प्रतिभाओं का पल्लवन अभाव एवं संघर्षों के बीच अधिक होता है जो सुख-सुविधा के साधनों के बीच में कम ही हो पाता है। साधनों के अभाव में संघर्षरत योग्यता का अभिव्यक्ति करण अधिक होता है। प्राय: आत्मिक योग्यता का परिचय विपरीत परिस्थिति में ही होता है। जब प्रतिभावान व्यक्ति के अंदर कुछ करने का लक्ष्य सामने होता है तो वह उसे पाने का सतत् पुरुषार्थ करता है, और सफलता प्राप्त कर यशस्वी बनता है। ऐसे महान व्यक्तित्वों में आज भी एक महान आध्यात्मिक जगत के जगमाते अनौखे सूर्य की तरह प्रकाशमान व्यक्तित्व को लिए, हमारे आचार्य परमेष्टी परम पूज्य आचार्यश्री विद्यासागरजी महाराज हैं, जिनकी जीवन यात्रा एक सामान्य कृषक परिवार में जन्म से प्रारंभ हुई थी। उनके अंतस् में बचपन से कुछ बनने की, कुछ करने की चाह थी। उनका बचपन ही अनेकानेक प्रेरणास्पद घटनाओं से भरा हुआ है। जैसे -
प्रसंग : बात अतिशय क्षेत्र बहोरीबंद जी के ग्रीष्मकालीन प्रवास में 4 जून 2001 गुरुवार के दिन स्वाध्याय की क्लास के दौरान आचार्यश्री ने अपने विद्यार्थी काल का प्रसंग सुनाया। कहा- 'हम जब पढ़ते थे उस समय हमें पेन तो देखने को ही नहीं मिलता था। हाईस्कूल में पहुँचने पर हमें भी मल्लप्पा जी ने एक ऐसा पेन-सा दिया था, जिसमें मात्र निब ही थी। जिसे आज हम 'खत' कहते हैं। उसे स्याही में डुबो-डुबो कर लिखते थे। हम जब चिक्कोड़ी परीक्षा देने गए तो खत-दबात लेकर गए थे। फिर कुछ समय बाद थोड़े पैसे मिले तक एक पेन भी खरीद लिया।'
आचार्यश्री बोले - 'आज के बच्चों के पास तो पेनों का सेट होता है। हमारे समय में पहले स्लेट-पट्टी पर लिखते थे और हमें कम्पास तो कभी मिला ही नहीं। दूसरे विद्यार्थियों का लेकर ही अपना काम कर लेता था। पर सब मन लगाकर करते थे सो अपनी क्लास में अच्छे नंबर भी लाया करते थे।'
धन्य हैं! ऐसे ज्ञान पिपासु साधक जो विद्या अध्ययन काल में साधनों के अभाव में रहकर भी इस प्रकार विद्या का अर्जन किया कि आज विद्या के सागर बन गए।
मैने कब चाहा मुझे मन चाही प्रिय चीज दो,
मैने तो चाह की मुझे लक्ष्य की पहचान दो ||