परिवार के मुख से कला सम्बन्धी व्याख्या सुनकर चिकित्सक दल भी सावधान हुआ। जिसे देखकर परिवार भी प्रासंगिक वार्ता में पर्याप्त परिवर्तन लाकर कुछ कहना चाहता है कि - बीच में ही सब वार्ता को सुनने वाला कुम्भ बोल पड़ा-जहाँ तक पथ्य की बात है सो सभी चिकित्सा ग्रन्थों का एक ही मत है, वह यह कि यदि-
"पथ्य का सही पालन हो....तो
औषध की आवश्यकता ही नहीं,
और यदि
पथ्य का पालन नहीं हो... तो भी
औषध की आवश्यकता नहीं।" (पृ. 397)
यदि प्रकृति के अनुकूल आहार लिया जावे, गमनागमन किया जावे तो औषध की आवश्यकता ही नहीं है और यदि प्रकृति के प्रतिकूल आहार-विहार किया जावे तो भी औषध की आवश्यकता नहीं क्योंकि जो प्रकृति के विरुद्ध चलेगा वह कितनी भी औषध ले ले उसे निरोगता का लाभ नहीं हो सकता।
फिर भी यदि औषध की बात सुनना चाहते हो तो सुनो-तात्कालिक शारीरिक ही नहीं, अनादिकालीन चेतनगत रोग (अज्ञान रूपी) जो जन्म, वृद्धावस्था और मरण रूप है वह भी नष्ट हो जाता है क्षण मात्र में । श, स और ष ये तीन बीजाक्षर हैं, आरोग्य का विशाल वृक्ष इनसे ही फलता-फूलता है। इनके उच्चारण के समय पूरी शक्ति लगाकर श्वांस को भीतर ग्रहण करना है और नासिका से ओंकार ध्वनि के रूप में बाहर निकालना है।
शकार त्रय स्वयं ही अपना परिचय दे रहे हैं। श-कषाय का शमन करने वाला, शंकर यानि शाश्वत सुख-शान्ति का प्रतीक है, शाश्वत शान्ति को देने वाला है। स-समता को निरन्तर झराता है, जो कि संसार दुख से विपरीत, सहज सुख का साधन है, पूर्णता यानि केवलज्ञान को देने वाला आत्मा का सच्चा साथी और ष का खेल विचित्र ही है, संसार के कारणभूत पाप और पुण्य के पेट को फाड़ता है। पुण्य-पाप रूप संसार भ्रमण को दूर कर कर्मातीत-सिद्धावस्था दिलाता है यह हुआ भीतरी आयाम अब बाहरी भी सुनो....
भूत, भविष्य, भाव, प्रभाव, भवना (होना), सम्भावना, भावनी, भूधर, भूचर, भूख, भूमिका, भव, वैभव और स्वयम्भू इन सबकी उत्पत्ति ‘भू' शब्द से ही होती है। ‘भू' इन सबकी माँ है, तीन काल में, तीनों लोक में जहाँ कहीं भी देखो भू की ही महिमा व्याप्त है कोशकारों ने भू को ‘सत्ता' भी कहा है और सत्ता ‘भू' का पना, भाव माटी है और तभी तो यह सूक्ति कही जा रही है-
"माटी, पानी और हवा।
सौ रोगों की एक दवा !"(पृ. 399)
सौ रोगों को दूर करने का एक ही अचूक उपाय है कि मिट्टी, पानी और हवा का समुचित उपयोग किया जावे, अतः सेठ जी की निरोगता हेतु मिट्टी का उपचार किया जावे, यह उपचार स्वाधीन है और मितव्ययी भी इसका कोई विपरीत प्रभाव भी तन-मन पर नहीं पड़ता।
कुम्भ की बात को सबने स्वीकृति दी, सो छनी हुई कुंकुम समान मृदु माटी में मात्रानुकूल ठंडा जल मिला-मिलाकर रौंद-रौंद कर लौंदा बनाया गया फिर एक टोप बनाकर मूर्च्छा के प्रतिकार हेतु सेठ जी के सिर पर चढ़ाया गया। टोप चढ़ाते ही जैसे लोहे का तप्त पिंड जल को सोखता है, उसी भाँति टोप भी मस्तक में व्याप्त उष्णता को पीने लगा। ज्यों-ज्यों उष्णता कम होती गई त्यों-त्यों सेठ जी की मूर्च्छा भी टूटती गई, जागृति आई, होंठ हिलने लगे सो ओंकार का उच्चारण स्पष्ट होने लगा। वैसे तो त्रिभुवनजेता, त्रिभुवन-पालक ओंकार का स्मरण भीतर ही भीतर चल ही रहा था, जो सुदीर्घकालीन साधना का फल है।
1. पथ्य - जो स्वास्थ्य के लिए अनुकूल हो।