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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. मुक्तागिरि का चातुर्मास पूरा हुआ। संघ-सहित आचार्य महाराज ने रामटेक की ओर विहार किया। रास्ते में एक दिन अम्बाड़ा गाँव पहुँचते-पहुँचते अँधेरा घिर गया। सारा संघ गाँव के समीप एक खेत में ठहर गया। खेत में ज्वार के डंठलों से बना एक स्थान था। रात्रि विश्राम यहीं करेंगे, ऐसा सोचकर सभी ने प्रतिक्रमण किया और सामायिक में बैठ गए। दिसम्बर के दिन थे। ठंड बढ़ने लगी। रात में नौ बजे जब श्रावकों को मालूम पड़ा कि आचार्य महाराज खेत में ठहरे हैं तो बेचारे सभी वहाँ खोजते-खोजते पहुँचे। जो बनी सो सेवा की। स्थान एकदम खुला था, नीचे बिछे डंठल कठोर थे। इस सबके बावजूद भी आचार्य महाराज अपने आसन पर अडिग रहे। किसी भी तरह से प्रतिकार के लिए उत्सुकता प्रकट नहीं की। लगभग आधी रात गुजर गई। फिर दिन भर के थके शरीर को विश्राम देने के लिए वे एक करवट से लेट गए। उनके लेटने के बाद ही सारा संघ विश्राम करेगा, ऐसा नियम हम सभी संघस्थ साधुओं ने स्वतः बना लिया था, सो उनके उपरान्त हम सभी लोग लेट गए। ठंड बढ़ती देखकर श्रावकों ने समीप में रखे सूखे ज्वार के डंठल सभी के ऊपर डाल दिए। सब चुपचाप देखते रहे, किसी ने कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की। लोग यह सोचकर निश्चिन्त हो गए कि अब ठंड कम लगेगी, पर ठंड तो उतनी ही रही, डंठल का बोझ और चुभन अवश्य बढ़ गई। उपसर्ग व परीषह के बीच शान्त-भाव से आत्म-ध्यान में लीन रहना ही, सच्ची साधुता है, सो सभी साधुजन चुपचाप सब सहते रहे। सुबह हुई। लोग आए। डंठल अलग किए। हमारे मन में आया कि श्रावकों को उनकी इस अज्ञानता से अवगत कराना चाहिए, पर आचार्य महाराज की स्नेहिल व निर्विकार मुस्कुराहट देखकर हमने कुछ नहीं कहा। मार्ग में आगे कुछ दूर विहार करने के बाद आचार्य महाराज बोले कि-‘देखो, कल सारी रात कैसा कर्म-निर्जरा करने का अवसर मिला, ऐसे अवसर का लाभ उठाना चाहिए।' हम सभी यह सुनकर दंग रह गए। मन ही मन अत्यन्त श्रद्धा और विनय से भरकर उनके चरणों में झुक गए। आज कर्म-निर्जरा के लिए तत्पर ऐसे रत्नत्रयधारी साधक का चरण सानिध्य पाना दुर्लभ ही है। अम्बाड़ा (१९८o)
  2. वर्षाकाल पूरा होने को था। दीपावली की पूर्व संध्या में आचार्य महाराज ध्यानस्थ हुए तो सारी रात निश्चल ध्यान में बैठे-बैठे ही बीत गई। महावीर स्वामी के परिनिर्वाण की प्रत्यूष बेला में उन्होंने आँखें खोलीं और क्षण भर हम सभी की ओर देखकर कहा कि ‘‘भगवान् तो वर्षों पहले मुक्त हो गए, हम भी ऐसे ही कभी मुक्त होंगे, पर जाने कब होंगे ?” उस क्षण उनकी दिगन्त में झाँकती आँखें, मुखमण्डल पर छायी अपार शान्ति और गदगद् कंठ से झरती यह अमृत वाणी देख-सुनकर हम सभी अवाक् रह गए। एक क्षण को लगा, मानो वे सचमुच संसार के आल-जाल से मुक्त होकर आत्म-आनन्द में डूब गए हैं। मुक्ति पाने की इतनी गहरी प्यास उन्हें शीघ्र ही संसार के आवागमन से मुक्त करेगी। मुक्तागिरि (नवम्बर, १९८०)
  3. उन दिनों आगम व अध्यात्म ग्रन्थों का अवलोकन चल रहा था। आचार्य महाराज जी/जैसा, समझाते/बताते थे, उसे ग्रहण करने की कोशिश रहती थी, पर कई प्रश्न जानकारी के अभाव में अनसुलझे ही रह जाते थे। एक दिन साहस करके कुछ प्रश्नों का समाधान पाने की इच्छा से हम उनके चरणों में पहुँचे। आचार्य महाराज स्वाध्याय व लेखन में लगे थे। हम प्रणाम निवेदित करके समीप ही एक ओर बैठ गए। अचानक हमें लगा कि सारे प्रश्नों का उत्तर हमें आता है। व्यर्थ ही आचार्य महाराज का समय क्यों लिया जाए। सो हम पुनः नमोऽस्तु करके जाने लगे। आचार्य महाराज ने दृष्टि उठाकर हमें देखा तो लगा जैसे कह रहे हों कि क्या बात है, कुछ पूछना था ? हम क्या कहते। श्रद्धा से विगलित, भरे कंठ से कहा कि जो प्रश्न थे वे अनायास ही आपका सामीप्य पाकर समाधान बन गए हैं। जीवन के हर समाधान आपके दर्शन से हम पाते रहें, ऐसा आशीष दें। वे मुस्कराकर अपने अध्ययन में लीन हो गए। जिनकी वीतराग-चितवन अनकहे ही हर प्रश्न का समाधान कर देती है, ऐसे आचार्य महाराज धन्य हैं। आज जब और लोगों को भी उनके श्री-चरणों में समाधान पाते देखता हूँ तो पूज्यपाद स्वामी की पंक्तियाँ याद आती हैं - ‘‘मुनिपरिषन्मध्ये संनिषण्णं मूर्त्तमिव मोक्षमार्गमवाग्विसर्गं वपुषा निरूपयन्तम्।।" मुक्तागिरि (सितम्बर, १९८o)
