनस्पति को अग्नि से संस्कारित करके खाने वाला पंचम प्रतिमाधारी श्रावक कहलाता है। यह पानी को भी उबालकर ही पीता है। रात्रि भुक्ति त्यागी अथवा दिवा मैथुन त्यागी - छटवीं प्रतिमा को धारण करने वाला श्रावक मन-वचन-काय से रात्रि भोजन का त्याग करता है तथा रात्रि भोजन की अनुमोदना भी नहीं करता। अथवा दिन में मन-वचन काय से स्त्री मात्र के संसर्ग का त्याग करता है। ब्रह्मचर्य प्रतिमा - पूर्वोक्त संयम के माध्यम से अपने मन को वश में करता हुआ मन-वचन-काय से स्त्री मात्र के संसर्ग का त्याग करने वाला श्रावक ब्रह्मचर्य प्रतिमाधारी कहलाता है। आरम्भ विरत प्रतिमा - ब्रह्मचारी बन जाने के बाद संसार के कार्यों से उदासीन होता हुआ सभी प्रकार के व्यापार, कृषि कार्य, आरम्भ आदि का त्याग करने वाला आरम्भ विरती श्रावक कहलाता है। परिग्रह विरत प्रतिमा - पहले की आठ प्रतिमाओं का पालन करने वाला श्रावक जब अपनी जमीन-जायजाद से अपना स्वामित्व छोड़ देता है, उद्योग धन्धा पुत्रों को सौप कर गृहस्थ सम्बन्धी दायित्व से मुक्त हो जाता है। वह परिग्रह विरत प्रतिमाधारी श्रावक कहलाता है। यह श्रावक घर में रहता हुआ, पुत्रों द्वारा सलाह मांगने पर उन्हें सलाइ दे सकता है। अनुमति - विरत प्रतिमा घर-गृहस्थी एवं व्यापार कार्यों में किसी भी प्रकार के परामर्श, अनुमति देने का त्याग करने वाला अनुमति-विरत श्रावक कहलाता है। वह प्राय: घर में न रहकर मंदिर चैत्यालय में रहता है और अपना समय स्वाध्याय चिन्तन आदि में ही व्ययतीत करता है तथा अपने घर एवं अन्य किसी साधर्मी बन्धु का निमन्त्रण मिलने पर ही भोजन ग्रहण करता है। उद्दिष्ट त्याग - यह श्रावक की सर्वोत्कृष्ट भूमिका है। इस भूमिका वाला साधक गृह त्याग कर मुनियों के पास रहने लगता है तथा भिक्षावृत्ति से भोजन करता हुआ, जीवन यापन करता है। इस प्रतिमाधारी के दो भेद कहे गये हैं - क्षुल्लक व ऐलक। इस प्रकार दार्शनिक से लेकर उद्दिष्ट त्यागी तक नैष्ठिक श्रावक के ग्यारह भेद हैं। पहली से छटवीं प्रतिमा तक के श्रावक जघन्य, सातवीं से नवमीं तक मध्यम एवं दशवीं और ग्यारहवीं प्रतिमाधारी उत्कृष्ट श्रावक कहलाते हैं। ३. साधक श्रावक – जीवन के अन्त में मरण काल सम्मुख उपस्थित होने पर भोजन पानादि का त्याग कर विशेष प्रकार की साधनाओं द्वारा सल्लेखना पूर्वक देह-त्याग करने वाले श्रावक साधक श्रावक कहलाते हैं। सल्लेखना में क्रमश: शरीर और कषायों को कृश किया जाता है। इस प्रकार श्रावक क्रमश: पापों से बचता हुआ धर्म मार्ग में प्रवृत होकर अन्त में समाधिमरण को प्राप्त होता हुआ सोलह स्वर्गों के वैभव को प्राप्त होता है। तथा वहाँ पर प्रभुभक्ति एवं सम्यम्त्व की आराधना करता हुआ काल व्यतीत कर पुन: मनुष्य जन्म धारण करता है। एवं आत्म शक्ति को संचित कर मुनिव्रत को स्वीकारता हुआ समस्त कर्मों का क्षय कर मुक्ति प्राप्त करता है।
  22. किसी एक विषय पर मन को केन्द्रित करना ध्यान है। ध्यान के चार भेद हैं - 1. आर्तध्यान 2. रौद्रध्यान 3. धम्र्यध्यान 4. शुक्लध्यान इनमें आदि के दो ध्यान अशुभ हैं उनसे पाप का बंध होता है। शेष ध्यान शुभ हैं, उनके द्वारा कर्मों का नाश होता है। आर्तध्यान - आर्त का अर्थ है पीड़ा, पीड़ा में कारणभूत ध्यान आर्तध्यान है। शरीर का क्षीण हो जाना, कान्ति नष्ट हो जाना हाथों पर कपोल रख पश्चाताप करना, आँसू बहाना इत्यादि और भी आर्तध्यान के बाह्य चिह्न हैं। आर्तध्यान के चार भेद - इष्ट वियोगज आर्तध्यान - अपने प्रिय पुत्र, स्त्री और धनादिक के वियोग होने पर उनकी प्राप्ति के लिए संकल्प अर्थात् निरन्तर चिन्तन करना इष्ट वियोगज नाम का आर्तध्यान है। अनिष्ट संयोगज आर्तध्यान - दुखकारी विषयों का संयोग होने पर यह कैसे दूर हो, इस प्रकार विचारते हुए विक्षिप्त चित्त हो चेष्टा करना अनिष्ट संयोगज नाम का आर्तध्यान है। पीड़ा चिन्तन आर्तध्यान - वातादि विकार जनित शारीरिक वेदना के होने पर उसे दूर करने के लिए सतत् चिन्ता करना पीड़ा चिन्तन आर्तध्यान है। निदान आर्तध्यान - पारलौकिक विषय सुख की आसक्ति से, भविष्य में धन-वैभव आदि प्राप्ति के लिए सतत् चिन्तन करना निदान नाम का आर्तध्यान है। 