Jump to content
नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
अंतरराष्ट्रीय मूकमाटी प्रश्न प्रतियोगिता 1 से 5 जून 2024 ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • प्रवचन व लेखन की प्रेरणा

       (0 reviews)

    एक बार इसी बीच भादों के महिने में दशलक्षण पर्व के समय आचार्य श्री बोले- देखो, कल मार्दवधर्म का दिन है, इस पर तुमको प्रवचन करना है। इसके उपरान्त मैं कर दूँगा।

     

    मैंने कहा- आचार्यश्री आपके सामने मैं नहीं बोल पाऊँगी। अभी तक आपसे पकी-पकाई खिचड़ी खाती रही, अब मुझे पकाना पड़ेगी। आचार्य श्री मैं नहीं बोल पाऊँगी। बड़े प्रेम-वात्सल्य से कहते हैं- ज्यादा नहीं, पन्द्रह बीस मिनिट बोल देना। मैं भी तो सुनूँ तुम कैसा बोलती हो ? गुरु की समझाइस प्यारभरी, वात्सल्य से ओतप्रोत मूर्ति को देखकर मैंने बोलने का मन बना लिया। मार्दवधर्म के दिन मंच पर आचार्य संघ बैठा। बाजू वाले मंच पर हम आर्यिकाओं का संघ बैठा था। संचालक महोदय सुन्दरलाल कवि ने आचार्य श्री के पास माइक रख दिया। आचार्य श्री इशारा करते हुये बोले- पहले आर्यिका बोलेगी, बाद में मैं प्रवचन करूंगा।

     

    माइक मेरे पास लाया गया। आचार्य श्री को नमोऽस्तु किया। मंच से मुस्कराती सूरत से बहुत सुन्दर आशीर्वाद मिला। जिससे मेरा आचार्य श्री के सामने बोलने सम्बन्धी साहस बन गया। यह सब लिखने का, कहने का प्रयोजन यही है कि आचार्य श्री ने मुझे क्रमश: साधना में उतारा। साधना में परिपक्व हुई। आर्यिका के योग्य बनाया। आर्यिका बनकर धर्म की प्रभावना प्रवचन आदि के माध्यम से की जाती है। वह कला भी उन्हीं ने सिखाई। ऐसा कुछ भी नहीं छोड़ा जो गुरु ने मुझे उपहार के रूप में न दिया हो।

     

    जब कुण्डलपुर का चातुर्मास पूर्ण हुआ तो आगे विहार करने के संकेत मिले। ग्रीष्मकाल में हम लोगों को इन्दौर का ग्रीष्मकालीन और खाते गाँव का चातुर्मास का संकेत हुआ था। पूर्व में कुण्डलपुर के आदिनाथ मन्दिर में बिठाकर कहा कि- देखो, अधिक जनसम्यक नहीं करना। ग्रन्थों का अध्ययन करना। अपनी आवश्यक क्रियाओं में मन लगाना। कुछ लेखन छन्द बगैरह बनाना। जैसे छन्द बनाने सम्बन्धी बात कही तो हम सभी एक साथ बोल पड़े- आचार्य श्री कैसे छन्द बनाये जाते हैं।

     

    आचार्य श्री के पास स्लेट रखी थी। उन्होंने लिखकर बतायी एक लाइन। मैंने कहा- वसंततिलका 14 अक्षर वाला है और अन्त में दो दीर्घ आते हैं। लेकिन कहीं-कहीं लघुतो रहता है। आचार्य श्री बोले- ऐसा है, जब पढ़ते हैं तो उस समय जरा खींच देते हैं तो लघु भी दीर्घ हो जाता है। आचार्य श्री ने मुझे लेखन, छन्द आदि की कला भी सिखायी।

     

