एक बार की बात है, मणीबाई जी कुछ बहिनों को सागवाड़ा आश्रम ले गई। वहाँ से वे पारसोला में, जहाँ पंचकल्याणक हो रहा था और परम पूज्य आचार्य श्रीधर्मसागर जी महाराज का संघ तथा अन्य साधुओं का संघ विराजमान था, ले गई। उस समय करीब पचहत्तर साधु थे। सभी के दर्शन किये। मणिबाई जी के साथ जैसे ही आचार्य धर्मसागर जी महाराज के दर्शन किये, वह बोले- मणिबाई जी तुम्हारे गुरु मिथ्यात्व को अकिचित्कर क्यों बताते हैं ? ऐसा कहकर वे अनर्थ कर रहे हैं। बताओ तो, वे किस अपेक्षा से बोलते रहते हैं ? बाई जी उस समय थोड़ा मौन सी रहीं। आचार्य श्री धर्मसागर जी ने मेरी तरफ देखा, फिर बोलेब्रह्मचारिणी तुम इसका जबाव दे सकती हो ? कर्मकाण्ड बगैरह पढ़ा है। आचार्य श्री मैंने कर्मकाण्ड का अभी स्वाध्याय किया। अच्छा बताओप्रथमगुणस्थान में कितनी प्रकृतियों का बन्ध होता है? मैंने कहा- सोलह प्रकृतियों का। बोले- कौन-कौन हैं ? मुझे खड़ा करके सोलहप्रकृतियाँ कहने को कहा। मैंने सोलह प्रकृतियों की गाथा मिच्छतहुण्डसडा. वाली गाथा पूर्ण कहकर गिना भी दीं। बोले- देखो। प्रथमगुणस्थान में मिथ्यात्व का बन्ध हो रहा कि नहीं ? फिर बहुत लम्बी चर्चा की। चर्चा से कुछ सार समझ में नहीं आ रहा था। अन्त में बाई जी बोलीं- महाराज यह आचार्यों का विषय है। मुझे इसके बारे में अधिक समझाते-सुनाते नहीं बन रहा है। ऐसा कहकर वहाँ से नमोऽस्तुकरके आ गई।
जब हमारे गुरुदेव आचार्य श्री पपौराक्षेत्र में ग्रीष्मकालीन वाचना कर रहे थे, तब उनके पास पहुँचे। मैंने नमोऽस्तु किया। बाई जी भी साथ थी। सभी ने वहाँ की चर्चा सुनाई। मैंने कहा- आचार्य श्री, आचार्य श्री धर्मसागर जी महाराज ने मिथ्यात्व अकिचित्कर के बारे में पूछा था, हम लोगों को इसका सटीक जबाव देना नहीं आया। अब आचार्य श्री आप बताईये। कोई पूछे तो इसका जबाव किस तरीके से देना चाहिये। आचार्य श्री बोले- इसका जबाव संक्षिप्त में ही देना। सामने वाला जल्दी से समझ जायेगा। द्रव्यसंग्रह की गाथा 33 में कहा है
पयडिट्टिदिअणुभागप्पदेसभेदा दुचदुविधो बंधो ।
जोगा पयडिपदेसा,ठिदिअणुभागा कसायदो होंति ॥
देखो, चार प्रकार के बन्ध हैं- प्रकृति, प्रदेश, स्थिति और अनुभाग। जिसमें प्रकृति और प्रदेशबन्ध योग से होते हैं। स्थिति और अनुभागबन्ध कषाय से होते हैं। इसमें मिथ्यात्व कहा है?
मेरा सागर में प्रवचन हुआ था। प्रवचन में मैंने इतना ही कहा था, विस्तार से तो कहा नहीं था। अगर कोई पूछे तो इतना कह देना, हो गया समाधान। मुझे उस दिन गुरुमुख से जैसा सुना, हृदय पुलकित हुआ। इस विषय को कहने का आधार मिल गया। मैंने आचार्य श्री से कहा- बस आपने इतना कहा, इस पर इतना विवाद हो गया, चर्चा का विषय बन गया ?
आचार्य श्री ने कहा- ऐसा ही है, सामने आकर कोई बात नहीं करता। ऐसा ही चलता रहता है। मैंने उस वक्त यह लाइन सुनाई थी- 'राम और रावण दो जन्ना, उनने उनकी नार हरी, उनने उनको मारना। इतनी सी को बातन्ना, तुलसी लिख गये पोथना।' सुनते ही आचार्य श्री बहुत हँसते रहे। कहते हैं- यही बात है। इस प्रकार हम शिष्यों को संक्षिप्त सटीक जबाव देने की विधि में कुशल बनाया। धन्य है, हमारे गुरु महाराज !
एक बार इसी विषय को लेकर कुण्डलपुर में पुस्तक मिली। मिथ्यात्व अकिचित्कर नहीं है। मैंने उसको पढ़ा। उसमें सम्यक्तत्व की परिभाषा लिखी थी, लेकिन उसमें लिखा था जो इस बात को लिख रहा है वह सम्यग्दृष्टि है। इन शब्दों को पढ़कर मुझे क्रोध सा आ गया कि यह बात मेरे गुरु को लिखी है, क्योंकि वही कहते हैं- मिथ्यात्व अकिचित्कर। उनके लिये ही यह कहा जा रहा है। मेरे मन से उस पुस्तक को पढने की डच्छा ही समाप्त हो गयी।
कुण्डलपुर के आदिनाथ जिनालय में आचार्य श्री के सामने तत्वचर्चा चल रही थी। बहुत सुन्दर तरीके से समझा रहे थे। मैंने कहाआचार्य श्री मुझे अकिचित्कर एक जो पुस्तक आर्थिक विशुमती जी ने निकाली है, उस पुस्तक में सम्यक्तत्व की परिभाषा पढ़ी तथा उसमें ऐसा लिखा था कि सम्यक्तत्व की परिभाषा लिखने वाला सम्यग्दृष्टि है, मुझे पढ़कर क्रोध आ गया था।
आचार्य श्री बोले- अच्छा, तुम्हें पढ़ने मात्र से इतनी उत्तेजना आ गई। उसकी सोची, जिसने लिखने में इतना समय लगाया, दिमाग लगाया। इतनी मेहनत की और तुमने सिर्फ पढ़ा है। ऐसा नहीं होना चाहिये। ऐसा कहकर मुस्कुराने लगे। मैंने सुना तो ऐसा लगा- गुरु के अन्दर इतनी विशालता है। वह अपने बारे में भी सुनकर समता धारण किये हुए हैं। और हम जैसे पढ़कर कुपित हो रहे हैं। यह है गुरु से उचित शिक्षा, जो हमेशा मुझे याद रहती है। कभी इस प्रकार के प्रसंग बनते हैं तो गुरु शिक्षा याद आ जाती है।