  4. सारा संघ मुक्तागिरि की ओर जा रहा था। सुबह का समय था। सभी ने सोचा कि समीपस्थ मोसी ग्राम तक विहार होगा, सो आसानी से चलकर नौ-दस बजे तक पहुँच जाएँगे। जब दस बजे हम मोसी गाँव पहुँचे तो मालूम पड़ा आचार्य महाराज लगभग आधा घण्टे पहले यहाँ से आगे निकल गए हैं। सचमुच, आचार्य महाराज अतिथि हैं। कब/कहाँ पहुँचेंगे, कहा नहीं जा सकता। उनका यह अनियत विहार कठिन भले ही है, लेकिन बड़ा स्वाश्रित है। विहार की बात पहले से कह देने में दो मुश्किलें खड़ी हो जाती हैं। यदि किसी कारण निर्धारित समय पर विहार नहीं कर पाए तो झूठ का दोष लगा और जब तक विहार नहीं किया तब तक विहार का विकल्प बना रहा। इससे अच्छा यही है कि क्षण भर में निर्णय लिया और हवा की तरह नि:संग होकर निकल पड़े। आगे क्या होगा इसकी जरा भी चिन्ता नहीं है। यही तो निर्द्धन्द्र-साधना है। हम सभी आचार्य महाराज को अनुसरण करते हुए आगे बढ़ने लगे। गंतव्य दूर था। सामायिक से पहले पहुँचना संभव नहीं था, सो रास्ते में ही एक संतरे के बगीचे में सामयिक के लिए ठहर गए। सामायिक करके हम लोग लगभग ढाई-तीन बजे अपने गंतव्य पर पहुँचे। आचार्य महाराज के चरणों में प्रणाम किया। वे हमारी स्थिति से अवगत थे, सो अत्यन्त स्नेह से बोले-‘‘थक गए होगे, थोड़ा विश्राम कर लो, अभी आहार-चर्या के लिए सभी एक साथ उटेंगे।' हम समझ गए कि आचार्य महाराज स्वयं समय से आ जाने पर भी आहार चर्या के लिए हम सब के आने की प्रतीक्षा करते रहे। उनके इस असीम वात्सल्य का हम पर गहरा प्रभाव हुआ, जो आज भी है। मुक्तागिरि (१९८o)
  5. सागर के वर्ण भवन, मोराजी में आचार्य महाराज के सानिध्य में ग्रीष्मकालीन वाचना चल रही थी। गर्मी पूरे जोर पर थी। नौ बजे तक इतनी कड़ी धूप हो जाती थी कि सड़क पर निकलना और नंगे पैर चलना मुश्किल हो जाता था। आहार-चर्या का यही समय था। आचार्य महाराज आहार-चर्या के लिए प्राय: मोराजी भवन से बाहर निकल कर शहर में चले जाते थे। मोराजी भवन में ठहरना बहुत कम हो पाता था। पं. पन्नालाल जी साहित्याचार्य का निवास मोराजी भवन में ही था और वे पड़गाहन के लिए रोज खड़े होते थे। उनके यहाँ आहार का अवसर कभी-कभी आ पाता था। एक दिन जैसे ही दोपहर की सामायिक से पहले ईयपिथ प्रतिक्रमण पूरा हुआ, पं. जी, आचार्य महाराज के चरणों में पहुँच गए और अत्यन्त सरलता और विनय से सहज ही कह दिया कि-‘महाराज! अब ततूरी (कड़ी धूप से जमीन गर्म होना) बहुत होने लगी है, आप आहार चर्या के लिए दूर मत जाया करें।” सभी लोग उनका आशय समझ गए। आचार्य महाराज भी यह सुनते ही हँसने लगे। आज भी इस घटना की स्मृति से मन आचार्य महाराज के प्रति अगाध श्रद्धा से झुक जाता है। उनके आचरण की निर्मलता और अगाध ज्ञान का ही यह प्रतिफल है कि विद्वान् जन उनका सामीप्य पाने के लिए आतुर रहते हैं। सागर (१९८o)
  6. सागर में आचार्य महाराज के सान्निध्य में पहली बार षट्खडागम वाचना-शिविर आयोजित हुआ। सभी ने खूब रुचि ली। लगभग सभी वयोवृद्ध और मर्मज्ञ विद्वान् आए। जिन महान् ग्रन्थों को आज तक दूर से ही माथा झुकाकर अपनी श्रद्धा व्यक्त की थी, उन पवित्र ग्रन्थों को छूने, देखने, पढ़ने और सुनने का सौभाग्य सभी को मिला। यह जीवन की अपूर्व उपलब्धि थी। वाचना की समापन बेला में सभी विद्वानों के परामर्श से नगर के प्रतिष्ठित एवं प्रबुद्ध नागरिकों के एक प्रतिनिधि मण्डल ने आचार्य महाराज के श्री-चरणों में निवेदन किया कि समूचे समाज की भावनाओं को देखते हुए आप ‘चारित्र चक्रवर्ती' पद को ग्रहण करके हमें अनुग्रहीत करें। सभी लोगों ने करतल ध्वनि के साथ अपना हर्ष व्यक्त किया। आचार्य महाराज मौन रहे। कोई प्रतिक्रिया तत्काल व्यक्त नहीं की। थोड़ी देर बाद आचार्य महाराज का प्रवचन प्रारम्भ हुआ और प्रवचन के अन्त में उन्होंने कहा कि-‘पद-पद पर बहुपद मिलते हैं, पर वे दुख-पद आस्पद हैं। प्रेय यही बस एक निजी-पद, सकल गुणों का आस्पद है।”- आप सभी मुझे मुक्ति-पथ पर आगे बढ़ने दें और इन सभी पदों से मुक्त रखें। आप सभी के लिए मेरा यही आदेश, उपदेश और संदेश है। सभा में सन्नाटा छा गया। सभी की आँखें पद के प्रति आचार्य महाराज की निस्पृहता देखकर हर्ष व विस्मय से भीग गई। सागर (अप्रैल, १९८o)
  7. आचार्य महाराज अपने संघ सहित द्रोणागिरि में विराजे थे। बड़ी मनोरम जगह है। सिद्ध क्षेत्र है। पर्वत पर प्राचीन जिनालय है। नीचे तलहटी में व्रती आश्रम व चौबीसी मन्दिर है। वणजी ने कभी इसे 'छोटा सम्मेदशिखर' कहा था। आचार्य महाराज सहित सारा संघ पर्वत पर ही आत्म-साधना में लीन रहता था। आहार-चर्या के लिए नीचे आना और चर्या के उपरान्त वापस पर्वत पर लौट जाना, रोज का क्रम था। आचार्य महाराज ने यहाँ रहकर प्रतिदिन तपती-दुपहरी में तीन-तीन घंटे शिलातल पर सूर्य की प्रखर किरणों के नीचे बैठकर ध्यान किया और सारे संघ को साधना के साथ-साथ अध्यात्म की शिक्षा भी दी। उन दिनों संघ में आचार्य महाराज के शिष्यों में हम सभी ऐलक क्षुल्लक ही थे। अभी मुनि-दीक्षा किसी को नहीं मिली थी। एक दिन सुबह अचानक मालूम पड़ा कि ऐलक श्री समयसागरजी केशलुचन कर रहे हैं। हम सब सोच में पड़ गए कि क्या बात है ?