एक बार हम सभी आर्यिकायें आचार्य श्री से सिवनी में मिले। करीब छह-सात दिन, संघ सम्बन्धी तरह-तरह की बातें कीं। संघस्थ आर्यिका पूर्णमती ने कहा- आचार्य श्री हम सब नदियाँ हैं, जो कचरा लाते हैं, और आपको सुनाने लग जाते हैं। आचार्य श्री मुस्कुराते हुये कहते हैं- मैं सागर हूँ, सब कचरा किनारे लगा देता हूँ। आचार्य श्री का सटीक जबाव सुनकर हम सब प्रसन्न हो गये। सोचने लगे कि आचार्य श्री सागर की तरह गम्भीर होते हैं। उन्हें सभी शिष्यों की बातें सुनना पड़ती हैं तथा उन्हें समझाड़स के माध्यम से यथायोग्य स्थिति बनाना भी पड़ती है। आचार्य पद सामान्य नहीं होता। यह पद सभी के बस का भी नहीं होता।
एक बार आचार्य श्री को दो आर्यिका सिद्धान्तमती एवं पुराणमती को संघ में भेजना था। तो क्या कहते हैं- संचालिका मणिबाई जी से, जाओ प्रशान्तमती से पूछ लो वह संघ में रख लेगी। मैंने मणिबाई जी के मुख से आचार्यश्री के द्वारा कहे गये शब्दों को सुना तो आश्चर्य में पड़ गई कि यह आचार्य श्री क्या बोल रहे हैं? मैंने कहा- बाई जी, आचार्य श्री से कह देना यह संघ तो आपका ही है, मुझसे पूछने की जरूरत ही नहीं है। बस आज्ञा ही पर्याप्त है। इन शब्दों से आचार्य श्री की महानता झलकती है। जिन्होंने मुझे पथ दिखाया, योग्य बनाया, आज वही पूछ रहे हैं कि रख लोगी कि नहीं?
एक बार हम अनेक बहिनें दीक्षा के योग्य हो गई, संभालने वाला कोर्ड नहीं था। तब आचार्य श्री के मन में विकल्प आया कि संघ में से आर्यिका अनन्तमती को बड़ा बना दिया जाये। मेरे पास शाहगढ़ के चातुर्मास में संदेशा आया कि उसको कह देना बड़े बनने की प्रक्रिया अनन्तमती को दे। गुरु आदेश पाकर मैं अनन्तमती को बार-बार कहती, देखो ऐसा करो, तुम्हें बड़ी आर्यिका बनना है।
सिद्धवरकृष्ट में पहुँचे। सभी आर्यिकायें थीं। वहाँ आचार्य श्री भी विराजमान थे। बहिनों की दीक्षा की चर्चा चल रही थी। ठीक तरीके से निर्णय नहीं हो पा रहा था। आचार्य श्री बोले- देखो, मैंने सोचा था अनन्तमती को बड़ा बनाना, लेकिन यह संभाल नहीं पायेगी। रुग्ण सी रहती है। सोमणिबाई जी को मेरे पास भेजा। वह कहने लगीं- आचार्य श्री ने तुम्हें बुलाया है। मैं आचार्य श्री के निकट पहुँची और नमोऽस्तु किया। आचार्य श्री बोले- मैंने पहले अनन्तमती के बारे में सोचा था, पर लगता है वह संघ नहीं संभाल पायेगी। विमलमती, निर्मलमती, शुक्लमती को भी ले लेता हूँ। चारों मिलकर संघ संभाल लेंगी। क्यों ले लू?
