Jump to content
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

Administrators
  • Posts

    22,360
  • Joined

  • Last visited

  • Days Won

    896

 Content Type 

Forums

Gallery

Downloads

आलेख - Articles

आचार्य श्री विद्यासागर दिगंबर जैन पाठशाला

विचार सूत्र

प्रवचन -आचार्य विद्यासागर जी

भावांजलि - आचार्य विद्यासागर जी

गुरु प्रसंग

मूकमाटी -The Silent Earth

हिन्दी काव्य

आचार्यश्री विद्यासागर पत्राचार पाठ्यक्रम

विशेष पुस्तकें

संयम कीर्ति स्तम्भ

संयम स्वर्ण महोत्सव प्रतियोगिता

ग्रन्थ पद्यानुवाद

विद्या वाणी संकलन - आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के प्रवचन

आचार्य श्री जी की पसंदीदा पुस्तकें

Blogs

Events

Profiles

ऑडियो

Store

Videos Directory

Everything posted by संयम स्वर्ण महोत्सव

  1. उत्तरप्रदेश के ललितपुर जिले में स्थित देवगढ़ भारतीय संस्कृति एवं कला का एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक स्थल है। लगभग ३०० फीट ऊँची पहाड़ी पर स्थित किले और उसके भीतर निर्मित जैन देवालयों एवं देवमूर्तियों की दृष्टि से देवगढ़ की मान्यता संपूर्ण भारत में एक अद्धितीय कला स्थल के रूप में है। देवगढ़ में मुख्यत: पाँचवी-छठी शताब्दी से १६ वीं-१७वीं शताब्दी के बीच भारतीय कला का अजस्र प्रवाह देखा जा सकता है। वस्तुत: देवगढ़ की जैन कला 'कला कला के लिये है' इस अवधारणा से आगे बढ़कर 'कला जीवन के लिये है' के भाव उजागर करती है। देवगढ़ में ४१ जैन मंदिर तथा असंख्य मूर्तियाँ अवस्थित है। इन मन्दिरों तथा मूर्तियों की प्रचुर संख्या, निर्माण की विभिन्न शैलियाँ शिल्प के अनूठे प्रयोग, कला वैविध्य तथा इनके निर्माण की लम्बी कालावधि के कारण देवगढ़ जैन मूर्तिकला तथा स्थापत्य का महत्वपूर्ण केन्द्र है। देवगढ़ की जैन कला के विषय में अध्ययन के कुछ महत्वपूर्ण प्रयत्न भी हुए है, जिनमें जर्मनी के विद्वान डॉ० क्लाज ब्रुन की पुस्तक "दि जिन इमेजेज आफ देवगढ़" तथा डॉ भागचन्द्र भागेन्दु के शोध-ग्रन्थ देवगढ़ की जैन कला: एक सांस्कृतिक अध्ययन उल्लेखनीय है। देवगढ़ स्थित विपुल पुरासम्पदा, मन्दिर, मूर्तियाँ, बेतवा नदी, घाटियाँ एवं वन्य जन्तु विहार आदि मिलकर देवगढ़ को न केवल तीर्थ स्थल बल्कि एक सुरम्य पर्यटन स्थल भी बनाते हैं। बारह भावना राजा राणा छत्रपति, हाथिन के असवार। मरना सबको एक दिन, अपनी-अपनी बार।१। दल बल देवी देवता, मात-पिता परिवार। मरती बिरियां जीव को, कोऊ न राखन हार।२। दाम बिना निर्धन दुखी, तृष्णा वश धनवान। कबहूँना सुख संसार में, सब जग देख्यो छान।३। आप अकेला अवतरे, मरे अकेला होय। यो कबहूँ इस जीव का, साथी सगा न कोय।।४।। हाँ देह अपनी नहीं, तहाँ न अपना कोय। घर सम्पत्ति पर प्रगट ये, पर हैं परिजन लोय।।५।। दिपै चाम-चादर मढ़ी, हाड़ पींजरा देह। भीतर या सम जगत में, और नहीं धिन गेह।।६।। मोह नींद के जोर, जगवासी घूमें सदा। कर्म चोर चहुं ओर, सरवस लूटें सुध नहीं।७। सतगुरु देय जगाय, मोहनींद जब उपशमैं। तब कुछ बनहिं उपाय, कर्मचोर आवत रुकें।८।। ज्ञान-दीप तप-तेल भर, घर शोधे भ्रम छोर। या विधि बिन निकसें नहीं, बैठे पूरब चोर।९। पंच महाव्रत संचरण, समिति पंच परकार। प्रबल पंच इन्द्रिय विजय, धार निर्जरा सार॥१०।। चौरह राजु उतुंग नभ, लोक पुरुष संठान। तामें जीव अनादि तें, भरमत हैं बिन ज्ञान।११।। धन कन कंचन राजसुख, सबहि सुलभकर जान। दुर्लभ है संसार में, एक जथारथ ज्ञान।१२।। जाचे सुर-तरु देय सुख, चिन्तत चिन्ता रैन। बिन जांचेबिन चिन्तये, धर्मसकल सुख दैन।।१३।।
  2. जिनेन्द्र भगवान के द्वारा जो सन्मार्ग का, जीवादि तत्वों का उपदेश दिया जाता है वह जिनागम कहा जाता है। इसे जिन की वाणी अर्थात् जिनवाणी भी कहते हैं। जिन हो जाने पर प्रत्येक जीव सर्वज्ञ और वीतरागी हो जाते हैं उन्हें तीन लोक में स्थित सभी चराचर, चेतन अचेतन पदार्थों का ज्ञान हो जाता है और उनके अन्दर से राग और द्वेष का पूर्ण अभाव हो जाता है। उस अवस्था में जो उपदेश दिया जाता है, वह प्रमाणिक होता है, अत: जिनेन्द्र भगवान के वचन सर्वथा सत्य एवं ग्रहण करने योग्य हैं। पूर्वकाल में आचार्यों, मुनियों एवं श्रावकों की बुद्धि तीक्ष्ण थी, स्मरण शक्ति भी तेज थी। उन्हें एक, दो बार गुरु मुख से सुना हुआ विषय याद हो जाता था, अत: पूर्व में जिनवाणी लिपिबद्ध नहीं थी। किन्तु कालक्रम से बुद्धि का ह्रास होने से तथा जब स्मरण शक्ति कम होने लगी तब सर्वप्रथम आचार्य पुष्पदन्त-भूतबली महाराज ने षट्खण्डागम नामक सिद्धान्त ग्रंथ को ताड़-पत्र पर उत्कीर्ण किया/लिपिबद्ध किया। यही क्रम आगे भी चलता रहा अनेक आचार्य मुनियों ने गुरु परम्परा से प्राप्त जिन-वचनों की अपनी बुद्धि, शक्ति और शैली के अनुसार अनेक ग्रंथों में लिपिबद्ध किया। जिनेन्द्र भगवान द्वारा कथित आगम को विषय वस्तु के भेद से समझाने हेतु चार भागों में (अनुयोगों में) विभाजित किया गया है, वे भेद प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग, द्रव्यानुयोग हैं। - प्रथमानुयोग – तीर्थकर, चक्रवर्ती आदि तिरेसठ शलाका-पुरुषों के चरित्र निरूपक अनुयोग को प्रथमानुयोग कहते हैं। आचार्य समन्तभद्र जी ने इसे बोधि और समाधि का निधान कहा है। प्रथमानुयोग पढ़ने से प्रशम भाव आता है, जब हमारे मन में उत्तेजना आती है, प्रतिकूलता में मन जब उद्वेलित होने लगता है तब हम पूर्वजों की बात समझकर/स्मरण कर समता धारण करते है।'अरे मैं किस बात पर दु:खी होता हूँ रामचन्द्र जी, सीता जी के ऊपर कितने कष्ट आये, फिर भी उनकी आँखे लाल नहीं हुई फिर मैं क्यों क्रोध करूं' ऐसा प्रशम भाव आता है। प्रथमानुयोग के कुछ ग्रंथ– पद्म पुराण, आदि पुराण, उत्तर पुराण, हरिवंश पुराण, पाण्डव पुराण, श्रेणिक चरित्र, प्रद्युमन चरित्र, धन्यकुमार चारित्र आदि। - करणानुयोग - लोक अलोक का विभाग, युग परिवर्तन और चतुर्गति के जीवों की स्थिती के निरूपक अनुयोग को करणानुयोग कहते हैं। इस अनुयोग में अधोलोक, मध्यलोक और उध्र्वलोक का सविस्तार वर्णन है। इसके विषय परोक्ष (इंद्रिय अगम्य) होने से आस्था के विषय हैं तिलोयपण्णति, त्रिलोकसार, जम्बूद्वीप पण्णति आदि ग्रंथ करणानुयोग के ग्रंथ हैं। – चरणानुयोग – गृहस्थ और मुनियों के चारित्र की उत्पति, वृद्धि और रक्षा के कारणों का वर्णन जिन ग्रंथों में पाया जाय उन्हें चरणानुयोग जानना चाहिए। गृहस्थों का सामान्य आचार, भक्ष्याभक्ष्य विवेक, अणुव्रत, ग्यारह प्रतिमाओं का वर्णन, मुनियों के अट्ठाईस मूलगुणों का वर्णन, सल्लेखना का स्वरूप, विधी आदि का वर्णन इस अनुयोग का प्रमुख प्रतिपाद्य विषय हैं। चरणानुयोग के कुछ ग्रंथ - रत्नकरण्डक श्रावकाचार, सागारधर्मामृत अनगार धर्मामृत, मूलाचार, भगवती आराधना, श्रावक धर्म प्रदीप, मूलाचार प्रदीप आदि। - द्रव्यानुयोग - जिस अनुयोग में पंचास्तिकाय, जीवादि छह द्रव्य, सात तत्व, नौ पदार्थ आदि का विस्तार से वर्णन हो उसे द्रव्यानुयोग कहते हैं। समयसार, नियमसार, द्रव्यसंग्रह, समाधि-शतक, इष्टोपदेश, तत्वार्थ सूत्र, आलाप पद्धति आदि द्रव्यानुयोग के ग्रंथ हैं। अन्य प्रकार से द्रव्यानुयोग को निम्न रुप में व्यवस्थित किया गया है। द्रव्यानुयोग अमागान्म अध्यात्म सिद्धान्त–षट्खण्डागमादि भावना–कार्तिकेयानुप्रेक्षादि न्याय –अष्टसहस्त्री अादि ध्यान-ज्ञानार्णव अादि जिनवाणी पढ़ने-सुनने से निम्नलिखित लाभ हैं - जिनवाणी अमृत के समान है, जिससे संसारी प्राणी का दु:ख रूपी ताप शांत हो जाता है, सहनशीलता का विकास होता हैं। राग-द्वेष रुप कषाय भावों में कमी आती हैं, पूर्व में बंधे हुए अशुभ कर्मों की निर्जरा होती हैं। अज्ञान का नाश एवं आनन्द (सुख) की उत्पति होती हैं। निरवद्य स्वाध्याय करते समय पाप का बंध रुक जाता हैं। सच्चे देव-शास्त्र-गुरु पर आस्था मजबूत होती हैं। देवों के द्वारा पूजातिशय को प्राप्त होते हैं। न समझ आने पर भी श्रद्धा पूर्वक सुना हुआ जिनवचन भविष्य में केवल ज्ञान की उत्पत्ति में कारण बनता हैं।