अभी केशलुचन करके दो माह भी पूरे नहीं हुए। पर अगले ही क्षण हम निश्चिन्त होकर अपने ध्यान-अध्ययन में लग गए और सोचा कि जो भी होगा सामने आएगा। असल में, आचार्य महाराज के साथ यही तो मजा है कि भविष्य में क्या होगा, इस चिन्ता से मुक्त रहकर वर्तमान में जीने की शिक्षा मिलती है। तब जो भी होता है, सुखद होता है। लगभग नौ बजे अत्यन्त सादगी से, बिना किसी आडम्बर व प्रदर्शन के, आचार्य श्री के द्वारा प्रथम मुनि दीक्षा सम्पन्न हुई। हम सभी ने आचार्य महाराज द्वारा दीक्षित प्रथम निग्रन्थ श्रमण मुनि समयसागर जी की चरण वंदना की और अत्यन्त आत्म-विभोर हो उठे। इतने में आचार्य महाराज स्वयं आकर हमारे बीच खड़े हो गए और बोले-‘क्या बात है ? सभी बहुत खुश हो।' हमने कहा कि-‘‘ आज बहुत अच्छा लग रहा है। निग्रन्थ होना अत्यन्त आनन्द की बात है।” वे मुस्करा कर बोले-‘आत्मविकास के लिए यही उत्साह कल्याणकारी है।' हम सभी उनकी इस आश्वस्ति और प्रसाद से अभिभूत हो गए। आज जब कभी यह घटना याद आती है तो सोचता हूँ कि दूसरे जीवों के हित का मुख्य रूप से प्रतिपादन करने वाले, आर्य पुरुषों के द्वारा सेवनीय प्रधान निग्रन्थ आचार्य ऐसे ही होते होंगे। वर्षों पूर्व पूज्यपाद स्वामी के मन में ऐसे ही आचार्य की छवि बनी होगी, तभी तो उन्होंने लिखा होगा - 'परहित-प्रतिपादनैक-कार्यमार्य-निषेव्यं निग्रीन्थाचार्यवर्यम्।।' द्रोणगिरि (मार्च, १९८o)
  8. अचानक खबर मिली की आचार्य महाराज अत्यधिक अस्वस्थ हैं। तीव्र ज्वर है। तमाम बाह्य-उपचार के बावजूद भी लाभ नहीं हो पा रहा। सुनकर मन बैचेन हो उठा। तुरन्त ही उनके समीप पहुँचने का निश्चय कर लिया। जीवन भर व्यक्ति अपने ऊपर आने वाली सैकड़ों आपदाएँ सहन कर लेता है, पर किसी रोज जब उसे यह मालूम पड़ता है कि वे चरण पीड़ा से गुजर रहे हैं जिन चरणों में उसने स्वयं को समर्पित किया है, तब वह पीड़ा असह्य हो जाती है। स्वयं को सँभालना मुश्किल हो जाता है। जैसे-तैसे अपने को सँभालकर रात्रि के अँधेरे में उन तक पहुँचने के लिए यात्रा प्रारम्भ कर दी। रात के सन्नाटे में नैनागिरि के उस सुनसान जंगल से गुजरते वक्त जरा भी भय नहीं लगा। एक समय था जब इस जंगल में दस्यु-दल के आतंक की छाया डोलती थी और आदमी दिन के उजाले में भी इस ओर यात्रा करने से डरता था। आज सब ओर अभय की स्वच्छ, शीतल और पवित्र चाँदनी फैली हुई है। यह सब उनकी चरण-रज का प्रताप है। वहाँ पहुँचकर जब समीप जाकर उन्हें देखा तो लगा मात्र उनकी देह ही रुग्ण है, वे तो आत्मस्थ हैं, स्वस्थ हैं। सेवा में लगे लोगों ने बताया- अभी कुछ देर पहले ज्वर की असह्य पीड़ा से जकड़ी उनकी तप्त श्लथ देह की सहारा देकर उठाते वक्त उनकी सजागता देखते ही बनती थी। करवट बदलने से पहले उन्होंने बड़ी तत्परता के साथ पिच्छिका से स्थान परिमार्जित किया और पुनः लेट गए। मैं जितनी देर उनके समीप रहा यही सोचता रहा कि ऐसी शारीरिक पीड़ा के बावजूद भी इतनी आत्म-जागृती कैसे रह पाती है ? इसी बीच यह भी मालूम पड़ा कि कल वेदना की तीव्रता इतनी रही कि रोग असाध्य मानकर आचार्य महाराज ने बहुत संयत और शान्त भाव से अपने सभी शिष्यों को बुलाकर अपना आचार्य-पद त्याग करने और सल्लेखना लेने की बात सामने रखी। सभी शिष्य चकित और हतप्रभ हो गए। आँखों से आँसू भरे, सिर झुकाए सब एक ओर हाथ जोड़े खड़े रह गए। सब इस सोच में डूब गए कि जाने अब क्या होगा ? उन क्षणों में आचार्य महाराज की पद के प्रति अलिप्तता और आत्म-कल्याण के लिए स्तुत्य सजगता उनकी उत्कृष्ट-साधना का परिचय दे रही थी। धीरे-धीरे रात बीत गई। सभी ने सुबह उगते सूरज के साथ-साथ उन्हें भी बाहर रोशनी में आते देखा। मैंने चाहा कि आगे बढ़कर उन्हें थाम लू, पर उनकी मुस्कान में झलकते आत्म-बल के सामने मैं स्वयं ही थम गया। वे देह के विकार को विसर्जित करने जंगल की ओर जा रहे थे। मैं उनके पीछे कमंडलु लिए चलते-चलते सोचता रहा कि क्या कभी ऐसे ही अपने अंतस के तमाम विकारों को विसर्जित करके आत्मशुद्धि के लिए मैं भी प्रयत्न कर पाऊँगा ? जो भी हो उनका सहारा पाकर लग रहा है कि सब संभव है। जंगल से वापस आते ही मैंने उनके श्री-चरणों में अपना माथा रखा और स्वयं को समर्पित कर दिया। आज उनकी अस्वस्थता का यह तीसरा दिन था। ज्वर की वेदना और अन्तराय कर्म की प्रबलता के कारण पिछले दो दिन निराहार ही बीत गए । इन दिनों पीड़ा के जिस दौर से वे गुजरे हैं उसे देख/सुनकर सभी लोग चिंतित थे। सैकड़ों लोग मन्दिर के बाहर प्रांगण में बैठकर णमोकार-मंत्र का स्मरण कर रहे थे । आहार-चर्या से पूर्व शुद्धि कराने के लिए कुछ लोगों ने उन्हें सहारा देना चाहा, पर वे अकेले ही शुद्धि के लिए आगे बढ़ गए। मुझे लगा कि सचमुच, आत्म-शुद्धि के लिए ऐसे ही एकाकी होना होगा। हमें स्वयं ही अपने आत्म-शोधन की तैयारी करनी होगी। अगले ही क्षण जैसे ही उन्होंने आहार-चर्या के लिए मन्दिर के बाहर पहला पग रखा, मैंने देखा सभी का मन भर गया। देह रुग्ण होने के बावजूद भी उनका मुस्कुराते हुए आगे बढ़ना, चौके में पहुँचना, और नवधा-भक्ति पूरी होने पर पाणिपात्र में शान्त भाव से आहार ग्रहण करना-सभी कुछ सहजता से हुआ, पर लोग साँस थामे, अपलक खड़े देखते रहे और एणमोकार जपते रहे। उन संवेदनशील क्षणों में हम सभी ने यह महसूस किया कि हमारा मनुष्य जन्म सार्थक हो गया है। इस महामुनि के खड्ग-धार पर चलते कदम हमें जीवन भर सच्चाई के रास्ते पर चलने का साहस दे रहे हैं। नैनागिरि (१९७८)
