एक बार पुनः आई स्वर्ण कलश के समक्ष आत्म ग्लानि की बात। चिन्ता से घिरा स्वर्ण कलश इसे कलिकाल का प्रभाव ही कहता है जो, यह लोक बहुमूल्य वस्तुओं को छोड़, काँच कचरे का सम्मान कर रहा है। अब लोहे से लोहा लो। मलयाचल चन्दन, सुगन्धित घी, रोगन तेल की मालिश करने की जगह माटी का लेप करना बुद्धि की अल्पता ही है। भोजन में भी दरिद्रता को निमंत्रण देना ही रोग का मूल कारण है। आय-व्यय की समीचीन व्यवस्था तथा मूच्छित सर्प समान बना स्वर्ण कलश। कलशियों पर पड़ी कुम्भ की छाया देख कुम्भ ने कहा-रे कलशी तुम अब कहाँ रही कल सी ? भीतर से उबलते स्वर्ण कलश ने किया आतंकवाद को आमन्त्रित।