2. रौद्रध्यान - रुद्र का अर्थ क्रूर आशय है इसका कर्म या इसमें होने वाला भाव रौद्रध्यान है। रौद्रध्यान के चार भेद - हिंसानन्द रौद्र ध्यान - तीव्र कषाय के उदय से हिंसा में आनंद मानना हिंसानन्द रौद्रध्यान है, जैसे जीवों के समूह को अपने द्वारा अथवा अन्य के द्वारा मारे जाने पर हर्ष मनाना (टी.व्ही. आदि में चित्र देखकर भी), हार-जीत सम्बन्धी भावना करना, बैरी से बदला लेने की भावना। मृषानन्द रौद्रध्यान - अनेक प्रकार की युक्तियों के द्वारा दूसरों को ठगने के लिए झूठ बोलने का भाव करते हुए आनन्दित होना मृषानन्द नाम का रौद्रध्यान है। जैसे-छल-कपट, मायाचार द्वारा धन लूटना आदि। चौर्यानन्द रौद्रध्यान - दूसरे के धन को हरण करने का, चिन्तन करना चौर्यानन्द नाम का रौद्रध्यान है। चोरी आदि कार्यों में आनन्द मनाना इसी का रूप है। विषय संरक्षणानन्द रौद्रध्यान - अपने परिग्रह में यह मेरा परिग्रह है। उसकी रक्षा के लिए संकल्प का बार-बार चिंतन करना विषय संरक्षणानन्द नाम का रौद्रध्यान है। क्रूर चित्त होकर बहुत आरम्भ-परिग्रह की रक्षा में मन लगाना, इसी ध्यान का रूप है। 3. धम्र्यध्यान - रागद्वेष को त्याग कर अर्थात् साम्य भाव से जीवादिक पदार्थों का वे जैसे-जैसे अपने स्वरूप में स्थित हैं, वैसेवैसे ध्यान या चिन्तन करना धर्मध्यान है। पूजा, दान, विनय आदि करना, धर्म से प्रेम करना, चित्त स्थिर रखना आदि धर्मध्यान के बाह्य चिह्न हैं। धर्मध्यान के चार भेद - आज्ञा विचय धर्मध्यान - वीतराग सर्वज्ञ प्रणीत आगम को प्रमाण मान करके यह ऐसा ही है इसी श्रद्धान द्वारा अर्थ का पदार्थ का निश्चय करना आज्ञाविचय धर्मध्यान है। जैसे - पृथ्वी आदि जीव हैं। अपाय विचय धर्मध्यान - दूसरों का दु:ख दूर हो जावे ऐसा निरन्तर चिन्तन करना अपायविचाय धर्मध्यान है। विपाक विचय धर्मध्यान - पुण्य पाप के फल रूप सुखदु:ख का विचार करना, विपाक विचय धर्मध्यान है। जैसेगरीब और अमीर व्यक्ति को देख पूर्वकृत पाप-पुण्य का चिन्तन करना । संस्थान विचय धर्मध्यान - तीनों लोक के आकार आदि का चिन्तन करना संस्थान विचय धर्मध्यान है। 4. शुक्लध्यान - ध्यान करते हुए साधु के बुद्धिपूर्वक राग समाप्त हो जाने पर जो निर्विकल्प समाधि प्रकट होती है, उसे शुक्ल ध्यान कहते हैं। शुक्ल ध्यान के चार भेद - पृथकत्व वितर्क वीचार शुक्ल ध्यान - श्रुतज्ञान का आलम्बन लेकर विविध दृष्टियों से विचार करता है और इसमें अर्थ व्यञ्जन तथा योग का संक्रमण (परिवर्तन) होता रहता है। अत: इसका नाम पृथक्त्व वितर्क वीचार शुक्ल ध्यान है। एकत्व वितर्क अवीचार शुक्ल ध्यान - श्रुत के आधार से किसी एक द्रव्य या पर्याय का चिन्तन करना एकत्व वितर्क अवीचार नाम का शुक्लध्यान कहलाता है। सूक्ष्म क्रिया आप्रतिपाती शुक्ल ध्यान - कार्य वर्गणा के निमित से आत्मप्रदेशों का अति सूक्ष्म परिस्पन्दन शेष रहने पर सूक्ष्मक्रिया अप्रतिपाति ध्यान होता है। व्युपरत क्रिया निवृति शुक्ल ध्यान - काय वर्गणा के निमित्त से होने वाले आत्मप्रदेशों का अतिसूक्ष्म परिस्पंदन भी शेष नहीं रहने पर और आत्मा के सर्वथा निष्प्रकम्प होने पर व्युपरत क्रिया निवृत्ति शुक्लध्यान होता है।
