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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. महामहिम राष्ट्रपति श्री रामनाथ कोविंद आचार्यश्री के दर्शनार्थ आज रामटेक पहुंचें रामटेक/नागपुर. राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने शुक्रवार को दोपहर 12 बजे जैन आचार्य श्री विद्यासागर महाराज व भगवान शांतिनाथ के दर्शन किए। इस दौरान राज्यपाल सी. विद्यासागर, मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस, केंद्रीय मंत्री नितीन गडकरी, पालकमंत्री चंद्रशेखर बावनकुले, सासंद कृपाल तुमाने, विधायक डी. मल्लिकार्जुन रेड्डी, नगराध्यक्ष दिलीप देशमुख आदि उनके साथ थे। राष्ट्रपति और आचार्यश्री के बीच करीब पांच मिनट तक चर्चा भी हुई। मंदिर व्यवस्थापन द्वारा अतिथियों का स्वागत किया गया। सुबह 11.45 बजे राष्ट्रपति का आगमन हुआ। राष्ट्रपति कोविंद ने आचार्यश्री को श्रीफल अर्पण कर आशीर्वाद लिया। दर्शन के बाद आचार्यश्री के कक्ष में राष्ट्रपति ने संवाद किया। भारतीयत्व, संस्कृति, सभ्यता की पहचान बढ़ाने, स्त्रीशिक्षा का सार्वजनिक प्रचार, मातृभाषा में शिक्षा, खादी, स्वदेशी का प्रचार संबंधी नियोजित नीति की अपेक्षा व्यक्त की गई। राष्ट्रपति को मंदिर के हाथकरघा से तैयार किया गया कोट और स्मृतिचिह्न प्रदान किया गया। दोपहर 12.05 बजे राष्ट्रपति कामठी के लिए रवाना हुए।
  2. चर्चा की वृत्ति आदमी की परिचायक होती है और उसकी प्रवृत्ति उसके व्यक्तित्व का, उसके आचरण का परिचय कराने वाली होती है। इसलिए हमारे यहाँ पर आचरण का महत्व है, न कि व्यक्ति के चरण का। आचरण के माध्यम से ही आदमी के चरणों की पूज्यता देखी जाती है। हमें अपने आचरण को बाहर और भीतर से एक सा बनाने की आवश्यकता है। सदाचार और संस्कार का आधार प्राय: आदमी का बचपन होता है। उस काल में जैसा देखता है, सुनता है, जैसी संगति करता है, वैसा उसका आचरण बन जाता है। आचार्यश्री के जीवन में धर्माचरण के संस्कार बचपन से ही रहे हैं या कहें कि अांतरिक संस्कार श्रमणत्व को अपनाने के रहे हैं। उनके बचपन का एक संस्मरण उनके अंदर की रुचि को बताने वाला रहा है। संस्मरण : 15 दिसंबर 1997 बुधवार के दिन आचार्यश्री ने क्लास के दौरान अपने बचपन का एक संस्मरण सुनाया कि 'मयूर पंखों से लगाव तो मुझे बचपन से ही था। हुआ यह कि सदलगा से 4-5 कि.मी. पर एक बेड़किया-फाटा ग्राम में एक मुनिराज की समाधि हुई। हजारों व्यक्ति आसपास के ग्रामों से पहुँचे। हम भी देखने गए। उस समय हमारी उम्र 10-11 वर्ष की होगी। मुनिराज की जो पिच्छी थी उसको तोड़कर उनकी चिता में, साथ-साथ जला देने की परंपरा दक्षिण भारत में है। वह पिच्छी तोड़ी गई, उसके कुछ पंख जमीन पर गिर गए। किसी ने पंख नहीं उठाए, पर हमने सबकी नजरों से बचकर धीरे से 4-6 पंख उठा लिए, इसलिए कि इनको पुस्तक में रखने से विद्या आएगी। इसी भावना से उन पंखों को बहुत दिनों तक पाठय पुस्तकों में सुरक्षित रखता रहा। बालक विद्याधर के बचपन के संस्कार विद्या ग्रहण करने के थे, वे विद्या की उपासना में निरत रहते थे। विद्यार्थी जीवन में विद्या के प्रति उनका अधिक लगाव था, उसी का परिणाम है कि विद्या के सागर बन करके आज आत्म कल्याण के साथ-साथ भटके अटके हुए संसारी भव्य जीवों के लिए दिशा-बोध देकर अविद्या को दूर कर रहे हैं और सन्मार्ग पर लगा रहे हैं।
  3. प्रज्ञा का विस्तार ही प्रतिभा के निखार का कारण होता है। प्रज्ञा और प्रतिभा दोनों का संबंध आदमी के अंतस से होता है। प्रतिभावान जो होता है, वह अपने अंदर के प्रभुत्व को देखकर उसकी शक्ति का उपयोग करता है तथा अपनी बुद्धि और विवेक से जीवन के प्रत्येक कदम का निर्णय करता है। अज्ञान की अधिकता से प्राय: अभिमान होता है, लेकिन विवेकपूर्ण आचरण से उसके अन्दर अभिमान के स्थान पर स्वाभिमान जागृत होता है। संसार में एक सीमा तक स्वाभिमान बुरा नहीं, लेकिन अभिमान करने वाला अभिमानी व्यक्ति तो कदम-कदम पर हेय माना जाता है। उसके अंदर छुपी हुई क्षमता को वह स्वयं ही नहीं जान पाता। इसलिए बुद्धि का सही- सम्यक् दिशा में प्रयोग करने वाला ही विद्या का अर्जन अच्छे से कर सकता है। विद्यार्जन में जो जितना एकाग्र होता है, उसको उतनी सफलता मिलती है। आचार्यश्री के बारे में जब सुनते हैं, समझते हैं कि महती लगनशीलता से उन्होंने किस तरह अपने ज्ञान का अर्जन किया है। उनके बचपन के एक संस्मरण से ज्ञात होता है कि वे कैसे प्रज्ञावान थे। संस्मरण : 26 अगस्त 1997 मंगलवार को कक्षा के दौरान चर्चा निकल पड़ी तो उन्होंने सुनाया- 'पहले तीसरी कक्षा में ही हिन्दी महीनों और सत्ताइस नक्षत्रों के नाम याद करना पड़ते थे।' हम लोगों ने पूछा - 'आप जल्दी कर लेते थे क्या? आचार्यश्री बोले - 'अरे! मास्टर जी बहुत तेज थे। जब तक पूरे महीनों के नाम और नक्षत्रों के नाम नहीं सुन लेते थे, तब तक सभी छात्रों को खड़ा रखते थे और तब तक भोजन की छुट्टी भी नहीं देते थे।' हम लोगों ने पूछ - "आप खड़े रहते थे या सुना देते थे?" आचार्यश्री बोले - 'हम तो जल्दी याद करके सुना देते थे और भोजन करने चले जाते थे। लेकिन कक्षा में कुछ छात्र ऐसे थे, जिन्हें याद नहीं होता था। कभी-कभी तो हम भोजन करके आ जाते थे, तब भी वे छात्र खड़े मिलते थे, फिर भी उन्हें याद नहीं होता था।' आचार्यश्री में बुद्धि और स्मरण शक्ति की प्रखरता बचपन से ही थी। उसी का परिणाम है कि चाहे तत्व चर्चा के क्षेत्र में हो, व्यावहारिक क्षेत्र में हो, संघ के शिष्यों की बात हो, सब कुछ याद रखते हैं। विपुलज्ञान का भंडार गुरुदेव के अंतस में समाया है। हम अपने वर्तमान अल्पज्ञान से उनके विद्या और ज्ञान के अथाह भंडार को शब्दों में आज नहीं बाँध सकते हैं। ज्ञान उनको - संपति जो मेध बन बरस गई | आचरण की पावनता नतमस्तक कर गई || कोई ऐसा कैसे हो सकता है सोचकर , आप तक ये द्रष्टि गई और आप पर ठहर गई ||
  4. श्रमण संसार के परिभ्रमण को मिटाने के लिए सदा प्रयत्नशील रहता है, इसके लिए सदा श्रम करता रहता है। वह केवल शारीरिक श्रम नहीं करता। वह तो मोक्ष मंजिल को पाने के लिए शारीरिक, मानसिक श्रम करता हुआ एवं वचनों से प्रभु का गुरु का गुणगान करता हुआ, मोक्षमार्ग पर चलता है। मार्ग में बहुत-सी बाधाएँ आती हैं, उनको पार कर मंजिल की ओर बढ़ने वाला ही सही श्रमणत्व को मनसा-वाचा-कर्मणा चरितार्थ करता है। उपसर्गों का हर्षपूर्वक सामना करता है और अपने कदमों को निरंतर आगे बढ़ाता जाता है एवं बाधाओं को साधन मान साधना-बल से स्वयं आगे बढ़ता चलता है। परम पूज्य आचार्य गुरुदेव का जीवन भी ऐसे ही श्रम साध्य साधक से प्रारंभ होता है। जिनका लक्ष्य श्रमण बनकर मोक्षमार्ग पर चलना था। उनके सामने अनेक बाधाएँ आई, लेकिन सबको सहन करके आज सच्चे श्रमण बने हैं और अपने साधना बल से बहुत से श्रमण बनाए हैं। उनके ब्रह्मचारी अवस्था का एक प्रसंग है। प्रसंग : परम पूज्य आचार्यश्री ने स्वयं 25 मार्च 1997 मंगलवार के दिन अपने ब्रह्मचारी काल का संस्मरण सुनाया था जब मैं ब्रह्मचारी विद्याधर के रूप में आचार्यश्री देशभूषणजी के संघ में था, संघ में रहकर साधुसेवा करता व परिचर्या भी। आचार्य संघ श्रवणबेलगोला गोमटेश्वर की ओर विहार कर रहा था। संघ में एक आर्यिका बुद्धिमति माताजी बहुत वृद्ध थीं, डोली में चलती थीं। हम ब्रह्मचारीगण डोली में कंधा लगाकर चलते, फिर सबकी वैयावृत्ति करते थे। संघ श्रवणबेलगोला से 50-60 किमी. दूर था। रात्रि में गर्मी बहुत थी। मैंने सभी साधुओं की सेवा करके चटाई उठाई, एक काली मिट्टी के खेत में बिछाकर सोने लगा। वहीं पर एक काला बिच्छू था, उसने डंक मार दिया। अब दर्द बहुत था, रात्रि में किसी को नहीं बताया। चुपचाप सहन करते णमोकार मंत्र जपते रहे। सुबह तक पैर पर सूजन आ गई, प्रात:काल आचार्यश्री देशभूषणजी ने देखा और पूछा- 'अरे! ब्रह्मचारीजी, आपका पैर कैसे सूजा है।' हमने पहले छुपाने की कोशिश की, लेकिन बाद में फिर सारी घटना सुना दी। आचार्य महाराज को आश्चर्य हुआ, काले बिच्छू ने काटा और इतना दर्द सहन करता रहा, किसी को नहीं बताया। आचार्य महाराज ने कहा- 'ब्रह्मचारीजी। अब तुम डोली में कंधा नहीं लगाना पैर में दर्द है।' हमने कहा 'नहीं महाराजजी! अब तो ठीक हो गया। मैं माताजी की डोली लेकर चलूँगा, आप चिंता नहीं करें।' अग्नि में तपे हुए कुंदन के समान, शारीरिक श्रम करके श्रमणत्व की चाह रखने वाले ब्रह्मचारी विद्याधरजी, तपाग्नि में तपकर अब 'विद्या का सागर' बन चुके हैं। भगवान महावीर के मार्ग पर चलकर उनके लघुनंदन हो चुके हैं। समता के साथ सारे शारीरिक व मानसिक दुखों को सहन करते हैं। मोक्षमार्ग पर चल रहे हैं। अनेक भव्यात्माओं को अपना-सा बना रहे हैं। धन्य हैं श्रम-साधना कर वे सबके मध्य महाश्रमण हो चुके हैं। चलना तो शुरू करो रास्ते मिल जायेंगा | देर सही, दूर सही, मंजिल तक लायेगे || पर्वतो की ऊचाई को बनाया लक्ष्य जब | गिर - गिर कर संभले बिना शिखर कैसे पायेंगे ||
