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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • आजीवन व्रत की तथाकथा

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    सन् 1977 में आचार्यश्री पुन: कुण्डलपुर पधारे। आचार्यश्री ने कुण्डलपुर में चातुर्मास करने की स्वीकृति दी। उस समय दोपहर में प्रवचनसार ग्रन्थ की वाचना चल रही थी। जब उनका स्वाध्याय पूर्ण हुआ तो मैंने एक भजन सुनाया। फिर साहस बटोर कर आचार्यश्री के पीछे-पीछे चलने लगी, वसतिका की ओर। मुझे देखकर सारे लोग आचार्य श्री के पास जा पहुँचे। आचार्यश्री बोले- यह इतनी सारी भीड़ यहाँ क्यों आ गई ?

     

    मैंने कहा- मुझे आज आपसे ब्रह्मचर्यव्रत लेना है। इन सबको पता लग गया है, इसलिए ये सब हमारे कुटुम्ब परिवार के तथा पटेरा वाले लोग हैं। अच्छा- आचार्य श्री ने कहा। फिर पूछने लगे- अच्छा, कौन सा व्रत लेना है। मैंने कहा बालब्रह्मचर्यव्रत, जीवनपर्यन्त और दूसरी प्रतिमा भी लेना है। सुनते ही आचार्य श्री मुझको बड़ी स्नेहभरी दृष्टि से देखने लगे। देखते ही तेजी से मुस्कुराते रहे। मैंने फिर बात दोहरायी और श्रीफल चढ़ा दिया। फिर आचार्यश्री बोले- अभी तुम छोटी हो। मैंने कहा- शरीर छोटा है, ऐसा सुना और पढ़ा है। मगर आत्मा सबकी बराबर एक-सी होती है। सुनकर आचार्य श्री बहुत तेजी से हँसने लगे। कहते हैं- अच्छा।

     

    मैंने पुन: कहा- आपसे ही व्रत लेकर आपको गुरु बनाना है। आज 9 अगस्त है, मुझे बड़े बाबा ने स्वप्न दिया था कि यह तुम्हारे गुरु हैं, इनसे व्रत लो। मुझे ऐसा स्वप्न आया है। अगर आप नहीं देंगे तो मैं बड़े बाबा से ले लेंगी। लेकिन शायद वह प्रमाणित नहीं होगा। आप चेतन गुरु हैं। बातें सुनकर नीची दृष्टि किये हुए मुस्कुराते रहे। फिर वे बोले- लगता है यह वही बालिका है जो पिछले वर्ष मुझसे व्रत माँग रही थी। मैंने कहा आचार्यश्री आपने उस समय नहीं दिया था, मगर मुझे आपसे ही व्रत लेना है।

     

    आचार्यश्री बोले- अभी पाँच साल का ले लो। मैंने कहा- आचार्यश्री, पाँच साल का नहीं, जीवन पर्यन्त का चाहिये और दो प्रतिमा भी चाहिये। मेरे जीवन पर मेरा अधिकार है, मुझे अपना जीवन सार्थक बनाना है। आचार्यश्री बोले- कह दिया न, पाँच साल का ले लो। मेरी तरफ स्नेहभरी दृष्टि से देखा, फिर सभी दर्शकों की तरफ देखकर कहते हैं कि- मेरे गुरु आचार्य ज्ञानसागर जी ने कहा था- मैं अपने जीवन में गुरुकुल नहीं खोल पाया तुम गुरुकुल खोलना। लगता है यह वही बच्ची तो नहीं है गुरुकुल का उदघाटन करने वाली।

     

    मैंने ये वाक्य गुरुमुख से सुने। मैंने कहा- जी, मैं ही हूँ। आप मुझे जीवनपर्यन्त का व्रत दीजिये, फिर बहुत सोच विचार करते हुये सभी कुटुम्बी जनों से मेरे बारे में पूछने लगे। सभी ने कहा बच्ची तो धर्मात्मा है। रात को पानी भी नहीं पीती। ऐसी कई बातें उन्होंने बताई। आचार्यश्री बोले- बच्ची पढ़ी लिखी है, बी.ए. प्रथम वर्ष। मैं तो नौवी कक्षा तक ही पढ़ा हूँ। यह मुझसे ज्यादा पढ़ी है। ऐसा बोले और कहते हैं- जीवन पर्यन्त व्रत देने का अभी मुझे साहस नहीं हो रहा है, लेकिन यह तो जिद कर रही है। सभी से कहते हुए बोले- बोलो, क्या करें ? माँ से पूछा तो माँ कहने लगी महाराज श्री पाँच साल का ही ठीक है। अधिक का नहीं देना। बोले- यह तो मान नहीं रही।

     

    फिर मैंने आचार्यश्री से कहा-  कोई भी माँ-बाप व्रत दिलवाने में राजी कभी नहीं होते। आचार्यश्री ने तेजी से हँसते हुए मेरी तरफ देखा। मैंने कहा आचार्य श्री मुझे जीवनपर्यन्त का ही चाहिये। आचार्य श्री बोले- अच्छा ले लो, अपना श्रीफल चढ़ा दो। मैंने श्रीफल चढ़ा दिया। जीवन पर्यन्त के लिए मुझे व्रत दे दिया। फिर मैंने कहा- दूसरी प्रतिमा के भी व्रत चाहिये। मैंने बारह व्रतों के बारे में समझकर, नोट बनाकर, कापी में लिख लिये। आचार्य श्री बोले- अच्छा, व्रत भी कापी में लिख लिये हैं। जी महाराज। इसलिये प्रतिमा भी चाहिए। आचार्य श्री ने कहा- इसमें तो मात्र दो बार भोजन करना पड़ेगा !

     

    मैंने कहा- इसकी साधना कर ली, तीन बार अन्न खाने का नियम था। अब दो बार खा लूगी। ऐसा फिर सुनते ही आचार्यश्री बोले- देखो सभी लोग सुनो। बच्ची ने ब्रह्मचर्य व्रत और दो प्रतिमा के व्रत अपनी जिद से ग्रहण कर लिये। कोई अब इसको, कभी किसी भी प्रकार से ताडना मत देना। मेरी तरफ देखकर कहते हैं- तुमने व्रत ले लिया है। घर में रहोगी तो कभी किसी चीज को माँगकर पूर्ति नहीं करना। फिर सभी को कहा उठो सभी लोग। मुझसे कहा- तुम और तुम्हारी माँ यही बैठी रही।

     

    मैं और मेरी माँ आचार्यश्री के पास बैठी रहीं। आचार्य श्री ने ब्रह्मचर्यव्रत के बारे में तथा वेशभूषा कैसी रखना, किस तरह से व्रतों का पालन करना, किस प्रकार का आहार लेना, किस प्रकार मर्यादा से खाना, उठना, बैठना आदि का तरीका समझाया। जब मैं नमोऽस्तु करके जाने लगी तो कहते हैं- दो बार अन्न खाना। लेकिन तीसरी बार फलाहार करना, क्योंकि अभी तुम्हें अध्ययन करना है। अन्तराय भी अभी ऐसे पालन करना, जिस सामग्री में कुछ आ जाये उसको अलग करना ध्यान रखना। धीरे-धीरे ही साधना करना। बाद में मैं सब बताता जाऊँगा। लौकिक पढ़ाई का विकल्प नहीं करना। बस जाओ, मैं अब प्रतिक्रमण करूँगा। मैं नमोऽस्तु करके आ गई। मन को लगा जैसे वर्षों की समस्या सुलझ गई हो।


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