  23. जिससे शारीरिक – मानसिक पोषक तत्व प्राप्त हों, जिसमें भूख मिटें उसे आहार कहते हैं। संसार में आहार को मुख्यत: दो भागों में बाँटा गया हैं शाकाहार मांसाहार शाकाहार का अर्थ - शोधे हुये अनाज, दालें, चावल, सूखे फल - मेवे, ताजे कच्चे पके फल, साग - भाजी, दूध – दही और इनसे बने मर्यादित पदार्थों का आहार है। ऐसे भोजन से मनुष्य में दीर्घायु, उत्तम स्वास्थ्य, बलवान शरीर, दया, सरलता, पारस्परिक सहयोग और अहिंसा आदि शुभ भाव उत्पन्न होते हैं। मांसाहार का अर्थ - प्राणियों की हत्या करके (अथवा मृत प्राणि शरीर से) उसके शारीरिक अवयवों (माँस - कलेजी - हड्डियाँ आदि), अण्डे, वासी, रसहीन - अधपके, दुर्गन्धित, सड़े या सड़ाये गये अपवित्र नशीले आदि पदार्थों का सेवन मांसाहार हैं। यह मनुष्य की बुद्धि - विवेक को भ्रष्ट कर उसे कुसंस्कारों की ओर ले जाता है, इससे शरीर दुर्गन्धित व भारी हो जाता है। प्राय: मनुष्य क्रोधी, क्रूर और अनाचारी बन जाते हैं। मांसाहारी जीवों की शारीरिक बनावट प्राकृतिक रुप से मनुष्य शाकाहारी है उसकी शरीर-रचना मांसाहारी जीवों से भिन्न है। मांसाहारी जीव औधेरे में देख सकते हैं, उनके जबड़े अलग प्रकार के होते हैं, उनके दांत, पंजे, चोंच बहुत नुकीले होते हैं, वे मांसाहार करने के कारण प्राय: जीभ से पानी पीते हैं। उनकी सूघने की विलक्षण क्षमता होती है, उनकी आंतो की बनावट भी अलग प्रकार की होती है। इन स्पष्ट भेदों के बाद भी प्रकृति से शाकाहारी मनुष्य अज्ञानता, धर्मान्धता, जीभ की लोलुपता, मांसाहारियों की संगति और आग्रह तथा स्वयं को आधुनिक दिखाने के चक्कर में मांसाहारी बनता जा रहा है। कुछ लोग मांसाहार को गर्व के साथ आधुनिकता से जोड़ते हैं। यह मांसाहार ही आज संसार की अशान्ति और दुर्गति का बड़ा कारण बन गया है। वनस्पति और मांस में अन्तर एक इन्द्रिय जीव वनस्पति और मांस में बहुत अन्तर होता है। प्रथम तो मांस का उत्पादन ही पंचेन्द्रिय आदि जीवों की हत्या से होता है फिर मांस वनस्पति की तरह अग्नि संस्कार से प्रासुक नहीं होता उसमें निरन्तर तजाति निगोदिया जीव उत्पन्न होते रहते हैं। मांस पूर्णत: अभक्ष्य है। लौकिक व्यवहार में भी एक पेड़ काटने पर उतना दण्ड नहीं दिया जाता जितना एक मनुष्य की हत्या करने पर। अनाज फल साग - भाजी आदि देख कर किसी को भी ग्लानि नहीं होती है जब कि मांस की दुकानों पर लटका या रखा हुआ मांस देखकर अधिकांश लोगो को घृणा होती है। वहाँ की दुर्गन्ध से लोग नाक बंद कर लेते हैं। मांस को शक्तिवर्धक मानना एक भ्रान्त धारणा है, सृष्टि के प्राय: सभी बलशाली, परिश्रमी और सहनशील प्राणी जैसे हाथी, घोड़ा, ऊँट और बैल आदि पूर्णत: शाकाहारी है। शाकाहार से जहाँ शक्ति बढ़ती है वहाँ मांसाहार से उत्तेजना और क्रूरता। मांसाहार की अपेक्षा कई गुने अधिक शरीर - पोषक तत्व शाकाहारी पदार्थों में पाये जाते हैं कुछ उदाहरण निम्नानुसार हैं - बकरे के मांस में प्रोटीन 21.4% है तो सोयाबीन में 43.3% है। मांस में कार्बोहाइड्रेड नहीं है जबकि गेहू में 63.4% है। मांस में फैट 3.6% है। जबकि नारियल में 62.3% है। फाइबर मांस में नहीं जबकि अमरुद में 5.2% है। मांस में मिनरल 1.1% है। जबकि चावल में 6.6% है। मांस में कैलोरी 118 है जबकि मूंगफली में 570 है। प्रकृति का संतुलन "यदि पशुओं को ना खाया जाये तो पृथ्वी उनसे भर जायेगी।" यह मानना निराधार हैं क्योंकि पशुओं का संतुलन प्राकृतिक रूप से बना रहता है। उनकी कामेच्छा और प्रजनन का समय भी सहज निर्धारित रहता है। फिर जिन प्राणियों का मांस नहीं खाया जाता, क्या उनकी संख्या बढ़ी है? जैसे शेर, हाथी, कुत्ता, बिल्ली अर्थात नहीं बढ़ी बल्कि कहीं कहीं तो हाथी, शेर आदि की प्रजाति लुप्त होने के कगार पर पहुँच रही है यदि कृत्रिम रुप से प्रजनन न कराया जावे तो उनकी भी संख्या नहीं बढ़ेगी। शाकाहार आर्थिक दृष्टि में "यदि मांस न खाकर केवल अन्न ही खाया जाय तो देश में अन्न की कमी पड़ जायेगी।" ऐसा