एक बार सभी बहिनों के बड़े-बड़े बाल होने के बाबजूद किसी ने केशलुचन का विकल्प नहीं किया। उसमें मैं भी सामिल थी। मैंने अपने बाल पाँच माह के कर लिये। बाल बड़े-बड़े थे। एक दिन साँझ के समय आचार्यभक्ति चल रही थी, मढ़िया जी में, ग्रीष्मकालीन समय था। आचार्यश्री ने बहिनों की तरफ देखकर बोले- क्या तुम सभी ने हिप्पीकट बाल रख लिये ? केशलुचन करना छोड़ दिया ? अच्छा लगता है ऐसा क्या ? संक्षिप्त में ब्रह्मचारिणी की वेशभूषा, रहन-सहन के बारे में एक प्रवचन जैसा हो गया। सभी को आचार्यश्री की प्रेरणा ठीक लगी। एक-एक करके सभी बहिनें आचार्यश्री के निकट जाकर केशलुचन करने का नियम लेती हैं। आचार्य श्री सभी को आशीर्वाद देते रहे। उसी लाइन में मैं लग गई, लेकिन जब कोई बहिन नहीं थी। सिर्फ कक्ष में आचार्य श्री बैठे हुये थे।
मैंने गेट के पास बैठकर कहा- आचार्य श्री मैं भी केशलुचन करना चाहती हूँ। आचार्य श्री बोले- क्योंकितने माह हो गये ? डरते हुये मैंने कहा- करीब पाँच माह। आचार्य श्री बोले- रहने दो अभी। मैंने कहा- आचार्य श्री क्या आप मुझे दीक्षा देंगे। आचार्य श्री बोले- लेना है क्या ? मैंने कहा- लेना है, लेकिन मेरी भावना है कि कुण्डलपुर में हो तो अच्छा। आचार्य श्री बोले- अच्छा कुण्डलपुर में लेने की भावना है। मैंने सिर हिला दिया और धीरे से कहा- 9 अगस्त को ब्रह्मचर्यव्रत लिया था। अब 9 अगस्त को दीक्षा भी लेना है। ऐसा सुनकर आचार्यश्री मुस्कुराने लगे ।
मौन स्वीकृति को मैं समझ गई। मैंने नमोऽस्तु किया, आने लगे तो आचार्यश्री बोले- मुनियों का जो प्रतिक्रमण है, उसका अर्थ बगैरह लगाकर तैयार करना। मैंने विहार का सोचा है, देखो इतना कहकर मौन हो गये। कुछ समय बाद विहार हुआ। आचार्य श्रीकुण्डलपुर क्षेत्र पर चातुर्मास हेतु आ गये। बारह वर्ष पूर्व जो बड़े बाबा के भक्त देवों ने मुझे जो स्वप्न दिया था, मैंने आचार्य के पास डायरी ले जाकर कहा- आचार्यश्री इसको देख लीजिये। आचार्य श्री बोले- क्या है ? मैंने कहा- स्वप्न जो मुझे आया था वह है। आचार्य बोले- अच्छा एक बार तूस्वप्न वाली कापी लेकर आयी थी, वही है क्या ? मैंने कहा- आचार्य श्री हाँ, वही है। आपने उस समय कहा था कि बाद में देख लूगा, अभी नहीं। फिर आपको स्वप्न की कापी दिखाने का साहस एवं समय ही नहीं बना। यह दिखाना आपको जरूरी है, इसमें एक शर्त है। पहले गुरु बनने वाले को दिखाई जायेगी इसके बाद किसी और को। मैंने अपने घर में कहा था कि मुझे स्वप्न आया है, व्रत लेना है। तो घर के सदस्यों ने पूछा था- कैसा स्वप्न ? मैंने कहा- व्रत लेने का। वह मैंने कापी में लिखकर रख लिया है। वे मुझसे स्वप्न लिखी कापी को माँगते रहे, लेकिन उनको अभी तक दिखाई नहीं है। आप देख लेंगे, तब सभी को दिखाने लगूंगी।
आचार्यश्री कुण्डलपुर क्षेत्र के बड़े गेट के ऊपर वाले हाल में बैठे थे। मेरे द्वारा दी गई कापी के पृष्ठ खोलकर स्वप्न को बड़े मनोयोग से पढ़कर हँसते जा रहे थे। सामने मैं और कचनबाई जी बैठी हुई थीं। स्वप्न पढ़कर मुझसे बोलते हैं- देखो, इसमें क्या लिखा है? बारह वर्ष में दीक्षा होगी। अच्छा, इसीलिये योग टल गया। अब बारहवर्ष हो गये। ऐसा कहकर चिन्तन की मुद्रा बनाकर बैठगये। फिर नौ बहिनों के नाम गिनाये ये ठीक रहेंगी। इन बहिनों के साथ, एक साथ मिलकर साधना करना। दीक्षार्थी बहिनों को चुन दिया आचार्यश्री ने।