  3. तीर्थकर का स्वरूप – धर्म का प्रवर्तन कराने वाले महापुरुष तीर्थकर कहलाते हैं। तीर्थकरों के गर्भ, जन्म, तप, केवल ज्ञान और निर्वाण ये पाँच कल्याणक होते हैं। इन्द्रों के द्वारा किये जाने वाले महोत्सव विशेष को कल्याणक कहते हैं। तीर्थकर प्रकृति का बंध - तीर्थकर बनने के संस्कार सोलह कारण रूप अत्यन्त विशुद्ध भावनाओं द्वारा उत्पन्न होते हैं, उसे तीर्थकर प्रकृति का बंधना कहते हैं। ऐसे परिणाम केवल मनुष्य भव में और वहाँ भी किसी तीर्थकर वा केवली के पादमूल में ही होने से सम्भव हैं। चौबीस तीर्थकर - चौबीस तीर्थकरों के क्रम, नाम, चिह्न निम्नलिखित हैं :- ऋषभनाथ जी - बैल अजितनाथ जी - हाथी संभवनाथ जी - घोड़ा अभिनन्दन नाथ जी - बंदर सुमति नाथ जी - चकवा पद्म प्रभु जी - लाल कमल सुपाश्र्वनाथ जी - साथियाँ चन्द्रप्रभ जी - चन्द्रमा पुष्पदंत जी - मगर शीतल नाथ जी - कल्पवृक्ष श्रेयांस नाथ जी - गेंडा वासूपूज्य जी – भैसा विमलनाथजी - सूकर अनन्तनाथ जी - सेही धर्मनाथ जी - वज्रदण्ड शान्तिनाथ जी - हिरण कुन्थु नाथ जी - बकरा अरनाथ जी - मत्स्य मल्लिनाथजी - कलश मुनिसुव्रत जी - कछुवा नमिनाथ जी - नील कमल नेमिनाथ जी - शख पाश्र्वनाथ जी - सर्प महावीर जी - सिंह श्री वासुपूज्य, श्री मल्लिनाथ, श्री नेमिनाथ, श्री पाश्र्वनाथ और श्री महावीर ये पाँच तीर्थकर बाल ब्रह्मचारी थे अर्थात् इन्होनें विवाह नहीं कराया एवं राज-पाट भोगे बिना कुमार अवस्था में ही दीक्षा धारण की। एक से अधिक नाम वाले तीन तीर्थकर हैं :- श्री ऋषभ नाथ जी - आदिनाथ जी श्री पुष्पदन्त जी – सुविधिनाथ जी श्री महावीर जी – वीर, अतिवीर, वर्द्धमान, सन्मति आदिनाथ भगवान – कैलाश पर्वत से, वासुपूज्य भगवान - चंपापुर से नेमिनाथ भगवान - गिरनार पर्वत से, महावीर भगवान - पावापुर से व शेष बीस तीर्थकर श्री सम्मेदशिखर जी से मोक्ष गये। शांतिनाथ जी, कुन्थुनाथ जी व अरनाथ जी एक साथ तीन पद तीर्थकर, चक्रवर्ती और कामदेव पद के धारी थे। तीर्थकरों के पांच वर्ण प्रसिद्ध हैं - जिसमें चन्द्रप्रभ व पुष्पदन्त जी का गौर वर्ण, मुनिसुव्रत व नेमिनाथ जी का साँवला वर्ण, सुपाश्र्वनाथ एवं पाश्र्वनाथ जी का हरा वर्ण, पद्मप्रभ एवं वासुपूज्य जी का लाल वर्ण तथा शेष सोलह तीर्थकरों का स्वर्ण वर्ण था। मल, मूत्र आदि अशुद्ध पदार्थ तीर्थकरों के शरीर में नहीं होते। इनके शरीर के खून का रंग दूध जैसा सफेद होता है। जिस प्रकार पुत्र के प्रति वात्सल्य भाव होने से माता के द्वारा किया हुआ भोजन का कुछ अंश दूध के रूप में परिणत हो जाता है उसी प्रकार तीर्थकर का तीनों लोकों के प्राणियों के प्रति वात्सल्य भाव होने से उनके खून का रंग दुध के समान श्वेत होता है। तीर्थकरों के दाढ़ी पूँछ नहीं होती। परन्तु सिर पर बाल होते हैं। तीर्थकर स्वयं दीक्षित होते हैं, दीक्षा लेते ही उन्हें मन: पर्यय ज्ञान प्रकट हो जाता हैं। सभी तीर्थकर चतुर्थकाल में ही जन्म लेते हैं एवं उसी काल में निर्वाण को प्राप्त होते हैं किन्तु हुण्डा अवसर्पिणी काल दोष से आदिनाथ भगवान तृतीय काल में ही जन्म लेकर निर्वाण को प्राप्त हुए अर्थात् मोक्ष गये। वृषभनाथ, वासुपूज्य और नेमिनाथ (१,१२, २२) तो पद्मासन एवं शेष सभी तीर्थङ्कर कायोत्सर्गासन (खड्गासन) से मोक्ष पधारे थे, किन्तु समवसरण में सभी तीर्थङ्कर पद्मासन से ही विराजमान होते हैं। जीवन भर (दीक्षा के पूर्व) देवों के द्वारा दिया गया ही भोजन एवं वस्त्राभूषण ग्रहण करते हैं।तीर्थङ्कर स्वयं दीक्षा लेते हैं। तीर्थङ्कर मात्र सिद्ध परमेष्ठी को नमस्कार करते हैं। अत: 'नम:सिद्धेभ्य:' बोलते हैं। जब सौधर्म इन्द्र तीर्थङ्कर बालक का पाण्डुकशिला पर जन्माभिषेक करता है। उस समय तीर्थङ्कर के दाहिने पैर के अँगूठे पर जो चिह्न दिखता है, इन्द्र उन्हीं तीर्थङ्कर का वह चिह्न निश्चित कर देता है।
  4. जिनशब्द का विश्लेषण 'जिन' के द्वारा कहा गया धर्म अर्थात् जिन ने जिस धर्म का कथन किया, उपदेश दिया वह धर्म है, जैन धर्म। 'जिन' ईश्वरीय अवतार नहीं होते, वे स्वयं अपने पौरुष के बल पर स्वयं के काम - क्रोधादि विकारों को जीतकर जिन बनते हैं, 'जिन' शब्द का अर्थ होता है जीतने वाला। जो जिन बनते हैं, वे हम प्राणियों में से ही बनते हैं। प्रत्येक जीवात्मा परमात्मा बन सकता हैं जैसे दूध में घी शक्ति के रूप में विद्यमान हैं उसी प्रकार आत्मा में 'जिन' बनने की शक्ति विद्यमान है। विशेष साधना के बल से कर्मों को आत्मा से पृथक कर सभी जीव भगवान बन सकते हैं। जैन धर्म और तीर्थकर - जैन धर्म अनादि काल से चला आ रहा हैं और आगे भी अनंतकाल तक चलेगा। यह धर्म किसी विशेष महापुरुष के द्वारा प्रवर्तित धर्म नहीं हैं अत: भगवान महावीर को जैन धर्म का संस्थापक मानना ठीक नहीं हैं। समय-समय पर आत्म साधना के द्वारा जिन्होंने जिनत्व को प्राप्त किया है ऐसे सर्वज्ञ भगवान द्वारा जिन धर्म का उपदेश दिया जाता रहा है। उसी परम्परा के प्रत्येक काल में चौबीस - चौबीस तीर्थकर एवं अनेक केवली भगवान द्वारा जिन धर्म को आगे बढ़ाया गया। भगवान महावीर इस युग के चौबीसवें तीर्थकर थे। इन्होंने जिन धर्म की स्थापना नहीं की अपितु जिन धर्म का प्रवर्तन किया उसके सिद्धान्तों से जन- जन को परिचित कराया। जैन धर्म के मुख्य सिद्धान्त - १. अहिंसा, २. प्राणी स्वातन्त्र्य, ३. ईश्वर कर्ता नहीं, ४. अवतार वाद नहीं, ५. अनेकान्त और स्याद्वाद, ६. अपरिग्रहवाद। अहिंसा - सृष्टि के सभी प्राणी हमारे जैसे सुख दु:ख का वेदन करने वाले हैं, वे दु:खों से बचना चाहते हैं और सुख पाना चाहते हैं। अत: किसी भी प्राणी को मन वचन और काय से कष्ट नहीं पहुचाना ही श्रेष्ठ अहिंसा हैं। अहिंसा शब्द हिंसा के अभाव को प्रदर्शित करता हैं। अत: हम हिंसा को समझ लें, द्रव्य हिंसा और भाव हिंसा के भेद से हिंसा दो प्रकार की है। अपने परिणामों में दूसरों को कष्ट पहुँचाने, मारने का भाव होना, क्रोधादि कषाय की तीव्रता होना भाव हिंसा है। भाव हिंसा होने पर अन्य का घात होना, पीड़ा पहुँचना द्रव्य हिंसा है। हिंसा के चार भेद कहे हैं :- १. संकल्पी हिंसा २. आरंभी हिंसा ३. उद्योगी हिंसा ४. विरोधी हिंसा 'मैं अमुक जीव को मारूंगा' ऐसा संकल्प करना संकल्पी हिंसा है। गृहस्थी संबंधी कार्यों में होने वाली हिंसा आरंभी हिंसा है। व्यापार, खेती आदि कार्यों में होने वाली उद्योगी हिंसा है। अपने देश, धर्म, परिवार की रक्षा के उद्देश्य से हुई हिंसा विरोधी हिंसा है। हिंसा कर्म का त्याग ही अहिंसा धर्म है। अहिंसा कायरता नहीं अपितु मानव में मानवता को प्रतिष्ठित करने का अनुष्ठान है। प्राणी स्वातंत्र्य - इस सृष्टि में रहने वाले प्रत्येक प्राणी में/आत्मा में भगवान/परमात्मा बनने की क्षमता है, चाहें वह एकेन्द्रिय पृथ्वीकायिक अथवा वनस्पतिकायिक आदि जीव ही क्यों न हो। जैसे की स्वर्ण प्राप्ति हेतु (भूगर्भ से) उसके ऊपर पड़ी मिट्टी को हटाना(खोदना) पड़ता है, उसी प्रकार आत्मा पर पड़े कर्म रूप आवरण को हटाने पर परमात्मा दशा प्राप्त हो सकती है। ईश्वर अकर्तृत्व – इस सृष्टि को, सृष्टि में रहने वाले प्राणियों को, पर्वतों को, नदियों को करने वाला (बनाने वाला) कोई ईश्वर या बह्मा नहीं हैं। यदि यह कहा जाये कि इन्हें ईश्वर ने बनाया तो फिर ईश्वर को किसने बनाया यह प्रश्न उठेगा। जिसका समाधान नहीं हैं, अत: यह सृष्टि और उसमें रहने वाले प्राणी सभी अनादि काल से हैं तथा भविष्य में अनंतकाल तक रहेंगे, इनका कोई स्रष्टा व विध्वंसक ईश्वर नहीं है। प्राणियों की सुखी-दु:खी, अमीर-गरीब, जीवन-मरण, रोगी-निरोगी इत्यादि विभिन्न दशाओं को करने वाला कोई ईश्वर नहीं है वह तो उदासीन रूप से सब पदार्थों को जानने देखने वाला मात्र है। प्राणी जैसा अच्छा या बुरा कार्य/कर्म करता हैं उसी के अनुसार पुण्य, पाप कर्म प्रकृतियों का बंध होता है उन बंधी हुई कर्म प्रकृतियों के उदय आने पर सुख-दुख, जीवन-मरण आदि जीव की विभिन्न दशाएं होती है। अवतारवाद नहीं - भगवान धरती पर पुन: जन्म नहीं लेते। जिन्होंने कर्म रूपी शत्रुओं