  9. चातुर्मास में जयपुर से कुछ लोग आचार्य महाराज के दर्शन करने नैनागिरि आ रहे थे। वे रास्ता भूल गए और नैनागिरि के समीप दूसरे रास्ते पर मुड़ गए। थोड़ी दूर जाकर उन्हें अहसास हुआ कि वे भटक गए हैं। इस बीच चार बंदूकधारी लोगों ने उन्हें घेर लिया। गाड़ी में बैठे सभी यात्री घबरा गए। एक यात्री ने थोड़ा साहस करके कहा कि- ‘‘भैया, हम जयपुर से आए हैं। आचार्य विद्यासागर महाराज के दर्शन करने जा रहे हैं, रास्ता भटक गए हैं, आप हमारी मदद करें।” उन चारों ने एक दूसरे की ओर देखा और उनमें से एक रास्ता बताने के लिए गाड़ी में बैठ गया। नैनागिरि के जल मंदिर के समीप पहुँचते ही वह व्यक्ति गाड़ी से उतरा ओर इससे पहले कि कोई पूछे, वह वहाँ से जा चुका था। जब यात्रियों ने सारी घटना सुनाई तो लोग दंग रह गए। सभी को वह घटना याद आ गई, जब चार डाकुओं ने आचार्य महाराज से उपदेश पाया था। उस दिन स्वयं सही राह पाकर, आज इन भटके हुए यात्रियों के लिए सही रास्ता दिखाकर मानो उन डाकुओं ने उस अमृत-वाणी का प्रभाव रेखांकित कर दिया। नैनागिरेि (१९७८)
  10. चातुर्मास स्थापना का समय समीप आ गया था। सभी की भावना थी कि इस बार आचार्य महाराज नैनागिरि में ही वर्षाकाल व्यतीत करें। वैसे नैनागिरि के आसपास डाकुओं का भय बना रहता था, पर लोगों को विश्वास था कि आचार्य महाराज के रहने से सब काम निर्भयता से सानन्द सम्पन्न होंगे। सभी की भावना साकार हुई। चातुर्मास की स्थापना हो गई। एक दिन हमेशा की तरह जब आचार्य महाराज आहार-चर्या से लौटकर पर्वत की ओर जा रहे थे तब रास्ते में समीप के जंगल से निकलकर चार डाकू उनके पीछे-पीछे पर्वत की ओर बढ़ने लगे। सभी के मुख वस्त्रों से ढके थे, हाथ में बंदूकें थीं। लोगों को थोड़ा भय लगा, पर आचार्य महाराज सहज भाव से आगे बढ़ते गए। मन्दिर में पहुँचकर दर्शन के उपरान्त सभी लोग बैठ गए। आचार्य महाराज के मुख पर बिखरी मुस्कान और सब ओर फैली निर्भयता व आत्मीयता देखकर वह डाकुओं का दल चकित हुआ। सभी ने बंदूकें उतारकर एक ओर रख दीं और आचार्य महाराज की शान्त मुद्रा के समक्ष नतमस्तक हो गए। आचार्य महाराज ने आशीष देते हुए कहा कि-‘निर्भय होओ और सभी लोगों को निर्भय करो। हम यहाँ चार माह रहेंगे, चाहो तो सच्चाई के मार्ग पर चल सकते हो।” वे सब सुनते रहे, फिर झुककर विनय भाव से प्रणाम करके धीरे-धीरे लौट गए। फिर लोगों को नैनागिरि आने में जरा भी भय नहीं लगा। वहाँ किसी के साथ कोई दुर्घटना भी नहीं हुई। आचार्य महाराज की छाया में सभी को अभय-दान मिला। नैनागिरि (१९७८)
  11. वर्षाकाल चल रहा था। हम लोग आचार्य महाराज के दर्शन करने पहुँचे थे। देापहर में हमेशा की तरह आचार्य महाराज के प्रवचन हुए। प्रवचन के बाद पार्श्वनाथ मन्दिर के प्रवेश-द्वार से बाहर निकलते समय सभी ने देखा कि दीवार के सहारे एक छिद्र में दो सर्प बैठे हैं। आचार्य महाराज की भी नजर पड़ गई। वे क्षण भर वहाँ ठहर गए और बोले - ‘सर्पराज! शांत भाव से निर्द्धन्द्ध होकर विचरण करो। पूर्व में किए किन्हीं अशुभ कर्मों के उदय से यह पर्याय मिली है। इसका सदुपयोग करो। अपना आत्म-कल्याण करो। किसी का अहित न हो, इस बात का ख्याल रखो।' यह उनकी अत्यन्त प्रेम-पगी वाणी थी। मानो यह पावन संदेश था | दिन बीतते रहे। कई बार लोगों ने प्रवचन के समय उन सर्पो को बैठे देखा। किसी का अहित उन सर्पो के द्वारा नहीं हुआ। यह सब देखकर मेरा विश्वास दृढ़ हो गया कि सचमुच, इसी तरह तीर्थंकर की समवसरण सभा में सभी प्राणी आते होंगे और अपनी-अपनी भाषा में धर्म की बात समझकर आत्महित में लग जाते होंगे। यह नैनागिरि क्षेत्र भी पार्श्वनाथ भगवान् की समवसरण स्थली रहा है जो आज आचार्य महाराज के उपदेशों से अनुप्राणित होकर प्राणिमात्र के कल्याण में सहायक हो रहा है। नैनागिरेि (१९७८)
  12. मैंने सुना है एक दिन आचार्य महाराज रोज की तरह स्वाध्याय में लीन थे। लोग दर्शन करने आ-जा रहे थे, सभी चावल चढ़ाते जा रहे थे। इतने में अचानक सभी को चावल चढ़ाते देखकर एक बच्चे ने अपने हाथ में रखी हुई चाकलेट चढ़ा दी। बच्चे के भोलेपन पर सभी हँसने लगे। बात आई-गई हो गई। इस घटना के स्मरण से आज भी मन उद्वेलित हो उठता है। यदि हम भी ऐसे वीतरागी गुरु को पाकर बच्चों के समान सरलता व सहजता से संसार में प्रिय मालूम पड़ने वाली वस्तुओं का त्याग करने के लिए तत्पर हो जाएँ तो मुक्ति के मार्ग पर चलना कठिन कहाँ है?
