यह बात सही है कि पुरुष भोक्ता, भोगने वाला होता है तो प्रकृति भोग्या, भोगने योग्य। भोक्ता पुरुष जो श्रमी (श्रम करने वाला) है, आश्रय, सहारे की इच्छा रखता है, ऐसे भोक्ता को प्रकृति सहयोग प्रदान करती है जैसे-भोक्ता यदि रस का स्वाद लेना चाहता है तो लार के बहाने रसना उस रस को और सरस बना देती है। भोक्ता यदि देखना चाहता है तो प्रमाद से रहित पलकें (प्रकृति रूपी) अपने कर्तव्य में लीन हो, आँखों की बाधाओं को दूर कर सहलाती (झपकती) हुई दृष्टा पुरुष को दृश्य अवलोकन में सहयोग प्रदान करती है। यदि पुरुष योग-साधना में लीन होना चाहता है तो भी प्रकृति साधना की चरम सीमा तक उसका साथ देती है, स्वाश्रित रहकर सबका हित चाहती हुई।
यह कहना भी गलत नहीं होगा कि पुरुष में जो कुछ भी क्रियायें-प्रतिक्रियायें, हलन-चलन, स्पन्दन आदि होता है, उसका व्यक्तिकरण, पुरुष के जीवन का अस्तित्त्व प्रकृति (पुद्गल) पर ही आधारित है। प्रकृति का अर्थ नारी भी है, जैसे नाड़ी के बिना अर्थात् रुकने पर पुरुष का जीवन ही समाप्त हो जाता है, उसी प्रकार प्रकृति के बिना संसारी पुरुष नहीं रह सकता।
यह भी जानना होगा कि प्रकृति में वासना का वास नहीं है यानि प्रकृति कभी विकार से युक्त नहीं होती अपितु सुरभि यानि परहित की सुगंध ही उसमें पलती है। अनेक प्रकार के विकार ( भीतरी कर्मोदय एवं बाहरी वासना उत्पत्ति के बाह्यकारण ) की अवस्था में जब पुरुष विषय-वासनाओं का दास बना, उसे पूर्ण करना चाहता है तब प्रकृति की छाँव में आँख बंद कर बैठ जाता है, थके हुए राहगीर की भाँति और यह आवश्यक भी होता है पुरुष के लिए।
जो स्व यानि अपने आप में स्थित है ऐसे स्वस्थ्य पुरुष के लिए नहीं किन्तु जिसे पर पदार्थ को ग्रहण करने की चाह सता रही है, ऐसे प्यासे पुरुष को इमली ही नहीं इमली के नाम से ही मुख में पानी आ जाता है यह तो स्वभाविक है किन्तु यह आश्चर्य है कि भोक्ता के मुख में जाकर भी इमली के मुख में पानी नहीं आता, ऐसी दशा में प्रकृति भी पुरुष में लीन-सी लगती है।
जो युगों-युगों से विषय-वासना के वशीभूत होता आया है, ऐसे पुरुष का यही तो पागलपन, मूर्खपना है। प्रकृति का युगों-युगों से दूसरों के आधीन हुए बिना, अपने स्वभाव को जानते हुए, पुरुष को भी स्व-वश होने के लिए प्रेरित करना ही प्रकृति का पावनपन है। संसार के उस पार मुक्ति को देने वाला पुरुष खिलाड़ी है, जो प्रकृति को खिलौना बनाता है किन्तु स्वयं को खिलौना बनाने वाला विशेष पुरुष ही परमात्मा बनता है। किन्तु यह कोई साधारण कार्य नहीं है, मोही प्राणी पुरुष और प्रकृति के खेल को संसार मानता है सो अज्ञान ही है।