एक बार कुण्डलपुर में बड़े बाबा का महामस्तकाभिषेक होना था। उस समय मुझे फिर स्वप्न में आवाज आई कि आज सुबह आचार्य श्री से जाकर कहना- मुझे कुछ त्याग करवा दो। मैंने आचार्य श्री के पास जाकर हू-बहूऐसे ही वाक्य बोल दिया। आचार्य श्री ने वाक्य सुना तो बोले- क्या कुछ स्वप्न आ गया ? बहुत स्वप्न आते हैं। मैंने कहा- हाँ, आचार्य श्री स्वप्न आया है, कुछ त्याग करा दीजिये। जो भी आपके मुख से निकल जायेगा, वही त्याग रहेगा जीवन पर्यन्त। आचार्य श्री कहते हैं- जामफल का और केले का त्याग कर दी। मैं जैसे ही कायोत्सर्ग करने को उद्यत हुई कि अचानक से बोलेदेखो, कच्चे केले नहीं खाना, पक्का खाने का विकल्प रख लो। कभी जरूरत हो जाती है। इस प्रकार से आचार्यश्री ने मुझे नियम देकर, मेरे स्वप्न को साकार बना दिया। नियम पाकर मैं बहुत खुश हो गई।
इसी तरह एक बार मेरा स्वास्थ्य जब मैं दलपतपुर में ग्रीष्मकालीन कर रही थी, गुरु आदेश से। आचार्य श्री सागर में थे। दो मई को भाग्योदय का शिलान्यास होना था। मुझे जब कभी धूल लगती या धूप से छाया में आती तो बड़े-बड़े शरीर में लाल चिड़े हो जाया करते थे। डाक्टर वैद्य ने इसे धूल की एलर्जी बता दी, और कुछ-कुछ खाने का परहेज बताया। मैंने उसी के अनुसार अपना भोजन बना लिया। करीब तीन वर्ष हो गये, धूल वाली पुस्तक भी नहीं छू पाती थी।
आचार्य श्री सिद्धवरकुट में मिले। संघस्थ आर्यिकाओं ने मेरी | इस प्रकार शारीरिक अस्वस्थता के बारे में कहा कि माता जी परहेज-परहेज करने में लगी रहती हैं। कुछ लेती ही नहीं हैं। इससे कमजोरी आ रही हैदिनों-दिन। आचार्य श्री बोले- क्यों कुछ नहीं लेती हो ? मैंने कहा- जैसे श्रावक थाली दिखाते, मेरा हाथ सभी वस्तुओं को हटाने के लिये संकेत करने लग जाता है। सब्जी, दाल, रोटी सिर्फ नहीं उठवाती हूँ। आचार्य श्री बोले- ऐसा क्यों करती हो ? मैंने कहा- पता नहीं, अपने आप ऐसा होता है।
आचार्य श्री बोले- तुम्हें अपना स्वास्थ्य ठीक करना है तो ऐसा करना तुम सामग्री उठाने के लिये कहो, और श्रावक यदि कहें कि नहीं हम तो देंगे। भले थोड़ा सा लो, हम नहीं उठायेंगे, तो तुम उस सामग्री को एक ग्रास ले लेना, ज्यादा नहीं लेना। जो तुम्हारा त्याग हो उसकी बात मैं नहीं कह रहा हूँ। उसको तो उठवा देना। जो त्याग नहीं है उसको नहीं उठाना। श्रावक बार-बार आग्रह करते हैं तो लेना। क्योंकि वह जब बार-बार कहता है तो वह उसका अन्दर का परिणाम है। सुन लिया, ऐसा ही करना। आचार्य श्री ने मुझे श्रावक के अन्दर की आवाज की औषधि बतायी। मैं बहुत सुन्दर तरीके से समझ गई। अब जब चौके में आहार के लिये जाती हूँ, श्रावक थाली दिखाता है तो आचार्य श्री की आवाज गूंजती है। श्रावक के अन्दर के भाव दिखायी देते हैं। जब कहते हैं- नहीं, हम तो देंगे। सभी कुछ उठवा दिया तो अब हम क्या दें ? थोड़ा तो लेना पड़ेगा। वह याद आता, आचार्य श्री की आज्ञानुसार एक-एक ग्रास सभी सामग्री का लेने लगी। मुझे कुछ पता ही नहीं पड़ा कि तीन वर्ष से जिस रोग से पीड़ित थी वह कहाँ चला गया ?
यह थी आचार्य श्री की वाणी भी औषधि, जो लाभकारी हो गई। गुरु आशीर्वाद और वाणी औषधि से बढ़कर होती है। अगर उस पर श्रद्धान किया जाये तो। क्योंकि जब भी गुरु बोलते हैं, अनुभव से बोलते हैं। करुणा से भरकर बोलते हैं। आत्मीयता से भरकर बोलते हैं। शिष्य बात को समझ जाता है तो उसका भला ही होता है। मैंने इस बात का प्रयोग करके देखा है। गुरुमुख से निकली बात में कुछ रहस्य अवश्य होता है। तुरन्त रहस्य दिखाई नहीं देता। इसका फल कालान्तर में मिलता है। सिर्फ धैर्य व साहस रखने की जरूरत होती है।