  13. उस दिन शाम का समय था। आचार्य महाराज मन्दिर के बाहर खुली दालान में विराजे थे। थोड़ी देर तत्व-चर्चा होती रही। उस पवित्र और शान्त वातावरण में आचार्य महाराज का सामीप्य पाकर हम सभी बहुत खुश थे। फिर सामायिक का समय हो गया। आचार्य महाराज वहाँ से उठकर भीतर मन्दिर में चले गए। बाहर किसी ने मुझसे कहा कि भीतर की बिजली जला आओ। आचार्य श्री ने यह बात सुन ली। मैंने जैसे ही भीतर कदम रखा कि भीतर से वे बोल उठे - ‘हाँ भाई, भीतर की बिजली जला लो।' उनका आशय आन्तरिक आत्म-ज्योति के प्रकाश से था। मैं अवाक् खड़ा रह गया। उनके द्वारा कही गई वह बात बोध-वाक्य बन गई, जो हमें आज भी आत्म-ज्योति जलाए रखने के लिए निरन्तर प्रेरित करती है। कुण्डलपुर(१९७७)
  14. आचार्य महाराज का उन दिनों बुन्देलखण्ड में प्रवेश हुआ था। उनकी निर्दोष मुनि-चर्या और अध्यात्म का सुलझा हुआ ज्ञान देखकर सभी प्रभावित हुए। कटनी में आए कुछ दिन ही हुए थे कि महाराज को तीव्र ज्वर हो गया। पं० जगन्मोहनलाल जी की देखरेख में उपचार होने लगा। सतना से आकर नीरज जी भी सेवा में संलग्न थे। एक दिन मच्छरों की बहुलता देखकर पंडित जी ने रात्रि के समय महाराज के चारों ओर पूरे कमरे में मच्छरदानी लगवा दी। सुबह जब महाराज ने मौन खोला तो कहा कि यह सब क्या किया ? पंडित जी! संसारी प्राणी अपने शरीर के प्रति अनुरागवश ऐसे ही तर्क देकर उसकी सुरक्षा में लगा है और निरन्तर दुखी है। मोक्षार्थी के लिए ऐसी शिथिलता से बचना चाहिए और परीषह-जय के लिए तत्पर रहना चाहिए। कर्म-निर्जरा तभी संभव होगी।' पंडित जी क्या कहते ? विनत भाव से आगम के अनुरूप आचरण करने वाले, परीषहविजयी, शिथिलताओं से दूर और कर्म-निर्जरा में तत्पर आचार्य महाराज के चरणों में झुक गए और सदा के लिए उनके भक्त हो गए। कटनी (१९७६)
  15. रात बहुत बीत गई थी। सभी लोगों के साथ मैं भी इंतजार कर रहा था कि आचार्य महाराज सामायिक से उठे और हमें उनकी सेवा का अवसर मिले। कितना अद्भुत है जैन मुनि का जीवन कि यदि वे आत्मस्थ हो जाते हैं तो स्वयं को पा लेते हैं और आत्म-ध्यान से बाहर आते हैं तो हम उन्हें पाकर अपने आत्मस्वरूप में लीन होने का मार्ग जान लेते हैं। उस दिन दीपक के धीमे-धीमे प्रकाश में उनके श्रीचरणों में बैठकर बहुत अपनापन महसूस हुआ, ऐसा लगा कि मानो अपने को अपने अत्यन्त निकट पा गया हूँ। उनके श्रीचरणों की मृदुता मन को भिगो रही थी। हम भले ही उनकी सेवा में तत्पर थे, पर वे इस सबसे बेभान अपने में खोये थे। अद्भुत लग रहा था इस तरह किसी को शरीर में रहकर भी शरीर के पार हेाते देखना। दूसरे दिन सूरज बहुत सौम्य और उजला लगा। आज मुझे लौटना था। लौटने से पहले जैसे ही उनके श्री-चरणों को छुआ और उनके चेहरे पर आयी मुस्कान को देखा, तो लगा मानो उन्होंने पूछा हो कि क्या सचमुच लौट पाओगे ? मैं क्या कहता ? कुछ कहे बिना ही चुपचाप लौट आया और अनकहे ही मानो कह आया कि अब कभी, कहीं और, जा नहीं जाऊँगा। उनकी आत्मीयता पाकर मेरा हृदय ऐसा भीग गया था जैसे उगते सूरज की किरणों का मृदुल-स्पर्श पाकर धरती भीग जाती है। कुण्डलपुर(१९७६)
  16. शाम होने को थी। मैंने उन्हें ऊपर पर्वत की ओर जाते देखा। सुना है कि-वे संध्याकालीन प्रतिक्रमण के लिए पर्वत के किसी स्वच्छ शिलातल पर चले जाते हैं। आज उन्हें गहन एकान्त में प्रतिक्रमण करते देखना चाहता था, सो कुछ दूर पीछे चलकर शिलातल पर उन्हें बैठते देखकर ठहर जाता हूँ, ताकि उन्हें मेरे होने का अहसास भी बाधक न बने। मैंने देखा कि सब ओर शांति है। इतनी गहरी शान्ति कि दूर रहकर भी प्रतिक्रमण के धीमे-धीमे स्वरों और हृदय की धड़कन के बीच एक लयात्मकता का अहसास होता है। इन क्षणों में उनके चेहरे पर अतिशय विनम्रता थी। वे क्षमा-भाव से भरकर प्राणी-मात्र के प्रति अनुकंपित होते दिखाई दे रहे थे। प्रतिक्रमण करते-करते वे कायोत्सर्ग में इतने लीन हो जाते थे कि मानों क्षणभर को देह के पार देहातीत शून्य में खो गए हों। इन्द्रिय और मन की गिरफ्त से बाहर निकल गए हों। अपने में ही समा गए हों। उस दिन पहली बार संध्याकाल मुझे अपने-घर लौटने की याद दिला रहा था। गोधूलि की बेला में दिन भर की यात्रा से थका-हारा सूरज अपने घर लौटता दिखाई दिया। पक्षी अपने-अपने नीड़ में लौट रहे थे। साधक बाह्य-यात्रा से विमुख होकर अंतर्यात्रा पर वापस लौट रहे थे। ऐसा लगा मानो सब लौट रहे हैं। प्रतिक्रमण के उपरान्त पर्वत से नीचे उतरते आचार्य महाराज के चेहरे पर झलकती वीतरागता का आनन्द देखकर मेरा जीवन धन्य हो गया। उस दिन आचार्य महाराज के श्रीचरणों में माथा झुकाकर वापस लौटते वक्त ऐसा लगा कि एक वीतरागी महामुनि के चरणों से दूर होने की पीड़ा भी इतनी सौम्य हो सकती है कि व्यक्ति का मन एकाकी होने को आतुर हो उठता है। कुण्डलपुर (१९७६)
