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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. स्वाध्याय से प्रमाद करना अपने आत्मज्ञान के क्षेत्र से विमुख होना जेसा हैं | ऐसे विमुख हो चले साधको को सच्चा समीचीन मार्ग बताने वाले वर्तमान में परम पूज्य आचार्य श्री जी हैं | जो हमेशा साधको की गलती का अहेसास करते रहेते हैं | एक प्रसंघ इसी संधर्भ मे - बात बिना बहरा अतिशय क्षेत्र की है | 18 मार्च 1998 गुरुवार का दिन था | प्रतिदीन के अनुसार उस दीन भी षट्खंडगम ग्रंथराज की पाँचवीं पुस्तक का स्वाध्याय आचार्यश्री हम सभी साधकों को करा रहे थे। इस ग्रंथ का स्वाध्याय प्रारंभ करने के पहले बोलते कि स्वाध्याय विनय एवं शुद्ध मन से करना चाहिए। एक दिन एक मुनिराज अपना ग्रंथ लकड़ी को सामने लगाकर, बेंच पर सीधे रखे हुए थे। अचानक उनके प्रमाद से ग्रंथ नीचे गिर गया, आवाज हुई। आचार्यश्री की दृष्टि उनकी ओर गई और बोले 'क्यों, क्या हुआ?' मुनिराज जी हँसते हुए बोले- 'लकड़ी खिसक गई इसलिए ग्रंथ खिसक गया।' आचार्यश्री बोले- 'पहले तो अविनय हुई, कायोत्सर्ग करो।' फिर डाँटते हुए बोले- "ये क्या सेटों जैसा पढ़ने की आदत बना ली। क्या यह ठीक है? ऐसा ग्रंथ रखा जाता है क्या? ऐसा पढ़ोगे तो इन आँखों पर क्या असर पड़ेगा।' फिर हँसते हुए बोले-'ये आँख अब तुम्हारी नहीं है, हमारी है। तुम्हें सुरक्षा करना है। इस प्रकार स्वाध्याय नहीं होता है। 'ये धवला या षट्खंडगम ग्रंथ महान ग्रंथ है। ग्रंथराज है। हमारा परम सौभाग्य है, आज जो इस ग्रंथ का हम स्वाध्याय कर रहे हैं। इस ग्रंथ के दर्शन के लिए पहले के विद्वान लोग तरसते थे। आज हमें सहजता से मिल रहे हैं, तो हम इनको विनय के साथ रखें व उठाएँ। विनय एवं विशुद्धि पूर्वक पढ़ना चाहिए।' ऐसा कहकर पुन: स्वाध्याय प्रारंभ हो गया। क्लास पूरी होने के बाद भी उन मुनिराज को बुलाकर एकान्त में कुछ निर्देश दिए।
  2. वृक्ष की मूल आधार जड़ है, जिससे वह हरा-भरा फलफूलदार बना है। यदि मूल का अभाव हो जाए तो पेड़ सूखा सा खड़ा रहेगा। वैसे ही धर्म मार्ग की, मोक्षमार्ग की आधारशिला यदि है तो विनय है। इसलिए तो लिखा है- 'विनय मोक्ख द्वारं' विनय ही मोक्ष का द्वार है। जितना विनयवान सम्मान पाता है, उतना अभिमानी-धनवान नहीं पाता है। इसलिए विनय के महत्व को समझो। यह प्रसंग उसी के महत्व को बताता है। आचार्यश्री एवं संघ का 5 दिन का छिंदवाड़ा में विश्राम रहा, इसके बाद 25 फरवरी 1998 को छिंदवाड़ा से विहार कर दिया नरसिंहपुर की ओर। इसी विहार काल में 27 फरवरी शुक्रवार प्रात:काल का विहार चल रहा था, इसी दौरान एक चर्चा प्रारंभ हुई। आचार्यश्री चलते हुए बोले- 'मान कषाय मनुष्य के लिए बहुत खतरनाक है, क्योंकि संसारी मनुष्य इसी मान कषाय के कारण इस संसार में परिभ्रमण करता है, और यही मान क्रोध कषाय को प्रज्वलित करने के लिए भी कारण सिद्ध होता है।' तभी एक श्रावक ने कहा- आचार्यश्रीजी ! माना व्यक्ति को देखकर मान कषाय की और अधिक उत्पत्ति होती है।' आचार्यश्री ने उसके सामने प्रतिप्रश्न रख दिया- 'विनयी व्यक्ति को देखकर विनम्रता भी बढ़नी चाहिए। लेकिन आज ऐसा क्यों नहीं हो रहा है? फिर इस विषय को आचार्यश्री ने एक उदाहरण देकर सभी को समझाया- 'आज वर्तमान में जैसे पहली प्रतिमाधारी के लिए जो विनय है, वो दो प्रतिमाधारी श्रावक के लिए दूनी होनी चाहिए। प्रतिमाओं में वृद्धि के अनुसार विनय में भी वृद्धि होनी चाहिए। आखिर ऐसा आज क्यों नहीं हो पा रहा है? मोक्षमार्गी के लिए सर्वप्रथम विनयशील बनना अनिवार्य होना चाहिए। अरे! विनय वह वस्तु है, जिससे एक नव-दीक्षित मुनि (विनय के द्वारा) अपने गुरु को बाँध कर रखता है। 'मान कषाय तो इस संसारी मनुष्य के लिए जन्म से ही होती हैं, लेकिन विनय जन्म से नहीं होती, इसलिए मोक्षमार्ग के प्रत्येक साधक के लिए विनय को ही अपना धर्म मानकर उसे अपना लेना चाहिए, क्योंकि कषाय तो कषाय है चाहे छोटी हो या बड़ी। एक सूत्र बना लेना चाहिए- विनय ही धर्म का मूल है। विनय निज का मूल है, ऐसा सोचने वाला सही मोक्षमार्गी है।
  3. कर्म से बड़ा कर्ता कि कर्ता से बड़ा कर्म? कौन किससे बड़ा? इस द्विविधा में पड़े पथिक को एक नई दिशा कैसे दें? कैसे पथिक को अपनी आत्म शान्ति का परिचय करायें, यह कार्य कराने वाले बिरले ही होते हैं। पर कर्तव्य मार्ग पर चलने वाले के सामने कर्म हमेशा छोटे होते हैं। वह कैसे? आप स्वयं पढ़ें गुरुदेव का यह प्रसग। प्रसंग : 9 जनवरी 1998, शुक्रवार प्रातःकाल विहार चल रहा था। पोखरनी ग्राम में आहार होना था, जो 13-14 किमी. था। आचार्यश्री तेजी से चल रहे थे। कच्चा रास्ता था। मुनिश्री पवित्र सागरजी ने देखा कि आचार्यश्री आ गए हैं, उनको रास्ता दे दिया, एक तरफ एक मिनट के लिए रुक गए। आचार्यश्री बोले- 'चलो रुक क्यों गए?" मुनिश्री बोले- 'महाराज रात्रि में पेट में बहुत दर्द था। तेजी से चला नहीं जा रहा है। हम आराम से आ रहे हैं।' आचार्यश्री ने कहा- 'चलो दर्द के बारे में अधिक सोचो मत, जितना अधिक सोचोगे उतना ही दर्द होता है।' मुनिश्री बोले- 'दर्द था इसलिए तो बोला है।' आचार्यश्री बोले- 'हमसे बड़ा दर्द नहीं हो सकता है।' मुनिश्री बोले- 'महाराज! कर्म हमसे बड़ा होता है।' आचार्यश्री ने कहा- 'सबसे बड़ी भूल है तुम्हारी, तुमने जो सोचा है, गलत सोचा है, अरे! कर्ता से बड़ा कर्म नहीं होता है। कर्ता के सामने कर्म को कमजोर होना पड़ता है। अगर ऐसा नहीं होता तो कर्म से मुक्ति कोई पा ही नहीं सकता था। सभी संसार में रहते। इसलिए कर्म बड़ा नहीं, कर्ता बड़ा है। तुम अभी कर्ता हो, कर्म का अच्छे से सामना करो। पीछे क्यों हटते हो?" और हाथ पकड़कर साथ में चलने लगे। बड़ा कौन है? कर्म कि कर्ता, इसको समझना है। पर कभीकभी हम मोह के बस हो जो छोटा है, उसको बड़ा मान बैठते हैं। मगर जो वास्तव में बड़ा है, उसको भूल जाते हैं। कर्ता कर्म से बड़ा होता है। कर्ता जब अपने शरीरादि के मोह से युक्त होता है तो अपने कर्ता स्वभाव, अपनी आत्मशक्ति को भूल जाता है। कर्म को बड़ा मान बैठता है, इसी तथ्य को पूज्य गुरुदेव ने विहार करते हुए समझाया था।