को जीतकर भगवत् दशा प्राप्त की है ऐसे जीव पुन: धरती के प्राणियों के उद्धार, कल्याण हेतु धरती पर जन्म नहीं लेते। जैसे दूध से घी बन जाने पर पुन: दूध रूप में परिवर्तन संभव नहीं हो सकता वैसे ही कर्म बंध के कारणों का अभाव होने पर भगवान का पुन: मनुष्य बनना संभव नहीं। पूर्व भव में जिन्होंने विशेष पुण्य किया था ऐसे संसारी जीव ही महापुरुष के रूप में धरती पर जन्म लेकर तीन लोक के जीवों का उपकार करते हैं | अनेकान्त और स्यादवाद - एक ही वस्तु में परस्पर विरोधी अनेक गुणधर्म पाये जाते हैं जैसे वस्तु नित्य भी है और अनित्य भी है, एक भी अनेक भी, सत् भी असत् भी आदि। इस बात को स्वीकारना भी अनेकान्त है। अत: वस्तु अनेकान्त रूप है। अनेकान्तात्मक वस्तु के स्वरूप को कथन करने वाली शैली स्याद्वाद कहलाती है। इसका अर्थ कथचित् किसी दृष्टि से, किसी अपेक्षा से वस्तु के स्वरूप का कथन करना जैसे वस्तु कथचित् नित्य है। कथचित् अनित्य है। अपरिग्रहवाद - परिग्रह का अभाव सो अपरिग्रह है। मूच्छी भाव, आसक्ति भाव, पर पदार्थों का ममत्व मूलक संग्रह करना परिग्रह कहलाता है। खेत, मकान, सोना, चाँदी, गाय आदि धन, गेहूँ आदि धान्य, दासी दास, वस्त्रादि कुष्य और बर्तनादि भांड की अपेक्षा से परिग्रह के दस भेद कहे हैं। परिग्रह ही दु:ख का मूल स्रोत/कारण हैं। अत: दु:ख से बचने हेतु परिग्रह का त्याग करना चाहिए। इस ही का नाम अपरिग्रहवाद हैं। अपरिग्रहवाद ही सुख प्राप्ति का अचूक साधन है। विशेष ध्यान रखने योग्य - जैन धर्म हिन्दु धर्म नहीं है और ना ही हिन्दु धर्म की शाखा है। जैन धर्म एक स्वतंत्र धर्म है एवं सबसे प्राचीन धर्म है। जैनधर्म और हिन्दुधर्म में मूलभूत अंतर निम्न हैं - जैन धर्म - जिनेन्द्र द्वारा उपदिष्ट द्वादशांग रूपी श्रुतज्ञान ही प्रमाण भूत, सत्य हैं। हिन्दु धर्म - वेद, स्मृतिग्रन्थ, ब्राह्मणों के अन्य प्रमाण भूत एवं अपौरुषेय ग्रन्थ प्रमाण है | जैन धर्म - धार्मिक तत्व और सारणी स्पष्ट और निश्चित हैं। हिन्दु धर्म - परस्पर विरोधी अनेक सिद्धान्त हैं। जैन धर्म - यह जगत् अनादि अनिधन है इसका कोई स्रष्टा नहीं हैं। हिन्दु धर्म - जगत का सृष्टा ईश्वर हैं और यह जगत नष्ट भी हो जाता हैं। जैन धर्म - प्रत्येक काल में (उ. अ.) में तीर्थकर होते हैं, वे सत्य धर्म का उपदेश देते हैं। हिन्दु धर्म - सनातन धर्म ईश्वर की प्रेरणा से बह्मा ने प्रकट किया हैं। जैन धर्म - मनुष्य ही मोक्ष प्राप्त कर सकता है देवता नहीं। हिन्दु धर्म - देवता मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं। जैन धर्म - कर्म सूक्ष्म पौद्गलिक तत्व है जो आत्मा के साथ बंधते हैं एवं स्वयं फल देते हैं। हिन्दु धर्म - कर्म एक अदृष्ट सत्ता है, जो ईश्वर के इशारे पर फल देता हैं। जैन धर्म - मुक्त जीव लोक के अग्रभाग पर स्थित रहते हैं। हिन्दु धर्म - मुक्त जीव बैकुण्ठ में अनंत काल तक सुख भोगता हैं। जैन धर्म - अवतारवाद नहीं मानते हैं। हिन्दु धर्म - अवतारवाद मानते हैं। जैन धर्म - अपने शुभ कर्मों से सुख मिलता हैं। हिन्दु धर्म - ईश्वर की कृपा से सुख मिलता हैं।
  5. 'णमोकार महामंत्र' (प्राकृत भाषा) नमस्कार महामंत्र (हिन्दी भाषा) णमो अरिहंताणं अरिहंतों को नमस्कार णमो सिद्धाणं सिद्धों को नमस्कार णमो आइरियाणं आचार्यों को नमस्कार णमो उवज्झायाणं उपाध्यायों को नमस्कार णमो लोए सव्व साहूणं लोक में (स्थित) सभी साधुओं को नमस्कार णमोकार मंत्र की महिमा 'एसो पंच णमोयारो, सव्वपावप्प पणासणो। मंगलाण च सव्वेसिं, पढ़मं हवइ मंगल।' यह पंचनमस्कार मंत्र सभी पापों का नाश करने वाला है तथा सभी मंगलो में प्रथम (श्रेष्ठ) मंगल है। णमोकार मंत्र का स्वरूप - अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, एवं साधु इन पाँच परमेष्ठियों को जिस मंत्र में नमस्कार किया गया है उसे णमोकार मंत्र कहते है। णमोकार मंत्र सभी मंत्रो में श्रेष्ठ अर्थात प्रधान है। इसमें किसी व्यक्ति विशेष को नमस्कार नहीं किया गया है अपितु शास्त्रों में कहे गये विशिष्ट गुणों से सहित परम-आत्माओं को नमस्कार किया गया है। णमोकार मंत्र के अन्य नाम - इस मंत्र के अन्य नाम भी कहे जाते हैं, जैसे महामंत्र, मूलमंत्र, मंत्रराज, मृत्युञ्जयी मंत्र, अपराजित मंत्र, पंच नमस्कार मंत्र, अनादि-अनिधन मंत्र, सर्वकालिक मंत्र, त्रैकालिक मंत्र, मंगल मंत्र इत्यादि। णमोकार मंत्र का इतिहास - पंच-परमेष्ठी अनादिकाल से होते आ रहे हैं तथा आगे भी अनंतकाल तक होते रहेंगे, इस अपेक्षा से यह मंत्र अनादि-अनिधन है इसका कोई रचयिता नहीं है। लगभग २००० वर्ष पूर्व प्रथम शताब्दी में आचार्य पुष्पदन्त एवं आचार्य भूतबली मुनिराज द्वारा रचित सिद्धांत ग्रन्थ षट्खण्डागम जी में मंगलाचरण के रूप में पूर्ण एवं शुद्ध णमोकार मंत्र को सर्वप्रथम लिपिबद्ध किया गया। णमोकार मंत्र में पदादि - यह मंत्र प्राकृत भाषा में आर्या छंद के रूप में लिखा गया है। इस मंत्र का निरन्तर स्मरण करन वाल साधक का चित प्रसन्नता और निर्मलता का अनुभव करता है। इसमें ५ पद ३५ अक्षर तथा ५८ मात्राएँ हैं। णमोकार मंत्र की महिमा - इस मंत्र के स्मरण और चिन्तन मनन से समस्त बाधाएं दूर हो जाती है। मरणोन्मुख कुत्ते को जीवन्धर कुमार ने णमोकार मंत्र सुनाया था, जिसके प्रभाव से वह पाप पड़ से लिप्त श्वान मरणोपरान्त स्वर्ग में देव हो गया था। अत: सिद्ध है कि यह मंत्र आत्म विशुद्धि का बहुत बड़ा कारण है। णमोकार मंत्र और जाप - जो मन को एकाग्र, शांत कर दे अर्थात मंत्रित, नियन्त्रित कर दे उसे मन्त्र कहते है। मन को एकाग्र करने हेतु यथा - तथानुपूर्वी मन्त्र का जाप, पाठ कर सकते है जैसे णमो आइरियाण से शुरू करना इत्यादि। यह मन्त्र १८४३२प्रकार से बोला जा सकता है। मन्त्र को पवित्र अथवा अपवित्र किसी भी दशा में पढ़ सकते हैं। विशेष इतना है कि पवित्र द्रव्य, क्षेत्र, काल में ही मुख से उच्चारण करें अन्यथा मन में ही मनन, चिन्तन करना चाहिए। णमोकार मंत्र के जाप की विधियाँ बैखरी - उच्चारण पूर्वक लय से णमोकार मन्त्र का शुद्ध पाठ/उच्चारण करना। उपांशु - उच्चारण जिसमें ओष्ट एवं जिहवा हिलती है मगर आवाज बाहर नहीं आती। पश्य - मन ही मन णमोकार मंत्र का जाप जिसमें न ओष्ठ हिलते है और न ही जिहवा। परा - णमोकार मन्त्र के जाप में पञ्चपरमेष्ठियों के मूलगुण एवं स्वरूप में काय का ममत्व छोड़कर लीन हो जाना। णमोकार मत्र और जाप जाप पूर्व एवं उत्तरदिशा की ओर मुख करके खड्गासन,पद्मासन, सुखासन अथवा अर्धपद्मासन में स्थित होकर देना चाहिए। आचार्य श्री ने मूकमाटी में नौ की संख्या को अक्षय स्वभावली, अजर, अमर, अविनाशी, आत्म तत्व को उद्बोधिनी माना है। नौ के अंक की यह विशेषता है कि इसमें २, ३ आदि संख्याओं का गुण करने तथा गुणनफल को जोड़ने पर नौ (९) ही शेष बचता हैं। जैसे - ९x२ = १८ १+८ = ९ ९x३ = २७ २ +७ = ९ ९x९ = ८१ ८+१ = ९ अत: कम से कम नौ बार णमोकार मन्त्र का जाप अवश्य करना चाहिए। णमोकार मंत्र को तीन श्वासोच्छवास में पढ़ना चाहिए। पहली श्वास (ग्रहण करते समय में णमो अरिहंताण, उच्छवास (छोड़ते समय) में णमो सिद्धाण, दूसरी श्वांस में णमो आइरियाण उच्छवास में णमो उवज्झायाण और तीसरी श्वांस में णमो लोए और उच्छवांस में सव्व साहूर्ण बोलना चाहिए। १०८ बार के जाप में कुल ३२४ श्वाँसोच्छवास होते हैं। णमोकार के पदों का ध्यान क्रमश: सफेद, लाल, पीला, नीला और काले रंग में करना चाहिए अर्थात श्वांस की तूलिका से शून्य की (आकाश की) पाटी पर क्रमश: इन रंगो से पाँच पदो को लिखते जायें। ये रंग क्रमश: ज्ञान, दर्शन, विशुद्धि, आनन्द और शक्ति के केन्द्र माने गये हैं।
