एक बार पपौरा क्षेत्र के ग्रीष्मकाल में आर्यिका दीक्षा सम्बन्धी चर्चा चली। एक मन्दिर में आचार्य श्री बैठे थे। उनके ही समक्ष ब्राह्मी आश्रम में रहने वाली बहिनें बैठी हुई थीं। उसमें मैं नहीं थी। किसी एक मन्दिर में बैठकर संस्कृत सम्बन्धी कुछ पढ़ रही थी। इसी बीच एक बहिन आई, बोली- आचार्य श्री ने कहा- उसको भी बुला लो। मैंने सुना, मैं । आचार्य श्री के पास आयी। नमोऽस्तुकिया।
आचार्यश्री बोले- यहाँ आर्यिका दीक्षा की चर्चा चल रही है। तुम्हें लेना है? मैंने कहा- बनना है, लेकिन अभी नहीं। आचार्य श्री बोले- तो क्या आश्रम में मठ बनाकर रहना है ? मैंने कहा- मट बनाकर तो नहीं रहना। दीक्षा लेना है, किन्तु आपसे दूर रहकर नहीं रह पाऊँगी। गुरु से मुझे अधिक अनुराग है। आप दीक्षा देकर तो साथ में रखेंगे नहीं। इसलिये अभी इसी वेश में अच्छा है। आप की आशीषच्छाया में अध्ययन होता रहता है। गुरु से अभी अलग नहीं होना चाहती हूँ। आचार्य श्री बोले- अलग तो कोई नहीं होना चाहता, लेकिन कभी तो होना पड़ेगा। मैंने कहा- अभी 90 प्रतिशत अनुराग गुरु से होने के कारण 10 प्रतिशत दीक्षा का भाव बनता है। इतना सुनकर आचार्य श्री हँसने लगे।
कुछ समय बाद नैनागिर में सन् 1987 में मैंने दीक्षा सम्बन्धी भाव बनाये। कुछ बहिनों ने श्रीफल चढ़ाया दीक्षा लेने सम्बन्धी। मैंने भी श्रीफल चढ़ाया। लेकिन कुछ बड़े बाबा के भक्त देवों का रोकने में हाथ हो या मेरे कमीँदय का खेल हो, पता नहीं मेरे गले से आवाज निकलना बन्द हो गयी। दीक्षा के सिर्फ चार दिन ही शेष थे। 10 फरवरी को दीक्षा देने का मुहूर्त था। मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि गले सम्बन्धी यहबात सभी को जाहिर हो चुकी थी। आचार्यश्री के पास यहबात पहुँची कि पुष्पा दीदी के गले से आवाज निकलना बन्द हो गई।
आचार्य श्री के पास जब मैं गई, नमोऽस्तु किया। आचार्यश्री बोलेडाक्टरों को दिखवालो गले में क्या है? आचार्य श्री की आज्ञा से डाक्टरों को दिखवाया। एक डाक्टर ने कहागले में थायराइड ग्रन्थि है, इसलिए आवाज बन्द हो गयी है। आचार्यश्री ने सुना तो कहते हैं- एक-दो डाक्टरों को और दिखाओ। उनको क्या समझ में आ रहा है ? आचार्य श्री की आज्ञा थी, एक दो को और दिखाओ। लेकिन एक-दो की अपेक्षा मुझे जितने जहाँ डाक्टर मिलते या जिनका परिचय होता, सभी से परामर्श लिया। सभी ने एकमत से थायराइड ग्रन्थिसम्बन्धी ही बताया।
मुनिश्री क्षमासागर जी भी इस विषय के जानकार थे। उन्होंने एक बहिन से कागज की चिड़ियाँ बनवाकर मेरे दोनों हाथों को उल्टा करवाकर ऊपर चिड़ियाँ रखवायी। बोले- अगर यह हाथों में रखीं और अपने आप हिलने लगे तो समझना थायराइड ग्रन्थि सम्बन्धी रोग है। वे दो कागज की चिड़ियाँ हिलने लगी, अब निश्चित हो गया कि गले में ग्रन्थि सम्बन्धी ही रोग है। इससे दीक्षा लेना असंभव हो गया।