  4. 6 जनवरी 1998, मंगलवार नेमावरजी गुरुजनों की समीपता ही गृहीजनों को सद्मार्ग एवं सदबुद्धि प्रदान करती है। गुरुवाणी तो संसारी जनों के लिए अन्तस के विकार दूर कर निर्विकारता का मार्ग प्रदान करती ही है। कृपादृष्टि किसकी किस पर कैसे होती है? वह कृपादृष्टि का पात्र कैसा होता है? उसी को लेकर यह प्रसंग है। प्रात:काल आचार्य भक्ति हुई, इसके बाद इष्टोपदेश की कारिकाओं का पाठ हुआ। फिर एक आध्यात्मिक चर्चा। हरदा निवासी एक श्रावक ने प्रश्न किया जो अच्छा था। प्रश्न था- गुरु कृपा कहाँ तक कार्यकारी है? आचार्यश्री के मुखारबिंद से अमृत वर्षा हुई- 'गुरु एक निमित है। उसके पास जो भी श्रद्धा एवं भक्ति-विनय के साथ आता है, उसको सही मार्गदर्शन देकर उसका उपकार अवश्य करते हैं। एक बात जरूर है- शिष्य के पीछे गुरु नहीं होते हैं, शिष्यों को गुरु के पीछे या सन्मुख होना पड़ता है। तब ही एक गुरु, उस शिष्य को अपना सकते हैं, उपदेश दे सकते, मार्गदर्शन दे सकते हैं।' तभी एक श्रावक ने पूछा- 'इसका आशय मैं समझा नहीं। आचार्यश्री, आप क्या कहना चाहते हैं?" आचार्यश्री ने कहा- 'एक उदाहरण के माध्यम से आशय समझा देता हूँ। गुरु एक नाव के समान है, जो इस नाव में बैठना चाहता है, उसको पहले अपने आपका समर्पण पूर्ण रूप से करना होगा, उस नाव के ऊपर विश्वास करना होगा कि वह पार लगाएगी। इसी तरह गुरु पर विश्वास-समर्पण करके उनकी आज्ञा एवं निर्देशन के अनुसार चलना होगा। जो उनके कहे अनुसार पुरुषार्थ करता है, वो निश्चित ही संसार-सागर से पार हो जाता है।' 'गुरु के अनुसार चलना, छंदानुवृत्ति कहलाती है। अपने अनुसार चलना स्वच्छंद वृत्ति कहलाती है। जो साधक या श्रद्धालु छंदानुवृत्ति के अनुसार वृत्ति बनाता है, वो निश्चित ही संसार-सागर से मुक्ति पा लेता है।" इस सारे कथन का आशय यही है कि गुरु की कृपा तभी कार्यकारी हो सकती है जब व्यक्ति पूर्ण रूप से समर्पण से भरा हो व विनयवान हो। तब ही वह गुरुकृपा का सही प्रतिफल पा सकता है।
  5. साधना के मार्ग पर चलने वाला साधक मात्र शारीरिक साधना नहीं करता है, वह अपनी समस्त शक्तियों को केन्द्रित करके कठिन आत्म साधना करता है। इससे उसमें शारीरिक मानसिक और वाचनिक सिद्धियाँ अपने आप जागृत हो जाती हैं। पूज्य आचार्यश्री के तो वचनपटुता और वचनसिद्धि दोनों अनोखी है। कैसी है, इस प्रसंग से हमें ज्ञात होता है। बात सिद्धोदय सिद्ध क्षेत्र नेमावरजी की है। सोमवार 5 जनवरी 1998 का दिन मेरे लिए यादगार के रूप में मिला था। इस दिन पूज्य आचार्यश्री ने मुझे ऐलक पद प्रदान किया था। उसी दिन शाम को कुछ अजैन बाबा लोग आचार्यश्री एवं संघ के दर्शनार्थ आए। आचार्यश्री से निवेदन किया कि हम आपसे कुछ पूछना चाहते हैं। आचार्यश्री ने मौन स्वीकृति दे दी। एक बाबा जी ने प्रश्न किया 'आप नर्मदा नदी को किस रूप में मानते हैं?' आचार्यश्री ने सहजता से उत्तर दिया- 'नर्मदा जिस रूप में है, हम उस रूप में नर्मदा को मानते हैं।' पुनः बाबा जी ने कहा कि 'आखिर कोई रूप या स्वरूप तो होगा?' 'हाँ! हमारे जैनाचार्यों ने इस नर्मदा नदी के तटों को बहुत उत्तम स्थान माना है ध्यान के लिए। क्योंकि इस के तटों पर बैठकर ध्यान की सिद्धि तो होती ही है, आत्मसिद्धि भी सहज रूप से साधक कर लेता है।' 'ध्यान सिद्धि तो ठीक है, लेकिन आत्मसिद्धि से आपका तात्पर्य क्या है?' 'आत्मसिद्धि से तात्पर्य हमारे यहाँ निर्वाण से है। सांसारिक दुखों से सदा के लिए मुक्ति से है। इसी का प्रमाण हमारे इतिहास में मिलता है कि इस रेवा नदी के दोनों तट से साढ़े पाँच करोड़ मुनिराजों को आत्मसिद्धि हुई। या कहो निर्वाण की प्राप्ति हुई।' 'इसका मतलब हुआ कि नर्मदा नदी के लिए आप ध्यान करने के लिए निमित्त कारण मानते हैं।' "हाँ, इससे बढ़कर पवित्र स्थान ध्यान के लिए और कौनसा हो सकता है?" 'हम सभी मुनिगणों को हमारे गुरुओं ने, आचार्यों ने ऐसा उपदेश दिया है कि सदा ऐसे स्थानों पर रहो जहाँ पर ध्यान अच्छा लगे।' अंत में बाबाजी लोगों ने कहा- 'आपके विचार इस पवित्र स्थान के बारे में बड़े उत्तम हैं। ऐसी भावना हम सभी संतों के मन भी आ जाए तो इस नर्मदा की पवित्रता, महत्व और बढ़ जाएँगे। बहुत अछि सोच है आपकी एसी सभी संतो की हो भगवन से प्रार्थना करते हैं।' आत्मसिद्धि निर्वाण की, साडी पर्वत के तीर | अनगिनते मुनि तपस्वी पाते भव का तीर ||
  6. महामनीषियों की बुद्धि पदार्थगत न होकर मूल अर्थ की ओर होती है। वे वस्तु के बिना भी अपने अर्थपूर्ण कार्य को करने की क्षमता रखते हैं। ऐसी दिव्य मनीषा के धनी परम पूज्य आचार्यश्री जी है जिनका यह जीवंत संस्मरण हैं जो परिग्रह को नहीं अपरिग्रहता को सदा अपने भावों में रखते हैं। शाम का समय था। डॉ. अमरनाथजी (सागरवाले), डॉक्टर श्री अरविंद सिंघई नेत्र चिकित्सक को लेकर आए। आचार्यश्री की आँख दिखाने के लिए कहा है। आचार्यश्री ने कहा- क्या जरूरत है, अच्छे से काम चल रहा है। चश्मा का नंबर वो एक आँख का पौने तीन, दूसरे में ढाई है। ये नंबर जब मैं अजमेर में (ज्ञानसागरजी महाराज के साथ था) उस समय 'आईफ्यू बहुत जोर से आया था। उसी समय से नंबर आ गया था और आज 30-32 साल होने को हैं, आज भी अच्छे से काम चल रहा है। एक बार तो एक श्रावक चश्मा बनाकर हमारी टेबिल पर रखकर चले गए, लेकिन हमने उसे ग्रहण नहीं किया। आज भी ग्रंथ के छोटे-छोटे शब्दों को पढ़ लेता हूँ कोई तकलीफ नहीं है। हमें चार हाथ से अधिक दूर देखने की जरूरत नहीं है, चार हाथ दूर का भी सब अच्छे से दिखता है। फिर आचार्यश्री ने कहा- हमें चश्मे की जरूरत नहीं, क्योंकि मैं जितना पढ़ना चाहता हूँ उतना अच्छे से पढ़ लेता हूँ। पढ़ने की आकुलता जिनको होती है, वे चश्मा लगाएँ। आखिर पढ़ने की सीमा होना चाहिए? आज ज्यादा पढ़ना और फिर लिखते रहना बहुत हो गया है, और ज्यादा लिखने पढ़ने से चिंतन की प्रक्रिया कम हो जाती है। लिखने से लखना नहीं हो पाता है। लिखने से आरंभ होता है, और लखने से (चिंतन) स्वाध्याय होता है। बगैर चिंतन के लिखने को स्वाध्याय नहीं कहा। चिंतन को अनुप्रेक्षा रूप स्वाध्याय में लिया गया है। यदि पढ़ा नहीं