  17. मैंने देखा ईर्यापथ-प्रतिक्रमण का समय होने वाला है। उनके पास हमारी तरह कलाई पर बँधी कोई घड़ी नहीं है, पर लग रहा है कि हर घड़ी उनकी है। समय की नब्ज पर उनका हाथ है। सभी शिष्यगण विनत भाव से आकर बैठते जा रहे हैं। थोड़ी देर में प्रतिक्रमण के स्पष्ट मधुर मंद स्वर गूंजने लगे। सभी साधुजनों का मन आकाश में चमकते सूरज की तरह अत्यन्त उज्ज्वल और निर्मल होकर चमक उठा है। मैं भी सोच रहा हूँ कि मेरे जीवन का प्रतिक्षण इतना ही पवित्र हो सके, ताकि जीने का भरपूर आनन्द मैं भी ले सकूं। उन्हें प्रतिक्रमण से गुजरते और दोपहर की सामायिक में जाते देख रहा हूँ। प्रतिक्रमण, मानो सामायिक के लिए प्रवेश द्वार है। सामायिक से पहले उन्होंने खड़े होकर पूर्व से उत्तर दिशा की ओर क्रमश: चारों दिशाओं में प्रणाम निवेदित किया है। णमोकार महामंत्र पढ़ा है और दो बार जमीन पर बैठकर माथा टेककर नमन किया है। इस बीच अंजुलिपुट चार बार मुकुलित हुए हैं। घड़ी की सुई के घूमने की दिशा में हाथ की अंजुलि को तीन बार घुमाकर तीन आवर्त पूरे किए गए हैं। मनवचन-काय सब एकाकार होने की है। इस बीच उनके होठों पर हल्कीसी मुस्कान के साथ मंद स्वरों में ‘ओम् नम: सिद्धेभ्य:' उच्चरित होते सुन रहा हूँ। पद्मासन में बैठ कर अब वे अपने में अविचल हैं। मैं सोच में डूबा गुमसुम-सा खड़ा रह गया हूँ। पल भर को लगा कि जैसे हम नदी के साथ-साथ/सागर की ओर गए/नदी सागर में मिली/हम किनारे पर खड़े रह गए। सामायिक पूरी होते-होते दोपहर ढल चुकी है। वे अब चिन्तन मनन में लग गए हैं। सुखासीन हैं। बाहर-भीतर सब एक सार मालूम पड़ता है। उनके सब ओर उजलापन है। सुनता आया हूँ कि जब कभी कविता उनके श्रीमुख से बहती है तो हवाओं में रस भर जाता है। आज सभी के साथ मैं भी उनके श्रीमुख से कुछ सुन पाने के लिए उत्सुक हूँ। शायद मेरे मन की पुकार उन तक पहुँच गई है। तभी तो मानो मेरी ओर देखकर वे मुस्कुरा रहे हैं। मुस्कुराना कोई उनसे सीखे। एकदम बच्चों की तरह सरल, तरल और निर्मल। उस दिन पहली बार मैंने किसी साधु के निश्छल हृदय से झरते काव्य-रस का स्वाद लिया। छंदबद्ध होकर भी कविता को मुक्त होते देखा। तब लगा कि स्वरों में राग और भावों में वीतराग, अद्भुत है आत्म-संगीत से उनका यह अनुराग। देखते-देखते वहाँ सब संगीतमय हो गया। तन-मन-प्राण सब विरक्ति के रस में भीग गए। श्रद्धा और भक्ति से विगलित सबके हृदय भर गए। यही उपलब्धि इन क्षणों की थी, जो आज भी अपने होने का एहसास कराती है। सचमुच, यह संगति साधु की, हरे कोटि अपराध।” कुण्डलपुर(१९७६)
  18. || ?केशलोंच अपडेट ?*आज आचार्य श्री 108 विद्यासागर जी महामुनिराज का केशलोंच हुआ है,आज आचार्यश्रीजी का "उपवास" है l *बड़ी अजीब सी बंदिश हैं || || गुरूदेव आपकी भक्ती मै || || ना तूने कभी हमे कैद रखा || ||ना ही हम कभी फरार हो पाए || |जय जय गुरुदेव |
  19. मैंने देखा कि मन्दिर के प्रांगण में बैठकर आचार्य महाराज अपने सामने रखे ग्रन्थ के अबूझ/बंद रहस्यों को उद्घाटित कर रहे हैं। उनका स्वयं निग्रन्थ होना और ग्रन्थ में गुम्फित रहस्यमय गुत्थियों को एक-एक कर अपने ज्ञान व आचरण से सुलझाते जाना मुझे अच्छा लगा। असल में, ग्रन्थ के गूढ़ रहस्यों को समझने की विनम्र कोशिश में कभी धीरे से मुस्कराना, मन ही मन कुछ कहना और क्षण भर में फिर ग्रन्थ की अतल गहराई में खो जाना, मेरे लिए एकदम नया है। सोचता हूँ कि जैन-धर्म और दर्शन का नित-नूतन और अप-टू-डेट रूप ऐसे ही विरले स्वानुभवी साधकों द्वारा संभव है। स्वानुभूति के इन क्षणों में आचार्य महाराज सागर की तरह अपार और अथाह दिखाई दे रहे थे। जैसे सागर की असीम और अतल जलराशि अनजाने ही हमें अपनी ओर आकृष्ट करती है, मानो स्वयं सागर होने का निमंत्रण देती है; ऐसे ही आचार्य महाराज का सानिध्य हमें स्वानुभव के महासागर में प्रवेश पाने को प्रेरित करता है। अपने में सभी को समाकर भी जैसे सागर शान्त है, कितनी भी नदियाँ आकर उसमें समाती जाएँ, वह अपनी मर्यादा में रहता है; ऐसे ही आचार्य महाराज के चरणों में कितनी भी आत्माएँ समर्पित होती जाएँ, वे सबके बीच निलिप्त और शान्त हैं। सीमा में रहकर भी असीम है | अपनी सतह पर पड़े हुए कचरे को जैसे सागर की लहरें उठाकर/ धकेलकर किनारे पर फेंक आती हैं, ऐसे ही वे भी प्रतिक्षण सजग रहकर आने वाले समस्त विकारों को हटाकर सहज ही निर्मल हो जाते हैं। सागर की तरह वे भी रत्नाकर हैं। