आचार्य श्री से मुझे हमेशा चारित्र उज्ज्वल बनाने वाले सूत्र तथा नियम मिलते रहे। एक बार मैंने और कई बहिनों ने उपवास करने की भावना व्यक्त की। दो-तीन आर्यिकाओं को उपवास के लिये आशीर्वाद दे दिया। मेरा नम्बर आया तो आचार्य श्री बोले-ऊनोदर कर लेना। मैंने कहा- आचार्य श्री उपवास करने की भावना बनाकर आई थी। आपने ऊनोदर के लिये कह दिया।
आचार्य श्री बोले- यह तो उपवास से कठिन होता है। गुरुमुख से जो निकल जाये सो उत्तम। भावना यहाँ शिष्य की नहीं, गुरु की चलती है। बड़ा कठिन समय होता है। उस समय समझ में आया कि आचार्य परमेष्ठी के सामने भावना तो रख दी, लेकिन उनको शिष्य के अन्दर की क्षमता जैसी दिखेगी, वैसा समझकर करने का आदेश करते हैं।
एक बार कुण्डलपुर में सभी त्यागीवृन्द हरी सब्जियों का त्याग करके प्रमाण कर रहे थे। आचार्य श्री ने सभी हरी सब्जियाँ छोड़ दी थीं। हम लोगों की ऐसी भावना थी कि आचार्य श्री नहीं त्यागते। समस्त संघ मुनि, आर्यिका, बहिनों ने इसी उपलक्ष्य में छोडने का विचार बनाया था। हमारी भावना थी जब हम छोडने का विकल्प रखेंगे तो आचार्य श्री सभी पर करुणा करके कुछ हरी सब्जियाँ लेने लगेंगे। अब क्या था ? जो भी आचार्य श्री के पास जाकर कहता कि आपने हरी सब्जियों का त्याग क्यों कर दिया ? आप नहीं लेंगे तो हम भी नहीं लेंगे। आचार्य श्री ऐसा सुनते और मुस्कुराकर आशीर्वाद दे देते।
कुछ आर्यिकायें कहतीं- हम तीन हरी लेंगे और अपनी क्षमता से गिना देतीं। सभी को आशीर्वाद मिलता रहा त्यागने का। लेकिन आचार्य श्री अपने नियम के प्रतिदृढ़ संकल्पित रहे। आचार्य श्री ने त्याग किया, लेकिन शिष्यों पर करुणा नहीं बहायी। मैंने भी संकल्प के बावत कहा तो बोले-कितनी हरी लेती हो ? मैंने कहा- पाँच हरी का संकल्प है।
आचार्य श्री सुनकर कहते हैं- मेरी तरफ से दो और बढ़ा लो। सुनकर मुझे हँसी आ गई। मैंने कहा- कुछ कम करने आयी थी, आपने दो और बढ़ा दीं। आचार्य श्री बोले- यह पराधीन चयां है। जरा-जरा में हरी हो जाती हैं। जाओ। गुरुमुख से सुनकर आश्चर्य हुआ कि मुझे अकेले ऐसा नियम क्यों दिया ? चार-पाँच दिन बाद मैं नमोऽस्तु करने पहुँची, कक्ष में बहुत सारी आर्यिकायें कुछ-कुछ नियम ले रही थीं। मैंने नियम लेने सम्बन्धी भाव नहीं बनाये थे। मेरी तरफ देखकर आचार्य श्री बोले- तुम बारहमाह से सम्बन्धित रसी का पालन करना। एक माह में यह नहीं खाना, ऐसा एक रसी सम्बन्धी लाइनें सुना दीं
चौथे गुड वैशाखे तेल, जेट मे महुआ आषाडे बेल,
सावन दूध न भादो मही, क्वार करेला कार्तिक दही।
अगहन जीरा पूष धना,माघ में मिश्री फाल्गुन चना,
इनका परहेज करें नहीं मरे नहीं, तो पड़े सही।
मैंने कहा- इसमें कुछ ऐसी रसी हैं कि त्याग की जरूरत नहीं। आचार्य श्री हँसते हुये कहते हैं- जिनका त्याग नहीं है,उनका पालन करना। स्वास्थ्य ठीक रहेगा। गुरुकृपा ऐसी हुई कि मुझे कभी-कभी ब्लडप्रेशर की शिकायत बन जाती थी, लेकिन जब से रसी सम्बन्धी गुरुकृपा हुई वह शिकायत खत्म हो गई। और जैसे रसी पालने सम्बन्धी माह आते हैं, तो विशुद्धि बढ़ने लगती है। जीवन में कुछ अनुष्ठान कर रही हूँ, ऐसा लगने लगता है। यह है शिष्यों की योग्यता देखकर त्याग कराने की कला।
यह सच है कि जिंदगी में जो मैंने स्वेच्छा से त्याग करना चाहा, वह मुझे नहीं मिला। गुरु ने जो सोचा वह ही त्याग किया। इसलिये मन पूर्ण गुरु पर समर्पित हो गया। मैंने अपनी जिंदगी में इस प्रकार का अनुभव किया है। सिद्धवरक्कूट में जिन आर्यिकाओं के कमण्डलु ठीक नहीं थे उनका कमण्डलुओं का परिवर्तन हो रहा था। और आचार्य श्री अपने कर-कमलों से उन्हें दे रहे थे। सभी का आग्रह था, गुरु जी से कि आपके हाथ से ही लेंगे। सभी को आचार्य श्री कमण्डलु देते जा रहे थे और कह रहे थे कि उपकरण बदलने में एक उपवास कर लेना। सभी कमण्डलु लेतीं और एक उपवास का कायोत्सर्ग करतीं। मेरा नम्बर आया, किसी ने कहा- आचार्य श्री प्रशान्तमती जी का कमण्डलु फेबीकाल से जुड़ा है, उनका भी बदलवा दो।
मैंने कहा- आचार्य श्री ठीक है, जुड़वा लिया था, पानी नहीं निकलता, अच्छा है। आचार्य श्री बोले- जोड़ वाला अच्छा नहीं माना जाता। फाड़बर का छोटा सा सुन्दर कमण्डलु हाथ में लेकर यूँ बताते हुये बोले- ये बहुत हल्का है, अधिक वजन नहीं है। ये ले लो अच्छा रहेगा।
गुरुस्नेह पाकर मैंने अपने हाथों में ले लिया, उपवास के बारे में कहा तो कहने लगे-उपवास रहने दो, तुम कहाँ ले रही थीं, मैंने दिया है। जब सभी आर्यिकायें मिलीं, सब कहने लगीं- हमें कमण्डल दिया था आचार्य श्री ने, तो एक उपवास भी दिया। तुम्हें उपवास क्यों नहीं दिया। मैंने कहा- पता नहीं क्यों नहीं दिया ? गुरु ने मेरे अन्दर उपवास करने सम्बन्धी क्षमता नहीं देखी होगी। तो नहीं दिया। यह सारी योग्यता अयोग्यता देखकर ही आचार्यश्री देते हैं। यही आचार्यों की कुशलता मानी जाती है।