जाता तो सुनने को भी स्वाध्याय कहा है। सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के लिए देशना लब्धि को कारण कहा है। लेकिन लिखने को सम्यग्दर्शन का कारण नहीं कहा है, उसके लिए आरंभ कहा है। बड़े-बड़े साहित्यकार हैं, जैसे कहते जैनेंद्र हैं, वे लिखते नहीं, लिखाते थे। स्वयं चिंतन करके लिखाते थे। एक पंडित सुखलालजी प्रज्ञाचक्षु थे, उन्होंने बड़ा काम किया- बड़े-बड़े ग्रंथों का संपादन किया, इसी चिंतन के साथ किया है। आज तो लिखने को ही चिंतन माना जा रहा है। सुनने से चिंतन होता है। अच्छे से चिंतन करो और फिर अच्छे से धर्मोपदेश दो। यह भी स्वाध्याय है। इसलिए भैया मैं चश्मे को अपने लिए आवश्यक नहीं समझता। हमारे किसी भी काम में रुकावट नहीं, सब अच्छे से चल रहा है, तो फिर क्यों लगाऊँ। फिर भी डॉ. अरविंद सिंघई ने ऑखों को देखा। उन्होंने स्वयं कहा महाराज आपका विचार ठीक है, जब आपको अधिक दूर का देखना नहीं, तो चश्मे की आवश्यकता नहीं है। आचार्यश्री ने बताया- मैंने एक आलेख पढ़ा था। अमेरिका के डॉक्टर्स ने लिखा था कि नींबू की एक-दो बूंद आँख में डालने से सब रोग ठीक हो जाते हैं। मोतियाबिंद जैसे रोग भी समाप्त हो जाते हैं। नींबू को स्वर्ण के बराबर कहा है। दोनों पीले हैं, लेकिन गुणवत्ता की दृष्टि से नींबू सोने से ज्यादा कीमती है। स्वर्ण को रखने वाला पगला सकता है, लेकिन नींबू खाने से पागलपन ठीक होता है। इसलिए नींबू के रस को भी हमने समय-समय पर आँख में डाला है, इसलिए आज भी काम अच्छा चल रहा है।
  7. सत्य और आत्मसत्ता का परिचय रखने वाला साधु अपने पास क्या रखना? क्या नहीं रखना? अपने मन में इसका सदा विचार करता रहता है। वह अपने पास स्वाध्याय हेतु शास्त्र भी रखता है तो कितने रखता है? उसे जितने आवश्यक हैं, उतने ही रखता है। पूज्य आचार्यश्री की जीवन चर्या में ऐसा सदा देखने को मिला। आचार्यश्री ने 17 मई 2001 बहोरीबंद में एक प्रसंग सुनाया हमारा प्रवास श्री दिगंबर जैन सिद्धक्षेत्र द्रोणगिरी में था। उस समय दिल्ली से साहू शांतिप्रसादजी दर्शन करने आए। उसी समय जिनेन्द्रवणों के द्वारा संकलित-संपादित 'जैन सिद्धांत कोष' का प्रकाशन हुआ था। जिसे वे लेकर आए थे। प्रवचन के बाद उन्होंने हमें सभी भाग भेंट किये। हमने उनका अवलोकन किया। उनसे कहा- बहुत अच्छा पुरुषार्थ किया है। देखकर उन्हें वापस दे दिये। साहूजी बोले- नहीं महाराज! हम दिल्ली से ये आपके लिए ही भेंट करने लाए हैं। आचार्यश्री बोले- नहीं साहूजी, हम कहाँ रखेंगे। हमारे पास ग्रंथालय नहीं है। हम तो निर्ग्रथ हैं। ग्रंथ तो पढ़ते हैं पर अपने पास ग्रंथालय नहीं रखते हैं। हमें तो पढ़ने मिल जाए। एक बार पढ़ लिया फिर साथ में रखना जरूरी नहीं है।
  8. अध्यात्म की खोज करना है? पर कैसे करना है? इसका विचार जब तक ज्ञान पिपासुओं को नहीं होता है तब तक उन्हें अध्यात्म का बोध नहीं होता है। जिन्हें अध्यात्म का बोध होता उन्हें फिर आत्मा का बोध अवश्य होता है। परम पूज्य आचार्यश्री ने अध्यात्म को अपने जीवन के अभिन्न अंग की तरह माना है। उसे आत्मसात किया है। चर्चा के दौरान आचार्यश्री ने सुनाया | बुंदेलखंड के सिद्धक्षेत्र श्री कुंडलपुरजी में जब हमारा प्रथम चातुर्मास (सन् 1976) हुआ। तब पं. श्री जगन्मोहनलालजी शास्त्री वहाँ पर थे। एक दिन आए और साथ में राजमल पवैया और कुछ सोनगढ़ विचारधारा के 4-5 बड़े-बड़े विद्वान आदि भी थे। उन्होंने निवेदन किया कि आपके दर्शन करने व विचार-विमर्श हेतु कुछ विद्वान आना चाहते हैं। वे आए और कहा- एक आध्यात्मिक शिविर का आयोजन होना है। उस शिविर की सफलता के लिए आपका सानिध्य चाहिए। आपको अवश्य पधारना है। आप हमें आज्ञा और आशीर्वाद प्रदान करें। सोचता रहा और जब हमारा बोलने का नंबर आया तो हमने पंडितजी को जवाब दिया- "लगता है अब अध्यात्म शिविर भी पर के आश्रित हो गए हैं। ऐसे पर के आश्रित शिविरार्थियों का अध्यात्म स्वाश्रित कैसे हो सकता है? पराश्रित होकर के अध्यात्म शिविर नहीं होते हैं।"
  9. त्याग का प्रभाव दूसरों पर पड़ता ही है। पर कभी-कभी आगम का सही ज्ञान न होने के कारण से उसका अर्थ अलग ही निकाल लिया जाता है और श्रोताओं को बता दिया जाता है। इसका परिणाम है- उसकी धारणा भी वैसी बन जाती है। ऐसा ही एक प्रसंग पूज्य आचार्यश्री ने सुनाया। 'सन् 1975 का वर्षायोग फिरोजाबाद (उ.प्र.) में हमारा हुआ। हमारा ब्रह्मचारी अवस्था से ही नमक का त्याग है। एक व्यक्ति शुद्ध तेरापंथी विचारधारा के थे। उन पर कुछ सोनगढ़ विचारधारा का प्रभाव भी था। पर मुनिभत थे। प्रतिदिन क्लास में आते थे। उन्होंने चौका लगाया तो 10-12 दिन पहले से पूरे परिवार वालों का नमक का त्याग करा दिया, फिर चौका लगाया। हमारा आहार हुआ। इसके बाद प्रसंगवश हमारी उनसे चर्चा हुई तो उन्होंने कहा- महाराज! आपको उद्दिष्ट भोजन नहीं देना चाहता था, इसलिए हमने ऐसा किया। तब हमने उन्हें समझाया- 'उद्दिष्ट का अर्थ- उद्देश्य को लेकर कराया हुआ कार्य उद्दिष्ट है। मुनिगण अपने उद्देश्य पूरा कराने के लिए अपनी रसना इन्द्रिय की पूर्ति के लिए कहकर भोजन आदि तैयार कराते हैं, तो वह आहार उद्दिष्ट है। श्रावक तो अपने पात्र के अनुसार तैयारी करता है, बिना कहे करता है, तो वह उद्दिष्ट नहीं है। उन्हें फिर हमने अच्छे से समझाया, उद्दिष्ट क्या है? उन्हें समझ में आया। बोले- महाराज हमें तो भ्रमित किया गया था। हमारे लिए गलत बताया गया है। उसके बाद उन्होंने वहाँ पर जाना बंद कर दिया।