सोचना भी ठीक नहीं है, क्योंकि देश में अन्न की पेदावार पर्याप्त मात्रा में होती है। दूसरी ओर अकेले अमेरिका में अधिक मांस प्राप्ति के लिए पशुओं को जितना अन्न खिलाया जाता है उतने से विश्व की आधी आबादी का पेट भर सकता है वहां औसत एक किलो मांस के लिए सोलह किलो अन्न खिलाया जाना है। अत: आर्थिक दृष्टि से भी शाकाहार सस्ता व श्रेष्ठ है। दूध का पूर्ण सत्य आजकल कुछ चिंतक - वैज्ञानिक दूध को 'पतले - मांस" की संज्ञा देने लगे हैं। यह उनकी अल्पज्ञता का सूचक है। दूध पूर्णत: शाकाहारी, शुद्ध एवं सम्पूर्ण आहार है। दही अभक्ष्य नहीं हैं। अच्छी तरह उबले हुए (प्रासुक) दूध से बने दही में २४ घंटे तक वैक्टीरिया (जीवाणु) पैदा नहीं होते। जैनाचायों ने प्रासुक दूध, दही, पनीर आदि को जीवाणु रहित होने से सेवन योग्य कहा है। प्रासुक - जीव जिसमें निकल गए हैं अथवा निकाल दिये गये ऐसे पदार्थ प्रासुक कहे जाते हैं। मर्यादित पदार्थ – जिसमें त्रस जीवों की उत्पत्ति न हुई हो, जो सड़ी-गली, विकृत, दुर्गन्ध युक्त न हो। ऐसी वस्तुएँ मर्यादित कहलाती हैं। जैन दर्शन का प्रमुख सिद्धान्त ग्रन्थ - षट्खण्डागम कषाय पाहुड़ के बाद षट्खण्डागम ही दिगम्बर आम्नाय का द्वितीय महनीय ग्रन्थ है। जीव स्थान आदि छह खण्डों में विभक्त होने के कारण इसका 'षट्खण्डागम' नाम प्रसिद्ध हुआ। यह कर्म सिद्धान्त विषयक ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ के छह खण्डों में पहले खण्ड के सूत्र पुष्पदन्त आचार्य (ई. १०६-१३६) के बनाये हुए है। बाद में उनका शरीरान्त हो जाने के कारण शेष चार खण्डों के पूरे सूत्र आचार्य भूतबलि जी (ई. १३६-१५६) ने बनाये थे। छठवाँ खण्ड सविस्तार रूप से आचार्य भूतबलि जी द्वारा बनाया गया है। यह ग्रन्थ छह खण्डों में विभक्त है - १ जीवट्ठाण (जीवस्थान) - इस प्रथम खण्ड में जीव के गुण-धर्म और नाना अवस्थाओं का वर्णन आठ प्ररूपणाओं में किया गया है। २. खुद्धाबन्ध(क्षुद्र बन्ध) - इसमें मार्गणा स्थानों के अनुसार कौन जीव बन्धक है और कौन अबन्धक का विवेचन किया है। इस खण्ड में १५८२ सूत्र हैं। ३. बंध सामित विचय (बन्ध स्वामित्व विचय) - इस तृतीय खण्ड में कर्मों की विभिन्न प्रकृतियों के बन्ध करने वाले स्वामियों का विचार किया गया है। इस खण्ड में कुल ३२४ सूत्र हैं। ४. वेदना खण्ड - कृति और वेदना नामक प्रथम दो अनुयोगों का नाम वंदना खण्ड है। इस खण्ड में कुल १४४९ सूत्रों(के द्वारा किया) है। ५. वर्गणा खण्ड - इसमें स्पर्श, कर्म और प्रकृति नामक तीन अनुयोग द्वारों का प्रतिपादन किया गया है। कुल ७९१ सूत्रों का वर्णन है। ६. महाबन्ध - प्रकृति बन्ध, प्रदेश बन्ध, स्थिति बन्ध और अनुभाग बन्ध का विवेचन इस खण्ड में २४ अनुयोग द्वारों में विस्तार पूर्वक किया है। समग्र जिनागम का प्रतिपादक सूत्र ग्रन्थ - तत्वार्थ – सूत्र आचार्य उमास्वामि (द्वितीय शताब्दी) द्वारा रचित संस्कृत भाषा में सूत्र-शैली का यह प्रथम सूत्र ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ का प्राचीन नाम 'तत्वार्थ' था। सूत्र शैली में निबद्ध होने से उत्तर काल में इसका तत्वार्थ सूत्र नाम पड़ा। इस ग्रन्थ में जिनागम के मूल तत्वों को बहुत ही संक्षेप में निबद्ध किया है। इसमें कुल दस अध्याय और ३५७ सूत्र है इसे मोक्षशास्त्र भी कहते है। इस महान ग्रन्थ में करणानुयोग, द्रव्यानुयोग और चरणानुयोग का सार समाहित है। साम्प्रदायिकता से रहित होने के कारण यह दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों ही साम्प्रदायों में कुछ पाठ भेद को छोड़कर समान रूप से प्रिय है। इसके मात्र श्रवण अथवा पाठ का फल एक उपवास बताया है। वर्तमान में इस ग्रन्थ को जैन परम्परा में वही स्थान प्राप्त है, जो हिन्दु धर्म में 'भगवद्गीता' को, इस्लाम धर्म में 'कुरान' को और ईसाई धर्म में 'बाइबिल' को प्राप्त है। इससे पूर्व प्राकृत भाषा में ही जैन ग्रन्थों की रचना की जाती थी। इस प्रकार तत्वार्थ सूत्र का वण्र्य विषय जैन धर्म के मूल भूत समस्त सिद्धान्तों से सम्बद्ध है। इसे जैन सिद्धान्त की कुंजी कहा जा सकता है।