  5. सत्संगति आदमी की जड़ता को समाप्त कर उसके उज्जवल भविष्य का निर्माण करती है। जब तक जड़ता है तब तक सही दिशा प्राप्त नहीं हो सकती है। यदि आदमी सत्संगति में रहकर संतों की चर्या मात्र को देख लेता है तो उसमें उसे बहुत कुछ शिक्षा मिल सकती है। उनकी सेवा-परिचय करने से अनुभूत शिक्षा मिलती है। आचार्यश्रीजी ऐसे सधे हुए साधक हैं, जिनका प्रत्येक क्षण का समागम हर साधक के लिए नई दिशा प्रदान करने वाला होता है। प्रसंग : बात 20 फरवरी 1998 शुक्रवार की है। छिंदवाड़ा के पास खूनाजेर ग्राम में आहार चर्या हुई। शाम को छिंदवाड़ा पहुँचना था। दोपहर की सामायिक के बाद आचार्यश्री की वैय्यावृत्ति हम दो मुनिगण कर रहे थे। तब चर्चा चली कि 10-11 दिन पूर्व दीक्षित हुए एक महाराज के आहार के समय हाथ की अंजली से पानी बहुत गिरता है। वे क्षुल्लक से सीधे मुनि बने थे। इस पर हमने आचार्यश्री से पूछा- 'आप तो ब्रह्मचारी से सीधे मुनि बने थे। आपके हाथ अंजलि से पानी नहीं गिरता था?" आचार्यश्री बोले- 'नहीं, जैसे मैं आज आहार करता हूँ जितना पानी आज गिरता है, उतना ही पहले दिन गिरा था।' हमने पूछ- 'इसमें कारण कुछ तो होना चाहिए?’ आचार्यश्री बोले- 'इसमें कारण है।' हमने पूछ- 'क्या कारण है?" आचार्यश्री- जो महाराजों को आहार कराने जाता है, आहार कराता है वह देखता रहता है। उसे उसका ज्ञान हो जाता है।' हमने पूछा 'तो क्या आप आचार्यश्री ज्ञानसागरजी के आहार कराने जाते थे?' आचार्यश्री - 'हम ब्रह्मचारी अवस्था में महाराज (ज्ञानसागरजी) के आहार कराने जाते थे, पूरे डेढ़ वर्ष तक आहार कराने गए और मुनि बनने के बाद भी जाया करते थे।" हमने कहा- 'तभी आपकी अंजलि बहुत अच्छी बनती है।' आचार्यश्री कुछ समय तक मौन बैठे रहे, कुछ देर बाद बोले। 'अब तो हमारी वैय्यावृत्ति छूट गई भैया, आप लोगों को सदा वैय्यावृत्ति करके लाभ लेना चाहिए, ये अंतरंग तप है। इससे बहुत लाभ होता है। पुण्य का संचय होता है, कर्मों की निर्जरा होती है।' हमने कहा - 'महाराज जी ! आप ये क्यों कह रहे हैं कि हमारी वैय्यावृत्ति छूट गई। आप तो इतने बड़े संघ का संचालन कर रहे हैं, हम सभी साधकों को उचित मार्गदर्शन दे रहे हैं। हम सभी लोग आपके कुशल मार्गदर्शन में चल रहे हैं, यह क्या छोटा काम है? यह तो आपके द्वारा सबसे बड़ी वैय्यावृत्ति है। यदि आपने सही मार्ग नहीं बताया होता तो हम सभी लोग संसार के गर्त में पड़े होते? आपने तो हम लोगों को गर्त से निकल लिया। यह आपके द्वारा सबसे बड़ी वैय्यावृत्ति है। इस उपकार का ऋण तो हम लोग भवभव तक नहीं चुका सकते हैं।" आचार्यश्री - 'यह तो ठीक है, पर गुरु महाराज की सेवा तो छूट गई. (और हँसने लगे)।' जब - जब छूने आई समीर, महक गई, बिसरे पीर | नीर धिसा चंदन के रांग, चंदन-चंदन हो गया नीर || संत्सागति जल - चंदन की वैसे संगीत गुरु जन की | निर्मल शिष्यों नित - नित वंदन की ||
  6. प्रतिभाओं का पल्लवन अभाव एवं संघर्षों के बीच अधिक होता है जो सुख-सुविधा के साधनों के बीच में कम ही हो पाता है। साधनों के अभाव में संघर्षरत योग्यता का अभिव्यक्ति करण अधिक होता है। प्राय: आत्मिक योग्यता का परिचय विपरीत परिस्थिति में ही होता है। जब प्रतिभावान व्यक्ति के अंदर कुछ करने का लक्ष्य सामने होता है तो वह उसे पाने का सतत् पुरुषार्थ करता है, और सफलता प्राप्त कर यशस्वी बनता है। ऐसे महान व्यक्तित्वों में आज भी एक महान आध्यात्मिक जगत के जगमाते अनौखे सूर्य की तरह प्रकाशमान व्यक्तित्व को लिए, हमारे आचार्य परमेष्टी परम पूज्य आचार्यश्री विद्यासागरजी महाराज हैं, जिनकी जीवन यात्रा एक सामान्य कृषक परिवार में जन्म से प्रारंभ हुई थी। उनके अंतस् में बचपन से कुछ बनने की, कुछ करने की चाह थी। उनका बचपन ही अनेकानेक प्रेरणास्पद घटनाओं से भरा हुआ है। जैसे - प्रसंग : बात अतिशय क्षेत्र बहोरीबंद जी के ग्रीष्मकालीन प्रवास में 4 जून 2001 गुरुवार के दिन स्वाध्याय की क्लास के दौरान आचार्यश्री ने अपने विद्यार्थी काल का प्रसंग सुनाया। कहा- 'हम जब पढ़ते थे उस समय हमें पेन तो देखने को ही नहीं मिलता था। हाईस्कूल में पहुँचने पर हमें भी मल्लप्पा जी ने एक ऐसा पेन-सा दिया था, जिसमें मात्र निब ही थी। जिसे आज हम 'खत' कहते हैं। उसे स्याही में डुबो-डुबो कर लिखते थे। हम जब चिक्कोड़ी परीक्षा देने गए तो खत-दबात लेकर गए थे। फिर कुछ समय बाद थोड़े पैसे मिले तक एक पेन भी खरीद लिया।' आचार्यश्री बोले - 'आज के बच्चों के पास तो पेनों का सेट होता है। हमारे समय में पहले स्लेट-पट्टी पर लिखते थे और हमें कम्पास तो कभी मिला ही नहीं। दूसरे विद्यार्थियों का लेकर ही अपना काम कर लेता था। पर सब मन लगाकर करते थे सो अपनी क्लास में अच्छे नंबर भी लाया करते थे।' धन्य हैं! ऐसे ज्ञान पिपासु साधक जो विद्या अध्ययन काल में साधनों के अभाव में रहकर भी इस प्रकार विद्या का अर्जन किया कि आज विद्या के सागर बन गए। मैने कब चाहा मुझे मन चाही प्रिय चीज दो, मैने तो चाह की मुझे लक्ष्य की पहचान दो ||
  7. बालक स्कूल में पढ़ता है तो कुछ न कुछ अवश्य सीखता है। यह शिक्षा का सही अर्थ है। बालक विद्याधर को बचपन से ही एक शौक था 'छोटे से बड़ा बनने का' जो आज उन्होंने कर दिखाया। हम जैसे हजारों संसारी जीवों को सही मार्ग पर लगाया क्योंकि अंदर बाहर से बड़े हुए बिना भावों में विशालता नहीं आती। कहा जाता है कि भावों की विशालता ही सही बड़प्पन है। मन-वचन-काय तीनों की एकाग्रता के साथ ही यह यात्रा प्रारंभ होकर पूर्णता को प्राप्त होती है। जब बालक विद्याधर पहली कक्षा के विद्यार्थी थे और स्कूल जाते थे, तब वहाँ विद्या अर्जन करते समय उन्होंने 'अ' से 'आ' की ओर यात्रा प्रारंभ की। यह शिक्षा का मंगलाचरण था। वे 'अ' से 'आ' अक्षरों से अपनी पूरी स्लेट पट्टी भर देते थे। घर पहुँचने पर पूछा जाता था कि आज क्या सीखा? तो बड़ी मीठी वाणी में एक ही उत्तर होता- छोटे 'अ' से बड़ा 'आ' बनाना सीखा है। ये थी शिक्षण काल की एक प्रगतिगामी सहज भावना जो आज हम सभी के सामने साकार रूप में दिख रही है। अपने जीवन में आने वाली असहजता का त्याग करके साधु का रूप धरा और मन की वह साकार भावना 'अ' से 'आ' शब्द के संस्कार आज इस 21वीं सदी के महान आचार्य परमेष्ठी के रूप में दृष्टिगत हो रहे हैं, जो अनगिनत जीवों को मुक्तिमार्ग पर अग्रसर कर रहे हैं। 6.10.98, सागर छोटा कैसे हो बड़ा, लक्ष्य बने यह एक | पौधा बनता पेड़ जस, देता सुफल अनेक ||
  8. संतोष तृष्णा का नाशक भाव है। संतोष ही सफलता का मंत्र है। इसलिए कहा जाता है कि 'धीरज का फल मीठा होता है'। स्वभावत: धीरज की चाल धीमी होती है। इससे भागदौड़ समाप्त हो जाती है। इसलिए बहुत-सा समेटने की अपेक्षा जितना है, उतने में ही संतोष धारण करना चाहिए क्योंकि इस संतोष गुण से आकुलता जीर्ण-शीर्ण पड़ जाती है और क्षोभ भी क्षमा के रूप में परिणत हो जाता है क्योंकि एक गुण अनेक गुणों का जनक होता है। जैन दर्शन गुणों का उपासक है, व्यक्ति या धन-सम्पत्ति का उपासक नहीं। जब व्यक्ति गुण ग्रहण के भावों को आत्मसात करता चला जाता है तो स्वयं गुणवान होकर एक दिन पूज्य बन जाता है। जब भी बालक विद्याधर के घर पर मुनिराज का आहार होता था, तब उनका एक ही काम था कि बच्चों को अंदर नहीं जाने देना, कुत्ता-बिल्ली-गाय-बकरी आदि को भगाना और स्वयं खिड़की में बैठकर मुनिराज के आहार देखना। अन्तराय न आ जाए इसलिए बाहर देखना। बैठे-बैठे मन में सोचते, जितना कार्य मिला है, उसे अच्छे से करना। इतने में ही संतोष रखना यह भी दाता के सात गुणों में से एक संतोष गुण है। मुनिराज का निरन्तराय आहार हो, किसी प्रकार की बाधा नहीं आए, इस प्रकार सोचते। इस प्रकार के कार्य में ही आनंद मानते थे। इस प्रकार विद्याधर तो साधुओं के आहारदान दाता बचपन से ही थे। इसी का परिणाम वो स्वयं पात्र बन गए और सर्वोत्कृष्ट पात्र बने। यह सब बचपन के संतोष गुण का परिणाम है जो हमारे महान आचार्य का मूर्त रूप दिख रहा है। धीरज घर संतोष घर, लक्ष्य प्राप्ति का ध्येय | संयम का पालन करे, आत्मय पा लेय ||
  9. आचार्यश्री ज्ञानसागरजी के संस्मरण आचार्यश्री के श्रीमुख से पूज्य आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज स्वाध्याय प्रिय थे और वे सदा "ज्ञान ध्यान तपोरत:" सूत्र को अपने उपयोग में रखते थे। अजमेर में कुछ गृहस्थ लोग जो अच्छे स्वाध्यायशील थे उनमें श्री छगनलालजी पाटनी, श्री मनोहरलालजी मास्टरजी, ब्र. प्यारेलालजी जो सातवीं प्रतिमा के धारी थे। आचार्यश्री ज्ञानसागरजी स्वयं स्वाध्याय करते व उन सभी को कराते। कभी-कभी आगम के मत-मतान्तर के बारे में चर्चा होती। छगनलाल, प्यारेलालजी उस मत विशेष को पकड़कर रह जाते, बार-बार उसी विषय पर चर्चा करते। चर्चा जब खिंच जाती तब आ. श्री ज्ञानसागरजी की विशेषता थी कि वे कभी पूर्व आचार्य के कथन को एकान्त से गलत है, यह नहीं कहते थे, वे उन लोगों को समझाते और कहते- 'भैया! आज ही सारी शंकाओं का समाधान कर लोगे क्या? वैसे भी हमारे सिर पर चार-छह बाल बचे हैं। इसको तो बचने दो।' और हँस देते थे। फिर धीरे से कहते- "जब हमें केवलज्ञान होगा, जो सही होगा, उसको जान लेंगे, और जब आप लोगों को केवलज्ञान हो तो आप लोग जान लेना। दोनों को समाधान हो जाएगा। हठ मत करो। आचार्यों का क्या अभिमत रहा होगा, उन्होंने किस अपेक्षा से कहा होगा, हम अपनी अल्पबुद्धि से उसको नहीं जान सकते हैं। ऐसे विषयों का संकलन करते जाओ। समय आने पर उनका समाधान मिल जाएगा।"
  10. सामान्य आदमी को मात्र अपने घर-परिवार और व्यापार के बारे में अच्छी जानकारी होती है। पर एक निर्मोही वीतरागी साधक मुनि को इन सबसे दूर रहने को कहा जाता है। लेकिन साधक को देश-काल और क्षेत्र आदि की जानकारी पूरी रखना चाहिए। यह गुण भी आचार्यश्रीजी के पास विशेष रूप से है, उसको लेकर यह प्रसंग है। आचार्यश्रीजी के पास हम कुछ मुनिगण प्रातःकाल वैय्यावृति कर रहे थे, उसी समय विहार संबंधी चर्चा हुई कि उत्तरप्रदेश, हरियाणा, दिल्ली आदि की ओर जाना चाहिए। आचार्यश्री ने कहा- 'भैया वह क्षेत्र अलग है, यहाँ जैसा वहाँ नहीं है। वहाँ समाज में साधुओं के अनुरूप श्रावक संस्कार भी प्राय: सही नहीं है।' हमारे साथ के एक मुनिश्री ने कहा- 'इसलिए तो महाराज उस ओर जाना चाहिए। अन्यथा उन्हें भी इस तरह के श्रावक संस्कार कैसे मिलेंगे?' आचार्यश्री- 'यह बात अलग है। ठीक है, पहले तुम चले जाओ, देखकर आ जाओ, आपको पता चल जाएगा।" वे मुनिश्री मौन हो गए।इसके बाद आहार को लेकर चर्चा हुई। आचार्यश्री जी से कहा हम लोग कुछ त्याग करने की कहते हैं तो आप मना कर देते हैं। जैसे आप मना कर देते हैं वैसे क्या आपके लिए आचार्यश्री ज्ञानसागरजी भी मना करते थे? आचार्यश्री ने कहा- 'उन्होंने हम से कभी त्याग के लिए नहीं कहा। वे कहते जवान शरीर है। त्याग आदि धीरे-धीरे करना है। फिर बोले- हमने मेवा आदि तो ब्रह्मचर्य अवस्था से ही छोड़ दिए थे। गुरु महाराज तो त्याग कराते नहीं थे। हमने पूछा- फिर आपने मेवा आदि लिए क्यों नहीं? आचार्यश्री- कभी लेने की इच्छा नहीं हुई, इसलिए नहीं लिए, बस छोड़ दिए। लेकिन फिर भी आहार देने वाले लोग खिलाना चाहते हैं और आप लोगों का इनडायरेक्ट सपोर्ट भी रहता है, लेकिन यह अच्छा नहीं है। कोई वस्तु नहीं लेते हैं तो उसको पाने की भावना नहीं होनी चाहिए। ऐसा देने से कुछ भी नहीं होता। हम लोगों ने कहा- ऐसा हम लोगों ने तो कभी नहीं किया, न कहा है? ये सब बीच वाले लोग ही करते हैं। आचार्यश्री जी हँसने लगे। आतम रस के स्वाद में, हो आंनद विशेष | फल मेवा का स्वाद तो, हो जाता नि:शेष ||