  10. जिसका लक्ष्य अपने आपको पाना हो, तो वह बाहर पद प्रतिष्ठा, मान-सम्मान पत्र या भाषण संबोधन से उसको कोई लेना-देना नहीं होता है। इसका जीवन्त उदाहरण हैं परम पूज्य आचार्यश्रीजी के इस प्रसंग से। बात 31 मार्च 2002 की विदिशा की है। प्रसंग : प्रवचनोपरांत आचार्यश्री गमन कर विदिशा के ही रेलवे स्टेशन के निकट स्थित जैन मंदिर आ गए। आचार्य भक्ति के बाद शाम को हम सब उनके पास ही बैठे थे। तभी हमारे बीच से ऐलक जी ने आचार्यश्री से कहा- 'वर्तमान में आपको प्राय: सभी समाज जन तीर्थंकर समान मानते हैं। आज की सभा में भी अनेक वक्ताओं ने आपको 'भगवान महावीर सम' कहा है। मेरा प्रश्न है कि जब समाज जन आपको तीर्थंकर या महावीर सम कहते हैं तब आपको उस समय कैसा लगता है? आप स्वयं कैसा अनुभव करते हैं?' आचार्यश्री के मुख पर एक मंद स्मित रेखा खिल गई। उन्होंने हम सब की ओर गहरी दृष्टि से देखा। फिर बोले- 'मैं तो एक दिगंबर जैन मुनि हूँ उस समय और हर समय मैं स्वयं को मुनि ही समझता हूँ। इस समय भी मुनिपने का अनुभव कर रहा हूँ। किसी के कहने से कोई तीर्थंकर या महावीर नहीं हो जाता। महावीर होने के लिए तो बहुत पुरुषार्थ करना पड़ता है और उस पुरुषार्थ के लिए एक न एक दिन अपरिहार्य रूप से उत्तम संहननधारी परम तपस्वी मुनि होना होता है। अभी तो बस मैं मुनि हूँ और वही मुनिपने का अनुभव कर रहा हूँ। हाँ! महावीर की तरह सिद्धत्व पाना मेरा लक्ष्य अवश्य है। आप सबका भी यह लक्ष्य होना चाहिए। किसी के द्वारा दी गई किसी पदवी के मान से पूरी तरह अलिप्त...।"
  11. सत्य का और आत्मसत्ता का परिचय रखने वाला साधु सदा अपने पास क्या रखे? क्या नहीं रखे? यह विचार निरन्तर ही करता रहता है। जैन समाज परम देशभक्त समाज है। औसत रूप में बौद्धिक क्षमता भी उसमें विशेष है। नैतिकता-कर्तव्य परायणता तथा जीवन की शुचिता का विचार भी प्राय: सभी जैनों में पाया जाता है। जैन व्यक्ति अपनी योग्यता का लाभ अपने भारत देश को पहुँचाने के लिए लालायित भी रहता है। इसी संदर्भ में आचार्यश्री के समक्ष प्रस्तुत एक प्रसंग उल्लेखनीय है। प्रसंग : सागर नगर वाले डॉ. अमरनाथजी के साथ उस दिन डॉ. सुनील जैन (सीहोरा) आचार्यश्री के दर्शनार्थ आए। चर्चा चली तो पता चला कि डॉ. सुनील जैन किडनी स्पेश्यलिस्ट हैं। उनकी अस्पताल इंग्लैंड में है। अब वे विशेष अध्ययन हेतु अमेरिका जा रहे हैं। विशेषज्ञता प्राप्त करके वे भारत वापस आना चाहते हैं। वे अच्छी कमाई छोड़कर भारत क्यों आना चाहते हैं? इसका उन्होंने उत्तर दिया- 'अपनी योग्यता का लाभ मैं अपने भारत देश को देना चाहता हूँ वही मेरे लिए सबसे बड़ी कमाई होगी।' आचार्यश्री ने कहा 'बहुत अच्छा विचार है, जो आपने भारत आने का सोचा। आज भारत की मेधा (बुद्धि) का लगातार निर्यात हो रहा है। अपने देश में ऐसी-ऐसी प्रतिभाएँ हैं कि वे विश्वभर को चकित कर रही हैं, पर भारत उनकी प्रतिभा का लाभ लेने से वंचित है।' अध्ययन की दृष्टि से विदेश जाना ठीक है, पर पढ़ाई पूरी कर वहीं बस जाना देशभक्ति नहीं है। सभी को आपकी तरह ही अपने देश का गौरव बढ़ाना चाहिए। सेवा करना चाहिए। अपनी योग्यता का लाभ देना चाहिए। अंत में आचार्यश्री ने कहा 'आप जैन समाज को गौरवान्वित कर रहे हैं। देश सेवा करने का विचार है इसलिए हमारा आशीर्वाद है।'
  12. रत्नों का पारखी जौहरी रत्नों को देखकर उनकी गुणवत्ता को देखकर उनके मूल्य का आकलन कर लेता है। वैसे ही सच्चे गुरु भी शिष्यों की पहचान उनने हाव-भाव, उनकी विनय, वचन व्यवहार आदि के माध्यम से कर लेते हैं। ये चेतन रत्नों की पहचान करने वाले अनुपम जौहरी होते हैं। हमारे सच्चे गुरु शिष्य की शारीरिक चेष्टाओं और चेहरे के भावों को देखकर अंतस् के वैराग्य की परिणति को जान लेते हैं। इस प्रकार अपना शिष्यत्व स्वीकार करने वाले शिष्य के उपयुक्त गुणों को पहचानने में परम पूज्य आचार्यश्री की दृष्टि अदभुत है। एक प्रेरक प्रसंग। प्रसंग : बंडा में 16 फरवरी 2002 शनिवार के दिन दोपहर की सामायिक को आचार्यश्री जी आवर्त करके बैठे ही थे कि बंडा नगर के एक ब्रह्मचारी जी ने आकर आचार्यश्री के चरण कमलों में श्रीफल चढ़ाया और थोड़े हँसते हुए कहा- 'आचार्यश्री यह श्रीफल दीक्षा के लिए है। आप हमें मुनि दीक्षा प्रदान करें।' आचार्यश्री ने भी हँसते हुए कहा- 'अभी स्वीकार नहीं है। अभी यह श्रीफल ठीक से नहीं चढ़ रहा है। हँसते हुए दीक्षा का निवेदन नहीं किया जाता, गंभीरता के साथ होता है।' ब्रह्मचारी जी कुछ न कह सके, कुछ समय तक चुप रहने के बाद बोले- 'आचार्यश्री जी! और कैसे निवेदन किया जाता है, प्रसन्नता के साथ ही तो किया जाता है।' आचार्यश्री ने कहा- 'ठीक है, प्रसन्नता के साथ, गंभीरता होना चाहिए। दीक्षार्थी कैसा होता है? दीक्षा के भाव अंदर वैराग्य से भरकर आते हैं, और अभी तुम दूसरों के कहने से यहाँ आकर यह नारियल चढ़ा रहे हो इसलिए कहा अभी स्वीकार नहीं है। ब्रह्मचारीजी- 'नहीं आचार्यश्री जी! दूसरों के कहने से नहीं, स्वप्रेरणा से चढ़ा रहा हूँ।' आचार्यश्री- 'ठीक है। मैं समझ रहा हूँ।' बाद में ज्ञात हुआ कुछ महाराजों की प्रेरणा से ब्रह्मचारी जी श्रीफल चढ़ा रहे थे।
  13. आदमी की सोच और देखने का नजरिया यदि अच्छा है तो बुराई में भी अच्छाई को देख लेता है। वह प्रतिकूलता में भी अनुकूलता खोज लेता है, बना लेता है। जिसके पास यह गुण है उस व्यक्ति की महानता का सहज ही परिचय हो जाता है, क्योंकि महानता आदमी की बाहरी चमक-दमक वेशभूषा या आभूषणों से नहीं आंकी जाती है, वह तो उसकी आंतरिक भावना, भाषा व आचरण से ही देखी जाती है। यह गुण पूज्यवर आचार्यश्रीजी की चर्या विचार और चारित्र में हमें देखने को निरंतर ही मिलता है। उन्हीं का एक पावन प्रसंग। प्रसंग : बंडा जिला- सागर (म.प्र.) का प्रसंग : 15 फरवरी 2002 शुक्रवार का दिन आचार्यश्री दोपहर की सामायिक के लिए आवर्त करके बैठे, तभी एक मुनिराज ने कहा- ‘यह तखत गड़बड़ है। बीच में अंतर बहुत है, आपको बैठने में तकलीफ होती होगी।' आचार्यश्री बोले- 'क्या तकलीफ होती होगी?' मुनिराज ने कहा- 'मेरा आशय शारीरिक तकलीफ से है, आत्मा में तो तकलीफ ही नहीं होती है।' आचार्यश्री बोले- 'आज तक हम यही तो देखते आए हैं, ये खराब, वो खराब, हमेशा बाहर की ओर ही दृष्टि रही, इन सब बाहरी निमित्तों को भूलकर अपने आत्म द्रव्य को याद रखते तो कब का केवलज्ञान प्राप्त हो जाता।' मुनिराज ने सविनय कहा- 'आचार्यश्रीजी ! बाहरी साधन भी तो अनुकूल होना चाहिए, क्योंकि बाहरी निमित भी हमारी साधना में सहयोगी होते हैं।' आचार्यश्री- 'कौन कहता नहीं होते, होते हैं, पर हम उसे ही अपनी साधना का साधन मान लें, यह ठीक नहीं। निमित्त को निमित जानो, उसमें अच्छ बुरा यह राग-द्वेष मत करो।' इसके बाद आचार्यश्री सामायिक में लीन हो गए। ऐसी सोच हम सब में भी विकसित होना चाहिए। निज को जाने गुरुवरा, पर की कर पहेचान | ज्ञान ध्यान में नित रमे, गुरुवर कृपा निधान ||
