प्रज्ञा का विस्तार ही प्रतिभा के निखार का कारण होता है। प्रज्ञा और प्रतिभा दोनों का संबंध आदमी के अंतस से होता है। प्रतिभावान जो होता है, वह अपने अंदर के प्रभुत्व को देखकर उसकी शक्ति का उपयोग करता है तथा अपनी बुद्धि और विवेक से जीवन के प्रत्येक कदम का निर्णय करता है। अज्ञान की अधिकता से प्राय: अभिमान होता है, लेकिन विवेकपूर्ण आचरण से उसके अन्दर अभिमान के स्थान पर स्वाभिमान जागृत होता है। संसार में एक सीमा तक स्वाभिमान बुरा नहीं, लेकिन अभिमान करने वाला अभिमानी व्यक्ति तो कदम-कदम पर हेय माना जाता है। उसके अंदर छुपी हुई क्षमता को वह स्वयं ही नहीं जान पाता। इसलिए बुद्धि का सही- सम्यक् दिशा में प्रयोग करने वाला ही विद्या का अर्जन अच्छे से कर सकता है। विद्यार्जन में जो जितना एकाग्र होता है, उसको उतनी सफलता मिलती है। आचार्यश्री के बारे में जब सुनते हैं, समझते हैं कि महती लगनशीलता से उन्होंने किस तरह अपने ज्ञान का अर्जन किया है। उनके बचपन के एक संस्मरण से ज्ञात होता है कि वे कैसे प्रज्ञावान थे।
संस्मरण : 26 अगस्त 1997 मंगलवार को कक्षा के दौरान चर्चा निकल पड़ी तो उन्होंने सुनाया- 'पहले तीसरी कक्षा में ही हिन्दी महीनों और सत्ताइस नक्षत्रों के नाम याद करना पड़ते थे।'
हम लोगों ने पूछा - 'आप जल्दी कर लेते थे क्या?
आचार्यश्री बोले - 'अरे! मास्टर जी बहुत तेज थे। जब तक पूरे महीनों के नाम और नक्षत्रों के नाम नहीं सुन लेते थे, तब तक सभी छात्रों को खड़ा रखते थे और तब तक भोजन की छुट्टी भी नहीं देते थे।'
हम लोगों ने पूछ - "आप खड़े रहते थे या सुना देते थे?"
आचार्यश्री बोले - 'हम तो जल्दी याद करके सुना देते थे और भोजन करने चले जाते थे। लेकिन कक्षा में कुछ छात्र ऐसे थे, जिन्हें याद नहीं होता था। कभी-कभी तो हम भोजन करके आ जाते थे, तब भी वे छात्र खड़े मिलते थे, फिर भी उन्हें याद नहीं होता था।' आचार्यश्री में बुद्धि और स्मरण शक्ति की प्रखरता बचपन से ही थी। उसी का परिणाम है कि चाहे तत्व चर्चा के क्षेत्र में हो, व्यावहारिक क्षेत्र में हो, संघ के शिष्यों की बात हो, सब कुछ याद रखते हैं। विपुलज्ञान का भंडार गुरुदेव के अंतस में समाया है। हम अपने वर्तमान अल्पज्ञान से उनके विद्या और ज्ञान के अथाह भंडार को शब्दों में आज नहीं बाँध सकते हैं।
ज्ञान उनको - संपति जो मेध बन बरस गई |
आचरण की पावनता नतमस्तक कर गई ||
कोई ऐसा कैसे हो सकता है सोचकर ,
आप तक ये द्रष्टि गई और आप पर ठहर गई ||