कुण्डलपुर क्षेत्र में एक बार मैंने आचार्य श्री की श्रावकों के द्वारा आहार देते हुये देखा था। वे श्रावकगण दाल-भात को एक प्लेट में सब्जी आदि डालकर हाथों से सान-सान कर अपने हाथों से दे रहे थे। दलिया या खिचड़ी, चम्मच से नहीं देते थे। मैंने देखा कि साधु को इस तरह से आहार दिये जाते हैं। और वह बिना कुछ कहे लेते जाते हैं। मैं सोच में पड़ गई। मैं भी जब आर्यिका बनूँगी, तो मुझे भी ऐसा ही लेना होगा क्या ? मैं तो इस प्रकार से नहीं ले पाऊँगी। क्योंकि मुझे इस प्रकार मेरे सामने करके देगा तो मुझे उल्टी आ जायेगी। मैं जब तब इस बात पर सोचती रहती थी। यह नहीं जानती थी कि यह तो श्रावकों का अविवेक है। विवेक तो चम्मच से देने का है। साधु आहारचर्या में पराधीन होते हैं।
इस प्रकार की धारणा बन गई थी। मैंने विचार किया- अष्टमी, चतुर्दशी अंजुली बनाकर आहार ग्रहण करूंगी। सभी कुछ अंजुली में मिलाकर खाने का अभ्यास करूंगी। आश्रम में रहकर अंजुली से आहार करने लगी। आश्रम में रसोई बनाने वाली भागवतीबाई मुझे आहार देती। जब कभी पटेरा जाती, अष्टमी-चतुर्दशी हुई तो छोटे-छोटे बच्चों से आहार लेती। ताकि बच्चों के द्वारा हाथ से लिये रोटी के ग्रास की ग्लानि समाप्त हो जाये। ऐसा करते-करते बहुत समय निकल गया।
एक दिन आचार्य श्री के समक्ष चर्चा चली। किसी ने प्रश्न किया कि आर्यिका बनने के पहले हाथों की अंजुली बनाकर आहार कर सकते हैं क्या ? अभ्यास के रूप में ही सही। आचार्य श्री कहते हैं- आहार के अभ्यास की क्या जरूरत ? वह तो जब बनते हैं तभी हो जाता है। यह जिनमुद्रा की अवहेलना है। अभी से ऐसा करने से दोष लगता है। ऐसा नहीं करना चाहिये। मैंने कहा- सभी जन अपने-अपने हाथों से सामग्री देते हैं, मुझे ग्लानि आती है। इसको तो जीतना है, कैसे जीतूंगी ?
आचार्य श्री बोले- जब आर्यिका बनोगी, उस समय सब हो जायेगा। हाथ से नहीं। चम्मच से ले लेना। ऐसा देने वालों को सिखा देना। लेकिन अभी से ऐसा (अंजुली में) आहार नहीं लेना। दीक्षा के एक दिन पूर्व तो अभ्यास के रूप में चल जायेगा। अभी नहीं। मैंने गुरुमुख से जब सुना कि आर्यिका वेश की चर्या ब्रह्मचारिणी अवस्था में नहीं की जाती, इसका ज्ञान हुआ। समझ में आया और हेय-उपादेय का विवेक सिखाने वाले आचार्य ही, शिष्यों के इष्ट हुआ करते हैं। फिर मैंने ऐसी प्रवृत्ति करने में ब्रेक लगा दिया।
एक बार मैंने जीवकाण्ड में हल्दी के बारे में पढ़ा। वहाँ हल्दी को जमीकन्द कहा है। इसलिए उसे नहीं खाना चाहिये। ऐसा विचार मैंने बना लिया। बिना हल्दी का खाने का मन ही मन संकल्प भी कर लिया। आश्रम में मुझे बिना हल्दी की सामग्री अलग से निकाल कर रसोई बनाने वाली बाई रख लेती थी। और शेष में हल्दी डाल देती थी। ऐसा बहुत समय तक चलता रहा। एक बहिन को इस प्रकार से मेरा नियम देखा नहीं गया, उसने उस दिन सभी दाल आदि में हल्दी डाल दी। मैं जब भोजन करने बैठी तो कुछ नहीं था मेरे खाने लायक। मैंने उस दिन दूध रोटी के साथ भोजन किया। किसी से कुछ नहीं कहा। आचार्य श्री सागर में थे। प्रवचनसार ग्रन्थ की ग्रीष्मकालीन वाचना में सभी को स्वाध्याय करा रहे थे।
आचार्य श्री के पास सभी बहिनें का सागर जाना हुआ। वहाँ उन्होंने हल्दी की चर्चा छेड़ दी। आचार्य श्री से बोलीं- यह हल्दी नहीं खाती। आचार्य श्री ने मेरी तरफ देखकर कहा- हल्दी क्यों नहीं खाती ? इसमें क्या है? मैंने कहा- हल्दी के बारे में जीवकाण्ड में पढ़ा था। आचार्य श्री शायद मेरी उस समय परीक्षा ले रहे थे, बोले जीवकाण्ड हिन्दी में पढ़ा होगा ?