  14. आदमी की अपनी आंतरिक क्षमता ही सारी विषमताओं को दूर कर देती है। फिर भी यदि प्रतिकूलता है और मन भी ऐसे समय में प्रतिकूल दिशा में जाए तो वह हार का ही सामना करता है। यदि मन कमजोर न हो, तन कमजोर भी हो जाए और मन में उत्साह बना हो तब वह कभी भी हार नहीं सकता है। ऐसे समय में अपने आदर्शी की संगति में व्यतीत हुआ समय, उनके वचन हमारे लिए प्रेरणास्पद बनकर एक नई रोशनी देते हैं- जैसे पूज्य गुरुदेव का यह प्रसग। प्रसंग : बात दयोदय तीर्थ- तिलवारा घाट जबलपुर 3 अगस्त 2001 शुक्रवार की है- चतुर्दशी का दिन था। आचार्यश्री को प्रात:काल अचानक कमर में दर्द हो गया। आचार्यश्री को पाक्षिक प्रतिक्रमण शीघ्रता में करना पढ़ा। आचार्य भक्ति के बाद आचार्यश्री ने हम सभी को बताया- 'आज तो विकल्प पूर्वक पाक्षिक प्रतिक्रमण किया। पता नहीं क्या हो गया कमर में? अभी तक तो दूसरे को कहते थे, आज स्वयं को दर्द हो गया।' आचार्यश्री ने इशारे में कहा- 'पता नहीं क्या हो गया?' हमने आचार्यश्रीजी से कहा- 'आप जल्दी-जल्दी उपवास क्यों कर रहे हैं इस वर्षायोग में? आप तो आठ दिन में एक उपवास करते थे। अब आप 4 दिन के अंतर से कर रहे हैं? आपको नित्य इतनी कक्षाएँ लेना, संघ को देखना, समाज को भी समय देना आदि बहुत से कार्य एक साथ करने पड़ते हैं, इससे शरीर निरन्तर कमजोर हो रहा है।' आचार्यश्री मौन! मंद-मंद मुस्कराते रहे। थोड़ी देर बाद बोले 'भाई अब मैं बूढ़ा-सा हो गया। अब तो सब काम मैं ही करूंगा ऐसा नियम नहीं है। आचार्यश्री बोले- 'मैने तत्कालीन प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी जी का समाचार पढ़ा- उन्होंने कहा है, 'मैं अपने प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा देना चाहता हूँ क्योंकि मैं बूढ़ा हो गया हूँ। मेरा शाररिक स्वास्थ्य टिक नहीं है | और में गटबंधन वाले इस संघटन पर कंट्रोल नहीं कर पा रहा हूँ। मैं तो अब पार्टी में सामान्य सदस्य की तरह रहकर काम करना चाहता हूँ।' आचार्यश्री हँसते हुए बोले- 'मैं भी बूढ़ा हो गया हूँ कमर दर्द होने लगा है, अब तो हमें भी अपने इस पद से इस्तीफा दे देना चाहिए। मैं तो सामान्य साधुओं की तरह संघ में रहना चाहता हूँ।' हमने आचार्यश्री से कहा- 'आपने ही कहा था कि पूज्य गुरुवर आचार्यश्री ज्ञानसागरजी महाराज को पैरों में साइटिका का बहुत दर्द रहता था, उन्होंने वृद्धावस्था में भी संघ का संचालन किया, आपको पढ़ाया।' आचार्यश्री बोले- 'अरे! उनके लिए शिष्य बहुत बाद में मिला था। मुझे तो अनेक शिष्य जल्दी-जल्दी मिल गए हैं।' तब तक अन्य महाराज बोले- 'पर आपको अभी बूढ़ा नहीं माना जाना चाहिए। आदमी तन से वृद्ध होता है, मन से नहीं।' आचार्यश्री- 'ये बात ठीक है, तन गड़बड़ कर रहा है। ये हमारा मन तो आचार्यश्री ज्ञानसागरजी ने बनाया है। इसे तो अंत समय तक जवान बनाए रखूँगा। यह उनका आशीर्वाद है, हारने वाला नहीं हूँ। 'इसके बाद सामायिक समय हो गया। खड़े हो गए आवर्त करके सामायिक में बैठ गए।
  15. तन मन को साधे, वह साधु है। लेकिन जो इनकी सेवा में लगा, तन को देखें और रस-नीरस, सुंदर-असुंदर के परिणाम करे, वह साधु होकर भी स्वादु है। स्वादु के लिए बाह्य साधनों में अच्छा पना दिखाई देता है, लेकिन सच्चे साधु को आत्म साधना में, आत्म आराधना में ही सार दिखाई देता है। परम पूज्य आचार्यश्री की दूरगामी दृष्टि हम जैसे साधकों को पावन प्रेरणा बन हमारा मार्ग प्रशस्त करती रहती है। प्रसंग : एक प्रसंग कटंगी प्रवास 16 जून 2001 का है। प्रात: काल आचार्यश्री के साथ शौच क्रिया को गए थे। मौसम बारिश का था। जाते समय बारिश नहीं हो रही थी, बाद में बारिश होने लगी। लौटते समय हवा के साथ पानी आने से आचार्यश्री और हम लोग भीग गए। मंदिर में आने के बाद आचार्यश्री का कपड़े से प्रक्षाल किया गया। तभी कुछ देर आचार्यश्री मौन रहने के बाद बोले 'जहाँ देह अपनी नहीं, तहाँ न अपना कोय।' फिर थोड़ी देर में बोले- 'देखो हम लोग इन पंक्तियों को पढ़ते हैं और दूसरों को सुनाते हैं, याद भी कर लेते हैं, लेकिन इन पंक्तियों के अनुसार पूर्णतया चल नहीं पाते।' बाद में पुनः गंभीरता में बोल- 'देखो वे मुनिराज, पूरा चातुर्मास एक वृक्ष के नीचे निकाल देते हैं, खड़े होकर या बैठकर ध्यान करते हैं। हम हैं कि कमरे में रहते हुए भी इसी विकल्प में लगे रहते हैं कि कहाँ चातुर्मास करना है? कब आएगा वह दिन जब हमें भी वैसा शरीर संहनन प्राप्त होगा? उत्तम संहनन प्राप्त करके हम भी वृक्ष के नीचे चातुर्मास कर सकें। बस यही भावना है।' सोचा- धन्य हैं गुरुदेव जिनके ऐसे भाव! इस पंचमकाल के आधुनिक युग में एक आध्यात्म ज्योति ने पुन: इस भारत वसुधा पर जिनशासन की महिमा को जन-जन को बताया।
  16. आध्यात्म के रहस्य को समझने से पहले कर्तव्य, भोगत्व और स्वामित्व को समझना जरूरी ही नहीं अनिवार्य भी है। आध्यात्म को अपने जीवन में जिसने भी समझा है उसने इन तीनों से पृथक् होकर ही समझा है। हम किसी 'पर' के कर्ता बनते हैं तो हस्तक्षेप करते हैं, जिससे सामने वाले को तकलीफ होती है, लेकिन वह कहता नहीं है। वह किसी कारण से मजबूर हैं। संसारी जीव का संसार में परिभ्रमण भी कभी मजबूरी में, तो कभी मनजोरी में यानि अहंकार ममकार आदि के कारण से हो रहा है। प्रसंग : पूज्य गुरुदेव के साथ रहकर आध्यात्म के कुछ ऐसे ही सूत्र सहज रूप में मिल जाते थे। बात कटंगी की है। आचार्यश्री के पास बैठा था। चर्चा चली, आचार्यश्री बोले- 'संसार में तीन बातें हैं और कुछ नहीं है।' पूछा- 'गुरुदेव वो कौनसी हैं?' उत्तर था- 'तीन कारण हैं- जिन्हें कर्तृत्व, भोगत्व और स्वामित्व कहते हैं। पूरे संसार रूपी महल की ये आधारशिला हैं'। आचार्यश्री बोले- 'समझ में आई कि नहीं! देखो मैं इसका कर्ता हूँ मै इसका स्वामी हूँ मैं इसका भोता हूँ बस इसके अलावा और भी कुछ है क्या? लेकिन मोक्षमार्ग इससे एकदम विपरीत चलता है'। संसार में मालिक कैसे बना? अधीनस्थ के कारण गुरु कैसे बना? शिष्य के कारण और भगवान कैसे कहलाए? भत के कारण। ये सब पर-सापेक्ष हो जाते हैं।' तब मुनिगण पूछ बैठे'आचार्यश्री! भगवान तो स्वाश्रित रहते हैं, पर सापेक्ष कैसे हो सकते हैं?' आचार्यश्री- 'अरे! भगवान कहने वाला कौन है? भक्त ही तो हैं। भगवान जो कहलाए वह भक्त के कारण ही तो कहलाए और भक्त नहीं तो भगवान कौन कहेगा? हालाँकि भक्त के भगवान कहने या न कहने पर भगवान के 'भगवानप्पन' पर कोई अन्तर नहीं पड़ता। ये बात अलग है कि भक्त उन भगवान का सहारा लेकर अपना कल्याण कर लेता है।' गंभीर चिंतन है पूज्य गुरुदेव का संसार की गहराई बहुत है, इसको पाना बहुत कठिन है। इसलिए संसार में रहो पर उसमें उलझो नहीं, जो उलझे तो फिर निकलना बहुत मुश्किल है|