  11. किसी को निर्णय देने से पहले अच्छे से पहले स्वयं निर्णय करो, उसके बाद किसी को अपना निर्णय सुनाओ और कोई आकर कुछ कहता-पूछता है तो तत्काल निर्णय मत दो। सुनो-सोचो और बाद में कुछ कहो। यही समझदार व्यक्ति का परिचय होता है। ये पूरे गुण आचार्यश्री के पास अवश्य मिलते हैं। इसी संदर्भ में यह प्रसग। बात बीना बारहा अतिशय क्षेत्र की है। शाम का समय था, आचार्य भक्ति के बाद हम दो-तीन महाराज आचार्यश्री की वैय्यावृति कर रहे थे। प्रकरण निकला- लोग बिना देखे, बिना सोचे-समझे क्या से क्या अर्थ लगाने लगते हैं और भय के कारण तिल का ताड़ बना देते हैं। इसी संदर्भ में आचार्यश्री ने अपने ब्रह्मचारी अवस्था की घटना सुनाई। बोले- 'हम ब्रह्मचारी अवस्था में आचार्यश्री ज्ञानसागरजी के पास मदनगंज किशनगढ़ में थे, मैं नया-नया था, हिन्दी आती नहीं थी, टूटी-फूटी हिन्दी आती थी। गुरु जी की वृद्धावस्था थी। रात्रि में उन्हें लघुशंका जाना होता, तो उन्हें पकड़कर हम ले जाते थे। एक बार गुरुजी को लघुशंका कराने ले जा रहे थे, उसी समय बिच्छु ने मुझे डंक मार दिया, उसका जहर चढ़ने लगा, मैं कमरे में आकर इधर-उधर पैर को झटकता हुआ चल रहा था। गुरुदेव ने कमरे में मेरी ये दशा देखी, मौन तो थे ही, इशारे में पूछा- 'क्या हो गया?' मैंने कहा- 'महाराज मुझे किसी ने काट लिया और दर्द बहुत बढ़ता जा रहा है, लगता जैसे साँप ने काटा हो।' पू. श्री ज्ञानसागरजी महाराज भी हँसने लगे। उन्होंने उस समय हँसते हुए इशारे में कहा- 'नहीं! बिच्छू ने काटा होगा, क्योंकि इस प्रकार की दशा बिच्छू के काटने वाले व्यक्ति की होती है, साँप के काटने पर दो दाँत के निशान बनते हैं, थोड़ा खून भी आ जाता है और व्यक्ति को नींद आती है, और बिच्छू के काटने पर निशान भी मुश्किल से दिखता है, और दर्द से नींद भाग जाती है।" तभी कुछ श्रावकगण आए, उन्होंने संकेत दिए कि ब्रह्मचारीजी को बिच्छू ने काट दिया, उसका उपचार करो। उपचार से ठीक हो गया। जहर उतर गया। लेकिन पैर में थोड़ा-थोड़ा दर्द दो दिन तक बना रहा। इस प्रकार हम लोग समझे जो घटना हुई है उसे किसी भी निर्णय के पूर्व अच्छे से देखो, जानो और समझो। बाद में निर्णय लेना चाहिए। भय का भूत कभी-कभी बड़ी-बड़ी समस्याएँ खड़ी कर देता है। अत: निर्णय में सावधानी रखना चाहिए। देख समझ पहिचान कर, बोलत बोल प्रवीण | बोले न देखे अजान के, नहिं होते वे कुलीन ||
  12. भविष्य के गर्त में क्या है? आज तक कोई समझा नहीं है। लेकिन कभी-कभी भविष्य के चिन्तन में कुछ न कुछ रहस्य अवश्य होता है। आचार्यश्री ने भी ऐसा नहीं सोचा। पर विचार जरूर बनाया। वह आचार में आया। उसका यह संस्मरण है जो आचार्यश्री के श्रीमुख से सुना था। 25 मार्च 2001 की प्रात:काल विहार करके बहोरीबंद अतिशय क्षेत्र में पहुँचना था। रास्ते में एक महाराज ने आचार्यश्री जी से पूछा- आचार्यश्रीजी आपने पहले बुंदेलखंड के बारे में न सुना था ना देखा था | फिर आपने क्या सोचा था की यहाँ इतना बड़ा संघ बनेगा। आचार्यश्री ने कहा- ऐसा तो सोचा नहीं था, लेकिन सब हो गया। बुंदेलखंड के विषय में हमने उस समय सुना जब मैं अजमेर में था। उस समय पं. जगनमोहनलालजी शास्त्री कटनी वाले आए थे। उन्होंने हमें कुंडलपुर (म.प्र.) में पंचकल्याणक महोत्सव में आने के लिए कहा था और बड़े बाबा के बारे में परिचय दिया था। पंडितजी वगैरह ने उस पंचकल्याणक महामहोत्सव में मुख्य अतिथि श्री भागचंदजी सोनी को बनाया था। वे उसके लिए अजमेर गए थे, उस समय उन्होंने हमें यहाँ (कुंडलपुर) के विषय में बताया था, हमने उस समय इस तरफ आने का विचार बनाया था। बस वह विचार क्रिया में परिणत हुआ और सन् 1976 में प्रथम चातुर्मास बुन्देलखण्ड में बड़े बाबा के श्रीचरणों में चातुर्मास हो गया। उसके बाद बड़े बाबा के चरणों में मन लीन हो गया और रम गया यहीं पर और बढ़ता गया संघ। आज सब जो है वह सामने है।
  13. हर समय मनुष्य अपने ज्ञान का सदुपयोग करे तो हमेशा लाभ ही लाभ होता है। वह कैसे? जैसे बचपन में अपने ज्ञान-चतुरता से बाल विद्याधर करते थे, कैसे करते थे। पूज्य गुरुदेव के मुख से सुना उनके बचपन का यह प्रसंग है | 14 जून 2000 रविवार, भाग्योदय तीर्थ सागर शाम का समय था। हम लोग आचार्यश्री की वैय्यावृत्ति कर रहे थे। तभी जनेऊ को लेकर चर्चा चल पढ़ी। तब आचार्यश्री ने अपने बचपन की चतुरता के बारे में बताया। दक्षिण भारत में परंपरा है कि आषाढ़ पूर्णिमा एवं भाद्रपद शुक्ल चतुर्दशी (अनंत चतुर्दशी) को सभी नया जनेऊ पहनते हैं। बूढ़ा हो या बच्चा-आबाल-वृद्ध सभी जनेऊ धारण करते हैं। उस समय सामान्यत: जनेऊ बेचने वाले से भी एक पैसे में एक जनेऊ ले लेते थे। लेकिन हम तीन जनेऊ लेते थे। क्योंकि एक पैसे के तीन ही आते थे पर लोग अपनी जरूरत के हिसाब से एक पैसा देकर एक ही लेते थे। हम देखते कोई जनेऊ लेने जा रहा है। उससे पूछ उसे एक जनेऊ दे दिया और एक पैसा ले लेते थे। ऐसा करके एक बार में 2 पैसा अपने जेब में आ जाता था। हम लोगों ने पूछा - ऐसा कितनी बार करते थे। आचार्यश्री जी - हँसने लगे। ज्यादा नहीं करते बस एक-दो बार ही करते थे। हम लोगों ने कहा - यानि आप बचपन में बड़े होशियार थे। जनेऊ भी ले लिया और पैसा भी दूने आ गए। आचार्यश्री हँस दिए। यह तो बुद्धि का खेल है। जैसी लगा लो, बस पैसा कमा लो। पर प्रचलित कीमत से ज्यादा नहीं लेना चाहिये। वैसे ही मोक्षमार्ग में विशुद्धि का खेल है। जितनी विशुद्धि बढ़ाओगे, उतना ही हमारा मोक्षमार्ग प्रशस्त होगा और मोह का प्रभाव कम होगा। ज्ञानवान हर क्षण करे, अपना ज्ञान प्रयोग | बह्म लाभ के साथ हो, आत्मिक लाभ सुयोग ||
  14. मेरी माँ ने एक दिन बतलाया था कि जब तुम मेरे गर्भ में थीं उस समय एक आर्यिका जी कुण्डलपुर आयी थीं संघ सहित। मैं उनसे इतनी प्रभावित हुई कि उनके साथ जाने को तैयार हो गई। मुझे मना करतीं कि साथ नहीं रखेंगी। घर के सदस्य भी स्वीकृति नहीं दे रहे थे। अन्त में निर्णय किया कि मैं सफेद साड़ी पहनूँगी। वह भी घर के लोगों ने मंजूर नहीं किया। लेकिन मेरे बार-बार कहने से सफेद साड़ी, जिसमें अन्य रंग को बिन्दी बनी थीं, मन्दिर के लिये पहनने को स्वीकृति मिल पायी। मैं वही साड़ी पहनकर मन्दिर जाती थी। मैंने संकल्प कर लिया था, कि चाहे बेटा हो, चाहे बेटी। उसको मैं मोक्षमार्ग पर लगाऊँगी। तुम हो गई। सो मैंने शुरू से संस्कार डाले व हमेशा धर्मध्यान में तुम्हें लगाया है। अब मैं स्वयं वह अनुभव करती हूँकि मैं जब चौथी पढ़ती थी तब की मुझे अच्छे से याद है। अगर कभी कुल्फी खरीद कर ले आती, जैसे ही खाने के लिये मुँह में देती, वे कहती- यह गन्दे पानी की बनी है। इस प्रकार कहकर ग्लानि पैदा कराकर हाथ से नीचे गिरवा देती थीं। कभी शकरकन्दशकला उबाले हुये लेकर आयी तो कहती थीं- उसी में मछली चुरती है, उसी में शकरकन्द। मैं तुरन्त ही फेंक देती। कोई भी सामग्री बाजार की बनी नहीं खाने देती थीं। हमेशा इसका ध्यान रखती थी। दशलक्षण पर्व में कहा करती थी- दो बार खाना, पानी जब कभी पीते रहना। अगर मैं ऐसा करती तो खुश होती थीं और पैसे आदि देकर मुझे इस ओर बढ़ाती थीं। दोनों टाइम मन्दिर का नियम दिया था। स्वाध्याय करवाती। कहती थी- मुझे सुनाओ। कुण्डलपुर भी जब कभी ले जाती। कुल मिलाकर माँ ने जो पूर्व में चाहा होगा वे संस्कार डाले। इसलिये मेरा जीवन वैरागी बन पाया। उन्होंने सदा आलु-प्याज, रात्रिभोजन, अभक्ष्य वस्तुओं का खाने का परहेज करवाया। जब मैं समझदार हो गई, छठवीं कक्षा पढने लगी, उस समय चातुर्मास करने पूज्य भूपेन्द्रसागर महाराज जी आये थे। उनसे मैंने कुछ नियम माँगा। उन्होंने मुझे बड़ा समाधिमरण और मंगतराय की बड़ी बारहभावना पढ़ने का नियम दिया और कहा- बेटा, इसको सुबह साँझ दोनों समय में से किसी एक टाइम अवश्य पढ़ना। जिससे तुम्हें याद हो जायेगी। मैंने नियम लिया एवं प्रतिदिन पढ़ने लगी। जिससे वैराग्य भरी पंक्तियाँ हमेशा मन में गूँजने लगीं। संसार की वस्तुयें असार नजर आने लगीं। दुनिया में जो भी आया वह एक दिन मर जायेगा। इसमें प्रत्येक सुबह से सांझ तक एक ही क्रियायें होती हैं। नया इसमें कुछ नहीं है। इस दुनिया में नया क्या होगा ? हमेशा विचार चलने लगे। स्कूल से लेकर जहाँ कहीं, जिस क्षेत्र में, मैंने कदम रखा, स्नेह-वात्सल्य भरपूर मिलता रहा। अनुभवी वृति लोग, मेरी पसंद रहे। क्योंकि मैंने एक नीति पढ़ी थी कि साठ वर्ष वाले की संगति करे उसके पास रहे, तो बीस वर्ष वाले का साठ वर्ष का अनुभव हो जायेगा। इस नीति ने मुझे हमेशा बड़े लोगों के पास रहने को मजबूर किया। जवानों की संगति मुझे रास नहीं आयी। स्कूल जाना, सबक करना, सुबह साँझ को श्रावकों का प्रतिक्रमण, आलोचना आदि पढ़ना स्वभाव बन गया था। कुछ समय बाद, मैंने बड़े बाबा के मन्दिर में एक कोने में बैठकर जिंदगी के बावत् कुछ शंका का समाधान चाहा। प्रथम प्रश्न- व्रतों में सबसे महान व्रत कौन सा है ? आवाज आयी ब्रह्मचर्यव्रत। यह किससे लेना होता है ? गुरु से। मेरे गुरु कौन बनेंगे ? समाधान अवश्य। लेकिन कुछ दिन बाद रहस्य खुल गया। मैं अपनी बड़ी दीदी के पास गई सिहोरा। गर्मी की छुट्टियों में, वहाँ एक पेम्पलेट टंगा था। जिसमें आचार्य विद्यासागर जी, आजू-बाजू में समयसागर, नियमसागर और योगसागर के चित्र बने हुये थे। मेरी दृष्टि छोटे-छोटे क्षुल्लक जी पर रुक गई। अरे ! इस मार्ग पर इतने छोटे भी इस वेश को धारण करते हैं। आचार्य श्री को देखा विश्वास हो गया। बस यही तुम्हारे गुरु बनेंगे। आवाज आयी समाधान मिल गया। मेरी माँ ने भी एक बार कहा था- जब तुम छोटे में कहीं खेल रही थीं, तब एक ज्योतिषी ने तुम्हारा हाथ देखकर कहा था कि यह बच्ची जो विश्वविख्यात गुरु होंगे, उनकी चेली बनेगी। मुझे ख्याल आ गया। सिहोरा नगर से मैं आने को अपनी बहिन से कहने लगी,कि मुझे अब नहीं रहना, मुझे तो पटेरा जाना है। बहुत दिन हो गये। मुझे आचार्य विद्यासागर जी के दर्शन करना, कैसे भी जिद करके वहाँ से आ गई। आते ही घर के लोगों ने भी सुनाया कि बहुत छोटे-छोटे महाराज हैं, वे बच्चों से आहार ले लेते हैं। सुनते ही आहार देने की भावना बन गई। मैं दूसरे दिन कुण्डलपुर गई, वहाँ मेरी माँ ने चौका लगाया। मुझे भी पड़गाहन करने के लिये खड़ा किया। माँ के चौके के बाजू में डॉ. शिखरचन्द हटा वाले भी पड़गाहन को खड़े हुये थे। आचार्य श्री जी शिखरचन्द्र जी के यहाँ अपनी विधि सम्पन्न करते हैं। मैं बड़ी आस लेकर खड़ी थी, कि पड़गाहन करूंगी और आहार भी दूँगी। वह न हो सका। मैं बहुत दु:खी हो गई। माँ ने कहा- बेटा, रोओ नहीं, हटा वाले डॉ. सा. के चौके में आहार दिलवा दूँगी। मैंने रोना बन्द कर दिया। चौका कुछ ऐसा था कि हमारे और उनके