    कुछ दिनों बाद विहार हुआ। कभी किसी गाँव, नगर तक जाना नहीं हुआ था आर्यिकावेश में। अब कहाँ, कैसा रुकना होगा ? कहाँ कौन सा गाँव, नगर कितने किलोमीटर पर है, इसकी जानकारी के लिये किससे कैसे पूछा जाये ? सभी से अनभिज्ञ थे। आचार्य श्री ने हम लोगों की चिन्ता की, कि यहाँ कुण्डलपुर से कुछ समय हाटपीपल्या रुक कर, इन्दौर जाना। वहाँ का ग्रीष्मकालीन करना। अभी नई-नई आर्यिकायें हैं, सो । गुना वाले रमेशचन्द्र, कल्लू आदि कुछ व्यक्तियों से कहा कि- तुम इन आर्यिकाओं का वहाँ तक विहार करवा दी। आचार्य श्री का आदेश पाकर गुना वालों ने हम आर्यिकाओं को विहार करवाया। जब वे श्रावकगण जिम्मेदारी उनके हाथ में थी। हम सिर्फ आर्यिकायें हाँ-हाँ करते रहते थे। इस प्रकार विहार कराने की कैसी व्यवस्थायें होती हैं ? किससे कैसी बात की जाती है ? आचार्य श्री ने यह भी हम आर्यिकाओं को सिखाया।

     

    एक बार जब शुरूआत् में खातेगाँव में चातुर्मास सम्बन्धी आदेश दिया। अब हमें इन्दौर से खातेगाँव जाना था। मैंने सुना, पर मैं उस समय आर्यिकाओं-मुनियों सम्बन्धी चातुर्मास के नियम नहीं समझती थी। कि चातुर्मास करने के लिए नगर में कैसे जाना होता है? श्रावक वहाँ के आये नहीं, फिर कैसे जायें, संकोच लगता था ? मैंने आचार्य श्री को पत्र लिखा- वहाँ के लोग आये नहीं कैसे जायें ?

     

    आचार्य श्री ने बहिनों से कहा- कह देना निमन्त्रण से नहीं जाना होता है। इतना कहतो दिया, लेकिन यह भी कह दिया कि वह मेरे पास कई वर्षों से आ रहे हैं। जब खातेगाँव वाले आचार्य श्री के पास पहुँचे, चातुर्मास सम्बन्धी याचना की तो आचार्य श्री बोले, मेरे पास आये हो, जिसका तुम्हारे लिये चातुर्मास दिया है उनके पास जाओ। क्योंकि आचार्य श्री के मस्तिष्क में बात गूंज रही थीं। अभी नई-नई आर्यिकायें हैं, अनुभव भी नहीं, बिना किसी के कहे जाने में शर्म आ रही होगी। कुछ वर्ष गुजरे, और अब जब कभी यह बात याद आती है कि आचार्य श्री से ऐसा कहा था तो आचार्यश्री कह रहे थे निमन्त्रण से जायेंगी ?

     

    अब अनुभव में ढल गये तो आचार्य श्री का जिस नगर, गाँव का आदेश मिला, मन में विचार ही नहीं आता कि वहाँ के लोग नहीं आये। गुरु आदेश मिला विहार करने लग जाती हैं। ये सभी बातें समय बीतने पर समझ में आती हैं। गुरु का आदेश जैसे मिलता गाँव, नगर के लोग स्वयं उन आर्यिकाओं, मुनियों के पास आने लग जाते हैं। वास्तव में हमारे आचार्य श्री ने प्रत्येक बात को सुन्दर तरीके से बताकर, मोक्षमार्ग में आगम के अनुरूप मुझे बढ़ाया। मैं अपने आपको जब इस वेश में रहकर गहरे चिन्तन में डूबती हूँ, तो लगता है कि जो मोक्षमार्ग की छोटे से लेकर बड़े रूप में बातें थीं वे मुझे 'अ' अक्षर से बतायीं, बाकी की जितनी शिष्यायें-शिष्य हों, उतना उनको गुरुमुख से चर्या बनाने सम्बन्धी बातें नहीं मिलीं। उनको सिर्फ देखादेखी के रूप में विरासत में मिल गई। मगर मुझे आचार्य श्री से वार्तालाप करके, उनके मुख से मिलीं। मैं धन्य हूँ, जो विश्वविख्यात दिगम्बराचार्य ने मेरी आत्मा को नासमझ से समझदार के रूप में बना दिया।


    User Feedback

    Create an account or sign in to leave a review

    You need to be a member in order to leave a review

    Create an account

    Sign up for a new account in our community. It's easy!

    Register a new account

    Sign in

    Already have an account? Sign in here.

    Sign In Now

    There are no reviews to display.


×
×
  • Create New...