कुछ समय निकला। मैं आचार्य श्री को नमोऽस्तु करने पहुँची। आचार्य श्री इस प्रकार बोले- जिसको सिर्फ मैं समझ सकीं, अन्य बहिनें नहीं समझ पायीं। उन्होंने कहा- देखो, तुम कह रही थीं, 9 अगस्त को दीक्षा लेना है। लेकिन 9 अगस्त का मुहूर्त ठीक नहीं, 7 अगस्त का अच्छा है। नेमिनाथ भगवान का तपकल्याणक का दिन है। क्यों ये अच्छा रहेगा ? मैंने कहा- ठीक है, अगस्त महिना तो है। मैं खुश हो गयी। इसके बाबजूद आचार्य श्री कहते हैं- अभी सबको नहीं बताना। मैंने गुरु के बताये गये निर्देश का पालन किया। जिन बहिनों को दीक्षा के योग्य चुना, सभी एक कमरे में एक साथ सोना, एक साथ चर्या करना, सभी कुछ एक साथ करना। आचार्य श्री ने जो, मेरे योग्य बहिनें दीक्षा के लिये चुनी, उनसे पहले से कह दिया था, कि मैं इसको बड़ा बनाऊँगा, मंजूर है। सभी ने स्वीकृति दी हाँ।
समय आ गया। 7 अगस्त सोमवार का दिन, नेमि प्रभु का तपकल्याणक का। उस दिन मुहूर्त अमृतयोग था। आचार्यश्री ने कहदिया था पूर्व से। बहुत अच्छी विशुद्धि बढ़ाना है। माइक में किसी भी प्रकार का बोलने सम्बन्धी विकल्प नहीं करना, इन विकल्पों से विशुद्धि घटने लग जाती है। इसका ध्यान रखना। सभी मिलकर माइक के सामने खड़ी होकर खम्मामि सव्वजीवाण, सव्वे जीवा खमंतु मे। मित्ती मे सव्वभूदेसु वेरमज्झण केण वि। बोल देना, हो गया। समय से डेढ़ बजे मंच पर सभी तैयार होकर पहुँचना। गुरु आदेश से हम सभी मंच पर पहुँच गये। आचार्य श्री भी अपने संघ के साथ मंच पर बैठ गये। दीक्षा का कार्यक्रम शुरू हुआ। लेकिन पटेरा के सदस्य सुन्दरलाल कवि कहते हैं- हमारे नगर की बेटी है, हम तो मुख से कुछ उदगार व्यक्त करवायेंगे। सुना है स्वप्न बगैरह आया था, इस मार्ग पर आने का। इसलिये आप बोलने का आदेश दे दीजिये। सुनते ही आचार्य श्री ने मेरी तरफ देखते हुये औगुली से यूँ-यूँ किया। जिसका अर्थ था कि ये सब लोग बोलने के लिये कह रहे हैं। तो पाँच मिनिट बोल दी। आचार्य श्री का आदेश पाकर मैंने प्रथमबार आचार्यश्री के सामने बोला था। इसके बाद सभी बहिनों को थोडा-थोडा बोलने का आग्रह किया। सभी ने अपने विचार वैराग्य सम्बन्धी व्यक्त किये।
दीक्षा बड़े उल्लास के साथ आचार्य श्री ने दी। पिच्छिका-कमण्डल देते जा रहे और कहते जा रहे- देखो, इस मंच से पहले बड़े बाबा को नमोऽस्तु कर लो। मैंने बड़े बाबा को, उसके बाद आचार्यश्री को नमोऽस्तु किया। लेकिन हाथ जोड़कर पिच्छिका बाजू में रखकर किया, जैसे ब्रह्मचारिणी के वेश में करती थी।
आचार्य श्री बोले- हाथ में पिच्छिका लेकर करो प्रशान्तमती। क्या करें ? अभी वही संस्कार पड़े हैं। मुस्कुराते हुए कहते हैं कि इतनी जल्दी वह संस्कार कैसे भूल जायेगी ? वे दिन मुझे कभी प्रसंगवश याद आ जाते हैं कि हमारे आचार्य श्री ने शुरू से, पिच्छिका लेकर कैसी नमोऽस्तुकी जाती है, यह तक मुझे सिखाया है। जो बालिका के रूप में थी उसे पालिका का रूप दे दिया। गुरु के द्वारा प्रदत्त उपहार कर्म निर्जरा का साधन बन गया।
मंच से जैसे आर्यिका के रूप में उतरे, हम सभी ने आचार्य श्री से । कहा- हम लोग बड़े बाबा के दर्शन करने चले जायें ? आचार्य श्री कहते हैं- अभी सीढ़ियाँ चढ़कर मत जाओ। पहली सीढ़ियों के पास जाकर कर लेना। आचार्य श्री के आदेश से गये। हम लोग पूर्ण रूप से जा ही नहीं पाये कि बीच में तेजी से वर्षा हो गई। हम सभी आर्यिकायें गीली हो गई। यह प्रारम्भ से गीला होकर रात गुजारने का क्षण था। बाई जी ने बहिनों से कहकर साड़ियों को सुखाया।
आचार्य श्री ने सुना तो कहते हैं- यहीं से परीक्षायें शुरू हो गई। और भी हम सभी को महाव्रतों के बारे में समझाते रहे। चतुर्दशी का प्रतिक्रमण आचार्य श्री ने किया। हम आर्थिकाओं को भी एक पंक्तिबठू बैठा लिया। बड़ा प्रतिक्रमण कैसा किया जाता, कब कायोत्सर्ग किया जाता, वह भी गुरु से सीखने का अवसर मिला। उस समय से चरमसीमा की विशुद्धि बढ़ने लगी गुरु सान्निध्य पाकर।