चौके में जाने का पीछे का दरवाजा एक ही था। (आपको ख्याल करा दूँ, कुण्डलपुर क्षेत्र के बड़े गेट के बाजू में छत 16-17 नम्बर सीढियाँ चढ़कर जाते थे।) वहाँ आचार्य श्री जी का आहार शुरू हो गया। मुझे आहार देने का प्रथम अवसर था। अत: मैं शुद्धि आदि को बहुत अच्छे तरीके से सीखकर आचार्यश्री जी के जहाँ आहार हो रहे थे, वहाँ जाकर खड़ी हो गयी। आचार्य श्री ने आष्टाह्विक पर्व में नियम लिया होगा, कि जिस चौके में पड़गाहन होगा, उसी चौके के सदस्यों से आहार लेंगे। उन्होंने मुझे दूसरे चौके का समझकर निषेध के लिए सिर हिला दिया। मैं जिस भाव से आयी थी, वह जब पूरा नहीं हो सकता तो चौके से निकल कर एक जगह बैठकर फूट-फूट कर तेजी से रोने लगी। मुझे रोते हुये देखकर मेरी माँ बोली- क्यों रो रही हो ? मैंने कहा- मुझे आहार देना थे। महाराज जी ने लेने से मना कर दिया। मेरा रोना देखकर माँ भी बहुत दु:खी हो गयी। उसने मेरी रोती आँखों पर जल डाला और पूरा मुँह धोया। मेरा हाथ पकड़ा कहने लगी- चलो मैं शिखरचन्द्र हटा वालों से कह देती हूँ, वे महाराज श्री से कह देंगे कि इस बेटी की आहार देने की भावना है। महाराज मान जायेंगे। फिर तुम आहार दे देना। चलो। मैं आहार देने के लिये पुन: चली गई। पहले से रोना तो भरा ही था। आचार्य श्री के पास मुझे उसी सूरत में खड़ा कर दिया। डॉ. सा. ने आचार्य श्री से कहा- ये बच्ची बड़े भाव लेकर आयी, इससे आहार ले लीजिये। आचार्य श्री जी ने सुनकर स्वीकारोक्ति दी। मैंने शुद्धि बोली, हिचकियों से अधिक गला भर गया। इस प्रकार की हिचकी लेते हुये शुद्धि को सुनकर आचार्य श्री अन्तराय करके बैठ गये। मैं सोचने लगी क्या हो गया ? मेरा दिमाग घूम गया। कुल्ला करके आचार्य श्री मन्दिर पहुँच गये। यहाँ हल्ला हो गया कि एक बच्ची जो आहार नहीं देना चाहती थी, उसकी माँ ने जबरदस्ती दिलाने की कोशिश की तो वह रोने लगी। जिससे आचार्यश्री को अन्तराय आ गया। यह झूठी अपवाह सारे क्षेत्र में पहुँच गई। मैं इस प्रकार सुनने के बाबजूद कुछ नहीं बोली। रोती हुई एक कमरे में जाकर एक कोने में सांझ तक बैठी रही। माँ के बार-बार कहने पर कि चलो भोजन कर लो। मैं इतनी दु:खी हो रही थी कि अन्तराय हुआ मेरे कारण। उसका दु:ख, दूसरा झूठी अपवाह फैल गई। यह जिंदगी का प्रथम उपवास था। मैंने उस दिन कुछ भी नहीं खाया-पिया। उपवास के विषय में मेरी धारणा थी कि अगर मैं एक दिन नहीं खाऊँगी तो मर जाऊँगी। लेकिन यह धारणा उस दिन से समाप्त हो गयी। दूसरे दिन मैंने अपनी माँ से कहा कि जब तक मैं बड़े महाराज को आहार नहीं ढूँगी तब तक कुछ भी नहीं खाऊँगी। मेरी माँ को इस बात की चिन्ता हो गई। वह फिर मुझे ऐसे चौके में ले गई जहाँ बड़े महाराज के आने की संभावना थी। पहले से मुझे चौके में खड़ा कर दिया। बड़े महाराज आ गये। कुण्डलपुर में रहने वाले त्यागी श्री भगवानदास जी लाहरी, बाबा जी ने मेरी भावना देखी कि बच्ची का नियम है कि भोजन तभी करेगी जब महाराज को आहार दे लेगी। उन्होंने मुझे आगे कर दिया। कहा- शुद्धिबोलो। मैंने ज्यों ही शुद्धि बोली, बड़े महाराज मुझे खुली आँखों से देखने लगे। में डरी हुई तो पहले से ही थी, लेकिन देखने से और डर गयी। डरते-डरते एक ग्रास आहार दिया। एक ग्रास आहार देने में मुझे इतनी खुशी हुई कि उसका वर्णन शब्दातीत है। कभी मैं बड़े महाराज (आचार्यश्री) की सारी क्रियायें देखती रहती। जब वे स्वयंभूस्तोत्र पढ़ते थे तब मैं दीवाल के पीछे लेठकर सुनती रहती। मैंने उनको परोक्ष रूप से गुरु स्वीकार लिया। घर में रहकर जब कभी कुछ अपने तन पर नये कपड़े डाले या कुछ श्रृंगार किया, सब कुछ निस्सारसा लगने लगता। यही अन्दर से भावना बनती कि महाराज से मुझे कुछ कहना है। बाद में कुण्डलपुर में आचार्य श्री बीमार हो गये। उनकी बीमारी सुनकर आँसुबह आये। उनके निकट किसी को जाने नहीं मिलता था। तभी से व्रत लेने सम्बन्धी विचार मेरे अन्दर ही अन्दर बनने लगे। इन महाराज जी को ही मुझे गुरु बनाना है। कुछ निमित्त नहीं मिल पा रहा था। कक्षा ग्यारहवीं में थी। सन् 1976 था। देवों द्वारा मुझे स्वप्न आया। बड़े बाबा की मूर्ति दिखती है, साथ में आवाज भी आ रही थी वह आवाज थी मेरे उपादान को जागृत करने की। जिसमें कहा जा रहा था- हे जीव, तुझे जीवन पर्यन्त बालब्रह्मचर्य व्रत लेना होगा। स्त्रीलिंग का छेद करना होगा। जो संत कुण्डलपुर में आये हैं, वह तुम्हारे गुरु बनेंगे। तुम्हारे घर से इस मार्ग पर चार सदस्य और निकलेंगे। बारह वर्ष में तेरी दीक्षा होगी। और भी कई बातें थी। मुझसे प्रश्न भी पूछा गया- गृहस्थी को तुम क्या मानती हो ? मेरा जबाव था- छोटा नरक । अच्छा, जो मैंने कहा- अभी किसी को जाहिर नहीं करना। 9 अगस्त को गुरु के पास जाकर ब्रह्मचर्य व्रत लेना। बारहव्रतों के पालन की प्रतिज्ञा भी लेना। स्वप्न बहुत लम्बा था। यहाँ संक्षिप्त में लिखा है। उस स्वप्न को मैंने अपनी कापी में उठते ही कमरे में जाकर लिख लिया था। लिखते वक्त इतनी खुशी हो रही थी कि जैसे आदमी को करोड़ों रूपये की सम्पति मिलने के उपरान्त होती होगी। मैं जब तब उस कापी को पढ़ती रहती। लेकिन किसी को न बताने व। प्रतिज्ञा थी। जब कार्य सफल हो जाये तभी बताना है। छिपाकर रख दिया। अन्दर-अन्दर मेरी तैयारी चल रही थी। ब्रह्मचर्यव्रत क्या होता है ? इसकी विस्तार से जानकारी चाहिये थी। व्रत आखिर क्या है ? मैंने जब भी किसी से पूछा तो इसका जबाव नहीं मिला। मैंने अपनी बड़ी माँ से पूछा, वे कहने लगी- अभी तुम छोटी हो, बड़े होने पर पता लग जायेगा। मेरी जिज्ञासा का समाधान किसी ने नहीं दिया। मैंने बहुत सारे शास्त्रों की सूची में ब्रह्मचर्यव्रत के विषय में खोजा। उससे भी मुझे यथेष्ट जानकारी नहीं मिली। यानी निराशा ही हाथ लगी। एक दिन उस जिज्ञासा का समाधान हुआ। जिस अलमारी में अपने इष्ट बड़े बाबा का काँच में जड़ा फोटो रखा था, जिनवाणी भी रखी थी। जिसमें समाधिमरण और बारहभावना लिखी थी। स्वाध्याय करने सम्बन्धी अन्य छोटी-बड़ी पुस्तकें भी रखीं थीं। मैंने बड़े बाबा की आरती करने के लिये जैसे ही अलमारी खोली, उसमें एक पुस्तक मुझे सामने ही रखी दिखी, जिसका नाम था 'ब्रह्मचर्य ही जीवन है" लेखक वामन। मैंने उस पुस्तक को हाथ में लिया। आगे-पीछे पलटकर देखा। उसमें मेरी ब्रह्मचर्य को जानने की जो जिज्ञासा थी उस सबका समाधान मिलने की गुंजाइस दिखी। उस पुस्तक को मैंने छिप-छिप कर पढ़ लिया। उसमें जीवन में वैराग्य को स्थिर करने सम्बन्धी बातें थी। उन सभी को मैंने अपनी कापी में लिख लिया। बड़े मनोयोग से मैंने वह पुस्तक पढ़ी। व्रत सम्बन्धी अब किसी से पूछने की जरूरत नहीं रह गयी। मेरा दिमाग वैराग्य से भर गया। किसी से बोलने में समय की बबादी जैसी लगने लगी। अन्दर ही अन्दर पुरुषार्थ जागने लगा मोक्षमार्ग पर कदम बढ़ाने का। एक दिन मैं मौन लेकर बैठी थी। मेरे मामा का बेटा यानी भाई ने कहा- पुष्पा तुम अब बोलती क्यों नहीं हो ? मैं कुछ दिन के लिए आया हूँ। मेरे मुख से निकल गया- मुझे ब्रह्मचर्यव्रत लेना है। इसलिए मैं मौन आदि की साधना कर रही हूँ। वह बोला- ब्रह्मचर्य व्रत क्या होता है ? मुझे बता दो मैं भी वह व्रत ले लूगा। मैंने कहा- मैं अपने मुँह से नहीं बता सकती। मैंने जो पुस्तक पढ़ी है, जिससे मैंने जानकारी प्राप्त की, उसको तुम भी पढ़कर जानकारी कर लो। वह बोला- अच्छा कहाँ है पुस्तक ? मैंने कहाअलमारी में रखी है। मैं लेकर आती हूँ। मैं अलमारी से पुस्तक निकालने गई, अलमारी खोली, किन्तु पुस्तक वहाँ नहीं मिली। सारी पुस्तकों को एक-एक करके देखा। इधर-उधर खोजा। लेकिन पुस्तक नहीं मिली। मैं खाली हाथ भाई के पास आकर कहती हूँ- पुस्तक नहीं है, पता नहीं कौन ले गया ? वह कहता-तुमने झूठ बोला। पुस्तक कौन ले जायेगा ? मैंने कहापुस्तक मैंने पढ़ी थी, उस पुस्तक से मैंने जो कापी में नोट किया था, उसको पढ़ा दिया। उसको विश्वास हो गया। लेकिन पुस्तक कहां गायब हो गयी, पता नहीं चला ? मुझे जानकारी दिलाने हेतु शायद किसी ने रखी हो। मुझे ऐसा आभास हुआ और जहाँ से लायी गई हो वहाँ पुन: रख दी गई हो। कापी में जो भी लिखा था, उसको मैं बार-बार पढ़ती थी। लेकिन छिपाकर पढ़ना होता था। समय आने वाला था, गुरुदर्शन का। लेकिन उसमें कुछ पुण्यक्षीण होगा। आचार्य श्री के पटेरा के प्रवचन से कुछ जागृति आयी, लेकिन कुछ सुनाई नहीं हो सकी, इस मार्ग पर आने की। पुन : सन् 1977 में मुझे गुरुदर्शन हुये। मैं वैराग्य बढ़ाती रही, पुण्य प्रबल हुआ। मुझे जीवनपर्यन्त व्रत मिला और दो प्रतिमा के व्रत भी। यही मेरा वैराग्य का क्रम रहा। मेरे व्रत लेने पर माँ बहुत दु:खी हुई। एक समय था जब माँ कहती थी कि तुझे इस मार्ग पर लगाऊँगी। लेकिन जब व्रत लिया तो मूर्चिछत हो गई। मुँह से झाग निकलने लगा। यह सभी ने देखा। मेरे व्रत लेते समय जितनी संख्या में लोग थे उन सभी ने देखा। कुछ दिन बाद मेरे माता-पिता ने आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत ले लिया। जब उन्होंने व्रत लिया तो आचार्यश्री बोले- बच्चों से नम्बर शुरू होता है। वे फिर इसी मार्ग में लग गये। माँ ने चौका लगाने में मन लगाया। अन्त में भावना बनायी, कि मैं भी आर्यिका बनूँगी। मेरे छोटे भाई ने कहा कि-जो मेरी पुष्पा बहिन ने व्रत लिया, वही मैं भी लूगा। उसने अपनी लौकिक पढ़ाई में ध्यान देना बन्द कर दिया। मेरी जैसी धर्मध्यानमय स्थिति बना ली। छठवी कक्षा में ही आचार्य श्री से ब्रह्मचर्य व्रत ले लिया, कुछ वर्षों का ही। समय निकला, वह पवन भाई आत्मिक विकास हेतु कभी आचार्य श्री के सानिध्य में रहे, तो कभी माँ के चौका लगाने में सहयोगी बने, तो कभी आचार्य पुष्पदन्तसागर जी के संघ में रहे। जो भी साधु मिले, उनके संघ में कुछ-कुछ दिनों रहे। इसके बाद मासोपवासी आचार्य पूज्य सन्मतिसागर जी महाराज से दीक्षा ले ली। नाम सिद्धान्तसागर जी पाया। कुछ दिनों बाद आचार्य पद पर आ गये। माँ उनके साथ रहने लगीं। इसके बाद माँ ने आर्यिका दीक्षा की भावना रखी। लेकिन घर के मोही अन्य बेटा-बेटियों ने क्षुल्लिका दीक्षा हेतु ही अनुमोदना की। क्षुल्लिका पद पर रहीं। जब कभी चातुर्मास पूर्ण करके मेरे पास आती रहीं। जब मैंने आचार्य श्री से सन् 1989 में दीक्षा ली, दोनों जगह धर्मध्यान में मन लगाती रहीं। जो उन्होंने पूर्वावस्था में लक्ष्य बनाया था, मुझे भी संस्कारित किया। इस महाराज पद के योग्य बेटे को भी बनाया। जीवन में किये पापों का प्रक्षालन किया। मुझे