सागर के एक डाक्टर आचार्य श्री के पास बैठे थे। आचार्य श्री कहते हैं- ये मेरी प्रथम बालिका है, अब दीक्षा नहीं ले पा रही है। और मुझे देखकर बड़े प्रेम-वात्सल्य से भरकर कहते हैं- क्यों तूगला लेकर बैठगई ? मैने गुरु की वात्सल्य भरी आवाज सुनी तो नीचा सिर करके रोने लग गई। साहस संचय करके दबी हुई आवाज में धीरे-धीरे ही कहा- आचार्य श्री दीक्षा लेने पर कर्म का संक्रमण भी हो सकता है। पुण्य का उदय आये और मेरा गला ठीक भी हो सकता है। आचार्यश्री बोले- अगर ऐसा नहीं हुआ तो लोग कहेंगे कि जब ऐसी स्थिति थी तो आपरेशन न कराके दीक्षा क्यों दी ? लोकव्यवहार भी देखना पड़ता है। फिर कहते हैं- तुम अभी अब दीक्षा का विकल्प रहने दो, बाद में ले लेना। अभी जो डाक्टर लोग कहें, उनके अनुसार काम कर लो। एक डाक्टर मेरे पास आये थे, वह कह रहे थे कि थायराइड बिना आपरेशन के नहीं निकलेगा। आपरेशन जरूरी है इसलिये करवा लो।
आपरेशन का नाम सुनकर मैं रोने लगी। मैंने कहा- अभी तक अपनी जिंदगी में कभी इंजेक्शन नहीं लगवाया। अब आपरेशन करवाने अस्पताल जाऊँगी, मैं वहाँ का दृश्य देखकर ही घबराने लगूंगी। मैं नहीं करवाऊँगी। भगवान की भक्ति करके ठीक हो जाऊँगी। इतना कहकर आचार्यश्री के सामने ही तेजी से फूट-फूटकर रोने लगी। आचार्य श्री ने देखा, शायद मेरी परीक्षा लेने की दृष्टि से कहादीक्षा रोक ट्रॅक्या? बोले? मैंने कहा- नहीं आचार्य श्री, दीक्षा होने दें। तब बड़े प्रेम-वात्सल्य के साथ कहते हैं- तो, फिर क्यों रो रही है। सभी बहिनों को देखकर कहते हैं, दुःख तो होता ही है। फिर मुझे देखकर कहते हैं- दीक्षा होगी तो तुम भीब मैंने कहा- सभी देखेंगे, वैसे ही दर्शक बनकर मैं देखेंगी। आचार्य श्री कहते हैं- देखो, दीक्षा देख लेना इसके बाद बाम्बे जाकर आपरेशन करवा लेना। फिर एक सूत्र बोलते हैं- देखो, सर्वमिदं पौद्गलिक सारा जगत् पुदगलमय है, इसका विचार करना। क्या कर सकते हैं, कर्म का उदय है ? तेइस दीक्षाएँ नैनागिर में हुई। चार दिन पूरे नहीं हुये कि परिचित एक महिला ने मुझे दु:खी अवस्था में देखकर बोली- दीदी आपने बहुत सारे डाक्टरों को दिखाया, मेरा मन कहता है कि जबलपुर में परसुराम वैद्य बहुत अनुभवी हैं,उनको और दिखा लो, वह जो कहेउसके बाद आपरेशन करवाने का निर्णय लेना।
मैंने उसका कहना मान लिया। वह उस वैद्य के पास मुझे ले गई। जैसे ही वैद्य ने मुझे देखा वह कहता है- इनको क्या है? कुछ नहीं है? सर्दी गले में जम गई है। महिला बोली- डाक्टरों ने तो थायराइट ग्रन्थि की बात कही है। वैद्य जी बोले- डाक्टरों ने गुमराह कर दिया। अरे मेरा कहना मानो- हिंगडा की डली दूध में डालकर अँगारे पर रखकर खीर जैसी बना लेना फिर उसे गले में लगा लेना, रातभर में आराम मिल जायेगा। वैद्य की बात मान ली। हुआ यही रात में लगाकर सो गई। चार बजे मैंने पुकाराबाई जी, पास में सो रही रत्तीबाई जी ने आवाज सुनी। मेरे पास आयी, मैं बहुत कुछ बोलती रही, मेरी आवाज आ गई, गला सही हो गया। आपरेशन सम्बन्धी विचार समाप्त हो गया। यही शायद किस्मत में होगा, दीक्षा नहीं लेने का। आचार्य श्री को पता चला तो आचार्य श्री बोले- देखो, तुम्हारी दीक्षा नहीं हुई। अब ऐसा करो, तुम आर्यिकासंघ में रह जाओ। मैंने कहाआर्यिकासंघ में रहकर क्या करूंगी दस प्रतिमा के साथ ?
आचार्यश्री बोले- उनके साथ रहना, अपनी साधना करना। अगर जरूरत कभी पड़े तो आहार शोधन करके देना, यह तुम्हारा काम है। रात में श्रावकों को पढ़ाने का कार्य कर देना। बस इतना करना, आर्यिकाओं के बीच रहकर। गुरु आदेश पाकर मैं पूज्या आर्यिका गुरुमति माताजी के संघ में रहने लगी। फिर कुछ दिनों बाद आश्रम में आ गई।