  17. सशक्त अवधारणाओं के माध्यम से आत्मविश्वास की एक ऐसी भावना का जन्म होता है जिसमें साधक को 'स्व' का लक्ष्य ही दिखाई देता है, मगर 'पर' में भी अपने आपको उलझा हुआ देखने का प्रयास करता है। वह अपने आत्मविश्वास को सदा विकसित करता रहता है और बाधक कारणों से अपने आपको दूर, बहुत दूर करता हुआ अपने साधक कारण के निकट, बहुत निकट होने का सदा पुरुषार्थ करता रहता है। आचार्यश्री का प्रत्येक क्षण अपने आपको साधने का और लक्ष्य को पाने के लिए होता है, जो उनकी दिनचर्या से पता चलता है। उनके एक छोटे से संस्मरण में विशाल दृष्टिकोण छिपा है, जिसको सामान्य व्यक्ति आसानी से नहीं समझ सकता। संस्मरण : बात कुंडलपुर सिद्धक्षेत्र 18 मार्च 2001 रविवार के दिन की है। आहार चर्या का समय हुआ, आचार्यश्री अपने कक्ष से उठे और बाहर खड़े हो गए। हम कुछ महाराजों ने अपना-अपना कमण्डल उठाया और आचार्यश्री का अनुशरण कर पीछे पहुँच गए। इतने में एक ब्रह्मचारीजी आचार्यश्री का कमण्डल लेकर आ गए। तभी हमने देखा आचार्यश्री अपने ही शरीर की छाया को बहुत गौर से देख रहे हैं। आचार्यश्री से पूछा- 'आप कुछ देख रहे हैं? इतने ध्यान से क्या देख रहे हैं?' आचार्यश्री अपने चेहरे पर मुस्कान बिखरते हुए बोले- 'अब तो हम अपने आपकी छाया में बैठना चाहते हैं। लेकिन क्या करें, बैठ ही नहीं पाते।' तभी एक मुनिश्री ने पूछा- 'आप अपने आपकी छाया में बैठोगे कैसे? आपके दर्शन ही के लिए तो सभी लोग आते हैं। हम लोगों की पूछ तो आप से ही हैं। आचार्यश्री- 'अरे महाराज! ऐसा नहीं है। गलत मत सोचो। अरे! तुम लोगों के कारण हमारी पूछ है।' मुनिश्री बोले- 'आप कह रहे हैं पर ऐसा नहीं है। हम लोग तो आपकी छत्रछाया में है, इसलिए सभी लोग हम लोगों को पूछते हैं।' आचार्यश्री- 'अगर ऐसा है तो मैं भी अपनी छाया को इसलिए देख रहा हूँ और सोच रहा हूँ जब आप लोग हमारी छत्रछाया में हो, तो मैं भी क्यों नहीं अपनी छाया में बैटू? हम अपनी छाया में बैठना चाहते हैं, और आप लोग भी अपनी-अपनी छाया में बैठा करो।' आचार्यश्री का यह संस्मरण हम सभी साधकों को यह प्रेरणा देता है कि वे अपनी आत्म साधना करना चाहते हैं और हम लोग भी अपनी आत्म साधना करें। हमारा साधना का प्रयास अनवरत चलता रहे। आत्म विश्वास सदा उत्साहमय बना रहे तब लक्ष्य की प्राप्ति संभव है। धन्य है ऐसे गुरुवर जिनका प्रत्येक क्षण आत्मविश्वास और आत्म-विकास की भावना को लिए होता है।
  18. दर्द भी हार कर बैठ जाता है जब साधक की साधना तन्मयता की चरम सीमा पर होती है। वह एक ही विचार करता है, दर्द जड़ है, लेकिन सहन करने वाला चेतन है। दर्द कर्म है, जो पौद्गलिक है लेकिन कर्म के फल का भोक्ता चेतन आत्मा है। वह सोचता है, जैसा बीज भूमि पर डाला जाता है, वैसा ही वृक्ष उगता है, उसके वैसे ही फल होते हैं। इसलिए कर्म के फल में क्यों दूसरे सहारे की अपेक्षा रखें। ऐसा चिंतन करने वाला महान साधक योगी होता है। इसी प्रकार आचार्यश्री के जीवन में हमने देखा, जब भी कोई दर्द होता है तो कभी यह नहीं कहते कि मुझे दर्द हो रहा है, सहन करते हैं। एक प्रसंग ऐसा ही है। प्रसंग : बात मुक्तागिरि सिद्ध क्षेत्र जनवरी- 1998 के शीतकालीन प्रवास की है। आचार्यश्री के गले में अचानक दर्द होने लगा। मुँह में पानी बहुत आता था, उसे अंदर करते तो दर्द होता था। 2-3 दिन बहुत वेदना रही। दिनभर तो हम लोग महाराज जी के पास बैठकर तत्व चर्चा आदि करते सो उनका मन लगा रहता था। लेकिन रात्रि में मात्र 2-3 महाराज आचार्यश्री के पास रहते थे। पर आचार्यश्री को दर्द के कारण नींद नहीं आई थी, आँखें भरीभरी-सी दिख रही थी। प्रात:काल जाकर आचार्यश्री के चेहरे को देखा, तो सहज ही पूछ लिया- लगता है आज आपको रात्रि में नींद नहीं आई? आचार्यश्री के चेहरे पर मुस्कान बिखर गई, पर वे मौन रहे। हमने पुनः पूछा - "बिल्कुल नींद नहीं आई? समझ में नहीं आता कैसा दर्द है?" आचार्यश्री हँसते हुए बोले- 'कैसा दर्द है नहीं अपना दर्द है।' अपने ही तो कर्म हैं, तो उसका फल भी तो हमें भी भोगना पड़ेगा।' पुनः पूछा- 'जब रात्रि में दर्द होता था, तब क्या करते थे?" आचार्यश्री- 'कुछ नहीं सहन करता था। जब दर्द बहुत तेज होता था तो बैठ जाता था, कम हुआ तो लेट जाता था। नींद का इंतजार करता रहता था। "नींद कैसे होती है", हमारे पास सोने वालों को देखता था, देखो ये कैसे सो रहे हैं। इन लोगों की नींद लगी रहती थी, मैं बैठा-बैठा देखता था, फिर संकेतों में बोले- उस समय एक चीज हमारा बहुत जरूरी साथ दे रही थी।" हम लोगों ने पूछा- "क्या साथ दे रही थी?" आचार्यश्री- 'घड़ी की टिक-टिक आवाज साथ दे रही थी।' हमने पूछा- 'कैसे साथ दे रही थी आचार्यश्रीजी ये घड़ी की टिक-टिक?' आचार्यश्री- 'मैं घड़ी को देखता रहता और मन में सोचता था, देखो ये घड़ी निरन्तर चल रही है, चलायमान है। इस कालद्रव्य को रोका नहीं जा सकता है। हमने भी सोचा कि हमारे असाता वेदनीय कर्म इस घड़ी के अनुसार चल रहे हैं। निकलने दो अपने ही कर्म हैं। यही सोचते-सोचते इसी दौरान साता वेदनीय कर्म का उदय आ गया और थोड़ी देर के लिए नींद आ गई। हम लोगों ने पूछा- 'आप इतने दर्द में भी ऐसा चिंतन कर लेते हैं?' आचार्यश्री- 'अरे भैया! ऐसा ही चिंतन करना चाहिए। दुख के समय कोई साथ नहीं देता है, अपना चिंतन ही हमारे साथ रहता है। कोई, यदि साथ दे भी दे तो दर्द नहीं मिटा सकता है'। अपना साता वेदनीय कर्म उदय हो तो बाह्य निमित्त साथ देते हैं और यदि नहीं हो तो कोई कुछ कर ले, कोई साथ नहीं देता है।' इस प्रकार दर्द में भी चिंतन के मर्म की गहराई में डुबकी लगाने वाले महान आचार्यश्री हम लोगों को इस प्रकार की प्रेरणा देते रहते हैं। जिससे हमें भी सहन करने की मानसिक शक्ति बनी रहती है। एक प्राचीन कवि की पंक्तियाँ यहाँ आचार्यश्री के दर्द सहन करने की शक्ति को जैसे सहन कर रही हों। कवि कहते हैं- देह घरे को दंड है, सब कहू को होय | ज्ञानी भुक्ते ज्ञान ते, मुरख भुक्ते रोय ||