  6. चम्पापुर के राजा का नाम अरिदमन और रानी का नाम कुन्दप्रभा था। रानी कुन्दप्रभा, कुन्दपुष्प के समान लावण्यमयी, गुण और शील में अद्वितीय थी। रानी कुन्दप्रभा के अत्यन्त धीर-वीर, उदारवेत्ता, दीनवत्सल, धर्मप्रिय पुत्र रत्न हुआ। उस बालक का नाम श्रीपाल रख दिया। राज्य संचालन में दत्तचित, कामदेव के समान श्रीपाल को एवं अन्य ७०० वीरों को अचानक एक साथ महाभयानक कुष्ठ रोग हो गया, जिससे इन लोगों का शरीर गलने लगा एवं खून बहने लगा। इन लोगों की दयनीय दशा को देखकर प्रजाजन अत्यन्त क्षुब्ध एवं दु:खी रहते थे। जब रोग की दुर्गन्ध के कारण वातावरण बिगड़ने लगा, तब वीरदमन चाचा जी के कहने पर श्रीपाल७०० वीरों के साथ नगर से बहुत दूर उद्यान में जाकर निवास करने लगे। एक उज्जयनी नामक ऐश्वर्यपूर्ण नगरी थी। जिसके राजा का नाम पुहुपाल था। उसकी अनेक रानियाँ थी। उनमें से पद्मरानी के गर्भ से सुरसुन्दरी एवं मैनासुन्दरी नाम की दो पुत्रियाँ उत्पन्न हुई। उनमें से सुरसुन्दरी शैव गुरु से एवं मैनासुन्दरी ने आर्यिका से धार्मिक अध्ययन किया था। पिता के पूछने पर सुरसुन्दरी ने अपनी स्वेच्छानुसार हरिवाहन से विवाह स्वीकार कर लिया,परन्तु मैनासुन्दरी ने कहा है कि पिता जी, कुलीन एवं शीलवती कन्यायें अपने मुख से किसी अभीष्ट वर की याचना कदापि नहीं करती है। मैनासुन्दरी की विद्वतापूर्ण वार्ता को सुनकर राजा पुहुपाल तिलमिला गये और उन्होंने क्रोध में आकर कोढ़ी राजा श्रीपाल से विवाह कर दिया। राजा श्रीपाल के कुष्ठ रोग को दूर करने के लिये मैनासुन्दरी ने गुरु के आशीर्वाद एवं विधि के अनुसार अष्टाहिनका पर्व में सिद्धचक्र महामण्डल विधान का आयोजन किया, जिसके प्रभाव से श्रीपाल के साथ ७०० वीरों का भी कुष्ठरोग ठीक हो गया। कुछ समय बाद श्री पाल मैनासुन्दरी के साथ चम्पापुरी वापस आ गये। एक दिन श्रीपाल अपने महल के छत पर बैठे हुये थे। आकाश में बिजली चमकी, जिसे देखकर उन्हें वैराग्य हो गया। वे अपने पुत्र धनपाल को राज्य सौंपकर वन की ओर चले गये। उनके साथ ८००० रानियाँ तथा माता कुन्दप्रभा भी वन को प्रस्थान कर गई। श्रीपाल ने मुनीश्वर के पास जाकर जिनदीक्षा धारण कर ली। उनके साथ ७०० वीरों ने भी दीक्षा ले ली, माता कुन्दप्रभा व अन्य रानियों ने भी आर्यिका के व्रत ग्रहण किये। कठोर तपस्या करते हुए अल्पसमय में ही घातिया कमों को नष्टकर केवलज्ञान प्राप्त किया और फिर शेष कर्मों को नष्टकर मोक्षधाम को प्राप्त हुये। जब मन को विश्वास होता है कि किसी अवस्था या व्यवस्था में परिवर्तन के लिए कोई गुंजाइश नहीं है तो वह धीरे-धीरेउस अवस्था या व्यवस्था को स्वीकार कर लेता है।
  7. देव - दर्शन का स्वरूप - जिनेन्द्र देव का दर्शन श्रावकों का प्रथम एवं प्रमुख कर्तव्य कहा गया है। साक्षात् जिनेन्द्र देव का अभाव होने पर उनकी वीतराग प्रतिमा या जिनबिम्ब में उनके गुणों का आरोपण करके श्रद्धा पूर्वक अरिहन्त, सिद्ध या जिनदेव मानकर, निर्मल परिणामों से उनके जैसे गुणों की प्राप्ति की भावना से नमस्कार करना देव-दर्शन कहलाता है। देव - दर्शन का फल - देव-दर्शन से पूर्व जन्म में संचित पाप-समूह नष्ट हो जाता हैं, जन्म-जरा-मृत्यु रूपी रोग मिट जाता है एवं स्वर्ग सुख तथा सहज मोक्षसुख की भी उपलब्धि देव-दर्शन से सहज हो जाती है। देव – प्रतिमा का रूप - जिनेन्द्र देव की प्रतिमा समचतुरस्त्र संस्थान वाली खड्गासन अथवा पद्मासन में होती है। प्रतिमा के लटकते हुए दोनों हाथ अथवा हाथ पर हाथ धरी हुई मुद्रा कृतकृत्यता का प्रतीक है। अर्थात् सभी करने योग्य कार्य वे कर चुके, अब कुछ भी करना शेष नहीं रहा। अर्धान्मीलित नेत्र अन्तर्दूष्टि का प्रतीक है अर्थात् जिन्होंने पर पदार्थों की ओर से दृष्टि को हटाकर अपने आत्म तत्व की ओर कर दी है। उनकी वीतराग मुख मुद्रा समत्व परिणति का प्रतीक है अर्थात् वे कभी प्रसन्न अथवा उदास नहीं होते हैं। देव प्रतिमा देव प्रतिमा का प्रभाव - जिनेन्द्र प्रतिमा जहाँ विराजित होती है, उसे जिनालय, जिनमंदिर अथवा चैत्यालय कहते हैं। जिनेन्द्र प्रतिमा एक आदर्श (दर्पण) के समान है, जिसे देखकर हमें अपने मूल स्वरूप का ज्ञान होता है। जैसे दर्पण में अपना चेहरा (मुख) देखने पर, चेहरे पर लगे दाग-धब्बे हम देख पाते हैं, उसी प्रकार वीतराग भगवान का दर्शन हमें अपने भीतर के राग-द्वेष, विषय-कषाय, अज्ञान रुपी धब्बों के देखने में निमित्त बनता है। जिस प्रकार किसी पहलवान को देखने से पहलवान बनने के, डॉक्टर को देखने से डॉक्टर बनने के भाव मन में उत्पन्न होते हैं, उसी प्रकार वीतरागता से सहित, सौम्य मुद्राधारी जिनेन्द्र भगवान के बिम्ब के दर्शन से हमारे भाव भी वीतरागी बनने के होते हैं/ होना चाहिए। देव प्रतिमा की महिमा - जिनबिम्ब के दर्शन से मनुष्य एवं तिर्यज्यों को सम्यग्दर्शन तक प्राप्त हो जाता है, पूर्व में बाँधे हुए निधति, निकाचित कर्म भी क्षय को प्राप्त हो जाते हैं। जिन प्रतिमा मंदिर की आवश्यकता - जिन्होने घर गृहस्थी सम्बन्धी सभी कार्य, पाँच पाप छोड़ दिये हैं ऐसे साधक तो अपने मन में ही परमात्मा की वंदना, पूजन कर सकते हैं। किन्तु गृहस्थ श्रावक के लिए सर्वत्र राग-द्वेष मय वातावरण ही मिलता है वह पाँच पापों में लिप्त रहता है। उसके लिए ऐसा कोई स्थान चाहिए जहाँ वह कुछ समय पापों से दूर रहकर परमात्मा का दर्शन, पूजन, ध्यान कर सके, जीवन संसार के सत्य को जान सके, जहाँ का वातावरण राग-द्वेष, विषय कषायों से दूर हो अत: ऐसा स्थान मंदिर ही हो सकता है। इसलिए अकृत्रिम जिनालयों के अनुरूप बड़े - बड़े राजाओं ने, सेठों ने एवं सुधी श्रावकों ने भव्य जिन मंदिरों का निर्माण कराया, उनमें जिनबिम्ब प्रतिष्ठित कराया और आवश्यकतानुसार आज भी कर रहे हैं। अत: गृहस्थ के लिए जिनालय की नितांत आवश्यकता है। जिन मंदिर/देव दर्शन की विधी - देव दर्शन हेतु प्रात:काल स्नानादि कार्यों से निवृत्त होकर शुद्ध धुले हुए साफ वस्त्र (धोती दुपट्टा अथवा कुर्ता पायजामा) पहनकर तथा हाथ में धुली हुई स्वच्छ अष्टद्रव्य लेकर मन में प्रभु दर्शन की तीव्र भावना से युक्त, नङ्ग पैर नीचे देखकर जीवों को बचाते हुए घर से निकलकर मंदिर की ओर जाना चाहिए। रास्ते में अन्य किसी कार्य का विकल्प नहीं करना चाहिए। दूर से ही मंदिर जी का शिखर दिखने पर सिर झुकाकर जिन मंदिर को नमस्कार करना चाहिए, फिर मन्दिर के द्वार पर पहुँचकर शुद्ध छने जल से दोनों पैर धोना चाहिए। अर्ध चढ़ाते समय की भावना - मंदिर के दरवाजे में प्रवेश करते ही ऊँजय जय जय, निस्सही निस्सही निस्सही नमोस्तु नमोस्तु नमोस्तु बोलना चाहिए फिर मंदिर जी में लगे घण्टे को बजाना चाहिए। इसके पश्चात् भगवान के सामने जाते ही हाथ जोड़कर सिर झुकावें, णमोकार मंत्र पढ़कर कोई स्तुति स्तोत्र पाठ पढ़कर 'भगवान की मूर्ति को एक टक होकर देखें भावना करें जैसी आपकी छवि हैं वैसी ही वीतरागता मुझे प्राप्त होवे जैसे आप सिंहासन आदि अष्ट प्रातिहार्यों से निलिप्त हैं वैसे ही मैं भी संसार में निर्लिप्त रहूं" साथ में लाए पुंज बंधी मुट्ठी से अँगूठा भीतर करके अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु ऐसे पाँच पुंज चढ़ावे। फिर जमीन पर गवासन से बैठकर, जुड़े हुए हाथों को तथा मस्तक को जमीन से लगावें तीन बार धोंक देवे तत्पश्चात् हाथ जोड़कर खड़े हो जावे और मधुर स्वर में स्पष्ट उच्चारण के साथ स्तुति आदि पढ़ते हुए अपनी बाँयी ओर से चलकर वेदी की तीन परिक्रमा करें। तदनन्तर स्तोत्र पूरा होने पर फिर बैठकर नमस्कार करें। परिक्रमा देते समय ख्याल रखे कोई धोक दे रहा हो तो उसके आगे से न निकलकर, पीछे की ओर से निकले। दर्शन करने इस तरह खड़े हो तथा पाठ करे जिससे अन्य किसी को बाधा न हो। गन्धोदक लेने की विधी - दर्शन कर लेने के बाद अपने दाहिने हाथ की मध्यमा और अनामिका अंगुलियों को गन्धोदक के पास रखे अन्य जल में डुबोकर शुद्ध कर लेने पर अंगुलियों से गन्धोदक लेकर उत्तमांग पर लगायें फिर गंधोदक वाली अंगुलियों को पास में रखे जल में धो लेवें। गन्धोदक लेते समय निम्न पंक्तियाँ बोलें - निर्मलं निर्मलीकरण, पवित्र पाप नाशनम्। जिन गन्धोदकं वंदे, अष्ट कर्म विनाशकम्॥ इसके पश्चात् नौ बार णमोकार मंत्र पढ़ते हुए कायोत्सर्ग करें। फिर जिनवाणी के समक्ष 'प्रथमं करण चरण द्रव्यं नम:' ऐसा बोलते हुए क्रम से चार पुंज लाइन से चढ़ावें तथा गुरु के समक्ष 'सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्रेभ्यो नम:।' ऐसा बोलकर क्रम से तीन पुंज लाइन से चढ़ावे। कायोत्सर्ग करें, फिर भगवान को पीठ न पड़े ऐसा विनय पूर्वक दरवाजे से बाहर अस्सहि, अस्सहि, अस्सहि बोलते हुए निकलें। दर्शन करते समय चढ़ाने योग्य सामग्री - मदिर जाते समय प्रभु चरणों में चढ़ाने हेतु अपनी सामथ्र्य के अनुसार उत्कृष्ट, जीव जन्तु रहित, स्वच्छ सामग्री ले जाना चाहिए। स्वर्ग के देव दिव्य पुष्प, दिव्य फलादि सामग्री ले जाते हैं। चक्रवर्ती आदि राजा महाराजा हीरे मोती जवाहारात आदि भगवान के चरणों में चढ़ाने के लिए ले जाते हैं। मनोवती कन्या का दृष्टान्त आगम में आता है उसने गज मोती चढ़ाकर ही भगवान के दर्शन करने के पश्चात् ही भोजन करने का नियम लिया था। सामान्य श्रावक श्रीफल, अक्षत, बादाम आदि फल लेकर भगवान के चरणों में जाता है। अत: भगवान के पास क्या लेकर जाएँ इसका कोई विशेष नियम नहीं है, सामान्य रूप से सभी अखंड चावल लेकर देव दर्शन हेतु जाते हैं पर अपनी सामथ्र्य के अनुसार अन्य बहुमूल्य श्रेष्ठ वस्तु भी चढ़ा सकते हैं। वह सामग्री हमारे राग भाव की कमी, त्याग का प्रतीक है। अनेक क्षेत्रों में जहाँ जैसी सामग्री उपलब्ध हो अखरोट, बादाम, काजू, किसमिस, नारियल आदि भी ले जा सकते हैं। द्रव्य ले जाने का कारण - चावल आदि सामग्री ले जाने के कारण हमें रास्ते में ध्यान रहता है कि हम कहाँ जा रहे हैं ? मंदिर जा रहे हैं। बाजार से गुजरते हुए भी मन बाजार में नहीं भटकता। दूसरा कारण जब लौकिक व्यवहार में साधारण से सम्राट आदि से मिलने जाते समय, रिश्तेदारों के यहाँ जाते समय कुछ न कुछ भेंट लेकर अवश्य जाते हैं खाली हाथ नहीं जाते। तब तीन लोक के नाथ अकारण बन्धु जहाँ विराजमान है ऐसे मंदिर में खाली हाथ कैसे जा सकते हैं अत: भगवान के पास नियम से कुछ न कुछ लेकर अवश्य जाना चाहिए।
  8. पूज्य पुरुषों की वंदना - स्तुति हमें पूज्य बनने की प्रेरणा देती है। इतना ही नहीं उनके द्वारा बताये जाने वाले मार्ग पर चलकर हम उन जैसा भी बन सकते हैं। हमारे आराध्य पूज्य नवदेवता हैं- १. अरिहन्त जी ५. साधुजी २. सिद्ध जी ६. जिन धर्म ३. आचार्य जी ७. जिन अागम ४. उपाध्याय जी ८. जिन चेत्य ९. जिन चैत्यालय परमेष्ठी का स्वरूप - धर्म स्थान में जिनका पद महान होता है, जो गुणों में सर्वश्रेष्ठ होते हैं तथा चक्रवर्ती, राजा, इन्द्र एवं देव आदि भी जिनके चरणों की वन्दना करते हैं उन्हें परमेष्ठी कहते हैं। जीव जिस पद में स्थित होकर आत्म - साधना करते हुए अन्तत: मोक्ष-सुख को प्राप्त करते हैं उस पद को परम पद अथवा श्रेष्ठ पद कहा जाता है। परमेष्ठी पांच होते है - अरिहंत, सिद्ध, आचार्य उपाध्याय और साधु परमेष्ठी। अरिहन्त परमेष्ठी का स्वरूप - जिन्होंने चार घातिया कमों (ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय, अंतराय) को नष्ट कर दिया हैं तथा जो अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत वीर्य, अनंत सुख रूप अनंत चतुष्टय से युक्त हैं। समवशरण में विराजमान होकर दिव्यध्वनि के द्वारा सब जीवों को कल्याणकारी उपदेश देते हैं, वे अरिहंत परमेष्ठी कहलाते हैं। सिद्ध परमेष्ठी का स्वरूप - जो ज्ञानावरणआदि आत कर्मो से रहित है एवं क्षायिक सम्यक्त्व, क्षायिक ज्ञान, क्षायिक दर्शन, क्षायिक वीर्य सुक्ष्मत्व अवगाहनत्व, अगुरुलघुत्व और अव्याबाधत्व इन आठ गुणों से युक्त हैं। शरीर रहित सिद्ध परमेष्ठी कहलाते हैं। आचार्य परमेष्ठी का स्वरूप - जो दीक्षा-शिक्षा एवं प्रायश्चित आदि देकर भव्य जीवों को मोक्षमार्ग में लगाते हैं, संघ के संग्रह (एकत्रित करना), निग्रह (नियंत्रण करना, कंट्रोल) में कुशल होते हैं आचार्य परमेष्ठी कहलाते हैं। उपाध्याय परमेष्ठी का स्वरूप - जो मुनि शिष्यों एवं भव्य जीवों को निरन्तर दया, धर्म का उपदेश देते हैं तथा सिद्धान्त आदि ग्रन्थों का ज्ञान करवाते हैं, उन्हें उपाध्याय परमेष्ठी कहते हैं। साधु परमेष्ठी का स्वरूप - जो ज्ञान, ध्यान, तप में लीन रहते हैं, आरंभ परिग्रह से रहित पूर्ण दिगम्बर मुद्राधारी साधु परमेष्ठी कहलाते हैं। जिन धर्म का स्वरूप - जो संसार के दुखों से छुड़ाकर उत्तम सुख मोक्ष मे पहुंचा देता है वह जिनेन्द्र देव द्वारा कहा हुआ जिनधर्म है। वह उत्तम क्षमादि रूप, अहिंसादि रूप, वस्तु के स्वभावरूप एवं रत्नत्रय रूप है। जिनागम का स्वरूप - जिनेन्द्र प्रभु द्वारा कथित वीतराग वाणी को जिनागम कहते हैं जिनागम वस्तु स्वरूप का पूर्ण ज्ञान प्रतिपादित करता है इसे जिनवाणी, सच्चा शास्त्र, श्रुत देव, जैन सिद्धान्त ग्रन्थ भी कहते हैं। जिन चैत्य का स्वरूप - साक्षात् तीर्थकर, केवली भगवान के अभाव में धातुपाषाण आदि से तद्रूप जो रचना की जाती है उसे चैत्य कहते हैं। जिन चैत्य को जिन बिम्ब अथवा जिन प्रतिमा भी कहते हैं। जिन चैत्यालय का स्वरूपजिन चैत्य जहाँ विराजमान होते हैं उसे चैत्यालय कहते हैं। जिन चैत्यालय को समवशरण, मंदिर, जिनगृह, देवालय इत्यादि अनेक शुभ नामों से जाना जाता है। जिन चैत्य-चैत्यालय मनुष्य एवं देवों द्वारा निर्मित (कृत्रिम) तथा किसी के द्वारा नहीं बनाये गये (अकृत्रिम) दोनों प्रकार के होते हैं। नन्दीश्वर द्वीप आदि अनेक स्थानों पर अकृत्रिम चैत्य-चैत्यालय हैं। ओोंकार की रचना :- पाँचो परमेष्ठियों के प्रतीक प्रथम अक्षर जोड़ने से ओम् बनता है। अरिहंत का = अ सिद्ध (अशरीरी) का = अ + अ = आ आचार्य का = आ + आ = आ उपाध्याय का = आ + उ = ओ साधु (मुनि) का = ओ + म् = ओम् अरिहंत से बड़े सिद्ध परमेष्ठी होते हैं फिर भी अरिहंतो के द्वारा हमें धर्म का उपदेश मिलता है एवं सिद्ध भगवान के स्वरूप का ज्ञान कराने वाले अरिहंत भगवान ही हैं। इसीलिए णमोकार मंत्र में सिद्धों से पहले अरिहंतो को नमस्कार किया गया हैं। सुनना भार बढ़ाने के लिये नहीं हल्के/निर्भार बनने के लिए'। जो सुनते हैं उसे जीवन में घोल दें तो भार नहीं बढ़ेगा और आचरण भी सुस्वादु हो जायेगा। जैसे पानी में शक्कर। पाँचों परमेष्ठियों के मूलगुण क्रमश: ४६, ८, ३६, २५, व २८ होते हैं। उनका कुल योग ४६ + ८ + ३६ + २५ + २८ = १४३ होता हैं। तीर्थकर केवली और सामान्य केवली में निम्न अंतर पाया जाता है - तीर्थकर केवली - तीर्थकरों के कल्याणक होते हैं। सामान्य केवली - कल्याणक नहीं होते हैं। तीर्थकर केवली - केवल ज्ञान होने के पश्चात् नियम से समवशरण की सामान्य केवली - केवल ज्ञान होने के पश्चात् अनियम (जरूरी नहीं) से रचना होती है। गंधकुटी की रचना होती है। तीर्थकर केवली - तीर्थकरों के नियम से गणधर होते हैं और दिव्य ध्वनि सामान्य केवली - सामान्य केवलियों की दिव्य ध्वनि एवं गणधरों का नियम खिरती है। नहीं। तीर्थकर केवली - एक उत्सर्पिणी अथवा अवसर्पिणी काल में चौबीस ही सामान्य केवली - संख्या निश्चित नहीं। तीर्थकर होते हैं। तीर्थकर केवली - चिह्न नहीं होते हैं। सामान्य केवली - तीर्थकरों के चिह्न होते हैं।
