संतोष तृष्णा का नाशक भाव है। संतोष ही सफलता का मंत्र है। इसलिए कहा जाता है कि 'धीरज का फल मीठा होता है'। स्वभावत: धीरज की चाल धीमी होती है। इससे भागदौड़ समाप्त हो जाती है। इसलिए बहुत-सा समेटने की अपेक्षा जितना है, उतने में ही संतोष धारण करना चाहिए क्योंकि इस संतोष गुण से आकुलता जीर्ण-शीर्ण पड़ जाती है और क्षोभ भी क्षमा के रूप में परिणत हो जाता है क्योंकि एक गुण अनेक गुणों का जनक होता है। जैन दर्शन गुणों का उपासक है, व्यक्ति या धन-सम्पत्ति का उपासक नहीं। जब व्यक्ति गुण ग्रहण के भावों को आत्मसात करता चला जाता है तो स्वयं गुणवान होकर एक दिन पूज्य बन जाता है।
जब भी बालक विद्याधर के घर पर मुनिराज का आहार होता था, तब उनका एक ही काम था कि बच्चों को अंदर नहीं जाने देना, कुत्ता-बिल्ली-गाय-बकरी आदि को भगाना और स्वयं खिड़की में बैठकर मुनिराज के आहार देखना। अन्तराय न आ जाए इसलिए बाहर देखना। बैठे-बैठे मन में सोचते, जितना कार्य मिला है, उसे अच्छे से करना। इतने में ही संतोष रखना यह भी दाता के सात गुणों में से एक संतोष गुण है। मुनिराज का निरन्तराय आहार हो, किसी प्रकार की बाधा नहीं आए, इस प्रकार सोचते। इस प्रकार के कार्य में ही आनंद मानते थे। इस प्रकार विद्याधर तो साधुओं के आहारदान दाता बचपन से ही थे। इसी का परिणाम वो स्वयं पात्र बन गए और सर्वोत्कृष्ट पात्र बने। यह सब बचपन के संतोष गुण का परिणाम है जो हमारे महान आचार्य का मूर्त रूप दिख रहा है।
धीरज घर संतोष घर, लक्ष्य प्राप्ति का ध्येय |
संयम का पालन करे, आत्मय पा लेय ||