  24. जैनाचार्यों के अनुसार इस भरत क्षेत्र में उत्सर्पिणी एवं अवसर्पिणी के छह कालों में वृद्धि एवं ह्रास के अनुसार परिवर्तन देखा जाता है। प्रत्येक दुषमा-सुषमा काल में धर्म तीर्थ के प्रवर्तक चौबीस-चौबीस तीर्थकर होते हैं। वर्तमान में अंतिम तीर्थकर भगवान महावीर का शासन काल चल रहा हैं। भ. महावीर ने ३० वर्ष की आयु में दिगम्बरी दीक्षा धारण की एवं १२ वर्ष की कठोर साधना के पश्चात् केवलज्ञान प्राप्त किया। केवल ज्ञान उत्पन्न होने के बाद ३० वर्ष तक समवशरण की विभूति से सहित,इस भारत भूमि के ग्राम, नगरों में जिनधर्म का प्रचार करते हुए विहार किया एवं अन्त में उन्होंने पावापुर के उद्यान से मोक्ष प्राप्त किया। भगवान महावीर के निवणि उपरांत उसी दिन सायंकाल में भगवान के प्रधान गणधर गौतम स्वामी को केवलज्ञान उत्पन्न हुआ, वे चतुर्विध संघ के नायक बने, १२ वर्ष तक संघ गौतम केवली के नेतृत्व में रहा। पश्चात् सुधर्माचार्य को केवलज्ञान उत्पन्न हुआ और १२ वर्ष तक संघ सुधर्म केवली के नेतृत्व में रहा। इसके बाद जम्बूस्वामी को केवल ज्ञान उत्पन्न हुआ, ३९ वर्षों तक संघ का नेतृत्व करते हुए अंत में मथुरा चौरासी से उन्होंने निर्वाण प्राप्त किया। इनके पश्चात् क्रमश: विष्णुकुमार, नन्दि पुत्र, अपराजित, गोवर्धन और भद्रबाहु ये पाँच श्रुतकेवली हुए जिनके नेतृत्व में संघ चला। इन पांचो के काल का योग १०० वर्ष होता है इन्हें पूर्ण श्रुतज्ञान था। अंतिम श्रुतकेवली भद्रबाहु की मृत्यु के उपरांत साधुओं में मन भेद, संघ भेद एवं गणभेद आदि प्रारंभ हो गये। भद्रबाहु आचार्य के प्रमुख शिष्यों में अंतिम सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य थे। एक बार भद्रबाहु मुनि जब आहार चर्या के लिए नगर की ओर गये, तब वहाँ एक बालक जो कि झूले में लेटा हुआ था, जोर-जोर से रोने लगा और चले जाओ, चले जाओ (बा बाबा, बा बाबा) शब्द करने लगा। तब भद्रबाहु मुनि अन्तराय मानकर वापस वन की ओर चले गये। तथा समस्त मुनियों को क्ट्ठा करके उनसे कहा -निमित ज्ञान से ऐसा प्रतीत होता है कि पाटलिपुत्र में बारह वर्षों का भीषण अकाल पडने वाला है अत: हम सभी श्रमण संस्कृति एवं धर्म की रक्षा हेतु इस क्षेत्र से अन्यत्र देश की ओर बिहार करें। तब उस नगर के श्रावकों ने साधुओं से निवेदन किया कि हे मुनिवर! हमारे गोदाम धन धान्य से भरे पड़े हैं तेल गुड़ आदि की कोई कभी नही है, बारह वर्ष यूं ही चुटकी बजाते निकल जाएँगे आप लोग निश्चित होकर यहीं रहे अन्यत्र न जावें। श्रावकों के बार-बार आग्रह करने पर भी महामुनि भद्रबाहु ने महाव्रतों के अत्यन्त भंग को जानते हुए विशाखाचार्य (चन्द्रगुप्त) के साथ १२,००० मुनियों के संघ को लेकर दक्षिण प्रान्त की ओर विहार किया। किन्तु यश की इच्छा करने वाले कितने ही साधु (स्थूलभद्र, स्थूलाचार्य, रामल्य आदि) श्रावकों के आग्रह को मानते हुए पाटलिपुत्र में ही रूक गये। कुछ समय व्यतीत होते ही अकाल पड़ने लगा। बारह वर्षीय भीषण दुर्भिक्ष के दौरान लोग अभक्ष्य भक्षण करने लगे, किसी तरह से भूख मिटाना ही उनका लक्ष्य रहा, प्राय: सभी धर्म-कर्म से रहित क्रूरता पूर्ण आचरण करने लगे। उनमें भी कुछ श्रेष्ठी श्रावक अपने व्रतों का पालन करते हुए मुनियों को आहार दान आदि दे रहे थे। कितने ही दिन व्यतीत होने पर एक दिन एक मुनिराज आहार कर लौट रहे थे तब किसी भूखे व्यक्ति ने मुनिराज के पेट को तीव्र पैने नखो