  9. स्वणोंत्सव (वर्ष) दिवस ये आया, जन-जन में आनंद छाया । स्वर्णिम युग के युग दृष्टा, स्वर्णिम इतिहास रचाया। श्री आदि प्रभु का प्रशासन, श्री वीर प्रभु का शासन, शोभित तुमसे हे गुरुवर! श्री ज्ञान गुरु का ये आसन। हृदयासन आ विराजो, पूजन का थाल सजाया, स्वर्णिम युग के युग दृष्टा, स्वर्णिम इतिहास रचाया। स्वणोंत्सव दिवस ये आया, जन-जन में आनंद छाया । ॐ हूं आचार्य श्री विद्यासागर मुनीन्द्र: अत्र अवतर -अवतर संवोंषट्र आहवाननं जय हो, जय हो, जय हो ! ॐ हूं आचार्यं श्री विद्यासागर मुनीन्द्र: अत्र तिष्ठ-तिष्ठ ठः ठः स्थापज जय हो, जय हो, जय हो ! ॐ हूं आचार्य श्री विद्यासागर मुनीन्द्र: अत्र मम सन्जिहितो भव-भव वषट् सन्निधि करणं जय हो, जय हो, जय हो ! सरिता तट की वो माटी, पद दलिता पतिता माटी, जीवन में उसके आयी, बस गम ही गम की घाटी। जल अर्पण महा मनीषी, माटी को गागर बनाया। स्वर्णिम युग के युग दृष्टा, स्वर्णिम इतिहास रचाया। ॐ हूं आचार्य श्री विद्यासागर मुनीन्द्रेभ्यो जन्म जरा मृत्यु विनाशनाय जलम् निर्वपामीति स्वाहा । ना शीतल मलय का चंदन, हिम नीर ना कश्मीर चंदन, शीतल गुरु तेरे दो नैन, हरते भव-भव का क्रन्दन। शीतल भूपर शीतल ले, फिर शीतल धाम बनाया, स्वर्णिम युग के युग दृष्टा, स्वर्णिम इतिहास रचाया। ॐ हूं आचार्य श्री विद्यासागय मुनीन्द्रेभ्यो, संसार ताप विनाशनाय चंदनम् निर्वपामीति स्वाहा । क्षण भंगुर जग ये सारा, शाश्वत सिद्धोदय प्यारा, अशरीरी सिद्ध प्रभु को, अक्षय आदर्श बनाया। मुनि, क्षुल्लक, आर्यिका दीक्षा, किया हम सबका उद्धारा, स्वर्णिम युग के युग दृष्टा, स्वर्णिम इतिहास रचाया। ऊं हूं आचार्य श्री विद्यासागर मुनीन्द्रेभ्यो अक्षय पद प्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा । चंपा और जूही चमेली, अरूं पारिजात की कलियाँ। फूलों से भी कोमल मन, भटकाता भव की गलियाँ। संयमदाता ! उपकारी ! संयम दे जीवन सजाया, स्वर्णिम युग के युग दृष्टा, स्वर्णिम इतिहास रचाया। ऊं हूं आचार्य श्री विद्यासागर मुनीन्द्रेभ्यो कामबाण विध्वशनाय पुष्पम्र निर्वपामीति स्वाहा । षट्ररस व्यंजन के त्यागी, निज आतम के अनुरागी, छत्तीसगढ़ आन पधारे, छत्तीस मूल गुण धारी। श्री चन्द्रगिरी में पावन प्रभु चन्दा धाम बनाया। स्वर्णिम युग के युग दृष्टा, स्वर्णिम इतिहास रचाया || ऊं हूं आचार्य श्री विद्यासागर मुनीन्द्रेभ्यो क्षुधा रोग विनाशनाय नैवेद्यम्र निर्वपामीति स्वाहा । संधान किये अलबेले, खोजे इतिहास अनोखे। हथकरघा, हिन्दी शिक्षा, ये आदि ब्रह्म से होते । श्रद्धा का दीप जलाया, भारत को फिर लौटाया। स्वर्णिम युग के युग दृष्टा, स्वर्णिम इतिहास रचाया || ऊं हूं आचार्य श्री विद्यासागर मुनीन्द्रेभ्यो मोहान्धकर विनाशनाय दीपम् निर्वपामीति स्वाहा । 'या श्री सा गी' है गहना, गुरु वीरसेन का कहना, बूचड़खाने क्यों जाते, गौमाता उसके ललना। दयोदय शांतिधारा करुणा का भाव जगाया, स्वर्णिम युग के युग दृष्टा, स्वर्णिम इतिहास रचाया। ऊं हूं आचार्य श्री विद्यासागर मुनीन्द्रेभ्यो अष्टकर्म दहनाय धूपम् निर्वपामीति स्वाहा । गुरु-भक्ति का फल पाया, गुरूकुल आदर्श बनाया, हर मनु-मानव बन जाये, प्रतिभास्थली ने गाया। प्रति भारत प्रतिभा रत हो, गुरु ज्ञान का सूत्र बताया, स्वर्णिम युग के युग दृष्टा, स्वर्णिम इतिहास रचाया। ऊं हूं आचार्य श्री विद्यासागर मुनीन्द्रेभ्यो मोक्षफल प्राप्तये फलम् निर्वपामीति स्वाहा । नन्हा सा अर्घ रहा ये और अपार विद्यासागर, आराधन रहा अधूरा, आराध्य मेरे हे गुरुवर ! । नव मंदिर बैठे बाबा, जिन महिमा यश फैलाया, स्वर्णिम युग के युग दृष्टा, स्वर्णिम इतिहास रचाया। ऊं हूं आचार्य श्री विद्यासागर मुनीन्द्रेभ्यो अनर्धपद प्राप्तये अर्ध्य निर्वपामीति स्वाहा । अंचलिका चंदा सूरज दीप से, करे आरती आज। स्वर्णिम संयम वर्ष के, स्वर्णिम साल पञ्चास।। जयमाला स्वर्णिम युग के हे सन्त श्रेष्ठ! चरणों मे शीश झुकाते हैं। गुरू के यश की गौरव गाथा, हम जयमाला में गाते हैं। जय हो....जय हो.... जय हो....जय हो.... उन्नीस सो छयालीस दश अक्टूबर, शरद पूर्णिमा प्यारी थी, मलप्पा जी श्रीमती के गृह, बाजी चऊँ ओर बधाई थी। चंदा सा सुंदर शिशु देख, सब फूले नहीं समाते है, गुरू के यश की गौरव गाथा, हम जयमाला में गाते हैं ।।१।। बचपन के रूप सुहाने, पीलू, तोता, गिनी नाम रखा विद्याधर नाम बड़ा प्यारा, जिसमें जीवन का सार भरा इक खेल अनोखा खेला, जिससे भव बंधन मिट जाते हैं गुरु के यश की गौरव गाथा, हम जयमाला में गाते है ।।२।। गुरू देशभूषण का साया था, गुरू ज्ञान की छाया सघन रही, विद्याधर से विद्यासागर, गुरुवर की गाथा अमर रही। गुरु ज्ञान से गुरु पद पाकर के, गुरु ज्ञान की महिमा गाते हैं गुरू के यश की गौरव गाथा, हम जयमाला में गाते हैं ।।३।। मुनि, आर्या दीक्षा देकर के संयम की अलख जगायी है, प्रतिमा-विज्ञान बोधि देकर, श्रावक की रीति सिखायी है। मर्यादा पुरूषोतम जैसे,मर्यादा पाठ पढ़ाते हैं, गुरू के यश की गौरव गाथा, हम जयमाला में गाते हैं ।।४।। सर्वोदय, सिद्धोदय हो, या भाग्योदय भाग्य जगाते हैं, दयोदय उदय दया का हो, पुण्योदय पुण्य बढ़ाते हैं कुण्डलपुर के नये मंदिर में, बड़े बाबा लगते प्यारे हैं गुरू के यश की गौरव गाथा, हम जयमाला में गाते हैं ।।५।। प्रतिभा स्थली के प्राण गुरु, शांतिधारा, शांतिदाता, श्री रामटेक के शांतिप्रभु, श्री चन्द्रगिरी चन्दाबाबा। कलयुग बन गया ये सतयुग है पग जहाँ तेरे पड़ जाते हैं, गुरू के यश की गौरव गाथा, हम जयमाला में गाते हैं ।।६।। इस दुखमा पंचम काल में भी महावीर सी चर्या पाली है, हे जिनवाणी के तप: पूत! तुमसे भू गौरवशाली है। इस हृदय देश में उठे भाव, बस ध्यान तुम्हारा ध्याते हैं, गुरू के यश की गौरव गाथा, हम जयमाला में गाते हैं ।।७।। इन साल पचास में गुरुवर ने, संयम का अमृत बाँटा है गुरुवर के चरणों में हमने, भव-भव का बंधन काटा है। गुरु बने तीर्थकर/सिद्धप्रभु, हम यही भावना भाते हैं गुरू के यश की गौरव गाथा, हम जयमाला में गाते हैं ।।८।। ॐ हूं आचार्य श्री विद्यासागर मुनीन्द्रेभ्यो जयमाला पूर्णार्ध्य पूणध्यि निर्वपामीति स्वाहा । है अपूर्ण आराधना, गुरु आराध्य महान। स्वर्णिम संयम दिवस पर, शत्-शत् बार प्रणाम। "इत्याशीर्वाद: पुष्पांजलि क्षिपेत्"
  10. ☀मदनगंज-किशनगढ़☀ ????‍??‍??‍???? सकल दिगम्बर जैन समाज एवं श्री दिगम्बर जैन धर्म प्रभावना समिति के संयुक्त तत्वावधान तथा मुनि सुधासागर महाराज ससंघ सान्निध्य में रविवार को आर.के. कम्यूनिटी सेंटर में संयम उपकरण दान महोत्सव पिच्छी परिवर्तन कार्यक्रम समारोह पूर्वक आयोजित किया गया। कार्यक्रम का शुभारम्भ आर.के. मार्बल परिवार के अशोक पाटनी, सुरेश पाटनी व सूरत जैन समाज द्वारा चित्र अनावरण से किया। कार्यक्रम में दीप प्रज्जवलित गणेश राणा, राजेन्द्र गोधा, प्रमोद सोनी, हुकम काका, अनिल जैन, शांतिलाल जैन, मुनिश्री ससंघ के पाद प्रक्षालन गणेश राणा सांगानेर तथा शास्त्र भेंट राजा जैन, उत्तमचंद जैन, बीएस परिवार आदि ने भेंट किए। कार्यक्रम में सुधा की बुंदे पुस्तक का विमोचन धर्म प्रभावना समिति द्वारा किया गया तथा वैद्य महावीर प्रसाद जैन जयपुर का मुनि संघो का इलाज करने के लिए सम्मानित किया गया। कार्यक्रम में श्री दिगम्बर जैन युवा वर्ग अशोक नगर मध्य प्रदेश ने आचार्य विद्यासागर महाराज के जीवन को झांकियो के माध्यम से जीवंत कर दिया तथा 23 दिगम्बर को नारेली के लिए प्रस्थान करने वाली श्रीजी की भव्य शोभायात्रा का सुंदर मंचन किया गया। संगीत की मधुर स्वर लहरियों व जयकारों से माहौल भक्तिमय हो गया। कार्यक्रम में नन्हे मुन्ने बच्चों ने धार्मिक गीतों पर मनमोहक भक्ति नृत्य प्रस्तुत किया। ?श्री दिगम्बर जैन धर्म प्रभावना समिति के प्रचार मंत्री संजय जैन के अनुसार कार्यक्रम में ?मुनि सुधासागर महाराज को नई पिच्छी प्रकाशचंद गंगवाल, उत्तमचंद पाटनी ने प्रदान की तथा मुनिश्री की पुरानी पिच्छी एसके जैन गुना को प्राप्त हुई। ?मुनि महासागर महाराज को नई पिच्छी राजेन्द्र सेठी ने प्रदान की तथा मुनिश्री की पुरानी पिच्छी जितेन्द्र जैन अजमेर को प्राप्त हुई। ?मुनि निष्कंप सागर महाराज को नई पिच्छी धर्मचंद जैन ने प्रदान की तथा मुनिश्री की पुरानी पिच्छी डा. महेन्द्र जैन बीना को प्राप्त हुई। ?क्षुल्लक गंभीर सागर महाराज को नई पिच्छी सुरेन्द्र शाह भीलवाडा ने प्रदान की तथा पुरानी पिच्छी विनोद शाह कोटा को प्राप्त हुई। ?क्षुल्लक धैर्यसागर महाराज को नई पिच्छी कैलाशचंद सेठी ने प्रदान की तथा पुरानी पिच्छी डा. प्रभाकर सेठी जयपुर को प्राप्त हुई। ⚛मुनिश्री ने भी को संयम उपकरण का महत्व बताते हुए मंगल आशीर्वाद प्रदान किया। कार्यक्रम में धर्म प्रभावना समिति व जैन आर्मी के अलावा सैकडों लोगों ने सहयोग दिया। कार्यक्रम में देशभर के हजारों श्रावक श्राविकाएं मौजूद थे।⚛