  19. मोक्षमार्ग के साधकों की साधना में सहायक बनना वैय्यावृत्ति कहलाती है। परस्पर एक-दूसरे को सहारा देना, साथ देना और साधना में उत्तरोत्तर वृद्धि हो इस प्रकार की भावना करना ही वैय्यावृति है। वैय्यावृत्ति स्व-पर दोनों की हुआ करती है। कैसे? स्व की वैय्यावृत्ति अपने आपको गुरुओं के बताए हुए मार्ग पर चलकर धर्म की प्रभावना और आत्मा की साधना में लगकर, अपने मन को निर्मल बनाए रखना यह स्वयं की वैय्यावृत्ति है। पर की वैय्यावृत्ति एक कोई आपका अपना साधर्मी जो साधना मार्ग पर चल रहा, लेकिन शारीरिक दृष्टि से या मानसिक रूप से शिथिल होता है, तो उसको तद्नुसार अनुकूल सहायता करना ही पर की वैय्यावृत्ति है। जिस समय जैसी सहायता की आवश्यकता हो, उसे उस समय वैसी ही अनुकूलता उपलब्ध कराना वैय्यावृत्ति है। परम पूज्य आचार्यश्री जी हम सभी-साधकों को इसी प्रकार की प्रेरणा देते हैं। अपने साधर्मियों का सहयोग करने को कहते हैं। उदाहरण : बात छिंदवाड़ा 21 फरवरी 1998 की है। प्रात:काल आचार्य भक्ति के बाद इष्टोपदेश का पाठ हुआ। इसके बाद वैय्यावृत्ति को लेकर आचार्यश्री से पूछ तो आचार्यश्री ने कहा- 'संघ का निर्वाह एक व्यक्ति से नहीं होता है, एक-दूसरे के पूरक होकर ही संघ का निर्वाह हुआ करता है। जब हम एक-दूसरे के पूरक होकर वैय्यावृत्ति करते हैं तो वात्सल्य भाव बना रहता है। यदि एक साधक का दूसरे साधक के प्रति इस प्रकार का भाव नहीं हो तो हमारा ध्यान कौन देगा। संघ का निर्वाह गृहस्थों के द्वारा नहीं होता है, वे तो एक सीमा तक ही कर सकते हैं। हमारी भी एक सीमा होती है। इसलिए हमें सदा वैय्यावृत्ति के भाव बनाए रखना चाहिए। कल हमारे लिए भी किसी के सहयोग की जरूरत पड़ जाए, इसलिए हमें भी दूसरे का सहयोग करते रहना चाहिए।' एलोपेथी होम्योपेथी नहीं संत के पास | और दावा की भी नहीं करते वहे आश || सिम्पेथी इन सबसे बहेतर जो, संत ह्रदय में करती सदा निवास ||
  20. कोनीजी क्षेत्र में षट्खंडागम ग्रन्थराज स्वाध्याय के दौरान कुछ गणित संबंधी विषय आया। आचार्यश्रीजी ने उसे एक उदाहरण के माध्यम से बहुत जल्दी हल करके समझा दिया। सबकी समझ में आ गया। तभी एक महाराज ने कहा- 'लगता है आप जब स्कूल में पढ़ते होंगे तब गणित में अच्छे नंबर लाते होंगे? यह पूछने उन्होंने पर एक घटना सुनाई। 'मैं जब पढ़ता था, उस समय एक दृढ़भाजक गणित होता था। उत्तर भारत में क्या कहते हैं। ज्ञान नहीं। दक्षिण भारत में दृढ़भाजक कहते हैं। कक्षा में इसी का एक सवाल सभी के लिए हल करने को दिया। हमने (पीलू) शीघ्र ही हल करके दिखा दिया। लेकिन शिक्षक महोदयजी ने देखा और बोले 'गलत है, बैठ जाओ।” मैं सोचता रहा। बार-बार हल किया। उत्तर वही आता था, पूछ उतर आया कि नहीं। हमने कहा- 'उत्तर तो वही आ रहा है। मेरी दृष्टि में तो सवाल गलत नहीं, कहाँ पर गलती है आप बताइए।' शिक्षक ने कहा उत्तर तो सही है, मैं देखना चाहता था तुम अपने किये हल पर कितने स्थिर हो। मैं तुम्हारे साहस और दृढ़ता को देखना चाहता था, तुम्हारी मानसिकता को देखना चाहता था। जैसे ही शिक्षक ने ऐसा कहा मैं प्रसन्न हो गया। आचार्यश्री आज भी उसी साहस और दृढ़ता से कठोरतम साधना भी सहज ही में कर लेते हैं, क्योंकि बचपन से ही जिसने साहस दृढ़ता का पाठ सीखा हो, वह समता को कैसे नहीं धारण कर सकता। 'साधना के पथ पर दृढ़ता के साथ चलते हुए सबको चला रहे हैं।' आगे आगे बड चले, लक्ष्य को लिए विशाल | द्रड साहेस एकाग्रता, हल कर देती सवाल ||
  21. बहोरीबंद, 30 अप्रैल 2001 सोमवार को आचार्यश्री जी के पास शाम के समय सामायिक के पूर्व बैठा था। आज गर्मी के कारण उमस बहुत थी। हमने कहा- आज गर्मी बहुत है, हवा भी नहीं चल रही है। आचार्यश्री जी- 'हाँ आज अधिक गर्मी तो है। तुम लोगों को तो ये पहली गर्मी मिली दीक्षा के बाद। इससे पूर्व अमरकंटक में तो गर्मी लगी ही नहीं थी।' हमने कहा- हाँ, मुनि दीक्षा के बाद तो ये पहली गर्मी है। आचार्यश्री ने इसी दौरान बताया आचार्यश्री ज्ञानसागरजी की सल्लेखना के समय जब मैं साथ में राजस्थान में था। उस समय 7 बजे ऐसा लगने लगता था जैसे हीटर के सामने बैठे हैं। 1015 कदम पर ही आहार को जाता था, लेकिन जैसे ही आहार करके आता था तो थोड़ी ही देर में मुँह सूखने लगता था। ऐसी गर्मी में महाराज ने सल्लेखना ली थी। उस वर्ष अकाल का तीसरा वर्ष था। लगातार तीन वर्षों से अकाल पढ़ रहा था, वर्षा नहीं हुई थी। महाराज जी की सल्लेखना ज्येष्ठ कृष्ण अमावस्या को हुई और दो दिन बाद लगातार दो दिन तक अच्छी वर्षा हुई। ऐसी गर्मी में महाराज ने अपने शरीर की वेदना को सहा और अपने समता परिणामों को स्थिर बनाए रखा था। धन्य है उनकी साधना, उनका तो मेरे ऊपर बड़ा उपकार है। ऐसा करते हुए आचार्यश्री जी सामायिक में बैठ गए। गुरुनाम गुरु देव के, साधक सुधिपुमान | तपन सहे सम भाव से, शीतल करे सुज्ञान ||