से भेद/फाड़ डाला और उनके पेट में स्थित भोजन को जल्दी-जल्दी खा डाला। इस उदर विदारण से मुनि का तत्कालमरण हो गया। इस विषमता को देख श्रावकों ने मुनियों से निवेदन किया हे स्वामी! यह काल अत्यन्त भीषण है अथवा कहिये दूसरा यम ही आया है इसलिए अनुग्रह कर हम लोगों के वचनों को स्वीकार कीजिये और वन को छोड़कर समस्त मुनिराज ग्रामों के बीच में निवास करें। श्रावकों की प्रार्थना साधुओं ने स्वीकार की, श्रावक लोग भी उसी समय समस्त संघ को उत्सव पूर्वक नगर में लिवा लाये और धर्मशाला आदि स्थानों में ठहराये। दुर्भिक्ष दिन-प्रतिदिन बढ़ने लगा, कई वर्ष व्यतीत होने पर जब मुनि - संघ आहार-चर्या को निकले तो दीन-हीन लोग उनके साथ हो गये, करूणामय वचन बोलने लगे ' हमें देओदेओ। तब कितने ही लोग क्रोधित होकर उन कृश काय लोगो को मारने लगे। दयालु मुनिराज ऐसे लोगो को तथा गृह के द्वार बंद देखकर अपने लिए अंतराय समझ स्व-स्थान पर लौट गये। तब श्रावक भक्ति-भाव से अत्यन्त व्याकुल होकर गुरु के पास गये और प्रार्थना की - सारी पृथ्वी दीन लोगो से पूर्ण हो रहीं है और उन्ही के भय से कोई क्षण मात्र के लिए भी घर के किवाड़ नहीं खोलते है तथा इसी कारण हम लोग रात्रि में ही भोजन बनाने लगे है। अत: आप से निवेदन है कि आप लोग रात्रि के समय ही हमारे गृहों से पात्रो में भोजन ले जाये और दिन होने पर वहीं आहार करें। परिस्थिती को समझते हुए उन्होंने निवेदन स्वीकार किया तथा तुम्बी पात्र में भोजन लाने लगे। कुत्ते आदि के भय से लकड़ी रखने लगे। एक दिन क्षीण काय साधु के हाथ में पात्र और लाठी देखकर यशोभद्र सेठ की गर्भवती पत्नी घबरा गई जिससे उसका गर्भ गिर गया। यह विषम रुप लोगों के भय का कारण है इसलिए कन्धे पर वस्त्र धारण करे, जब तक सुभिक्ष न आ जाये ऐसा करें फिर तपश्चरण धारण करें, ऐसा निवेदन भी साधुओं ने स्वीकार किया और धीरे-धीरे शिथिलाचार बढ़ता गया। बाद में जब सुभिक्ष प्रारम्भ हुआ तब विशाखाचार्य सब मुनियों को लेकर उत्तर भारत आये। इन साधुओं को देखकर प्रतिनमोस्तु नहीं किया। कुछ साधुओं ने प्रायश्चित लेकर पुन: सम्यक् मार्ग प्रारंभ किया किन्तु कुछ हठ के वशीभूत, कैसे अब कठिन चर्या स्वीकारे ऐसा विचार कर उसी मार्ग का अनुकरण करने लगे वे अर्धफालक कहलाये। आगे एक रानी के आग्रह पर उन्होने श्वेत वस्त्र भी अंगीकार कर लिए और तभी से श्वेताम्बर मत भी प्रसिद्ध हुआ। यह मत महाराजा विक्रम की मृत्यु के 136 वर्ष बाद उत्पन्न हुआ, इस प्रकार भगवान महावीर के निर्वाण के पश्चात् यह विशुद्ध जैन धर्म दो सांप्रदायो में बट गया। बाद में श्वेताम्बरों द्वारा अनेक नवीन साहित्य की रचना की गई जिनमें अनेक दिगम्बर मान्यताओं के विरुद्ध बाते लिखी है जिनमें कुछ निम्नलिखित है। श्वेताम्बर मान्यता दिगम्बर मान्यता १. केवली कवलाहार (भोजन) करते हैं। १. नहीं करते हैं। २. केवली को नीहार (शौच) होता है। २. नहीं होता है। ३. सवस्त्र मुक्ति होती है। ३. दिगम्बर होना अनिवार्य ४. स्त्री उसी भव से मुक्ति प्राप्त कर सकती है। ४. नहीं कर सकती ५. गृहस्थ भेष में केवलज्ञान संभव। ५. असंभव ६. वस्त्राभूषण से सुसजित प्रतिमा पूज्य है। ६. दिगम्बर प्रतिमा ही पूज्य है। ७. तीर्थकर मल्लिनाथ का स्त्री होना ७. स्त्री तीर्थकर नहीं हो सकती। ८. महावीर का गर्भ परिवर्तन, विवाह एवं कन्या का जन्म ८. कल्पना है ऐसा नहीं हुआ ९. मुनिगण दिन में अनके बार भोजन कर सकते ९. एक बार ही करपात्र में १०. ग्यारह अंग की मौजूदगी १०. अंगज्ञान का लोप हुआ विशेष रूप से मतभेद आदि जानने हेतु श्वेताम्बर विद्वान श्री बेचरदास जी दोशी द्वारा रचित "जैन साहित्य में विकार" तथा पं. अजित कुमार शास्त्री द्वारा रचित 'श्वेताम्बर मत समीक्षा' पुस्तक पढ़ना चाहिए। आगे दक्षिण