  11. प्रेस विज्ञप्ति: "अपराजेय साधक" · मुंबई में हुआ जैनाचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज की दीक्षा के स्वर्ण जयंती महोत्सव का शानदार आयोजन · जबलपुर (मप्र), डोंगरगढ़ (छग) और रामटेक (नागपुर) से आईं 271 छात्राएं · प्रतिभास्थली ज्ञानोदय विद्यापीठ की छात्राओं की चहुंमुखी प्रतिभा का हुआ प्रदर्शन, जन-जन हुआ गदगद गुरुदेव आचार्य श्री १०८ विद्यासागर जी महाराज के चरणों में श्रद्धा सुमन अर्पित करने हेतु तन मन धन समर्पण के भाव से पिछले चार महीनों से अनवरत मुंबईजैन समाज जुटी हुई थी, प्रतिभास्थली से पधारने वाली अपनी बेटियों और बालब्रह्मचारिणी बहनों के लिये पलक पांवड़े बिछाकर बैठी थी। और वह दिन भी आ गया दिनांक ९ दिसंबर २०१७ को २७१ बेटियां हमारी झोली को स्नेह से भरने आ गईं, धार्मिक, अनुशासित, समर्पित, कुशल, अद्भुत छात्राएँ। धन्य हो गयी मुंबई धरा तपस्वी बहनों को मुंबई में पाकर। दिन आ गया वह जब हमें निहारना था कुशल कारीगर बहनों की कला-प्रस्तुति को प्रदर्शित करने का और सुनहरे पलों में सार्थकता भरने का | रविवार १० दिसंबर २०१७ को मुंबई के विले पारले के भाईदास सभागार में जनता टकटकी लगाकर बैठी थी और कार्यक्रम का शुभारंभ ठीक साढ़े नौ बजे विद्यासागर विद्यालय के नन्हे बच्चों द्वारा किये गये मंगलघोष द्वारा हुआ| कार्यक्रम को गरिमा प्रदान करने हेतु मुख्य अतिथि के रूप में माननीय न्यायमूर्ति श्री कमल किशोर जी तातेड़, न्यायाधीश मुंबई उच्च न्यायालय, विशिष्ट अतिथि के रूप में माननीय श्री कृष्ण प्रकाश जी, महाराष्ट्र पुलिस महानिरीक्षक, मुख्य वक्ता के रूप में पूज्य आचार्य डॉ श्री लोकेशमुनि महाराज जी, कार्यक्रम के अध्यक्ष माननीय संजय घोड़ावत जी, विशिष्ट अतिथि के रूप में न्यायमूर्ति श्री केयू चांदीवाल जी, पूर्व न्यायाधीश मुंबई उच्च न्यायालय, माननीय श्री रामनिवास जी, पूर्व पुलिस महानिदेशक छत्तीसगढ़ राज्य और मध्यप्रदेश भाजपा के प्रवक्ता श्री राहुल कोठारी संयोजक के रूप में शोभायमान थे| राष्ट्रीय संयम स्वर्ण महोत्सव समिति के राष्ट्रीय अध्यक्ष प्रभात जैन, महामंत्री श्री पंकज जैन (पारस चैनल), कोषाध्यक्ष श्री राजा भैया सूरत, मुख्य कार्यकारी श्री प्रबोध जैन, समिति के संयुक्त सचिव श्री संदेश जैन जबलपुर, मुंबई जैन समाज के वरिष्ठ श्री दिलीप घेवारे, श्री केसी जैन, श्री तरुण जैन, श्री विजय जैन, डॉ सुहास शाह, श्रीमती पद्मा जैन, श्रीमती इंदु जैन, डॉ (श्रीमती) मोनिका शाह, श्रीमती प्रतिभा जैन आदि कार्यक्रम की शोभा बढ़ा रहे थे। कार्यक्रम का सञ्चालन कर रहे थे ओजस्वी कवि श्री चंद्रसेन जैन (भोपाल) और संचालन में सहयोगी रहीं श्रीमती इंदु जैन तथा श्रीमती विधि जैन। गुरुदेव आचार्य श्री १०८ शांतिसागर जी महाराज जी, गुरुदेव आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज जी, गुरुदेव आचार्य श्री १०८ विद्यासागर जी महाराज के चित्रों के समक्ष मुख्य अतिथि न्यायमूर्ति तातेड़ जी, न्यायमूर्ति केयू चांदीवाल जी, अन्य गण्यमान्य अतिथियों, श्रीमती चिंतामणि जैन, श्री पंकज जैन, श्री तरुण जैन एवं श्रीमती सुशीला पाटनी ने दीप प्रज्वलित किया । कार्यक्रम की शृंखला में भक्ति नृत्य, सितार एवं तबला वादन, गुरु विद्यासागर जी महाराज के अनछुए पहलुओं को चित्रित करते हुये रेत के रंगों में मंत्रमुग्धित कला मनोहारी थी। मुंबई से सुश्री प्रशस्ति जैन और प्रशा जैन द्वारा नृत्य के माध्यम से श्री आदिनाथ स्तुति की अद्भुत प्रस्तुति ने सबको मोहित किया। अल्प सूचना पर पूज्य आचार्य डॉ श्री लोकेशमुनि महाराज जी ने कार्यक्रम में अपना सान्निध्य प्रदान किया था, यह जैन एकता का अद्भुत नज़ारा था, एक श्वेताम्बर आचार्य, दिगंबर आचार्य की दीक्षा के स्वर्ण जयंती के कार्यक्रम में अपनी पुष्पांजलि अर्पित करने पधारे थे. उन्होंने अपने प्रवचनों में आचार्य श्री १०८ विद्यासागर जी महाराज के प्रति अपनी श्रद्धा के सुमनों को ऐसा पिरोया कि पूरा सभागार करतल ध्वनि से गूँज उठा| उन्होंने आचार्य प्रवर विद्यासागर जी को तीर्थंकर महावीर की प्रतिमूर्ति निरूपित किया| उन्होंने आचार्य श्री १०८ विद्यासागर जी महाराज के श्रीचरणों में वंदन निवेदित किया और उनके महाकाव्य “मूकमाटी” का विशेष उल्लेख किया तथा जैन धर्म के सम्प्रदायों में एकता के लिए अहम् हो त्यागकर एक दूसरे के प्रति विश्वास का वातावरण बनाने पर बल दिया | इसके पश्चात् प्रारंभ हुआ वह समय जिसने मंत्रमुग्ध कर दिया मुंबई को ठहर सी गई जिंदगी उन २ घंटों के लिये, प्रतिभास्थली की बेटियों के द्वारा छाया नृत्य जिसमें गुरुदेव की प्रेरणाओं के दर्शन हुये, तो मूक अभिव्यक्ति ने गायों की दशा चित्रण ने अश्रुपूरित कर दिया, छोटे छोटे सुंदर नृत्य, आज से एक सदी पश्चात् अर्थात् वर्ष २११७ के भारत की कल्पना ने सबको हंसा हंसा कर हम गलत दिशा में जा रहे इस बोध करवाया, तो भारत के स्वर्णिम युग ने पुन: विचार करने पर विवश कर दिया, योग का परिचय भी जब दिया तो तालियों की गड़गड़ाहट से सभागार गुजायमान था, रौशनी नृत्य तो अद्भुत ही था, अंतिम शास्त्रीय नृत्य की गुरुवर भक्ति अतुलनीय रही, लोग अपलक कार्यक्रम का आनंद लेकर आत्मसात करते रहे। शेर का बच्चा भेड़ियों के झुंड में आकर अपनी शक्ति और प्रतिभा को भूल बैठा है इस संवाद से आरंभ होते हुए स्वर्णिम भारत की गौरव गाथा के बहु आयामी अभिनय प्रस्तुतिकरण ने दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर दिया, सभी दर्शक अपलक मंच पर अपनी आँखे टिकाये हुए थे और पूरे दो घंटे अपने स्थान से हिले भी नहीं | इस कार्यक्रम की एक उपलब्धि यह रही कि मातृभाषा, जीवदया, भारत बने भारत विषयों पर लोगों को सोचने पर विवश कर दिया कि हमें अपने भारत देश के लिए जागना होगा। कु. माहि सेठी और कु. प्रज्ञा जैन को प्रतिभास्थली से अपनी विद्यालयीन शिक्षा पूरी करने के बाद सीए की उत्कृष्ट परीक्षा में कम आयु में सफलता प्राप्त करने पर मुंबई जैन समाज ने प्रशस्ति-पत्र देकर सम्मानित किया। "अपराजेय साधक" जैसे बहु आयामी कार्यक्रम के सानंद संपन्न होने पर समिति के अध्यक्ष श्री प्रभात चन्द्र जैन ने डॉ लोकेश मुनि जी, सभी प्रमुख अतिथियों, कार्यकर्ताओं, प्रतिभा स्थली की बाल ब्रह्मचारिणी दीदियों एवं छात्राओं के प्रति आभार व्यक्त किया | जबलपुर से पधारी वरिष्ठ बाल ब्रह्मचारिणी दीदियों ने अपने संक्षिप्त उद्बोधन में कहा कि हमें तब तक अपने कर्तव्यों के प्रति सजग रहना है और अपने गुरुदेव की आज्ञा में रहना है, उनके द्वारा बताए मार्ग पर चलना है जब तक कि हम सभी को अपने अंतिम लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो जाती है। इसके बाद मुंबई वासियों ने बेटियों को जैसे पलकों पर ही रख लिया और वे निकल पड़ीं मुंबई नगर भ्रमण पर, जिसमें नेहरू प्लेनेटोरियम में जाकर गृह नक्षत्रों और अंतरिक्ष का ज्ञान लिया तो अगला पूरा दिन एक्सल वर्ल्ड में, मंगलवार 12 दिसंबर को वापस जाना था, पर समंदर की हिलोरें इन छात्राओं का इंतजार कर रहीं थीं, सो चल पड़े समंदर में जहाज की सैर पर स्थान गेटवे (भारत का द्वार) परन्तु आचार्य श्री १०८ विद्यासागर जी महाराज के श्री चरणों में रहने वाली यह बेटियां २६/११ के हमले में हुये शहीदों को देखकर थम गईं और नम आंखों से उन्हें श्रद्धांजलि दी | छत्रपति शिवाजी टर्मिनस से पुन: ट्रेन में बैठीं और रवाना हो गईं, सबने नम आंखों से बेटियों को विदा किया। यहां एक बात महत्वपूर्ण है कि इतना लंबा सफर और थका देने वाली भागदौड़ के बीच किसी भी बालिका ने नियमों और अनुशासन का उल्लंघन नहीं किया, धन्य हैं उनके संस्कार जो वह प्रतिभास्थली ज्ञानोदय विद्यापीठ से संगृहित कर रही हैं, जो आगे चलकर उत्कृष्ट समाज और राष्ट्र निर्माण में सहायक बने गईं। प्रस्तुति :श्रीमती विधि जैन ईमेल पता : विधिजैन@डाटामेल.भारत vk.vidhi@gmail.com