  22. दूसरों में अनुशासन को लाने के लिये पहले स्वयं अनुशासित होना अनिवार्य है। कभी-कभी बड़े-बड़े प्रशासनिक अधिकारी भी अपने क्षेत्र में अनुशासन नहीं बना पाते वहीं जो स्वयं अनुशासन के मार्ग पर चलते हैं उनसे मार्गदर्शन लेकर के सभी स्वयं ही अनुशासित हो जाते हैं। ऐसा ही एक प्रसंग पूज्य आचार्यश्री का है। 4 अप्रैल 2001, बुधवार बहोरीबंद में शाम को कटनी जिला के कलेक्टर शहजाद खान एवं एस.पी. अशोक अवस्थी 6 तारीख को मुख्यमंत्री आ रहे हैं, यह सूचना लेकर आए थे। चर्चा चली। आचार्यश्रीजी ने दोनों लोगों से कहा 'आप लोगों को गरीब जनता में शराब आदि व्यसनों से बचाने के लिए निर्देशन मार्गदर्शन करना चाहिए।' एस.पी. जी बोले 'महाराज आज की जनता पुलिस की भी बात नहीं मानती।' आचार्यश्रीजी बोले- 'हाँ, यह बात तो सही है, हम जब छोटे थे। दक्षिण भारत में तो पुलिस वाले जैसे ही दिखते थे तो हम घर में छुप जाते थे। साइकिल पर दो व्यक्ति बैठे होते थे तो उतरकर भाग जाते थे। या घर में घुस जाते थे। इतना डरते थे, लेकिन आज की जनता तो पुलिस को डराती है। उसी के ऊपर प्रहार करती है। बड़ी दुर्दशा है आज।' एस.पी.- 'महाराज! आज की जनता को हम लोग नहीं सुधार सकते। आप जैसे महान व्यक्ति (महात्मा) ही अपने उपदेश आदि से सुधार सकते हैं।' आचार्यश्री- 'भैया आज की जनता तो हमारी बात भी नहीं मानती, पुलिस के डंडे से बात मानती है।' एस.पी.- 'नहीं महाराज व्यक्तियों की बुद्धि सुधारने में आप लोगों की वाणी बड़ा काम करती है। 'आचार्यश्री- 'हाँ! यह बात सही है। व्यक्ति की बुद्धि को सुधारने में संतों की वाणी बहुत काम करती है, लेकिन इसके लिये सबसे पहले स्वयं सुधरना पड़ता है। शराब-सिगरेट पीने वाला दूसरों से यह व्यसन नहीं छुड़ा सकता। अनुशासनहीन व्यक्ति दूसरों को अनुशासित नहीं रख सकता।' दोनों अधिकारियों ने पुनः नमस्कार किया। बोले- 'आपसे चर्चा करके बहुत अच्छा लगा। आप सदा हम सभी के प्रति ऐसा ही आशीवाद भाव बनाए रखें।' संत चरण में आय के, सम्यक पथ को पाय | मन खुशियों से भर उठे, सदाचारी हो जाय ||
  23. प्रतिभा का निखार व्यक्ति के सम्यक् पुरुषार्थ में छुपा होता है और ज्ञान का भंडार व्यक्ति के उपयोग में। बहुमुखी प्रतिभा की परीक्षा ज्ञान-अर्जन के क्षेत्र में ही देखी जाती है। व्यक्ति का जीवन देखा जाए तो पानी के बुलबुले के समान होता है, लेकिन उसके अंदर की प्रतिभा, ज्ञान अर्जन की लगन एवं व्यक्तित्व सागर की गहराई की तरह अथाह होता है, जो अपने अंदर बहुत कुछ समेटे रहता है। व्यक्ति का व्यक्तित्व ही अांतरिक और व्यवहारिक जीवन की विशेषताओं का नेतृत्व करने वाला होता है। आचार्यश्री का जीवन अगणित प्रेरक प्रसंगों से भरा हुआ है। वे जिन्होंने अपनी यात्रा शून्य से अनंत की ओर प्रारंभ की है, अपनी मातृ भाषा से अलग हिन्दी भाषा को कैसे प्राप्त किया। क, ख, ग से हिन्दी का ज्ञान लेकर मूकमाटी जैसे श्रेष्ठ हिन्दी महाकाव्य की सर्जना कैसे की? यह विस्मयकारी तथ्य है। बात उस समय की है जब आचार्यश्री ज्ञानसागरजी के पास ब्रह्मचारी विद्याधरजी साधनारत थे। उस समय पंडित श्री हीरालालजी शास्त्री ब्यावर वाले आचार्यश्री ज्ञानसागरजी के पास आते थे। पंडितजी श्री ज्ञानसागरजी महाराज से धर्म चर्चा करते थे। ब्रह्मचारी विद्याधरजी वहीं पर बैठकर उनकी चर्चा को ध्यान से सुनते थे। यह क्रम प्रतिदिन का था। पंडितजी का आना, चर्चा करना, ब्रह्मचारी विद्याधर का हिन्दी न जानते हुए भी चर्चा को सुनना। वे हिन्दी समझ भी नहीं पाते थे फिर भी सुनते जरूर थे। एक दिन ब्रह्मचारीजी आचार्यश्री श्री ज्ञानसागरजी से बोले 'पंडितजी इतनी अच्छी हिन्दी बोलते हैं, हमें ऐसा बोलना कब आएगा?' आचार्यश्री ज्ञानसागरजी मुस्करा कर बोले- 'चिंता मत करो सब आ जाएगा।’ स्वाध्याय कराते हुए एक दिन जब इस प्रसंग को बताया तो हम लोगों ने प्रति प्रश्न किया- 'आचार्यश्री आपको हिन्दी नहीं आती थी तब तो आपको बहुत विकल्प रहता होगा।' आचार्यश्री बोले 'बहुत विकल्प रहता था, दिनभर उसी में लगा रहता था। रात में तैयारी करता था, सुबह महाराज को सुनाता था।' फिर पूछा- मूकमाटी आपने कैसे लिखी? आचार्यश्री ने कहा' यह सब गुरु महाराज का आशीर्वाद है। रात्रि में चिंतन करता था और प्रात: काल सम्बन्धी नित्य क्रिया से निबटकर लिखा करता था।' आचार्यश्री के इस संस्मरण से उनकी नैसर्गिक प्रतिभा का ज्ञान हुआ। उनके अंतरंग व्यक्तित्व का भान हुआ। कितना कठिन पुरुषार्थ करके उन्होंने हिन्दी पढ़ना और लिखना सीखा व 'मूकमाटी' जैसे हिन्दी के अदभुत महाकाव्य के रचियता बने। हिन्दी वर्णमाला के गिने चुने अक्षरों से बनने वाले अनगिनत सार्थक शब्दों और उन शब्दों में जीवंत भावों के संयोजन से रची सहज-सरल बोलती-सी कविताओं का प्रस्तुतिकरण ही तो है 'मूकमाटी' महाकाव्य जो मात्र एक कथानक ही नहीं वरन जैन दर्शन के गूढ़ रहस्यों को भी रोचक ढंग से जनसुलभ बनाता है। प्रतिभा के अदभुत धनि और गुनी गुणवान | ज्ञान परायणत में निरत, साधक सुधी पुमान ||
  24. सूर्य का प्रकाश बाह्य जगत को और ज्ञान का आलोक भीतर के अज्ञान अंधकार को दूर करता है। सूर्य की ही तरह ज्ञान-सूर्य भी जब कर्म-प्रेरित अज्ञान के बादलों की ओट में आ जाता है तो उसकी आत्मा, उसकी प्रकाशक शक्ति भी छिप जाती है। इसमें दोष ज्ञान या सूर्य का नहीं है, अपितु अज्ञान या बादलों का है। साधक हमेशा अज्ञान की परिधि को दूर हटाने और अपनी आत्म निधि को प्रकट करने की ओर दृष्टि रखता है साथ ही अज्ञान के कारणों से दूर रहता है। आचार्यश्री का जीवन ऐसे ही साधकों में से एक है। जो स्वयं आत्म प्रकाश में रहते हैं और दूसरों को भी प्रकाशित होने को प्रेरित करते हैं। प्रसंग : 1 फरवरी 1997 नानपुरा (सूरत) का है। प्रात:काल आचार्य भक्ति के बाद चर्चा हुई और चर्चा का विषय बना कि "ग्रंथ और निग्रथ का क्या संबंध है?" आचार्यश्री बोले 'आज बहुतायत से हो रहे ग्रंथों के प्रकाशनों को देखकर ऐसा लगता है कि अब ग्रंथों के प्रति विनय ही नहीं रही। जिनवाणी के प्रति वह आदर-भाव, वह विनय नहीं रही। आज प्रकाशन प्रतिष्ठा के विषय होते जा रहे हैं, आत्मनिष्ठ के नहीं।' साधु के लिए ग्रंथ तो ठीक है, लेकिन ग्रंथमाला को खोलना ठीक नहीं है। ग्रंथ परिग्रह का कारण नहीं है। इसलिए निर्ग्रथ वही जो ग्रंथ से तो जुड़े, लेकिन ग्रंथमाला के चक्कर में न पड़े। क्योंकि ग्रंथमाला जो होती है वह ग्रंथि का काम करती है। ग्रंथ ही ग्रंथि का कारण बन जाए तो इस निग्रथ मार्ग का क्या होगा? यह एक विचारणीय बात है अत: इस ओर दृष्टि होना चाहिए। जिससे प्रकाश मिलता है यदि वही अंधकार में हो जाए तो मार्ग ही दूषित हो जाएगा। लो देखिये दिए की ज्यों हाथ हों जुड़े | कितने विनम्र ज्योति के दाता हमें मिले ||
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