प्रान्त से लौटने के बाद दिगम्बर मुनियों का संघ अहद्बली आचार्य के नेतृत्व में रहा। पंचवर्षीय युग प्रतिक्रमण के अवसर पर उन्होंने दक्षिण देशस्थ महिमानगर जिला-सतारा में यति-सम्मेलन की योजना बनाई। जिसमें १००-१०० योजन तक के यदि आकर सम्मिलित हुए। उस समय उन्होंने महसूस किया कि काल के प्रभाव से वीतरागियों में भी अपने-अपने संघ तथा शिष्यों के प्रति कुछ पक्षपात जाग्रत हो चुका है। यह पक्ष आगे जाकर संघ की क्षति का कारण न बन जाये इस उद्देश्य से उन्होंने अखण्ड दिगम्बर संघ को नन्दिसंघ आदि अनेक अवान्तर संघो में विभाजित कर दिया। आगे अनेक संघ भेद, जैनाभास आदि होते रहे जिनका वर्णन विस्तृत होने से यहाँ नहीं दिया जा रहा है। विशेष जानने के इच्छुक ऐतिहासिक ग्रंथ अथवा जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भाग १ के इतिहास एवं परिशिष्ट को पढ़ सकते है। दिगम्बर साम्प्रदाय के कुछ प्रचलित मतो का संक्षिप्त परिचय यहा देते हैं। भट्टारक पथ भट्टारक शब्द पूर्व में जैन धर्म के प्रभावक उन आचार्यों के लिए प्रयुक्त होता था, जिन्होनें अनेक ग्रंथ लिखकर दिगम्बर जैन शासन की प्रभावना की तथापि भट्टारक शब्द कालान्तर में शिथिलाचारी दिगम्बर मुनियों के लिए प्रयुक्त होते-होते, वस्त्रधनादि परिग्रह सहित, मठाधीश, सुविधाभोगी किन्तु पिच्छीधारी एक विशेष वर्ग के लिए रूढ़ हो गया। चौदहवी शताब्दी में दिल्ली की गद्दी से प्रारंभ होकर धीरे-धीरे सम्पूर्ण भारत में भट्टारकों की गादियाँ स्थापित हो गई। वे भट्टारक प्राय: आगमज्ञान से हीन, मंत्र-तंत्रादि में निपुण होने से प्रभावक रहे। उत्तर भारत में श्रावकों की जन-चेतना के कारण भट्टारकों की परंपरा प्राय: समाप्त हो गई तथापि दक्षिण भारत में ये परम्परा आज भी जीवित है। भट्टारक प्रथा मुनियों में बढ़े हुए शिथिलाचार का ही रूप है इसे आगम में कही भी स्वीकार नहीं किया गया है। आचार्य कुन्दकुन्द ने जैन दर्शन में तीन ही लिंग माने है - १ जिनलिंग (दिगम्बर श्रमण का) २ उत्कृष्ट श्रावक (ऐलक छुल्लक का), ३. आर्यिका का। इसके अलावा चौथा कोई लिंग नहीं है। भट्टारकों का पीच्छी रखना भी उचित नहीं है। भट्टारकों की इस पंरपरा में सुधार आपेक्षित है। इस हेतु प. नाथूराम जी प्रेमी द्वारा सन् १९१२ में लिखी पुस्तक 'भट्टारक" पठनीय है। तेरापथ - बीस पंथ संवत् १७०० में कामा (मथुरा) में भट्टारकों के विरूद्ध गृहस्थ जैनो का एक दल उठ खड़ा हुआ। उस दल ने घोषणा कर दी कि पंचमहाव्रत धारी, नग्न दिगम्बर साधु ही जैन गुरु हो सकता है, वस्त्रादि परिग्रह सहित भट्टारक नहीं यह विद्रोह उत्तर भारत में प्राय: सर्वत्र फैल गया और वहाँ सब स्थानों पर भट्टारकों की अमान्यता तेजी से फैलने लगी। कुछ लोग उस समय भी भट्टारकों के अनुयायी बने रहे जो लोग भट्टारकों को गुरु मानने का निषेध किया वे तेरापंथी कहलाये। मुख्य रुप से वर्तमान में पूजन पद्धति को लेकर दोनों में भिन्नता है विशेष कुछ नहीं। तेरह पन्थ के जन्मदाता प. बनारसी दास जी माने जाते है। तारण - पथ भारतीय इतिहास में सोलहवी शताब्दी को प्रशस्त नहीं माना गया है इस समय भारत में मुगल साम्राज्य छाया हुआ था। हिन्दू व जैन धर्म का दमन हो रहा था तथा जबदस्ती धर्म परिवर्तन कराया जा रहा था, मंदिर और मूर्तिया तोड़ी जा रही थी। तब उस समय संत तारण-तरण नाम के एक व्यक्ति ने इस पंथ को जन्म दिया। जिसमें मूर्ति-पूजा का निषेध करते हुए आध्यात्य का उपदेश व जिनवाणी की वंदन पूजा का मूल उपदेश दिया गया है। इस पंथ से प्रभावित होकर अनेक जैनेतरो ने भी इस पंथ को स्वीकार किया। संत तारण जी ने १४ ग्रन्थों की रचना की इसके अनुयायी इन ग्रंथों की व अन्य आचार्य प्रणीत ग्रन्थों को देव स्थान वेदी पर विराजमान कर उनकी पूजा करते है। संत तारण का प्रभाव मध्य भारत के कुछ ही क्षेत्रो तक सीमित रहा। जहां इनके अनुयायी आज भी है। इनकी संख्या दिगम्बरों की अपेक्षा अत्यल्प है।
