सत्संगति आदमी की जड़ता को समाप्त कर उसके उज्जवल भविष्य का निर्माण करती है। जब तक जड़ता है तब तक सही दिशा प्राप्त नहीं हो सकती है। यदि आदमी सत्संगति में रहकर संतों की चर्या मात्र को देख लेता है तो उसमें उसे बहुत कुछ शिक्षा मिल सकती है। उनकी सेवा-परिचय करने से अनुभूत शिक्षा मिलती है। आचार्यश्रीजी ऐसे सधे हुए साधक हैं, जिनका प्रत्येक क्षण का समागम हर साधक के लिए नई दिशा प्रदान करने वाला होता है।
प्रसंग : बात 20 फरवरी 1998 शुक्रवार की है। छिंदवाड़ा के पास खूनाजेर ग्राम में आहार चर्या हुई। शाम को छिंदवाड़ा पहुँचना था। दोपहर की सामायिक के बाद आचार्यश्री की वैय्यावृत्ति हम दो मुनिगण कर रहे थे। तब चर्चा चली कि 10-11 दिन पूर्व दीक्षित हुए एक महाराज के आहार के समय हाथ की अंजली से पानी बहुत गिरता है। वे क्षुल्लक से सीधे मुनि बने थे। इस पर हमने आचार्यश्री से पूछा- 'आप तो ब्रह्मचारी से सीधे मुनि बने थे। आपके हाथ अंजलि से पानी नहीं गिरता था?"
आचार्यश्री बोले- 'नहीं, जैसे मैं आज आहार करता हूँ जितना पानी आज गिरता है, उतना ही पहले दिन गिरा था।'
हमने पूछ- 'इसमें कारण कुछ तो होना चाहिए?’
आचार्यश्री बोले- 'इसमें कारण है।'
हमने पूछ- 'क्या कारण है?"
आचार्यश्री- जो महाराजों को आहार कराने जाता है, आहार कराता है वह देखता रहता है। उसे उसका ज्ञान हो जाता है।'
हमने पूछा 'तो क्या आप आचार्यश्री ज्ञानसागरजी के आहार कराने जाते थे?'
आचार्यश्री - 'हम ब्रह्मचारी अवस्था में महाराज (ज्ञानसागरजी) के आहार कराने जाते थे, पूरे डेढ़ वर्ष तक आहार कराने गए और मुनि बनने के बाद भी जाया करते थे।"
हमने कहा- 'तभी आपकी अंजलि बहुत अच्छी बनती है।' आचार्यश्री कुछ समय तक मौन बैठे रहे, कुछ देर बाद बोले। 'अब तो हमारी वैय्यावृत्ति छूट गई भैया, आप लोगों को सदा वैय्यावृत्ति करके लाभ लेना चाहिए, ये अंतरंग तप है। इससे बहुत लाभ होता है। पुण्य का संचय होता है, कर्मों की निर्जरा होती है।'
हमने कहा - 'महाराज जी ! आप ये क्यों कह रहे हैं कि हमारी वैय्यावृत्ति छूट गई। आप तो इतने बड़े संघ का संचालन कर रहे हैं, हम सभी साधकों को उचित मार्गदर्शन दे रहे हैं। हम सभी लोग आपके कुशल मार्गदर्शन में चल रहे हैं, यह क्या छोटा काम है? यह तो आपके द्वारा सबसे बड़ी वैय्यावृत्ति है। यदि आपने सही मार्ग नहीं बताया होता तो हम सभी लोग संसार के गर्त में पड़े होते? आपने तो हम लोगों को गर्त से निकल लिया। यह आपके द्वारा सबसे बड़ी वैय्यावृत्ति है। इस उपकार का ऋण तो हम लोग भवभव तक नहीं चुका सकते हैं।"
आचार्यश्री - 'यह तो ठीक है, पर गुरु महाराज की सेवा तो छूट गई. (और हँसने लगे)।'
जब - जब छूने आई समीर, महक गई, बिसरे पीर |
नीर धिसा चंदन के रांग, चंदन-चंदन हो गया नीर ||
संत्सागति जल - चंदन की वैसे संगीत गुरु जन की |
निर्मल शिष्यों नित - नित वंदन की ||