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र जैसे श्रेष्ठ रत्नों को वे अनन्त आत्म-गहराई में छिपाए हुए हैं। सागर की तरह वे बाहर मानी सतह पर क्षण भर को आहारविहार-निहार में प्रवृत्त होते दिखाई पड़ते हैं, लेकिन भीतर कहीं गहरे में वे अत्यन्त गम्भीर और अपने आत्मस्वरूप में अकम्प हैं। मैंने अनुभव किया कि जैसे सागर के समीप पहुँचकर किसी की प्यास नहीं बुझती, बल्कि और ज्यादा बढ़ जाती है; ऐसे ही उनका सामीप्य पाकर अपने को/अपने आत्म-आनंद को पाने की प्यास बढ़ जाती है। सचमुच, वे आत्मविद्या के अगाध सागर हैं। कुण्डलपुर(१९७६)
  20. आचार्य-महाराज आहार-चर्या के लिए निकले थे। चलते-चलते निमिषमात्र में मानो उन्होंने सारे परिवेश को देख लिया और धीमे, सधे हुए कदमों से, वे आगे बढ़ रहे थे। मैं उनकी इस सहज सजगता को देखकर चकित था। सब ओर से एक ही आवाज आ रही थी कि, ‘‘भी स्वामिन! यहाँ पधारे, यहीं ठहरें। आहार-जल शुद्ध है।” सोच रहा था कि यह श्रद्धा और प्रेम से दी जाने वाली भिक्षा अनूठी है। देने वाला अपना सर्वस्व देने के लिए उत्सुक है, पर पाने वाला इतना निश्चिंत है कि पाने योग्य जो है, वह उसके पास हमेशा से है। उसे अन्यत्र कहीं और कुछ और नहीं पाना। मात्र इस देह के निर्वाह और तप की वृद्धि के लिए जो मिलना है वह मिलेगा, उसे मिलना नहीं है। प्रासुक आहार की मात्र गवेषणा है, आतुरता नहीं है। देखते-देखते एक अतिथि की तरह, घर के द्वार पर द्वारापेक्षण के लिए खड़े श्रावकों के समीप, उनका ठहर जाना और आनन्द-विभोर होकर लोगों का उन्हें श्रद्धा भक्ति से प्रतिग्रहण कर भीतर ले जाना, उच्च स्थान पर बिठाना, पाद-प्रक्षालन करके चरणोदक सिर-माथे चढ़ाना, पूजा करना और मन, वचन, काय तथा आहार-जल की शुद्धि कहकर उन्हें विश्वस्त करना; झुककर नमोऽस्तु निवेदित करके आहार-जल ग्रहण करने की प्रार्थना करना; यह सब इतने सहज व्यवस्थित ढंग से होता रहा कि मैं मंत्र-मुग्ध सा एक ओर खड़े-खड़े देखता ही रह गया। सुना था कि आहार में वे रस बहुत कम लेते हैं। सो देख रहा था कि ऐसा कौन-सा रस उनके भीतर झर रहा है, जो बाहर के रस को गैरजरूरी किए दे रहा है। एक गहरी आत्म-तृप्ति जो उनके चेहरे पर बरस रही है वही भीतरी-रस की खबर दे रही थी और मैं जान गया कि रस सब भीतर है। ये भ्रम है कि रस बाहर है। तभी तो बाहर से लवण का त्याग होते हुए भी उनका लावण्य अद्भुत है। मधुर रस से विरक्त होते हुए भी उनमें असीम माधुर्य है। देह के दीप में तेल (स्नेह) न पहुँचने पर भी उनमें आत्मस्नेह की ज्योति अमंद है। सारे फल छोड़ देने के बाद भी हम सभी लोगों के लिए, वे सचमुच, बहुत फलदायी हो गए हैं। उनकी संतुलित आहार-चर्या देखकर लगा कि शरीर के प्रति उनके मन में कोई गहन अनुराग नहीं है। वे उसे मात्र सीढ़ी मानकर आत्मा की ऊँचाइयाँ छूना चाहते हैं। शरीर धर्म का साधन है। उनकी कोशिश उसे समर्थ बनाए रखकर शान्तभाव से आत्म-साधना करने की है। सोच रहा था कि शरीर को इस तरह आत्मा से अलग मानकर उसका सम्यक्र उपयोग करना कितना सार्थक, किन्तु कितना दुर्लभ है। मैने देखा कि एक सच्चे साधक की तरह वे आहार ग्रहण के समस्त विधि-विधान का पालन सहज ही कर लेते हैं। गर्तपूरण की तरह जैसे गड्ढे को भरने के लिए किसी विशिष्ट पदार्थ का आग्रह नहीं होता, ऐसे ही शरीर की जरूरत पूरी करने के लिए किसी विशिष्ट/स्वादिष्ट भोज्य पदार्थ का आग्रह उनके मन में नहीं है। अक्षमृक्षण की तरह जैसे गाड़ी चलते समय आवाज न करे और धुरी ठीक से काम करती रहे, इसलिए कोई चिकना पदार्थ उस पर लगा दिया जाता है, ऐसे ही जीवन की यात्रा निबंध चलती रहे और ठीक काम करती रहे, इसलिए योग्य आहार वे ग्रहण करते हैं। अग्निशमन के लिए जैसा खारा व मीठा कोई भी जल पर्याप्त है, ऐसे ही क्षुधा-तृषा की तपन को शान्त करने के लिए सरस-नीरस जो भी उपलब्ध निर्दोष आहार मिलता है, उसे शान्त भाव से ग्रहण कर लेते हैं। एक गाय की तरह जो बगीचे में जाकर भी विविध फूलों के सौन्दर्य या अपने लिए दाना डालने वाले के रूप-लावण्य को नहीं देखती और चुपचाप घास खाकर लौट जाती है, ऐसे ही वे भी श्रावक के बाह्य वैभव से अप्रभावित रहकर चुपचाप पाणिपात्र में दिए गए प्रासुक आहार का शोधन करके