एक बार दशलक्षण पर्व के दिनों में कुछ बहिनें प्रवचन करने जा रही थीं। आचार्य श्री ने सबके लिए आशीर्वाद दे दिया। मैं भी साथ में गई थी। सभी बहिनें आशीर्वाद लेकर उठकर चली गई। जब मेरा नम्बर आया, तो आचार्य श्री बोले- अभी से सभी प्रवचनकत्री बन जाओगी तो यह आचार्यप्रणीत ग्रन्थ कौन पढ़ेगा ? फिर ग्रन्थों के पढ़ने में मन नहीं लगता। प्रवचन की तैयारी में इधर-उधर की पत्रिकायें पढ़ने में आती हैं, फिर सारी जिंदगी प्रवचन ही तो करना है। मैंने विचार किया जो आचार्यश्री कह रहें है बिलकुल ठीक कह रहे हैं। अभी से प्रवचन करने में लग जायेंगे तो फिर छोटी-बड़ी पत्रिकायें को देखने का मन करता ही है। मैनें फिर आचार्य श्री की आज्ञा को शिरोधार्य किया, प्रवचन करने का विकल्प छोड़ दिया।
आज आर्यिका पद में वही बात याद आती है कि इसके बाद तो प्रवचन ही प्रवचन करना पड़ेंगे। विहार करके आये कि माइक मंच तैयार मिलता है। वर्ष भर प्रवचन। अध्ययन कराने में बोलना ही बोलना रह गया। आचार्य प्रणीत ग्रन्थ उस समय न पढ़ती तो यहाँ उतना समय नहीं दे पाती। गृहस्थों के अनुरूप ही अध्ययन कराना पड़ता है, प्रवचन करना | पता है वास्तव में वे ही शिक्षा दे पाते हैं जो अनुभव से गुजरते हैं। सच है कि आचार्य महाराज अनुभव से परिपक्व होते ही हैं।