सन् 1989 की बात है। आचार्य श्री जी से मैंने मोक्षसप्तमी का | उपवास करने के लिये कहा। वे कहने लगे- आज का उपवास करोगी, कल अष्टमी के दिन आहार करोगी ? मैंने कहा- आपसे मैंने ब्रह्मचारिणी अवस्था में लिया था, इसलिये वह करती हूँ, और आगे भी करना है।
आचार्य श्री बोले- वह मैंने ही दिया था। अब मैं ही कह रहा हूँ, अष्टमी का उपवास कर लेना। वह उस ब्रह्मचारिणी अवस्था के थे, अब आर्यिका बन गई हो। सब इसी में हो जाते हैं। इसी तरह त्रिलोकतीज, पंचकल्याणक आदि जो भी व्रत, उपवास थे करने को मना कर दिया। ? लेकिन कुछ रहस्य इसमें हो सकता है। मुझे तो गुरुमहिमा समझ में आती है। किसी को कहते हैं। उपवास करना चाहिये। उपवास की अच्छी साधना करनी चाहिए। मुझे हमेशा यही कहा- सब तो त्याग है। एक बार आहार लो, धर्म की प्रभावना करो, अध्ययन करो, कराओ।