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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • 34. सार्थकता : सन्त समागम की

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    सानन्द आहारदान सम्पन्न हुआ सो कुम्भ के साथ ही पूरा परिवार अत्यधिक हर्ष में डूबा हुआ है। सब एक साथ भोजन को बैठे हुए हैं किन्तु सेठ जी के गौर वर्ण वाले मुख पर उदासी देख कर कुम्भ ने कहा -

     

    "सन्त-समागम की यही तो सार्थकता है

    संसार का अन्त दिखने लगता है,

    समागम करने वाला भले ही

    तुरन्त सन्त-संयत

    बने या न बने

    इसमें कोई नियम नहीं है,

    किन्तु वह

    सन्तोषी अवश्य बनता है

    सही दिशा का प्रसाद ही

    सही दशा का प्रासाद है ।" (पृ. 352)

     

    साधु संगति की यही सफलता है कि संगति करने वाला साधु बने अथवा न बने नियामक नहीं, किन्तु उनके मन में संतोष अवश्य पैदा हो जाता है वह संतोषी बन शान्ति, तृप्ति का अनुभव करने लगता है और सही दिशा के रूप में यह जो संतोष रूपी प्रसाद मिला है, यही जीवन को सही दशा यानि सिद्ध दशा रूपी भवन में बदलने का कारण बनता है।

     

    जो स्वस्थ होना चाहता है, चिकित्सकों से सही निदान समझ औषध का सेवन करने वाला, विषय-भोगी नहीं हो सकता, क्योंकि रोग का कारण भोग ही तो है। औषध रोग का शोधन करती है किन्तु निरोगता का सही कारण तो सही निदान यानि रोग की सही-सही पहचान है। यदि सही रोग पकड़ में न आवे तो कितनी भी औषध दी जाए स्वास्थ्य लाभ नहीं हो सकता। और आगे कुम्भ ने क्या कहा? सो सुनो-जैसे वृद्धावस्था में आभूषणों की बात तो दूर, हल्का-फुल्का मलमल भी भारी लगने लगता है, उसी प्रकार वैराग्य की दशा में वनवासी हो या गृहस्थ दोनों को स्वागत-सम्मान-आभार प्रदर्शन भी भार जैसा लगने लगता है।

     

    सन्तों से सुनी कुछ पंक्तियाँ भी प्रासंगिक लगती हैं- आकाश का प्यार कभी पृथ्वी से नहीं हो सकता, काम-वासना का प्यार बुढ़ापे से नहीं हो सकता। सज्जन कभी सुरापान नहीं करता, विधवा को श्रृंगार अच्छा नहीं लगता और संसार से विपरीत चाल विरलों की होती है सो वैरागी को राग-रंग अच्छा नहीं लग सकता।

     

    वैराग्य से भरे सेठ को, ये पंक्तियाँ सुन साक्षात् साधुता का रस आने लगा। दुख रूपी क्षार से भरे इस खारे संसार में सारभूत सुख मिलेगा इसकी भी आशा नहीं रही। सारभूत मोक्ष सुख का स्रोत क्या है, यह सब अब ज्ञात हो चुका है। अहो भाग्य! धन्य! ऐसा लगता है। कुम्भ का जीवन भी संत के समान बन चुका है और कुम्भ का पूर्ण समर्पण भी संत के प्रति आभार व्यक्त करता-सा प्रतीत होता है। इस पर यह लेखनी भी कुछ पंक्तियाँ देती है -

     

    "गम से यदि भीति हो

    तो................सुनो!

    श्रम से प्रीति करो और

    अहं से यदि प्रीति हो

    तो .............सुनो !

    चरम से भीति धरो

    शम धरो

    सम वरो!" (पृ. 355)

     

    यदि दुखों से भयभीत हों तो सुनो-मेहनत से प्रेम करो अर्थात् आत्मोपलब्धि हेतु पुरुषार्थ करो। यदि निज को उपलब्ध करने की चाह, श्रद्धा मन में पैदा हुई हो तो सुनो - शरीर के स्वभाव को जान वैराग्य धारण करो, शरीर से डरो । कषायों को दबाओ, शमन करो और जीवन में समता परिणाम धारण करो।

     

    सिद्ध मन्त्र की सामर्थ्य से शरीर में फैला हुआ विष जैसे दूर हो जाता है, उसी प्रकार लेखनी की बात सुन सेठ की आकुलता दूर हुई। और सेठ ने कहा कि इस पक्ष में प्रभु-पूजन को छोड़कर शेष कार्यों में माटी के ही पात्रों का उपयोग होगा। इतना कहकर सेठ रजत आसन से उतरकर लकड़ी के आसन पर बैठ गया सो परिवार ने भी कहा-हमारी भी यही भावना है। परिवार की इस तरह से परिवर्तित परिणति देख स्वर्ण की थालियाँ, कलशियाँ, चाँदी के लोटे-प्याले, कटोरे, थालियाँ, स्फटिक मणी की झारियाँ और चमचम चमकने वाली चमचियाँ यह सब क्या हो रहा है? यूँ सोचते हुए सभी आश्चर्यचकित हो गये।

     

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