मैंने कहा- नहीं संस्कृत टीका में पढ़ा था। बोले- बताओ, हल्दी को संस्कृत में क्या लिखा था ? मैंने कहा- हालिद्र। सुनकर हँसने लगे, अच्छा, यह बताओ यह किससे पूछकर पढ़ा ? मैंने कहा- रखा था, अलमारी में। मैंने उठाकर इसका स्वाध्याय शुरु कर दिया। पूछा किसी से नहीं था।
आचार्य श्री बोले- अभी बड़े-बड़े ग्रन्थ नहीं पढ़ना चाहिये। अभी तुम्हारी भूमिका है जैन सिद्धान्त प्रवेशिका, चौबीसठाणा, तत्वार्थसूत्र आदि पढ़ने की। जिसकी भूमिका जिस प्रकार की हो वैसा अध्ययन करना चाहिए। इसलिये बिना समझ के पढ़ने से अनर्थ होता है। देखो, सुनो, कच्ची हल्दी नहीं खाना चाहिए। सूखी हल्दी खाने में दोष नहीं है। हल्दी से रक्त की शुद्धि होती है। सबके साथ रहकर एक सा भोजन करो। जब आर्यिका बनो, उस समय की स्थिति–परिस्थिति देखकर त्याग कर लेना। इस प्रकार मुझे सुन्दर तरीके से समझा कर यथायोग्य राह पर चलने का निर्देशन दिया। उस समय यह मुझे अच्छे तरीके से समझ में आया कि अपनी सोचने-समझने की क्षमता कुछ अलग होती है। गुरु की अलग। अनेकान्त शैली के साथ यथायोग्य अर्थात् शक्य-अशक्य अनुष्ठान होता है। यह बताकर हम सभी को खुश कर दिया। आश्रम के चौके में हल्दी की सामग्री देखते ही वही बात ख्याल में आती कि आर्यिका के रूप में स्थिति-परिस्थिति देखकर त्याग कर लेना। वह संस्कार अभी कायम हैं, पर्वो में इसका विशेष रूप से अनुष्ठान त्याग का होता रहता है।
आचार्य श्री ने जब यह शिक्षा दी कि कोई भी ग्रन्थ पढ़ो, पूछकर पढ़ना। तो ब्रह्मचारिणी अवस्था में सभी बहिनें जब भी स्वाध्याय करती थीं आचार्य श्री से कहती थीं, आचार्य श्री जी इस ग्रन्थ का स्वाध्याय करूंगी। तब तक के लिए अमुक वस्तु का त्याग। गुरुशिक्षा महान है जिंदगी के लिए, विकास करने का काम शिष्यों का है।
आचार्य श्री हमेशा सात्विक भोजन करने की शिक्षा देते रहते थे। कभी कहते थे कि, जो शुरुआत में चीजें आती हैं वे महँगी होती हैं। बाद में सस्ती होती हैं। जब शुरुआत में मटर, जामफल आदि आते हैं तो महँगे होते हैं। तब नहीं खाना चाहिए। हमेशा अपना ऐसा भोजन बनाना चाहिए जो प्रत्येक गृहस्थ के घर उपलब्ध हो। कभी वे हम शिष्यों से हँसकर कहते-ये तो बताओ, घर में क्या खाते थे ? क्या रोज रोज जूस पीते थे ?
राजसिक भोजन करने से साधना ठीक नहीं होती है। जो उपवास आदि करते हैं उसको अपने शरीर का संतुलन बनाने के लिए कभी-कभार जरूरी हो जाता हो तो अलग बात है। इस प्रकार सहज रूप में कहकर साधना को दृढ़ बनाने के बारे में सूत्र कहते थे। जो समझ जाये, वह अपना वैसा जीवन बना लेता था।
ऐसा कोई भी साधना सम्बन्धी विषय नहीं रहा जो हमारे आचार्य श्री ने अपने अनुभव की चासनी में पागकर हम बहिनों को तथा संघस्थ साधु-सन्तों को न बताया हो। सभी कुछ बताकर निर्जरा का साधन बनवाया।