बालक स्कूल में पढ़ता है तो कुछ न कुछ अवश्य सीखता है। यह शिक्षा का सही अर्थ है। बालक विद्याधर को बचपन से ही एक शौक था 'छोटे से बड़ा बनने का' जो आज उन्होंने कर दिखाया। हम जैसे हजारों संसारी जीवों को सही मार्ग पर लगाया क्योंकि अंदर बाहर से बड़े हुए बिना भावों में विशालता नहीं आती। कहा जाता है कि भावों की विशालता ही सही बड़प्पन है। मन-वचन-काय तीनों की एकाग्रता के साथ ही यह यात्रा प्रारंभ होकर पूर्णता को प्राप्त होती है।
जब बालक विद्याधर पहली कक्षा के विद्यार्थी थे और स्कूल जाते थे, तब वहाँ विद्या अर्जन करते समय उन्होंने 'अ' से 'आ' की ओर यात्रा प्रारंभ की। यह शिक्षा का मंगलाचरण था। वे 'अ' से 'आ' अक्षरों से अपनी पूरी स्लेट पट्टी भर देते थे। घर पहुँचने पर पूछा जाता था कि आज क्या सीखा? तो बड़ी मीठी वाणी में एक ही उत्तर होता- छोटे 'अ' से बड़ा 'आ' बनाना सीखा है।
ये थी शिक्षण काल की एक प्रगतिगामी सहज भावना जो आज हम सभी के सामने साकार रूप में दिख रही है। अपने जीवन में आने वाली असहजता का त्याग करके साधु का रूप धरा और मन की वह साकार भावना 'अ' से 'आ' शब्द के संस्कार आज इस 21वीं सदी के महान आचार्य परमेष्ठी के रूप में दृष्टिगत हो रहे हैं, जो अनगिनत जीवों को मुक्तिमार्ग पर अग्रसर कर रहे हैं।
6.10.98, सागर
छोटा कैसे हो बड़ा, लक्ष्य बने यह एक |
पौधा बनता पेड़ जस, देता सुफल अनेक ||