  25. जो नित्य अणिमा, महिमा, लघिमा, गरिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशत्व (वशित्व), सकाम रूपित्व इन आठ गुणों से सहित क्रीड़ा करते हैं। जिनका शरीर सुंदर, प्रकाशमान वैक्रियक होता है, वे देव कहलाते हैं। भवनवासी देव, व्यन्तर देव, ज्योतिषी देव एवं वैमानिक देव के भेद से देव चार प्रकार के होते हैं। जो भवन में रहते हैं, उन्हें भवनवासी कहते हैं। जो पहाड़, गुफा, द्वीप, समुद्र, मंदिर आदि में विचरण करते रहते हैं वे व्यन्तर कहलाते हैं। सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र व तारों में रहने वाले ज्योतिर्मय देव ज्योतिषी कहलाते हैं। जो उध्र्वलोक के विमानों में रहते हैं वैमानिक कहलाते हैं। सोलह स्वर्ग तक के देव कल्पोपपन्न एवं उससे ऊपर के देव कल्पातीत कहलाते हैं। अणिमा आदि आठ गुणों का स्वरूप - अणिमा - अपने शरीर को अणु बराबर छोटा करने की शक्ति अर्थात् इतना छोटा शरीर बनाना कि सुई के छेद में से निकल जावे। महिमा - अपने शरीर को मेरु प्रमाण बड़ा करने की शक्ति अर्थात् अपने शरीर को मेरु अथवा हिमालय बराबर बड़ा बना लेना। लघिमा - रुई के समान शरीर को हल्का बना लेने की क्षमता अर्थात् मकड़ी के तंतु पर पैर रखने पर भी वह न टूटे। गरिमा - बहुत भारी अर्थात् करोड़ो व्यक्ति मिलकर भी जिसे न उठा पाए, इतना भारी, वजनदार शरीर बनाने की शक्ति। प्राप्ति - एक स्थान पर बैठे-बैठे ही दूर स्थित पदार्थों का स्पर्श कर लेना, उठा लेने की क्षमता। जैसे यहाँ बैठे-बैठे ही हिमालय के शिखर को छू लेना इत्यादि। प्राकाम्य - जल में भूमि की तरह गमन करना और भूमि में जल की तरह डुबकी लगा लेना। ईशित्व - जब जीवों तथा ग्राम, नगर एवं खेड़े आदि पर प्रभुत्व की क्षमता। सकामरूपित्व - बिन बाधा के पहाड़ आदि के बीच में से गमन करना, अदृश्य हो जाना, गाय, सिंह आदि अनेक प्रकार के रूप बनाने की क्षमता। देवों का जन्म उपपाद शय्या पर होता है। जन्म लेते ही सोलह वर्ष के युवक की तरह सुंदर शरीर होता हैं, उन्हें बुढ़ापा नहीं आता, कोई रोग नहीं होता, अकाल मरण नहीं होता। देवों का शरीर मल-मूत्र, सप्तधातु, पसीना, निगोदिया जीवों से रहित होता है। देवों के बाल नहीं होते, पलके नहीं झपकती, शरीर की परछाई नहीं पड़ती। संहनन रहित, समचतुस्त्र संस्थान वाला शरीर होता है। प्रत्येक देव की कम से कम 32 सुंदर देवांगनाए होती हैं। देव पलक झपकते ही कोशों की दूरी तय कर लेते हैं। देवों के शरीर की ऊँचाई अधिकतम पच्चीस धनुष तथा जघन्य एक हाथ है। देवो में जघन्य आयु दस हजार वर्ष एवं उत्कृष्ट आयु तैतीस सागर प्रमाण होती है। एक सागर की आयु वाला देव १ हजार वर्ष बाद आहार ग्रहण करता है अर्थात् भूख लगते ही उनके कण्ठ में अमृत झर जाता है तथा वही देव १५ दिन के बाद एक बार श्वासोच्छवास ग्रहण करता है। देवियाँ दूसरे स्वर्ग तक ही जन्म लेती है, नियोगि देव उन्हें सोलहवें स्वर्ग तक ले जाते हैं। सदाचारी मित्रों की संगति आयतन सेवा, सद्धर्म श्रवण, स्वगौरव दर्शन, निर्दोष प्रोषधोपवास, तप की भावना, बहुश्रुतत्व, आगमपरता, कषाय निग्रह, पात्रदान, पीत-पद्म लेश्या परिणाम, मरण काल में धर्म ध्यान रूप परिणति आदि सौधर्मादि स्वर्ग की आयु के बंध के कारण हैं। सम्यक दर्शन रूपी रत्न से युक्त देव कर्मक्षय के निमित्त नित्य ही अत्यधिक भक्ति से जिनेन्द्र - प्रतिमाओं की पूजा करते हैं, किन्तु सम्यक दृष्टि देवों से सम्बोधित किये गये मिथ्यादृष्टि देव भी कुल देवता मानकर जिनेन्द्र प्रतिमाओं की नित्य ही नाना प्रकार से पूजा करते हैं।
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