सामान्य आदमी को मात्र अपने घर-परिवार और व्यापार के बारे में अच्छी जानकारी होती है। पर एक निर्मोही वीतरागी साधक मुनि को इन सबसे दूर रहने को कहा जाता है। लेकिन साधक को देश-काल और क्षेत्र आदि की जानकारी पूरी रखना चाहिए। यह गुण भी आचार्यश्रीजी के पास विशेष रूप से है, उसको लेकर यह प्रसंग है। आचार्यश्रीजी के पास हम कुछ मुनिगण प्रातःकाल वैय्यावृति कर रहे थे, उसी समय विहार संबंधी चर्चा हुई कि उत्तरप्रदेश, हरियाणा, दिल्ली आदि की ओर जाना चाहिए।
आचार्यश्री ने कहा- 'भैया वह क्षेत्र अलग है, यहाँ जैसा वहाँ नहीं है। वहाँ समाज में साधुओं के अनुरूप श्रावक संस्कार भी प्राय: सही नहीं है।'
हमारे साथ के एक मुनिश्री ने कहा- 'इसलिए तो महाराज उस ओर जाना चाहिए। अन्यथा उन्हें भी इस तरह के श्रावक संस्कार कैसे मिलेंगे?'
आचार्यश्री- 'यह बात अलग है। ठीक है, पहले तुम चले जाओ, देखकर आ जाओ, आपको पता चल जाएगा।" वे मुनिश्री मौन हो गए।इसके बाद आहार को लेकर चर्चा हुई। आचार्यश्री जी से कहा हम लोग कुछ त्याग करने की कहते हैं तो आप मना कर देते हैं। जैसे आप मना कर देते हैं वैसे क्या आपके लिए आचार्यश्री ज्ञानसागरजी भी मना करते थे?
आचार्यश्री ने कहा- 'उन्होंने हम से कभी त्याग के लिए नहीं कहा। वे कहते जवान शरीर है। त्याग आदि धीरे-धीरे करना है। फिर बोले- हमने मेवा आदि तो ब्रह्मचर्य अवस्था से ही छोड़ दिए थे। गुरु महाराज तो त्याग कराते नहीं थे।
हमने पूछा- फिर आपने मेवा आदि लिए क्यों नहीं?
आचार्यश्री- कभी लेने की इच्छा नहीं हुई, इसलिए नहीं लिए, बस छोड़ दिए। लेकिन फिर भी आहार देने वाले लोग खिलाना चाहते हैं और आप लोगों का इनडायरेक्ट सपोर्ट भी रहता है, लेकिन यह अच्छा नहीं है। कोई वस्तु नहीं लेते हैं तो उसको पाने की भावना नहीं होनी चाहिए। ऐसा देने से कुछ भी नहीं होता। हम लोगों ने कहा- ऐसा हम लोगों ने तो कभी नहीं किया, न कहा है? ये सब बीच वाले लोग ही करते हैं। आचार्यश्री जी हँसने लगे।
आतम रस के स्वाद में, हो आंनद विशेष |
फल मेवा का स्वाद तो, हो जाता नि:शेष ||