दिन में एक बार खड़े होकर उसे ग्रहण करते हैं। यह गोचरी वृत्ति है। आहार पूरा होने पर लोगों का आनंदित होना और जय-जयकार के बीच उनका इस सबसे निलिप्त रहकर मुस्कराते हुए लौटना, अनायास ही साधु की भ्रामरी वृत्ति का स्मरण करा देता है। भ्रमर जिस तरह गुनगुनाता हुआ आता है और फूल से पराग लेकर जैसे उसे हर्षित करके लौट जाता है, ऐसे ही वे आत्मसंगीत में निमग्न होकर अत्यन्त निलिप्त भाव से आहार ग्रहण करते हैं और श्रावक को हर्षित करके लौट आते हैं। उनके आहार ग्रहण करके लौटने के बाद जाने कितनी देर तक मैं वही सिर झुकाए खड़ा रहा, जब ख्याल आया तो देखा कि वे बहुत आगे/बहुत दूर निकल गए हैं। इतने आगे कि उन तक पहुँचने के लिए मुझे पूरी जिन्दगी उनके पीछे चलना होगा। कुण्डलपुर(१९७६)
  21. मैं उस दिन पहली बार आचार्य महाराज के दर्शन करने कुण्डलपुर गया था। आचार्य महाराज छोटे से कमरे में बैठे थे। इतना बड़ा व्यक्तित्व इतने छोटे से स्थान में समा गया, इस बात ने मुझे चकित ही किया। आकाश उस दिन पहली बार बहुत अच्छा लगा। खिड़की से आती रोशनी में दमकती आचार्य-महाराज की निरावरित देह से निरन्तर झरते वीतरागसौन्दर्य ने मेरा मन मोह लिया। क्षण भर के लिए मैं वीतरागता के आकर्षण में खो गया और कमरे के बाहर ही ठिठक कर खड़ा रह गया। फिर लगा कि भीतर जाना चाहिए। दर्शन तो भीतर से ही संभव है। बाहर से दर्शन नहीं हो पाता, पर भीतर पहुँचना आसान भी नहीं था। दरवाजे पर तो भीड़ बहुत थी ही पर मैं स्वयं भी तो भीड़ से घिरा था। यह सोचकर कि कभी संभव हुआ तो एकाकी होकर आऊँगा, मैं वापस लौट आया। कहने को तो उस दिन में वापस लौट आया, लेकिन सचमुच मैं आज तक लौट नहीं पाया। अब तो यही चाहता हूँ कि जीवन भर उन श्री-चरणों में बना रहूँ, वहाँ से कभी दूर न होऊँ। उनके दर्शन करके मुझे वीतरागता के जीवन्त सौंदर्य की जो अनुभूति हुई है वह सदा बनी रहे, यही मेरे प्रथम दर्शन की उपलब्धि है। कुण्डलपुर (१९७६)
  22. मैंने सुना है, कुण्डलपुर के चातुर्मास में जब बारिश रुक जाती थी तब आचार्य महाराज मन्दिर के बाहर खुले आकाश के नीचे शिला-तल पर बैठ जाते थे। एक दिन आचार्य महाराज जब शिला-तल पर बैठ रहे थे तब एक श्रावक ने झट से लाकर चटाई बिछा दी। आचार्य महाराज ने देख लिया और मुस्कराकर बोले कि- ‘‘जिन्हें वस्त्र गंदे होने का डर है, ये चटाई तो उनके लिए है। हमारे तो वस्त्र हैं नहीं, इसलिए हमें तो कोई डर नहीं है।” सभी लोग महाराज के इस मनोविनोद पर हँसने लगे और प्रकृति के बीच उनके प्रकृतिस्थ/आत्मस्थ रहने की बात सोचकर सभी का मन गद्गद् हो गया। प्रकृति में प्रकृति की तरह निश्छल और निस्पृह होकर विचरण करना एक साधु की सच्ची उपलब्धि है। कुण्डलपुर(१९७६)
  23. बुन्देलखंड में आचार्य महाराज का यह पहला चातुर्मास था। एक दिन रात्रि के अँधेरे में कहीं से बिच्छू आ गया और उसने एक बहिन को काट लिया। पंडित जगन्मोहनलाल जी वहीं थे। उन्होंने उस बहिन की पीड़ा देखकर सोचा कि बिस्तर बिछाकर लिटा दूँ, सो जैसे ही बिस्तर खोला उसमें से एक सर्प निकल आया। उसे जैसे-तैसे भगाया गया। दूसरे दिन पंडित जी ने आचार्य महाराज को सारी घटना सुनाई और कहा कि महाराज! यहाँ तो चातुर्मास में आपको बड़ी बाधा आएगी। पंडित जी की बात सुनकर आचार्य महाराज हँसने लगे। बड़ी उन्मुक्त हँसी होती है महाराज की। हँसकर बोले कि-‘पंडित जी, यहाँ हमारे समीप भी कल दो-तीन सर्प खेल रहे थे। यह तो जंगल है। जीव-जन्तु तो जंगल में ही रहते हैं। इससे चातुर्मास में क्या बाधा ? वास्तव में, हमें जंगल में ही रहना चाहिए और सदा परीषह सहन करने के लिए तत्पर रहना चाहिए। कर्म-निर्जरा परीषह-जय से ही होती है।' उपसर्ग और परीषह को जीतने के लिए इतनी निर्भयता व तत्परता ही साधुता की सच्ची निशानी है। कुण्डलपुर(१९७६)
  24. कृषि यहाँ का राष्ट्रीय धंधा है, कृषि से ही भारत में जीवन की सत्ता है | कृषि से गोरक्षा और गोरक्षासे, कृषि का संवर्धन स्वयंम सिद्ध है | इसलिए गोधनं राष्ट्रवर्धनम है | हिंसा का जो विधान करे वहे सविधान किसे प्यारा ? हिंसा पर प्रतिबन्ध लगाना है अधिकार हमारा |
  25. जैन समाज के भामाशाह दानवीर माननीय श्री अशोक जी पाटनी कल सपरिवार हेलीकॉप्टर से नारोली जि से गंधोदक कलश में लेकर डोंगरगढ़ पधारे एवम 108 आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराजजी को समर्पित किया। नारेली डोंगरगढ़ की तस्वीर
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