एक बार एक परिचित विद्वान (पं. नीरज जैन, सतना) ने मुझसे पूछा- क्यों पुष्पा दीदी जी तुमने दो प्रतिमा ले ली हैं, बारह व्रतों के नाम आते हैं। मैंने कहा- हाँ, आते हैं। उन्होंने कहा- सुनाओ। मैंने तुरन्त ही पाँच अणुव्रतों को क्रम से गिना दिया। आगे जब शिक्षाव्रतों को कहने लगी तो गुणव्रतों को गिना दिया। ऐसा उन्होंने मुझसे सुन तो लिया, वहाँ तो मुझसे कुछ नहीं कहा, लेकिन जब वे आचार्यश्री के पास पहुँचे, तो कहने लगेमैंने पुष्पा जी से बारह व्रतों के नाम पूछे, उसको तो बारह व्रतों के नाम भी नहीं आते। शिक्षाव्रतों को गुणव्रतों में गिना रही थी। और आपने तो उसे दो प्रतिमा दे दी।
आचार्य श्री बोले- भाई तुम तो सभी की परीक्षा लेते रहते हो। अगर व्रतों के नाम नहीं आए तो क्या उन व्रतों का पालन करना नहीं आयेगा। देखो- यह धर्म तो अनपढ़ों का भी है। अनपढ़ लोग भी व्रतों का पालन सही तरीके से कर लेते हैं। जरूरी नहीं है कि बारह व्रत याद ही हों। ऐसा सुनकर वे चुप हो गये।
एक बार की बात है। हम सभी स्वाध्याय कर रहे थे, उसमें एक अव्रती बहिन बैठी थी। नीरज जी ने पूछा- क्यों तुम्हारें गुरु कौन से परमेष्ठी में आते हैं? वह बीच में बोल पड़ी- सिद्ध परमेष्ठी में। जब वे आचार्य श्री के साथ शौच क्रिया के समय जा रहे थे तो उन्होंने कहा- आज स्वाध्याय के समय मैंने बहिनों से पूछा कि आपके गुरु कौन से परमेष्ठी में आते हैं? तो एक बहिन कह रही थी कि सिद्ध परमेष्ठी में आते हैं। आचार्य श्री ने सुना तो हँसते हुये कहा- ठीक तो कहा था, भावी नैगमनय की अपेक्षा से सिद्ध परमेष्ठी हैं। आचार्य श्री का उत्तर सुनकर पंडित जी चुप हो गये। फिर आगे कुछ नहीं बोल सके।
जब हम लोग आचार्य श्री को नमोऽस्तु करने पहुँचे तो कहते हैं- ठीक से अध्ययन करना। इस प्रकार जैसे ही गुरुमुख से सुना तब लगा- आचार्यश्री को हम अबोध शिष्याओं के प्रति बहुत करुणा है। जैन सिद्धान्त में प्रवेश करना नयी चीज है। भूल होती है, लेकिन दूसरों के सामने हँसी के पात्र बनाने में ब्रेक लगा दिया।