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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • श्रम से श्रमणत्व मिला है

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    श्रमण संसार के परिभ्रमण को मिटाने के लिए सदा प्रयत्नशील रहता है, इसके लिए सदा श्रम करता रहता है। वह केवल शारीरिक श्रम नहीं करता। वह तो मोक्ष मंजिल को पाने के लिए शारीरिक, मानसिक श्रम करता हुआ एवं वचनों से प्रभु का गुरु का गुणगान करता हुआ, मोक्षमार्ग पर चलता है। मार्ग में बहुत-सी बाधाएँ आती हैं, उनको पार कर मंजिल की ओर बढ़ने वाला ही सही श्रमणत्व को मनसा-वाचा-कर्मणा चरितार्थ करता है। उपसर्गों का हर्षपूर्वक सामना करता है और अपने कदमों को निरंतर आगे बढ़ाता जाता है एवं बाधाओं को साधन मान साधना-बल से स्वयं आगे बढ़ता चलता है। परम पूज्य आचार्य गुरुदेव का जीवन भी ऐसे ही श्रम साध्य साधक से प्रारंभ होता है। जिनका लक्ष्य श्रमण बनकर मोक्षमार्ग पर चलना था। उनके सामने अनेक बाधाएँ आई, लेकिन सबको सहन करके आज सच्चे श्रमण बने हैं और अपने साधना बल से बहुत से श्रमण बनाए हैं। उनके ब्रह्मचारी अवस्था का एक प्रसंग है।

     

    प्रसंग : परम पूज्य आचार्यश्री ने स्वयं 25 मार्च 1997 मंगलवार के दिन अपने ब्रह्मचारी काल का संस्मरण सुनाया था जब मैं ब्रह्मचारी विद्याधर के रूप में आचार्यश्री देशभूषणजी के संघ में था, संघ में रहकर साधुसेवा करता व परिचर्या भी। आचार्य संघ श्रवणबेलगोला गोमटेश्वर की ओर विहार कर रहा था। संघ में एक आर्यिका बुद्धिमति माताजी बहुत वृद्ध थीं, डोली में चलती थीं। हम ब्रह्मचारीगण डोली में कंधा लगाकर चलते, फिर सबकी वैयावृत्ति करते थे। संघ श्रवणबेलगोला से 50-60 किमी. दूर था। रात्रि में गर्मी बहुत थी। मैंने सभी साधुओं की सेवा करके चटाई उठाई, एक काली मिट्टी के खेत में बिछाकर सोने लगा। वहीं पर एक काला बिच्छू था, उसने डंक मार दिया। अब दर्द बहुत था, रात्रि में किसी को नहीं बताया। चुपचाप सहन करते णमोकार मंत्र जपते रहे। सुबह तक पैर पर सूजन आ गई, प्रात:काल आचार्यश्री देशभूषणजी ने देखा और पूछा- 'अरे! ब्रह्मचारीजी, आपका पैर कैसे सूजा है।'

     

    हमने पहले छुपाने की कोशिश की, लेकिन बाद में फिर सारी घटना सुना दी। आचार्य महाराज को आश्चर्य हुआ, काले बिच्छू ने काटा और इतना दर्द सहन करता रहा, किसी को नहीं बताया। आचार्य महाराज ने कहा- 'ब्रह्मचारीजी। अब तुम डोली में कंधा नहीं लगाना पैर में दर्द है।' हमने कहा 'नहीं महाराजजी! अब तो ठीक हो गया। मैं माताजी की डोली लेकर चलूँगा, आप चिंता नहीं करें।'

     

    अग्नि में तपे हुए कुंदन के समान, शारीरिक श्रम करके श्रमणत्व की चाह रखने वाले ब्रह्मचारी विद्याधरजी, तपाग्नि में तपकर अब 'विद्या का सागर' बन चुके हैं। भगवान महावीर के मार्ग पर चलकर उनके लघुनंदन हो चुके हैं। समता के साथ सारे शारीरिक व मानसिक दुखों को सहन करते हैं। मोक्षमार्ग पर चल रहे हैं। अनेक भव्यात्माओं को अपना-सा बना रहे हैं। धन्य हैं श्रम-साधना कर वे सबके मध्य महाश्रमण हो चुके हैं। 

    चलना तो शुरू करो रास्ते मिल जायेंगा |

    देर सही, दूर सही, मंजिल तक लायेगे ||

    पर्वतो की ऊचाई को बनाया लक्ष्य जब |

    गिर - गिर कर संभले बिना शिखर कैसे पायेंगे ||


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