इस पद पर जब भी देखा, यही कहा- बड़ी माता जी बन गई हो, कोई अगर तुम्हारा कहना न माने, संक्लेश नहीं करना। घर छोड़ा है। अपना कल्याण करना। यह वाक्यावली बोलकर मुझे क्रोध या संक्लेश करने की स्थिति-परिस्थिति से बचाव करती रहीं। जिससे मेरा हमेशा परिणाम शुभ में बना रहा। मेरी सहयोगी, संघ में आकर बनती रहीं। मुझे उन्होंने कभी अहंकारी नहीं बनने दिया। स्वयं मेरी वन्दामि तीन-तीन बार झुककर करती रहीं। मन्दिर में बैठना या किसी कमरे में तो पूँछकर जाती थी। जरा-सी बात में क्षमा माँगती रहती थीं। एक माँ जिन्होंने मुझे पाला-पोषा हो, साज-सँभाल की हो, वही मेरे आर्यिका बनने पर विनय करती रहीं। मुझसे पूर्ण भगवती-आराधना सुनी। पूछती थी- समाधि कैसे की जाती है ? में कहती- देखो, क्षुल्लिका जी, जब तुम अपनी समाधि करो, तब किसी अन्य से पद्य में गा-गाकर बारहभावना, समाधिमरणपाठ नहीं सुनना। शरीर शिथिल बन रहा है। क्या समझ पाओगी ? अत: गद्य में सुनना। अर्थ सुनना। वैराग्यवर्धक सम्बोधन सुनना। जब समाधि का समय आया तो भक्तों ने वैराग्य भावना, बारहभावना सुनाना शुरू की तो स्वयं भी कहती थी- हे जीव, ऐसा कहकर सम्बोधन कर, अर्थ सुनाओ। गाकर नहीं। उनको उस समय संस्कार ध्यान रहे। मैं ग्वालियर चातुर्मास में थी। वे दिल्ली में थीं। वहाँ से क्षमा माँगी, जब कभी संघ में आती रही, मैंने वहाँ जो भी गलती की हो, तुम्हारी अविनय की हो, क्षमा करना। शब्दों से लगा कि वास्तव में वह कोई विशेष आत्मा थी। संघ में सभी से कह दिया कि आप सभी आहार को आज जल्दी निकल जाओ। उनके कहने पर सभी संघस्थ मुनि, आहारचर्या को निकल गये। सभी आहार करके आ गये। पूँछ लिया- सबके आहार ठीक हो गये ? कुछ समय व्यतीत हुआ, देहस्थ आत्मा निकल गई। यह है मेरी माँ का संक्षिप्त चित्रण। जिन्होंने पूर्व में संकल्प लिया था कि जो मेरा बेटा या बेटी होगी उसे मोक्षमार्ग में लगाऊँगी। और स्वयं मैं लग जाऊँगी। यह सब उन्होंने करके दिखाया। में ऐसी माँ को पाकर धन्य हो गई। जिन्होंने मुझे जिनवाणी माँ की आवाज सुनने, पढ़ने तथा उसकी प्रभावना करने का मौका दिया। जो जिनवाणी बड़ी आनन्ददायी है, सदगति कराने वाली है। संसार की भूलभुलैयों से बचाने वाली है। ऐसी जिनवाणी माँ, एवं सच्चे गुरु विश्वविख्यात दिगम्बराचार्य को पाकर धन्य हो गई। जैसा मैंने माँ का सरल स्वभाव पाया और उनकी शिक्षायें पायीं, मन भी वैसा बन गया। क्या करना, किसी की गलतियों को देखकर, कौन होते हैं हम, किसी को समझाने के काबिल ? तीर्थकरों ने अपनी दिव्यदेशना से जीवों को नहीं सुधार पाया, जिसकी उपादान में योग्यता नहीं, उनका मैं क्या सुधार कर पाऊँगी ? योग्यता हो तो तीसरे नरक तक जाकर भी देव-नारकियों को सम्बोधन कर देते हैं। वे जीव अपने परिणामों में सरलता लाने लग जाते हैं। जिनका उपादान कठोर है, उनको इस मध्यलोक में रहकर, समझाकर, ठिकाने नहीं ला सकते। गुरु भी अपने शिष्यों को नहीं ला पाते। तो मैं फिर किस खेत की मूली हूँ? माँ ने जो भी मुझे समझाया, बड़े-बड़े आगम का सार संक्षेप सूत्र रूप था। उपकारी बड़े बाबा के भक्त देव, उपकारी मेरी माँ, उपकारी मेरे रत्नत्रय प्रदान करने वाले गुरु, उपकारी समाज, जो रत्नत्रय को पालन करने में सहयोगी बना। सभी कारण तभी पूर्ण होगा जब मैं अपनी समाधि शान्त परिणामों से करूंगी।
  15. सन् 2006 में सभी संघ कुण्डलपुर में इकट्ठा हुआ। उस समय मैं धीमी-धीमी चाल से चलकर आ रही थी। आचार्य श्री ज्ञान साधना केन्द्र में सिंहासन पर बैठे हुये थे। आचार्य भक्ति का समय हो गया था। सभी साधक बैठ चुके थे। जैसा भी हो आचार्य श्री ने मुझे कब धीमी चाल से चलता देख लिया, और मैं दीवाल के सहारे टिककर बैठ गई। यह सब गुरुदृष्टि में आ गया। आचार्यभक्ति के बाद कुछ आर्यिकायें उठ गई, कुछ बैठी थी। साधु निकल गये थे। आचार्य श्री कहने लगे- प्रशान्तमती कैसे चलती है? और कैसे बैठती है? क्यों ? मैंने यह बात सुन ली, मैं गुरु के निकट आकर बैठ गई, वह पुन: बोले- क्यों केसे चलती हो ? मैंने पहले इसका जबाव कुछ नहीं दिया। आँखों में आँसु भर आये, उसी आँसु भरी आवाज में कहा- आचार्य श्री, मुझे अशुद्धि सहन नहीं होती। अगर कोई भी मुझे स्पर्श कर लेता है तो कदम भारी हो जाते हैं। ऐसा लगने लग जाता है कि जैसे किसी ने लोहे की बेड़िया पहना दीं हो। सो मेरी चाल धीमी हो जाती है। चलते नहीं बनता। जैसे ही आचार्य श्री ने मेरे उदगार सुने, सभी आर्यिकाओं की तरफ हाथ से इशारा करते हुये कहा इसको कोई मत छुआ करो, इसको स्पर्शजन्यबाधा है। आचार्य श्री ने जैसे ही कहा, सभी आर्यिकायें भी कहने लगीं- इनको मत छुओ। कुछ ठीक से, कुछ व्यंग्य से। जो भी हो, इस पर रोक लग गई। मेरी चाल सही हो गई। यह आचार्य श्री ने कहकर उपचार करा दिया। वैसे जब मैं अकेली रहती या नगर या गाँव में होती तब सभी जानते हैं कि इनको स्पर्श नहीं करना। मैं स्वस्थ रहती हूँ। इसका फिर विकल्प नहीं होता। साधर्मी के बीच कठिन होता है। उनको आश्चर्य होता- मैंने जब दीक्षा ली, महिलाओं ने पैर स्पर्श किये, पैर वजनदार से हो गये। एक बालाघाट का ज्योतिषी, वह वैद्य भी था, उन्होंने मुझे देखकर कहा- महिलास्पर्श बन्द करो, ठीक हो जायेगा। ऐसा मैंने उपचार कर लिया था, लेकिन आचार्य श्री को नहीं बताया था। लेकिन अनकहे ही उन्होंने मेरी कमजोर चाल को देखकर स्वयं समझ लिया एवं साधर्मीजन के बीच का उपचार करवा दिया था। धन्य है गुरुराज ! प्रारम्भिक अवस्था से लेकर अभी तक चाहे मानसिक हो, सभी में मेरा सहयोग किया। एक बीज जब माली बगीचे में डालता है, उसकी वह किस प्रकार समय-समय पर देखभाल करता है, फिर वह अपनी मेहनत का फल देखता है, कि एक बीज में कितनी ताकत थी। जो बड़ा वृक्ष बन गया। माली देख-देखकर खुश होता है। मेरी मेहनत का फल आज दिखाई दिया। लेकिन यह मोक्षमार्ग है। गुरु से मेरी आत्मा को अन्दर से उपदेश-प्रवचन की कुछ पंक्तियाँ मिली थीं, उन पंक्तियों से मेरी आत्मा में पुरुषार्थ जागृत हुआ। समय-समय पर मुझे मोक्षमार्ग की भी शिक्षा देते रहे। अज्ञानी आत्मा को बोध के साथ बोधि की प्राप्ति कराने में कारण बनते रहे। प्रत्येक विषय का समाधान मेरी बुद्धि के अनुसार देते रहे, जिससे आज में बहुत खुश हूँ। गुरु मेरे तन से दूर भले हों, लेकिन मन हमेशा गुरु के पास रहता है। रोज स्वप्न में गुरुदर्शन और कुछ चर्चाओं के साथ निद्रा पूर्ण होती है। मैं खुशनसीब हूँ, ऐसे विश्वविख्यात गुरु का मुझे सान्निध्य मिला। बड़े बाबा के भक्त देवों ने स्वप्न देकर उपकार किया। वह मेरे लिये निमित्त बने, जिससे यह आत्मा जैन सिद्धान्त तथा गुरुज्ञान के रहस्य को समझ सकी। एक बार आचार्य श्री हम सभी के बीच बैठे हुए थे। आगम-सिद्धान्त की बातें बताते हुये बोले- तुम सभी जैनसिद्धान्त को समझ रहे हो, सौभाग्य है। तुम सभी अपना ज्ञान सभी को देना, कोई भी अज्ञान अन्धकार में न रहे। गुरुमुख से इस प्रकार के वाक्य सुने, तो लगा कि जैसे तीर्थकर प्रकृति के बंध के लिये इस प्रकार की भावना करनी होती है कि सबका भला हो, वैसे ही आज गुरुदेव कह रहे हैं कि सभी को ज्ञान मिले। अज्ञानान्धकार में कोई न रहे। धन्य हैं गुरुदेव ! आपका कर्तृत्व व व्यक्तित्व, जो सदा दुनिया में अजर-अमर रहे।
  16. एक बार मैं आहार जी क्षेत्र में ग्रीष्मकाल के समय बाबूलाल आहार वालों (दरबारीलाल कोठिया बीना वाले के शिष्य) से अष्टसहस्री का अध्ययन कर रही थी। मेरी प्रवृत्ति ही ऐसी रही कि जो जब कभी चाहे, ज्योतिष का विद्वान मिले, चाहे न्यायशास्त्र का, सिद्धद्वान्त का, वैद्य-आयुर्वेद का, संस्कृत का, किसी भी विधा का जानकार हो, मैं उनकी विद्या हासिल करने की हमेशा कोशिश करती रही। ऐसी प्रवृत्ति को देखकर एक ब्रह्मचारिणी बहिन को देखा नहीं गया। उसने जाकर उन आर्यिका जी को कहा, जो इसको अच्छा नहीं मानती थी। एक बार बहुत सारी आर्यिकायें आचार्य श्री के पास बैठकर चर्चा कर रही थीं कि आर्यिका बनकर असंयमी गृहस्थ पण्डित से अध्ययन नहीं करना चाहिये। इसमें रोक लगाना चाहिये। आचार्य श्री बोले- कौन है जो अध्ययन करता है ? सभी आर्थिकायें बोली- हम नहीं करते, हम नहीं करते। मेरी तरफ सभी देख रही थीं। नाम नहीं ले पा रही थीं। मैं इस बात को समझ रही थी, कि यह मेरी शिकायत चल रही है। मैंने आचार्य श्री से कहा- यह बात अध्ययन सम्बन्धी मुझे गले नहीं उतरती। आचार्य श्री मुस्कुराते हुये नासाग्रदूष्टि करके बैठे थे। फिर मेरी तरफ निगाह करके कहते हैं- अच्छा यह बात तुम्हें गले नहीं उतरती। अच्छा ऐसा करना, जब तुम्हें यह बात गले उतर जाये, तब छोड़ देना। मैं सुनकर खुश हो गई। शिकायत करने वालों ने शिकायत करके खुशी मना लीं। मुझ पर गुरुकृपा बरस गई। मेरी सोच को सम्बल मिला। अगर इन विद्वानों का ज्ञान नहीं लेंगे तो इनका ज्ञान समाधिस्थ होने पर इनके साथ चला जायेगा। वर्षों का अनुभव है, अगर इनसे अध्ययन कर लेंगे तो परम्परा चलाने में ज्ञान कारण बन जायेगा। भले व्यक्ति असंयमी हो, ज्ञान तो उसका पूज्य है, जिनवाणी का है, जो पढ़ाने वाला है, वह स्वयं स्वीकार कर रहा है कि मैं व्रती नहीं हूँ। वह बहुमान के साथ ज्ञान दे रहा है। इसमें कौन सा हर्ज ? न्यायशास्त्र आदि विषयों का अध्ययन करने से ज्ञान की महिमा समझ में आयेगी। और दूसरों को भी महिमा बताने में कारण बन सकेगी। अनुभवी आचार्य श्री मेरी मन की बातों को शायद समझ रहे थे, इसीलिए मुझे कुछ नहीं कहा। मैंने बोला- छोड़ दूंगी, लेकिन अभी तक नहीं छोड़ पायी।
  17. सन् 1989 की बात है। आचार्य श्री जी से मैंने मोक्षसप्तमी का | उपवास करने के लिये कहा। वे कहने लगे- आज का उपवास करोगी, कल अष्टमी के दिन आहार करोगी ? मैंने कहा- आपसे मैंने ब्रह्मचारिणी अवस्था में लिया था, इसलिये वह करती हूँ, और आगे भी करना है। आचार्य श्री बोले- वह मैंने ही दिया था। अब मैं ही कह रहा हूँ, अष्टमी का उपवास कर लेना। वह उस ब्रह्मचारिणी अवस्था के थे, अब आर्यिका बन गई हो। सब इसी में हो जाते हैं। इसी तरह त्रिलोकतीज, पंचकल्याणक आदि जो भी व्रत, उपवास थे करने को मना कर दिया। ? लेकिन कुछ रहस्य इसमें हो सकता है। मुझे तो गुरुमहिमा समझ में आती है। किसी को कहते हैं। उपवास करना चाहिये। उपवास की अच्छी साधना करनी चाहिए। मुझे हमेशा यही कहा- सब तो त्याग है। एक बार आहार लो, धर्म की प्रभावना करो, अध्ययन करो, कराओ।