मैंने कहा- आपको जो उचित लगे, आप वैसा कर दीजिये, आपका ही संघ है। लेकिन आचार्य श्री में दो आर्यिकाओं को और देना चाहूँगी। क्योंकि वे हमेशा इन लोगों के साथ रहीं हैं। किसी का किसी से वियोग नहीं कराना मुझे। आचार्यश्री बोले- कौन? मैंने कहा- अतुलमती और निर्वेगमती। आचार्य श्री ने आशीर्वाद दिया। बात समाप्त होने पर मैं कक्ष से बाहर आ गई।
यह सारी वार्ता सुनकर सभी बहिनें बोल पड़ी- अरे,माताजी तुम्हें ऐसा नहीं करना चाहिये था। आचार्य श्री ने तुम्हारे संघ को मढिया जी में अलग आर्यिकायें लेकर पूर्णमती का संघ बनाया था। अब फिर लेकर एक और बना दिया, तुम कुछ नहीं कहती। आर्यिकायें देती जाती हो। यह सारी सोच, मुझे समर्पित होने की बात पढ़ाने वाली नहीं थी, बुद्धि की बातें समझाने की थी।
बुद्धिऐसी ही होती है। जो हमेशा कहती है- आचार्य श्री को ऐसा नहीं करना चाहिए था। शव का जिस प्रकार डाक्टर पोस्टमार्टम कर देते हैं, उसी प्रकार बुद्धि प्रत्येक परिस्थिति का उपकारी क व्यवहार का, उपकारी क प्रत्येक वचन का, बस पोस्टमाटम ही किया करती है।
किसी ने आखिरकार आचार्य श्री के पास अपनी कुटिल बुद्धि का प्रयोग कर ही दिया। आचार्य श्री कम से कम प्रशान्तमती के पास एक पुरानी आर्यिका तो रहने दो। आचार्य श्री बोले- अब मैं तीनों की संयोजना नहीं बिगाड़ेंगा। प्रशान्तमती को अब आवश्यक नहीं है, वह सब सँभाल लेगी। वह अकेली पर्याप्त है।
इस प्रकार जब मैंने सुना, कि आचार्य श्री कह रहे हैं- उसको किसी आर्यिका की जरूरत नहीं है, वह पर्याप्त है। मेरे अन्दर विचार आया कि आचार्य श्री ने ऐसा सोचा है तो मेरे अन्दर क्षमता हो सकती है। मैं अपने अन्दर बैठी क्षमता को प्रकट करूंगी। जब इस आत्मा में परमात्मा को प्रकट करने की शक्ति हो सकती है तब इस प्रकार संघ एवं समाज और स्वयं के आर्यिकाव्रतों को सँभालने की ताकत क्यों नहीं होगी ? मैंने जब इस प्रकार पुरुषार्थ किया है तो आज मैं सोचती हूँकि गुरुकृपा से धर्मप्रभावना के लिये तीन बार स्वयं स्वाध्याय करवा प्रभावना करना हँसी-खेल नहीं है। जनता के सामने जिनवाणी की बात रखी जाती है, जिससे श्रोता का वैराग्य बढ़े। संयम की भावना बने, तत्व का रहस्य समझ में आये। वह आगम सम्मत भी हो। कहानी, शेर-शायरी, हँसी-मजाक सम्बन्धी कुछ भी बातें सुनाकर घण्टेभर प्रवचन की पूर्ति नहीं करना। ऐसी चर्चा नहीं करनी पड़ती है कि जिससे साधु व समाज में विभाजन-विवाद हों।
हमारे आचार्य श्री ने शायद प्रारम्भिक भूमिका से, मेरे लिये आचार्यप्रणीत ग्रन्थ पढ़ने को हमेशा प्रोत्साहित किया। उन्होंने गुरूणां गुरु आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज का एक संस्मरण सुनाया था। आचार्य ज्ञानसागर जी हमेशा शास्त्र को लेकर ही प्रवचन करते थे। मुझे यह बात हृदय तक छू गई। कि जब शास्त्र को पढ़कर उसी के अनुसार समझाया जायेगा तभी आगम का रहस्य सामने आयेगा। जिसकी जैसी भूमिका हो, वैसा ही स्वाध्याय कराना। श्रावक को श्रावक के अनुरूप ज्ञान देकर, योग्य बनाना। बिना किसी तामझाम के। इतनी सारी बातें मस्तिष्क में भर गई। आचार्य श्री ने जो कहा था वह सच निकला। मैं उनकी भावना तथा उनके आशीर्वाद से कभी दूसरे की आकांक्षा नहीं कर पायी। वह शक्ति मेरे अन्दर प्रकट हो गई। यह गुरुकृपा, उन्होंने जो जाना-समझा होगा, वही मैंने अन्दर पाया। गुरु अन्तर्यामी होते हैं। उनके कारण आज मैं जिनवाणी के सतत् स्वाध्याय में मन लगाती रहती हूँ।