  12. कार्यक्रम की तैयारियों में जुटी जैन समाज गुरुदेव आचार्य श्री १०८ विद्यासागर जी महाराज के चरणों में श्रद्धा सुमन अर्पित करने हेतु तन मन धन समर्पण के भाव से पिछले चार महीनों से अनवरत जुटी हुई थी, प्रतिभास्थली से पधारने वाली अपनी बेटियों और बालब्रम्हचारी बहनों के लिये पलक पांवड़े बिछाकर बैठी थी। और वह दिन भी आ गया दिनांक ९-१२-२०१७ को ढेर सारी बेटियां हमारी ममता भरी झोली को स्नेह से भरने आ गईं, धार्मिक, अनुशासित, समर्पित, कुशल, अद्भुत छात्राएँ। धन्य हो गयी मुंबई धरा तपस्वी बहनों को मुंबई में पाकर। दिन आ गया वह जब हमें निहारना था कुशल कारीगर बहनों के मूर्त कला-प्रस्तुति को प्रदर्शित करने का और सुनहरे पलों में सार्थकता भरने का कार्य को गरिमा प्रदान करने हेतु विशिष्ट अतिथि के रूप में माननीय न्यायमूर्ति श्री कमल किशोर जी तातेड़, न्यायाधीश मुंबई उच्च न्यायालय, माननीय श्री कृष्ण प्रकाश जी, महाराष्ट्र पुलिस महानिरीक्षक, श्वेताम्बर जैनाचार्य पूज्य डॉ श्री लोकेश मुनि जी, माननीय संजय घोड़ावत जी, न्यायमूर्त श्री केयू चांदीवाल जी पूर्व न्यायाधीश मुंबई उच्च न्यायालय, माननीय श्री रामनिवास जी, पूर्व पुलिस महानिदेशक छत्तीसगढ़ राज्य, श्री राहुल कोठारी भारतीय जनता युवा मोर्चा, राष्ट्रीय संयम स्वर्ण महोत्सव समिति के मुख्य कार्यकारी श्री प्रबोध जैन कार्यक्रम की शोभा बढ़ा रहे थे। कार्यक्रम का शुभारंभ विद्यासागर विद्यालय के नन्हे बच्चों द्वारा किये गये मंगलघोष द्वारा हुआ, गुरुदेव आचार्य श्री १०८ शांतिसागर जी महाराज जी, गुरुदेव आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज जी, गुरुदेव आचार्य श्री १०८ विद्यासागर जी महाराज के श्री चरणों में दीप प्रज्वलित कर कार्यक्रम का प्रारंभ हुआ। कार्यक्रम की श्रंखला में भक्ति नृत्य,सितार तबला वादन, गुरु विद्यासागर जी महाराज के अनछुए पहलुओं को चित्रित करते हुये रेत के रंगों में मंत्रमुग्धित कला मनोहारी थी। मुंबई से ख़ुशी जैन और प्रशा जैन ने श्री आदिनाथ स्तुति नृत्य और गुरुभक्ति नृत्य के द्वारा सबको मोहित किया। और प्रारंभ हुआ वह समय जिसने मंत्रमुग्ध कर दिया मुंबई को ठहर सी गई जिंदगी उन २ घंटों के लिये, प्रतिभास्थली की बेटियों के द्वारा छाया नृत्य जिसमें गुरुदेव की प्रेरणाओं के दर्शन हुये, तो मूक अभिव्यक्ति ने गायों की दशा चित्रण ने अश्रुपूरित कर दिया, छोटे छोटे सुंदर नृत्य, आज 100 वर्ष बाद के वर्ष २११७ के भारत की परिकल्पना के वर्णन द्वारा सबको हंसा हंसा कर हम गलत दिशा में जा रहे इस बोध का परिचय दिया, तो भारत के स्वर्णिम युग ने पुन: विचार करने पर विवश कर दिया, योग का परिचय भी जब दिया तो तालियों की गड़गड़ाहट से सभागार गुंजायमान था, अंतिम शास्त्रीय नृत्य की गुरुवर भक्ति अतुलनीय रही, खचाखच भरे सभागार में दर्शक अपलक कार्यक्रम का आनंद लेकर आत्मसात करते रहे। बिटिया मोही सेठी, और प्रज्ञा जैन तो प्रतिभास्थली में पढ़कर सीए की उत्कृष्ट परीक्षा में सफलता हेतु समाज की गौरव इन बेटियों को सम्मानित किया। मुंबई के दिगंबर जैन समाज ने कृतज्ञता ज्ञापित की ब्रम्हचारिणी बहनों के प्रति| जबलपुर मप्र, डोंगरगढ़ छत्तीसगढ़ और रामटेक महाराष्ट्र से 271 बालिकाएँ आई थीं और उन्होंने प्रतिभास्थली ज्ञानोदय विद्यापीठ की उत्कृष्ट शिक्षा प्रणाली का परिचय अपनी प्रतिभा के बल पर दे । प्रस्तुति: श्रीमती विधि प्रवीण जैन
  13. अरे मोरे गुरुवर विद्यासागर, सब जन पूजत हैं तुमखों, हम सोई पूजन खों आये, हम सोई पूजन खों आये, तारो गुरु झट्टई हमको, मोरे हृदय आन विराजो, मोरे हृदय आन विराजो, हाथ जोर के टेरत हैं, और बाट जई हेर रहे हम, और बाट जई हेर रहे हम, हंस के गुरु कबे हैरत हैं, मोरे गुरुवर विद्यासागर ॐ ह्रीं आचार्यश्री विद्यासागरजी मुनीन्द्राय अत्र अवतर अवतर संवौसठ इति आह्वानम्। अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम्। अरे बाप मतारी दोई जनो ने, बेर बेर जन्मों मोखों, बालापन गओ आई जवानी, बालापन गओ आई जवानी, आओ बुढ़ापो फिर मोखों, नर्रा नर्रा के हम मर गए, नर्रा नर्रा के हम मर गए, बात सुने ने कोऊ हमाई, जीवो, मरवो और बुढ़ापो जीवो, मरवो और बुढ़ापो, मिटा देओ मोरो दुःखदाई, मोरे गुरुवर विद्यासागर ।।१।। ॐ ह्रीं आचार्य गुरुवर श्री विद्यासागरजी मुनीन्द्राय जनम जरा मृत्यु विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा। अरे मोरे भीतर आगी बर्ररई, हम दिन रात बरत ऊ में, दुनियादारी की लपटों में, दुनियादारी की लपटों में, जूड़ा पन ने पाओ मैं, मौय कबहु अपनों ने मारो, मौय कबहु अपनों ने मारो, कबहुं पराये करत दुःखी, ऐसी जा भव आग बुझा दो, ऐसी जा भव आग बुझा दो, देओ सबोरी करो सुखी, मोरे गुरुवर विद्यासागर ।।२।। ॐ ह्रीं आचार्य गुरुवर श्री विद्यासागरजी मुनीन्द्राय संसार ताप विनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा | कबहुं बना दओ मोखों बड्डो, आगे आगे कर मारो, कबहुं बना के मोखों नन्हो, कबहुं बना के मोखों नन्हो, बहोतइ मोये दबा डारो, अब तो मोरो जी उकता गओ, अब तो मोरो जी उकता गओ, चमक-धमक की दुनिया में, अपने घाईं मोये बना लो, अपने घाईं मोये बना लो, काये फिरा रये दुनिया में, मोरे गुरुवर विद्यासागर ।।३।। ॐ ह्रीं आचार्य गुरुवर श्री विद्यासागरजी मुनीन्द्राय अक्षय पद प्राप्ताय अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा | अरे कामदेव तो तुमसे हारो, मोये कुलच्छी पिटवावे, सारो जग तो मोरे बस में, सारो जग तो मोरे बस में, पर जो मोंखों हरवावै, हाथ-जोड़ के पांव पड़े हम, हाथ जोड़ के पांव पड़े हम, गेल बता दो लड़वे की, ई खों जीते मार भगावे, ई खों जीते मार भगावे, ब्रह्मचर्य व्रत धरवें की, मोरे गुरुवर विद्यासागर ।।४।। ॐ ह्रीं आचार्य गुरुवर श्री विद्यासागरजी मुनीन्द्राय कामबाण विध्वंसनाय, पुष्पं निर्वपामहमतों स्वाहा | भूखे नै रै पावे, लडूआ पेड़ा सब चाने, लचई ठलूड़ा खींच ओरिया, लचई ठलूड़ा खींच ओरिया, तातो बासो सब खाने, इनसे अब तो बहोत दुःखी भये, इनसे अब तो बहोत दुःखी भये, देओ मुक्ति इनसे मोखों, मोये पिला दो आतम ईमरत, मोये पिला दो आतम ईमरत, नैवज से पूजत तुमखों, मोरे गुरुवर विद्यासागर ।।५।। ॐ ह्रीं आचार्य गुरुवर श्री विद्यासागरजी मुनीन्द्राय क्षुधा रोग विनाशाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा। रे दुनिया कौ जो अंधियारो तो, मिटा लेत है हर कोऊ, मोह रहो कजरारो कारो, मोह रहो कजरारो कारो, मिटा सके नै हर कोई, ज्ञान ज्योति से ये करिया को, ज्ञान ज्योति से ये करिया को, तुमने करिया मो कर दओ, ऊसई जोत जगा दो मेरी, ऊसई जोत जगा दो मेरी, दिया जो सुव्रत कर दओ, मोरे गुरुवर विद्यासागर ।।६।। ॐ ह्रीं आचार्य गुरुवर श्री विद्यासागरजी मुनीन्द्राय मोहान्धकार विनाशाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा | अरे खूबई होरी हमने बारी, मोरी काया राख करी, पथरा सी छाती वारे जे, पथरा सी छाती वारे जे, करम बरे ने राख भई, तुम तो खूबई करो तपस्या, तुम तो खूबई करो तपस्या, ओई ताप से करम बरें, मोये सिखा दो ऐसे लच्छन, मोये सिखा दो ऐसे लच्छन, तुमसों हम भी ध्यान धरें, मोरे गुरुवर विद्यासागर ।।७।। ॐ ह्रीं आचार्य गुरुवर श्री विद्यासागरजी मुनीन्द्राय अष्ट कर्म दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा | तुम तो कोनऊ फल नई खाउत, पीउत कोनहु रस नइयां, फिर भी देखो कैसे चमकत, फिर भी देखो कैसे चमकत, तुम जैसो कोनऊ नइयां, हम फल खाके ऊबे नइयां, हम फल खाके ऊबे नइयां, फिर भी चाने शिव फल खों, ओई से तो चढ़ा रहे हम, ओई से तो चढ़ा रहे हम, तुम चरनो में इन फल खों, मोरे गुरुवर विद्यासागर ।।८।। ॐ ह्रीं आचार्य गुरुवर श्री विद्यासागरजी मुनीन्द्राय महामोक्षफल प्राप्ताय फलं निर्वपामीति स्वाहा | ऊसई ऊसई अरघ चढ़ाके, मोरे दोनउ हाथ छिले, ऊसई-ऊसई तीरथ करके, ऊसई-ऊसई तीरथ करके, मोरे दोनउ पांव छिले, नै तो अनरघ हम बन पाये, नै तो अनरघ हम बन पाये, नै तीरथ सो रूप बनो, ऐई से तो तुम्हें पुकारे, ऐई से तो तुम्हें पुकारे, दे दो आतम रूप घनो, मोरे गुरुवर विद्यासागर ।।९।। ॐ ह्रीं आचार्य गुरुवर श्री विद्यासागर जी मुनीन्द्राय अनर्घ पद प्राप्ताय अर्घम् निर्वपामीति स्वाहा | -जयमाला- विद्या गुरु सो कोऊ ने, जग में दूजो नाव सबई जनें पूजत जिने, और परत हैं पांव दर्शन पूजन दूर है, इनको नाव महान बड़ भागी पूजा करें, और बनावें काम
×
×
  • Create New...