  18. आचार्य श्री से मुझे हमेशा चारित्र उज्ज्वल बनाने वाले सूत्र तथा नियम मिलते रहे। एक बार मैंने और कई बहिनों ने उपवास करने की भावना व्यक्त की। दो-तीन आर्यिकाओं को उपवास के लिये आशीर्वाद दे दिया। मेरा नम्बर आया तो आचार्य श्री बोले-ऊनोदर कर लेना। मैंने कहा- आचार्य श्री उपवास करने की भावना बनाकर आई थी। आपने ऊनोदर के लिये कह दिया। आचार्य श्री बोले- यह तो उपवास से कठिन होता है। गुरुमुख से जो निकल जाये सो उत्तम। भावना यहाँ शिष्य की नहीं, गुरु की चलती है। बड़ा कठिन समय होता है। उस समय समझ में आया कि आचार्य परमेष्ठी के सामने भावना तो रख दी, लेकिन उनको शिष्य के अन्दर की क्षमता जैसी दिखेगी, वैसा समझकर करने का आदेश करते हैं। एक बार कुण्डलपुर में सभी त्यागीवृन्द हरी सब्जियों का त्याग करके प्रमाण कर रहे थे। आचार्य श्री ने सभी हरी सब्जियाँ छोड़ दी थीं। हम लोगों की ऐसी भावना थी कि आचार्य श्री नहीं त्यागते। समस्त संघ मुनि, आर्यिका, बहिनों ने इसी उपलक्ष्य में छोडने का विचार बनाया था। हमारी भावना थी जब हम छोडने का विकल्प रखेंगे तो आचार्य श्री सभी पर करुणा करके कुछ हरी सब्जियाँ लेने लगेंगे। अब क्या था ? जो भी आचार्य श्री के पास जाकर कहता कि आपने हरी सब्जियों का त्याग क्यों कर दिया ? आप नहीं लेंगे तो हम भी नहीं लेंगे। आचार्य श्री ऐसा सुनते और मुस्कुराकर आशीर्वाद दे देते। कुछ आर्यिकायें कहतीं- हम तीन हरी लेंगे और अपनी क्षमता से गिना देतीं। सभी को आशीर्वाद मिलता रहा त्यागने का। लेकिन आचार्य श्री अपने नियम के प्रतिदृढ़ संकल्पित रहे। आचार्य श्री ने त्याग किया, लेकिन शिष्यों पर करुणा नहीं बहायी। मैंने भी संकल्प के बावत कहा तो बोले-कितनी हरी लेती हो ? मैंने कहा- पाँच हरी का संकल्प है। आचार्य श्री सुनकर कहते हैं- मेरी तरफ से दो और बढ़ा लो। सुनकर मुझे हँसी आ गई। मैंने कहा- कुछ कम करने आयी थी, आपने दो और बढ़ा दीं। आचार्य श्री बोले- यह पराधीन चयां है। जरा-जरा में हरी हो जाती हैं। जाओ। गुरुमुख से सुनकर आश्चर्य हुआ कि मुझे अकेले ऐसा नियम क्यों दिया ? चार-पाँच दिन बाद मैं नमोऽस्तु करने पहुँची, कक्ष में बहुत सारी आर्यिकायें कुछ-कुछ नियम ले रही थीं। मैंने नियम लेने सम्बन्धी भाव नहीं बनाये थे। मेरी तरफ देखकर आचार्य श्री बोले- तुम बारहमाह से सम्बन्धित रसी का पालन करना। एक माह में यह नहीं खाना, ऐसा एक रसी सम्बन्धी लाइनें सुना दीं चौथे गुड वैशाखे तेल, जेट मे महुआ आषाडे बेल, सावन दूध न भादो मही, क्वार करेला कार्तिक दही। अगहन जीरा पूष धना,माघ में मिश्री फाल्गुन चना, इनका परहेज करें नहीं मरे नहीं, तो पड़े सही। मैंने कहा- इसमें कुछ ऐसी रसी हैं कि त्याग की जरूरत नहीं। आचार्य श्री हँसते हुये कहते हैं- जिनका त्याग नहीं है,उनका पालन करना। स्वास्थ्य ठीक रहेगा। गुरुकृपा ऐसी हुई कि मुझे कभी-कभी ब्लडप्रेशर की शिकायत बन जाती थी, लेकिन जब से रसी सम्बन्धी गुरुकृपा हुई वह शिकायत खत्म हो गई। और जैसे रसी पालने सम्बन्धी माह आते हैं, तो विशुद्धि बढ़ने लगती है। जीवन में कुछ अनुष्ठान कर रही हूँ, ऐसा लगने लगता है। यह है शिष्यों की योग्यता देखकर त्याग कराने की कला। यह सच है कि जिंदगी में जो मैंने स्वेच्छा से त्याग करना चाहा, वह मुझे नहीं मिला। गुरु ने जो सोचा वह ही त्याग किया। इसलिये मन पूर्ण गुरु पर समर्पित हो गया। मैंने अपनी जिंदगी में इस प्रकार का अनुभव किया है। सिद्धवरक्कूट में जिन आर्यिकाओं के कमण्डलु ठीक नहीं थे उनका कमण्डलुओं का परिवर्तन हो रहा था। और आचार्य श्री अपने कर-कमलों से उन्हें दे रहे थे। सभी का आग्रह था, गुरु जी से कि आपके हाथ से ही लेंगे। सभी को आचार्य श्री कमण्डलु देते जा रहे थे और कह रहे थे कि उपकरण बदलने में एक उपवास कर लेना। सभी कमण्डलु लेतीं और एक उपवास का कायोत्सर्ग करतीं। मेरा नम्बर आया, किसी ने कहा- आचार्य श्री प्रशान्तमती जी का कमण्डलु फेबीकाल से जुड़ा है, उनका भी बदलवा दो। मैंने कहा- आचार्य श्री ठीक है, जुड़वा लिया था, पानी नहीं निकलता, अच्छा है। आचार्य श्री बोले- जोड़ वाला अच्छा नहीं माना जाता। फाड़बर का छोटा सा सुन्दर कमण्डलु हाथ में लेकर यूँ बताते हुये बोले- ये बहुत हल्का है, अधिक वजन नहीं है। ये ले लो अच्छा रहेगा। गुरुस्नेह पाकर मैंने अपने हाथों में ले लिया, उपवास के बारे में कहा तो कहने लगे-उपवास रहने दो, तुम कहाँ ले रही थीं, मैंने दिया है। जब सभी आर्यिकायें मिलीं, सब कहने लगीं- हमें कमण्डल दिया था आचार्य श्री ने, तो एक उपवास भी दिया। तुम्हें उपवास क्यों नहीं दिया। मैंने कहा- पता नहीं क्यों नहीं दिया ? गुरु ने मेरे अन्दर उपवास करने सम्बन्धी क्षमता नहीं देखी होगी। तो नहीं दिया। यह सारी योग्यता अयोग्यता देखकर ही आचार्यश्री देते हैं। यही आचार्यों की कुशलता मानी जाती है।
  19. तेन्दूखेड़ा के चातुर्मास सन् 2004 की बात है। वहाँ पर मेरे पास एक छोटा सा बालक लाया गया। जो सिर्फ पन्द्रह दिन का था। उसको जन्म के समय से बीमारी थी कि वह माँ का या किसी का दूध नहीं पीता था। न वह रोता था। न लघुशंका, न दीर्घशंका करता था। डाक्टर ने कहा- यह तुम्हारा बेटा मेहमान जैसा है। इसकी अब जितनी सेवा करना हो, कर लो। यह बचेगा नहीं। उसकी दादी उसे मेरे पास लेकर आई। बेटे के बारे में अपनी व्यथा-कथा बतायी। बड़ी मुश्किल से हुआ आदि बातें की। मेरे पास उसको लिटा दिया। डाक्टर ने जो कहा था, सुनाने लगीं। मुझे बेटे को देखकर करुणा हो आई। मैंने कहा- वह कुछ पीता नहीं है ? बोली- हाँ, नहीं पीता। पास में कमण्डलु था, मैंने अंगूठे में पानी भरकर उसके मुँह में डालना शुरू किया, वह बहुत ही जल्दी-जल्दी पीने लग गया। एक दो पिच्छी उसके ऊपर दे दी, वह रोने लगा। घर जाकर मलमूत्र भी कर लिया। वह बच्चा जो नहीं करता था, सब करने लग गया। मैं जानती थी कि आर्यिकावेश में बालक के मुख में पानी आदि नहीं डालना चाहिये। मूलाचार की बातें थीं। लेकिन उस बालक को देखकर मुझे डतनी करुणा आयी कि वह सब ध्यान ही नहीं रहा। बालक की विशेषता थी वह मेरे अंगूठे से गिरी पानी की बूंद पीता था। ऐसा मैंने सात-आठ दिन तक किया। बाद में विहार करना था। कर लिया,गुरु आदेश जो था। कुण्डलपुर में बड़े बाबा का मस्तकाभिषेक होना था, तब मैं पहुँची, आचार्य श्री से प्रायश्चित लिया। उसमें यह भी बात बतायी कि आचार्य श्री मैं यह जानती थी कि इस प्रकार आर्यिका को क्रिया नहीं करना चाहिये लेकिन मैंने ऐसा किया इसका प्रायश्चित दीजिये। आचार्य श्री पहले तो सुनकर मुस्कुराते रहे, बाद में गम्भीर मुद्रा में बोले- ऐसा करना नहीं चाहिये। अब कर लिया, लेकिन आइंदा से ऐसा नहीं करना। नहीं तो फिर भीड़ लग जायेगी। मैंने कहा- समस्या ही ऐसी आ गई थी। आचार्य श्री बोले- समस्या आती है, तभी तो करना पड़ता है। लेकिन यह ठीक नहीं माना जाता है। ऐसा कहा। लेकिन प्रायश्चित कुछ भी नहीं दिया। मैंने इसे बाद में गहराई से चिन्तन किया, कि अगर शिष्य-शिष्याओं पर गुरु रोक न लगायें और ऐसा करने पर प्रोत्साहन देने लग जायें तो वह अपना कर्तव्यभूलकर इस प्रकार के कार्य में लग जायेंगे। उनकी रुचि फिर मन्त्र, तन्त्र, सीखने में भी होने लग जायेगी। ऐसा कहना उचित था। लेकिन जब बाद में, मैंने उस बालक को बड़े रूप में देखा तो खुश हो गई कि उसको जीवनदान मिल गया। जीवन पाने में शायद मेरा निमित्त रहा हो।
  20. एक बार हम सभी आर्यिकायें आचार्य श्री से सिवनी में मिले। करीब छह-सात दिन, संघ सम्बन्धी तरह-तरह की बातें कीं। संघस्थ आर्यिका पूर्णमती ने कहा- आचार्य श्री हम सब नदियाँ हैं, जो कचरा लाते हैं, और आपको सुनाने लग जाते हैं। आचार्य श्री मुस्कुराते हुये कहते हैं- मैं सागर हूँ, सब कचरा किनारे लगा देता हूँ। आचार्य श्री का सटीक जबाव सुनकर हम सब प्रसन्न हो गये। सोचने लगे कि आचार्य श्री सागर की तरह गम्भीर होते हैं। उन्हें सभी शिष्यों की बातें सुनना पड़ती हैं तथा उन्हें समझाड़स के माध्यम से यथायोग्य स्थिति बनाना भी पड़ती है। आचार्य पद सामान्य नहीं होता। यह पद सभी के बस का भी नहीं होता। एक बार आचार्य श्री को दो आर्यिका सिद्धान्तमती एवं पुराणमती को संघ में भेजना था। तो क्या कहते हैं- संचालिका मणिबाई जी से, जाओ प्रशान्तमती से पूछ लो वह संघ में रख लेगी। मैंने मणिबाई जी के मुख से आचार्यश्री के द्वारा कहे गये शब्दों को सुना तो आश्चर्य में पड़ गई कि यह आचार्य श्री क्या बोल रहे हैं? मैंने कहा- बाई जी, आचार्य श्री से कह देना यह संघ तो आपका ही है, मुझसे पूछने की जरूरत ही नहीं है। बस आज्ञा ही पर्याप्त है। इन शब्दों से आचार्य श्री की महानता झलकती है। जिन्होंने मुझे पथ दिखाया, योग्य बनाया, आज वही पूछ रहे हैं कि रख लोगी कि नहीं? एक बार हम अनेक बहिनें दीक्षा के योग्य हो गई, संभालने वाला कोर्ड नहीं था। तब आचार्य श्री के मन में विकल्प आया कि संघ में से आर्यिका अनन्तमती को बड़ा बना दिया जाये। मेरे पास शाहगढ़ के चातुर्मास में संदेशा आया कि उसको कह देना बड़े बनने की प्रक्रिया अनन्तमती को दे। गुरु आदेश पाकर मैं अनन्तमती को बार-बार कहती, देखो ऐसा करो, तुम्हें बड़ी आर्यिका बनना है। सिद्धवरकृष्ट में पहुँचे। सभी आर्यिकायें थीं। वहाँ आचार्य श्री भी विराजमान थे। बहिनों की दीक्षा की चर्चा चल रही थी। ठीक तरीके से निर्णय नहीं हो पा रहा था। आचार्य श्री बोले- देखो, मैंने सोचा था अनन्तमती को बड़ा बनाना, लेकिन यह संभाल नहीं पायेगी। रुग्ण सी रहती है। सोमणिबाई जी को मेरे पास भेजा। वह कहने लगीं- आचार्य श्री ने तुम्हें बुलाया है। मैं आचार्य श्री के निकट पहुँची और नमोऽस्तु किया। आचार्य श्री बोले- मैंने पहले अनन्तमती के बारे में सोचा था, पर लगता है वह संघ नहीं संभाल पायेगी। विमलमती, निर्मलमती, शुक्लमती को भी ले लेता हूँ। चारों मिलकर संघ संभाल लेंगी। क्यों ले लू? मैंने कहा- आपको जो उचित लगे, आप वैसा कर दीजिये, आपका ही संघ है। लेकिन आचार्य श्री में दो आर्यिकाओं को और देना चाहूँगी। क्योंकि वे हमेशा इन लोगों के साथ रहीं हैं। किसी का किसी से वियोग नहीं कराना मुझे। आचार्यश्री बोले- कौन? मैंने कहा- अतुलमती और निर्वेगमती। आचार्य श्री ने आशीर्वाद दिया। बात समाप्त होने पर मैं कक्ष से बाहर आ गई। यह सारी वार्ता सुनकर सभी बहिनें बोल पड़ी- अरे,माताजी तुम्हें ऐसा नहीं करना चाहिये था। आचार्य श्री ने तुम्हारे संघ को मढिया जी में अलग आर्यिकायें लेकर पूर्णमती का संघ बनाया था। अब फिर लेकर एक और बना दिया, तुम कुछ नहीं