चर्चा की वृत्ति आदमी की परिचायक होती है और उसकी प्रवृत्ति उसके व्यक्तित्व का, उसके आचरण का परिचय कराने वाली होती है। इसलिए हमारे यहाँ पर आचरण का महत्व है, न कि व्यक्ति के चरण का। आचरण के माध्यम से ही आदमी के चरणों की पूज्यता देखी जाती है। हमें अपने आचरण को बाहर और भीतर से एक सा बनाने की आवश्यकता है। सदाचार और संस्कार का आधार प्राय: आदमी का बचपन होता है। उस काल में जैसा देखता है, सुनता है, जैसी संगति करता है, वैसा उसका आचरण बन जाता है। आचार्यश्री के जीवन में धर्माचरण के संस्कार बचपन से ही रहे हैं या कहें कि अांतरिक संस्कार श्रमणत्व को अपनाने के रहे हैं। उनके बचपन का एक संस्मरण उनके अंदर की रुचि को बताने वाला रहा है।
संस्मरण : 15 दिसंबर 1997 बुधवार के दिन आचार्यश्री ने क्लास के दौरान अपने बचपन का एक संस्मरण सुनाया कि 'मयूर पंखों से लगाव तो मुझे बचपन से ही था। हुआ यह कि सदलगा से 4-5 कि.मी. पर एक बेड़किया-फाटा ग्राम में एक मुनिराज की समाधि हुई। हजारों व्यक्ति आसपास के ग्रामों से पहुँचे। हम भी देखने गए। उस समय हमारी उम्र 10-11 वर्ष की होगी। मुनिराज की जो पिच्छी थी उसको तोड़कर उनकी चिता में, साथ-साथ जला देने की परंपरा दक्षिण भारत में है। वह पिच्छी तोड़ी गई, उसके कुछ पंख जमीन पर गिर गए। किसी ने पंख नहीं उठाए, पर हमने सबकी नजरों से बचकर धीरे से 4-6 पंख उठा लिए, इसलिए कि इनको पुस्तक में रखने से विद्या आएगी। इसी भावना से उन पंखों को बहुत दिनों तक पाठय पुस्तकों में सुरक्षित रखता रहा।
बालक विद्याधर के बचपन के संस्कार विद्या ग्रहण करने के थे, वे विद्या की उपासना में निरत रहते थे। विद्यार्थी जीवन में विद्या के प्रति उनका अधिक लगाव था, उसी का परिणाम है कि विद्या के सागर बन करके आज आत्म कल्याण के साथ-साथ भटके अटके हुए संसारी भव्य जीवों के लिए दिशा-बोध देकर अविद्या को दूर कर रहे हैं और सन्मार्ग पर लगा रहे हैं।