कहती। आर्यिकायें देती जाती हो। यह सारी सोच, मुझे समर्पित होने की बात पढ़ाने वाली नहीं थी, बुद्धि की बातें समझाने की थी। बुद्धिऐसी ही होती है। जो हमेशा कहती है- आचार्य श्री को ऐसा नहीं करना चाहिए था। शव का जिस प्रकार डाक्टर पोस्टमार्टम कर देते हैं, उसी प्रकार बुद्धि प्रत्येक परिस्थिति का उपकारी क व्यवहार का, उपकारी क प्रत्येक वचन का, बस पोस्टमाटम ही किया करती है। किसी ने आखिरकार आचार्य श्री के पास अपनी कुटिल बुद्धि का प्रयोग कर ही दिया। आचार्य श्री कम से कम प्रशान्तमती के पास एक पुरानी आर्यिका तो रहने दो। आचार्य श्री बोले- अब मैं तीनों की संयोजना नहीं बिगाड़ेंगा। प्रशान्तमती को अब आवश्यक नहीं है, वह सब सँभाल लेगी। वह अकेली पर्याप्त है। इस प्रकार जब मैंने सुना, कि आचार्य श्री कह रहे हैं- उसको किसी आर्यिका की जरूरत नहीं है, वह पर्याप्त है। मेरे अन्दर विचार आया कि आचार्य श्री ने ऐसा सोचा है तो मेरे अन्दर क्षमता हो सकती है। मैं अपने अन्दर बैठी क्षमता को प्रकट करूंगी। जब इस आत्मा में परमात्मा को प्रकट करने की शक्ति हो सकती है तब इस प्रकार संघ एवं समाज और स्वयं के आर्यिकाव्रतों को सँभालने की ताकत क्यों नहीं होगी ? मैंने जब इस प्रकार पुरुषार्थ किया है तो आज मैं सोचती हूँकि गुरुकृपा से धर्मप्रभावना के लिये तीन बार स्वयं स्वाध्याय करवा प्रभावना करना हँसी-खेल नहीं है। जनता के सामने जिनवाणी की बात रखी जाती है, जिससे श्रोता का वैराग्य बढ़े। संयम की भावना बने, तत्व का रहस्य समझ में आये। वह आगम सम्मत भी हो। कहानी, शेर-शायरी, हँसी-मजाक सम्बन्धी कुछ भी बातें सुनाकर घण्टेभर प्रवचन की पूर्ति नहीं करना। ऐसी चर्चा नहीं करनी पड़ती है कि जिससे साधु व समाज में विभाजन-विवाद हों। हमारे आचार्य श्री ने शायद प्रारम्भिक भूमिका से, मेरे लिये आचार्यप्रणीत ग्रन्थ पढ़ने को हमेशा प्रोत्साहित किया। उन्होंने गुरूणां गुरु आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज का एक संस्मरण सुनाया था। आचार्य ज्ञानसागर जी हमेशा शास्त्र को लेकर ही प्रवचन करते थे। मुझे यह बात हृदय तक छू गई। कि जब शास्त्र को पढ़कर उसी के अनुसार समझाया जायेगा तभी आगम का रहस्य सामने आयेगा। जिसकी जैसी भूमिका हो, वैसा ही स्वाध्याय कराना। श्रावक को श्रावक के अनुरूप ज्ञान देकर, योग्य बनाना। बिना किसी तामझाम के। इतनी सारी बातें मस्तिष्क में भर गई। आचार्य श्री ने जो कहा था वह सच निकला। मैं उनकी भावना तथा उनके आशीर्वाद से कभी दूसरे की आकांक्षा नहीं कर पायी। वह शक्ति मेरे अन्दर प्रकट हो गई। यह गुरुकृपा, उन्होंने जो जाना-समझा होगा, वही मैंने अन्दर पाया। गुरु अन्तर्यामी होते हैं। उनके कारण आज मैं जिनवाणी के सतत् स्वाध्याय में मन लगाती रहती हूँ।
  21. एक बार कुण्डलपुर में बड़े बाबा का महामस्तकाभिषेक होना था। उस समय मुझे फिर स्वप्न में आवाज आई कि आज सुबह आचार्य श्री से जाकर कहना- मुझे कुछ त्याग करवा दो। मैंने आचार्य श्री के पास जाकर हू-बहूऐसे ही वाक्य बोल दिया। आचार्य श्री ने वाक्य सुना तो बोले- क्या कुछ स्वप्न आ गया ? बहुत स्वप्न आते हैं। मैंने कहा- हाँ, आचार्य श्री स्वप्न आया है, कुछ त्याग करा दीजिये। जो भी आपके मुख से निकल जायेगा, वही त्याग रहेगा जीवन पर्यन्त। आचार्य श्री कहते हैं- जामफल का और केले का त्याग कर दी। मैं जैसे ही कायोत्सर्ग करने को उद्यत हुई कि अचानक से बोलेदेखो, कच्चे केले नहीं खाना, पक्का खाने का विकल्प रख लो। कभी जरूरत हो जाती है। इस प्रकार से आचार्यश्री ने मुझे नियम देकर, मेरे स्वप्न को साकार बना दिया। नियम पाकर मैं बहुत खुश हो गई। इसी तरह एक बार मेरा स्वास्थ्य जब मैं दलपतपुर में ग्रीष्मकालीन कर रही थी, गुरु आदेश से। आचार्य श्री सागर में थे। दो मई को भाग्योदय का शिलान्यास होना था। मुझे जब कभी धूल लगती या धूप से छाया में आती तो बड़े-बड़े शरीर में लाल चिड़े हो जाया करते थे। डाक्टर वैद्य ने इसे धूल की एलर्जी बता दी, और कुछ-कुछ खाने का परहेज बताया। मैंने उसी के अनुसार अपना भोजन बना लिया। करीब तीन वर्ष हो गये, धूल वाली पुस्तक भी नहीं छू पाती थी। आचार्य श्री सिद्धवरकुट में मिले। संघस्थ आर्यिकाओं ने मेरी | इस प्रकार शारीरिक अस्वस्थता के बारे में कहा कि माता जी परहेज-परहेज करने में लगी रहती हैं। कुछ लेती ही नहीं हैं। इससे कमजोरी आ रही हैदिनों-दिन। आचार्य श्री बोले- क्यों कुछ नहीं लेती हो ? मैंने कहा- जैसे श्रावक थाली दिखाते, मेरा हाथ सभी वस्तुओं को हटाने के लिये संकेत करने लग जाता है। सब्जी, दाल, रोटी सिर्फ नहीं उठवाती हूँ। आचार्य श्री बोले- ऐसा क्यों करती हो ? मैंने कहा- पता नहीं, अपने आप ऐसा होता है। आचार्य श्री बोले- तुम्हें अपना स्वास्थ्य ठीक करना है तो ऐसा करना तुम सामग्री उठाने के लिये कहो, और श्रावक यदि कहें कि नहीं हम तो देंगे। भले थोड़ा सा लो, हम नहीं उठायेंगे, तो तुम उस सामग्री को एक ग्रास ले लेना, ज्यादा नहीं लेना। जो तुम्हारा त्याग हो उसकी बात मैं नहीं कह रहा हूँ। उसको तो उठवा देना। जो त्याग नहीं है उसको नहीं उठाना। श्रावक बार-बार आग्रह करते हैं तो लेना। क्योंकि वह जब बार-बार कहता है तो वह उसका अन्दर का परिणाम है। सुन लिया, ऐसा ही करना। आचार्य श्री ने मुझे श्रावक के अन्दर की आवाज की औषधि बतायी। मैं बहुत सुन्दर तरीके से समझ गई। अब जब चौके में आहार के लिये जाती हूँ, श्रावक थाली दिखाता है तो आचार्य श्री की आवाज गूंजती है। श्रावक के अन्दर के भाव दिखायी देते हैं। जब कहते हैं- नहीं, हम तो देंगे। सभी कुछ उठवा दिया तो अब हम क्या दें ? थोड़ा तो लेना पड़ेगा। वह याद आता, आचार्य श्री की आज्ञानुसार एक-एक ग्रास सभी सामग्री का लेने लगी। मुझे कुछ पता ही नहीं पड़ा कि तीन वर्ष से जिस रोग से पीड़ित थी वह कहाँ चला गया ? यह थी आचार्य श्री की वाणी भी औषधि, जो लाभकारी हो गई। गुरु आशीर्वाद और वाणी औषधि से बढ़कर होती है। अगर उस पर श्रद्धान किया जाये तो। क्योंकि जब भी गुरु बोलते हैं, अनुभव से बोलते हैं। करुणा से भरकर बोलते हैं। आत्मीयता से भरकर बोलते हैं। शिष्य बात को समझ जाता है तो उसका भला ही होता है। मैंने इस बात का प्रयोग करके देखा है। गुरुमुख से निकली बात में कुछ रहस्य अवश्य होता है। तुरन्त रहस्य दिखाई नहीं देता। इसका फल कालान्तर में मिलता है। सिर्फ धैर्य व साहस रखने की जरूरत होती है।
  22. एक बार आचार्य श्री का दर्शन मुझे शाहपुर में हुआ। जब भाग्योदय का शिलान्यास सागर में हुआ था। मैंने आचार्य श्री से कहामुझे अकारण जब कभी बहुत अन्तराय आते हैं। कभी सब्जी में मकड़ी, तो कभी छिपकली के अण्ड़े ऊपर से गिरते, तो कभी छिपकली गिर जाती, चिड़ियाँ पंखे पर बैठकर बीट कर देती हैं। तो कभी चीटियाँ ऊपर से गिरती हैं। ऐसे बहुत अन्तराय होते हैं। स्वप्न में मुझसे किसी ने कहा कि अगर तुम चंदोवा के नीचे बैठकर आहार लेने लगोगी तो अन्तराय नहीं आयेंगे। यह सुनकर आचार्यश्री बोले-लेने लगोचदोवा में। कुछ देर बाद मैंने आचार्य श्री से कहा- आचार्य श्री, चंदोवा की परम्परा क्यों समाप्त हो रही है ? अगर आप कहें तो श्रावक चंदोवा लगाकर आहार देने लग जायेंगे। उन्होंने सहज मुस्कुराते हुये कहा- देखो, मैं आचार्य हूँ, बड़े-बड़े मंचों पर यह बात मेरे मुख से अच्छी नहीं लगती। में क्षेत्रों पर रहता हूँ, मेरे मुख से सिद्धान्तों की बातें अच्छी लगती हैं। तुम महिलाओं के बीच रहती हो, चंदोवा के बारे में कहकर संस्कारित किया करो। आचार्य श्री के मुख से सुनकर लगा कि वास्तव में आचार्य श्री श्रावकाचार के बारे में विवेकपूर्ण बातें कब तक सुनाते रहेंगे। यह तो श्रावक का विवेक है। साधु के अनकहे ही चदोवा बाँधकर आहार देना चाहिए। पक्का मकान कहकर टालना नहीं चाहिये। पक्के हों या कच्चे, सभी में मकड़ी के जाले, मकड़ी, छिपकली आदि होती हैं। यह कहना नहीं, करना ही श्रावक का धर्म है। गुरु से आज्ञा पाकर मैं चंदोवा में आहार लेने लगी, अन्तराय समाप्त हो गये।
  23. एक बार इसी बीच भादों के महिने में दशलक्षण पर्व के समय आचार्य श्री बोले- देखो, कल मार्दवधर्म का दिन है, इस पर तुमको प्रवचन करना है। इसके उपरान्त मैं कर दूँगा। मैंने कहा- आचार्यश्री आपके सामने मैं नहीं बोल पाऊँगी। अभी तक आपसे पकी-पकाई खिचड़ी खाती रही, अब मुझे पकाना पड़ेगी। आचार्य श्री मैं नहीं बोल पाऊँगी। बड़े प्रेम-वात्सल्य से कहते हैं- ज्यादा नहीं, पन्द्रह बीस मिनिट बोल देना। मैं भी तो सुनूँ तुम कैसा बोलती हो ? गुरु की समझाइस प्यारभरी, वात्सल्य से ओतप्रोत मूर्ति को देखकर मैंने बोलने का मन बना लिया। मार्दवधर्म के दिन मंच पर आचार्य संघ बैठा। बाजू वाले मंच पर हम आर्यिकाओं का संघ बैठा था। संचालक महोदय सुन्दरलाल कवि ने आचार्य श्री के पास माइक रख दिया। आचार्य श्री इशारा करते हुये बोले- पहले आर्यिका बोलेगी, बाद में मैं प्रवचन करूंगा। माइक मेरे पास लाया गया। आचार्य श्री को नमोऽस्तु किया। मंच से मुस्कराती सूरत से बहुत सुन्दर आशीर्वाद मिला। जिससे मेरा आचार्य श्री के सामने बोलने सम्बन्धी साहस बन गया। यह सब लिखने का, कहने का प्रयोजन यही है कि आचार्य श्री ने मुझे क्रमश: साधना में उतारा। साधना में परिपक्व हुई। आर्यिका के योग्य बनाया। आर्यिका बनकर धर्म की प्रभावना प्रवचन आदि के माध्यम से की जाती है। वह कला भी उन्हीं ने सिखाई। ऐसा कुछ भी नहीं छोड़ा जो गुरु ने मुझे उपहार के रूप में न दिया हो। जब कुण्डलपुर का चातुर्मास पूर्ण हुआ तो आगे विहार करने के संकेत मिले। ग्रीष्मकाल में हम लोगों को इन्दौर का ग्रीष्मकालीन और खाते गाँव का चातुर्मास का संकेत हुआ था। पूर्व में कुण्डलपुर के आदिनाथ मन्दिर में बिठाकर कहा कि- देखो, अधिक जनसम्यक नहीं करना। ग्रन्थों का अध्ययन करना। अपनी आवश्यक क्रियाओं में मन लगाना। कुछ लेखन छन्द बगैरह बनाना। जैसे छन्द बनाने सम्बन्धी बात कही तो हम सभी एक साथ बोल पड़े- आचार्य श्री कैसे छन्द बनाये जाते हैं। आचार्य श्री के पास स्लेट रखी थी। उन्होंने लिखकर बतायी एक लाइन। मैंने कहा- वसंततिलका 14 अक्षर वाला है और अन्त में दो दीर्घ आते हैं। लेकिन कहीं-कहीं लघुतो रहता है। आचार्य श्री बोले- ऐसा है, जब पढ़ते हैं तो उस समय जरा खींच देते हैं तो लघु भी दीर्घ हो जाता है। आचार्य श्री ने मुझे लेखन, छन्द आदि की कला भी सिखायी। कुछ दिनों बाद विहार हुआ। कभी किसी गाँव, नगर तक जाना नहीं हुआ था आर्यिकावेश में। अब कहाँ, कैसा रुकना होगा ? कहाँ कौन सा गाँव, नगर कितने किलोमीटर पर है, इसकी जानकारी के लिये किससे कैसे पूछा जाये ? सभी से अनभिज्ञ थे। आचार्य श्री ने हम लोगों की चिन्ता की, कि यहाँ कुण्डलपुर से कुछ समय हाटपीपल्या रुक कर, इन्दौर जाना। वहाँ का ग्रीष्मकालीन करना। अभी नई-नई आर्यिकायें हैं, सो । गुना वाले रमेशचन्द्र, कल्लू आदि कुछ व्यक्तियों से कहा कि- तुम इन आर्यिकाओं का वहाँ तक विहार करवा दी। आचार्य श्री का आदेश पाकर गुना वालों ने हम आर्यिकाओं को विहार करवाया। जब वे श्रावकगण जिम्मेदारी उनके हाथ में थी। हम सिर्फ आर्यिकायें हाँ-हाँ करते रहते थे। इस प्रकार विहार कराने की कैसी व्यवस्थायें होती हैं ? किससे कैसी बात की जाती है ? आचार्य श्री ने यह भी हम आर्यिकाओं को सिखाया। एक बार जब शुरूआत् में खातेगाँव में चातुर्मास सम्बन्धी आदेश दिया। अब हमें इन्दौर से खातेगाँव जाना था। मैंने सुना, पर मैं उस समय आर्यिकाओं-मुनियों सम्बन्धी चातुर्मास के नियम नहीं समझती थी। कि चातुर्मास करने के लिए नगर में कैसे जाना होता है? श्रावक वहाँ के आये नहीं, फिर कैसे जायें, संकोच लगता था ? मैंने आचार्य श्री को पत्र लिखा- वहाँ के लोग आये नहीं कैसे जायें ? आचार्य श्री ने बहिनों से कहा- कह देना निमन्त्रण से नहीं जाना होता है। इतना कहतो दिया, लेकिन यह भी कह दिया कि वह मेरे पास कई वर्षों से आ रहे हैं। जब खातेगाँव वाले आचार्य श्री के पास पहुँचे, चातुर्मास सम्बन्धी याचना की तो आचार्य श्री बोले, मेरे पास आये हो, जिसका तुम्हारे लिये चातुर्मास दिया है उनके पास जाओ। क्योंकि आचार्य श्री के मस्तिष्क में बात गूंज रही थीं। अभी नई-नई आर्यिकायें हैं, अनुभव भी नहीं, बिना किसी के कहे जाने में शर्म आ रही होगी। कुछ वर्ष गुजरे, और अब जब कभी यह बात याद आती है कि आचार्य श्री से ऐसा कहा था तो आचार्यश्री कह रहे थे निमन्त्रण से जायेंगी ? अब अनुभव में ढल गये तो आचार्य श्री का जिस नगर, गाँव का आदेश मिला, मन में विचार ही नहीं आता कि वहाँ के लोग नहीं आये। गुरु आदेश मिला विहार करने लग जाती हैं। ये सभी बातें समय बीतने पर समझ में आती हैं। गुरु का आदेश जैसे मिलता गाँव, नगर के लोग स्वयं उन आर्यिकाओं, मुनियों के पास आने लग जाते हैं। वास्तव में हमारे आचार्य श्री ने प्रत्येक बात को सुन्दर तरीके से बताकर, मोक्षमार्ग में आगम के अनुरूप मुझे बढ़ाया। मैं अपने आपको जब इस वेश में रहकर गहरे चिन्तन में डूबती हूँ, तो लगता है कि जो मोक्षमार्ग की छोटे से लेकर बड़े रूप में बातें थीं वे मुझे 'अ' अक्षर से बतायीं, बाकी की जितनी शिष्यायें-शिष्य हों, उतना उनको गुरुमुख से चर्या बनाने सम्बन्धी बातें नहीं मिलीं। उनको सिर्फ देखादेखी के रूप में विरासत में मिल गई। मगर मुझे आचार्य श्री से वार्तालाप करके, उनके मुख से मिलीं। मैं धन्य हूँ, जो विश्वविख्यात दिगम्बराचार्य ने मेरी आत्मा को नासमझ से समझदार के रूप में बना दिया।
  24. एक बार सभी बहिनों के बड़े-बड़े बाल होने के बाबजूद किसी ने केशलुचन का विकल्प नहीं किया। उसमें मैं भी सामिल थी। मैंने अपने बाल पाँच माह के कर लिये। बाल बड़े-बड़े थे। एक दिन साँझ के समय आचार्यभक्ति चल रही थी, मढ़िया जी में, ग्रीष्मकालीन समय था। आचार्यश्री ने बहिनों की तरफ देखकर बोले- क्या तुम सभी ने हिप्पीकट बाल रख लिये ? केशलुचन करना छोड़ दिया ? अच्छा लगता है ऐसा क्या ? संक्षिप्त में ब्रह्मचारिणी की वेशभूषा, रहन-सहन के बारे में एक प्रवचन जैसा हो गया। सभी को आचार्यश्री की प्रेरणा ठीक लगी। एक-एक करके सभी बहिनें आचार्यश्री के निकट जाकर केशलुचन करने का नियम लेती हैं। आचार्य श्री सभी को आशीर्वाद देते रहे। उसी लाइन में मैं लग गई, लेकिन जब कोई बहिन नहीं थी। सिर्फ कक्ष में आचार्य श्री बैठे हुये थे। मैंने गेट के पास बैठकर कहा- आचार्य श्री मैं भी केशलुचन करना चाहती हूँ। आचार्य श्री बोले- क्योंकितने माह हो गये ? डरते हुये मैंने कहा- करीब पाँच माह। आचार्य श्री बोले- रहने दो अभी। मैंने कहा- आचार्य श्री क्या आप मुझे दीक्षा देंगे। आचार्य श्री बोले- लेना है क्या ? मैंने कहा- लेना है, लेकिन मेरी भावना है कि कुण्डलपुर में हो तो अच्छा। आचार्य श्री बोले- अच्छा कुण्डलपुर में लेने की भावना है। मैंने सिर हिला दिया और धीरे से कहा- 9 अगस्त को ब्रह्मचर्यव्रत लिया था। अब 9 अगस्त को दीक्षा भी लेना है। ऐसा सुनकर आचार्यश्री मुस्कुराने लगे । मौन स्वीकृति को मैं समझ गई। मैंने नमोऽस्तु किया, आने लगे तो आचार्यश्री बोले- मुनियों का जो प्रतिक्रमण है, उसका अर्थ बगैरह लगाकर तैयार करना। मैंने विहार का सोचा है, देखो इतना कहकर मौन हो गये। कुछ समय बाद विहार हुआ। आचार्य श्रीकुण्डलपुर क्षेत्र पर चातुर्मास हेतु आ गये। बारह वर्ष पूर्व जो बड़े बाबा के भक्त देवों ने मुझे जो स्वप्न दिया था, मैंने आचार्य के पास डायरी ले जाकर कहा- आचार्यश्री इसको देख लीजिये। आचार्य श्री बोले- क्या है ? मैंने कहा- स्वप्न जो मुझे आया था वह है। आचार्य बोले- अच्छा एक बार तूस्वप्न वाली कापी लेकर आयी थी, वही है क्या ? मैंने कहा- आचार्य श्री हाँ, वही है। आपने उस समय कहा था कि बाद में देख लूगा, अभी नहीं। फिर आपको स्वप्न की कापी दिखाने का साहस एवं समय ही नहीं बना। यह दिखाना आपको जरूरी है, इसमें एक शर्त है। पहले गुरु बनने वाले को दिखाई जायेगी इसके बाद किसी और को। मैंने अपने घर में कहा था कि मुझे स्वप्न आया है, व्रत लेना है। तो घर के सदस्यों ने पूछा था- कैसा स्वप्न ? मैंने कहा- व्रत लेने का। वह मैंने कापी में लिखकर रख लिया है। वे मुझसे स्वप्न लिखी कापी को माँगते रहे, लेकिन उनको अभी तक दिखाई नहीं है। आप देख लेंगे, तब सभी को दिखाने लगूंगी। आचार्यश्री कुण्डलपुर क्षेत्र के बड़े गेट के ऊपर वाले हाल में बैठे थे। मेरे द्वारा दी गई कापी के पृष्ठ खोलकर स्वप्न को बड़े मनोयोग से पढ़कर हँसते जा रहे थे। सामने मैं और कचनबाई जी बैठी हुई थीं। स्वप्न पढ़कर मुझसे बोलते हैं- देखो, इसमें क्या लिखा है? बारह वर्ष में दीक्षा होगी। अच्छा, इसीलिये योग टल गया। अब बारहवर्ष हो गये। ऐसा कहकर चिन्तन की मुद्रा बनाकर बैठगये। फिर नौ बहिनों के नाम गिनाये ये ठीक रहेंगी। इन बहिनों के साथ, एक साथ मिलकर साधना करना। दीक्षार्थी बहिनों को चुन दिया आचार्यश्री ने। कुछ समय निकला। मैं आचार्य श्री को नमोऽस्तु करने पहुँची। आचार्य श्री इस प्रकार बोले- जिसको सिर्फ मैं समझ सकीं, अन्य बहिनें नहीं समझ पायीं। उन्होंने कहा- देखो, तुम कह रही थीं, 9 अगस्त को दीक्षा लेना है। लेकिन 9 अगस्त का मुहूर्त ठीक नहीं, 7 अगस्त का अच्छा है। नेमिनाथ भगवान का तपकल्याणक का दिन है। क्यों ये अच्छा रहेगा ? मैंने कहा- ठीक है, अगस्त महिना तो है। मैं खुश हो गयी। इसके बाबजूद आचार्य श्री कहते हैं- अभी सबको नहीं बताना। मैंने गुरु के बताये गये निर्देश का पालन किया। जिन बहिनों को दीक्षा के योग्य चुना, सभी एक कमरे में एक साथ सोना, एक साथ चर्या करना, सभी कुछ एक साथ करना। आचार्य श्री ने जो, मेरे योग्य बहिनें दीक्षा के लिये चुनी, उनसे पहले से कह दिया था, कि मैं इसको बड़ा बनाऊँगा, मंजूर है। सभी ने स्वीकृति दी हाँ। समय आ गया। 7 अगस्त सोमवार का दिन, नेमि प्रभु का तपकल्याणक का। उस दिन मुहूर्त अमृतयोग था। आचार्यश्री ने कहदिया था पूर्व से। बहुत अच्छी विशुद्धि बढ़ाना है। माइक में किसी भी प्रकार का बोलने सम्बन्धी विकल्प नहीं करना, इन विकल्पों से विशुद्धि घटने लग जाती है। इसका ध्यान रखना। सभी मिलकर माइक के सामने खड़ी होकर खम्मामि सव्वजीवाण, सव्वे जीवा खमंतु मे। मित्ती मे सव्वभूदेसु वेरमज्झण केण वि। बोल देना, हो गया। समय से डेढ़ बजे मंच पर सभी तैयार होकर पहुँचना। गुरु आदेश से हम सभी मंच पर पहुँच गये। आचार्य श्री भी अपने संघ के साथ मंच पर बैठ गये। दीक्षा का कार्यक्रम शुरू हुआ। लेकिन पटेरा के सदस्य सुन्दरलाल कवि कहते हैं- हमारे नगर की बेटी है, हम तो मुख से कुछ उदगार व्यक्त करवायेंगे। सुना है स्वप्न बगैरह आया था, इस मार्ग पर आने का। इसलिये आप बोलने का आदेश दे दीजिये। सुनते ही आचार्य श्री ने मेरी तरफ देखते हुये औगुली से यूँ-यूँ किया। जिसका अर्थ था कि ये सब लोग बोलने के लिये कह रहे हैं। तो पाँच मिनिट बोल दी। आचार्य श्री का आदेश पाकर मैंने प्रथमबार आचार्यश्री के सामने बोला था। इसके बाद सभी बहिनों को थोडा-थोडा बोलने का आग्रह किया। सभी ने अपने विचार वैराग्य सम्बन्धी व्यक्त किये। दीक्षा बड़े उल्लास के साथ आचार्य श्री ने दी। पिच्छिका-कमण्डल देते जा रहे और कहते जा रहे- देखो, इस मंच से पहले बड़े बाबा को नमोऽस्तु कर लो। मैंने बड़े बाबा को, उसके बाद आचार्यश्री को नमोऽस्तु किया। लेकिन हाथ जोड़कर पिच्छिका बाजू में रखकर किया, जैसे ब्रह्मचारिणी के वेश में करती थी। आचार्य श्री बोले- हाथ में पिच्छिका लेकर करो प्रशान्तमती। क्या करें ? अभी वही संस्कार पड़े हैं। मुस्कुराते हुए कहते हैं कि इतनी जल्दी वह संस्कार कैसे भूल जायेगी ? वे दिन मुझे कभी प्रसंगवश याद आ जाते हैं कि हमारे आचार्य श्री ने शुरू से, पिच्छिका लेकर कैसी नमोऽस्तुकी जाती है, यह तक मुझे सिखाया है। जो बालिका के रूप में थी उसे पालिका का रूप दे दिया। गुरु के द्वारा प्रदत्त उपहार कर्म निर्जरा का साधन बन गया। मंच से जैसे आर्यिका के रूप में उतरे, हम सभी ने आचार्य श्री से । कहा- हम लोग बड़े बाबा के दर्शन करने चले जायें ? आचार्य श्री कहते हैं- अभी सीढ़ियाँ चढ़कर मत जाओ। पहली सीढ़ियों के पास जाकर कर लेना। आचार्य श्री के आदेश से गये। हम लोग पूर्ण रूप से जा ही नहीं पाये कि बीच में तेजी से वर्षा हो गई। हम सभी आर्यिकायें गीली हो गई। यह प्रारम्भ से गीला होकर रात गुजारने का क्षण था। बाई जी ने बहिनों से कहकर साड़ियों को सुखाया। आचार्य श्री ने सुना तो कहते हैं- यहीं से परीक्षायें शुरू हो गई। और भी हम सभी को महाव्रतों के बारे में समझाते रहे। चतुर्दशी का प्रतिक्रमण आचार्य श्री ने किया। हम आर्थिकाओं को भी एक पंक्तिबठू बैठा लिया। बड़ा प्रतिक्रमण कैसा किया जाता, कब कायोत्सर्ग किया जाता, वह भी गुरु से सीखने का अवसर मिला। उस समय से चरमसीमा की विशुद्धि बढ़ने लगी गुरु सान्निध्य पाकर।
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